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[ ० मुली
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शात् । न चैवं गोदर्शनकाल एवाश्वविकल्पानुभवात् तयोरप्येकदाभ्युपगमः स्यात्, अनुभवस्य प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात् एवं च तवापि * 'जुगवं दो णत्थि उनओगा' इति वचनव्याघात इति वाच्यम् उक्तच चनस्य समान सविकल्पद्वययौगपद्यनिषेधपरत्वात् इन्द्रिय मनोज्ञानयोरेकदाप्युपपत्तेः' इति सम्मनिटीकाकारः । मिन्नेन्द्रियज्ञानयोगपद्यं तु बाधकात् त्यज्यते । प्रकृते च नैकोपयोगानुभये किञ्चिद् बाधकं पश्यामः । न घोत्तरक्षणवर्तिविभुविशेषगुणानां स्वपूर्ववृत्तियाग्यविभुविशेषगुणनाशकतया प्रदीर्घाध्यवसायस्य वाधः सुषुप्तिप्रात्रकालीनज्ञानादेवि सर्वस्यैवोरक्षण वृत्तित्व विशिष्टस्य स्वनाशकत्वेन क्षणिकत्वप्रसङ्गात् स्वत्वस्य नानात्वेन विशिष्यैव नाशकत्वकल्पनाच्चेति । अन्यत्र विस्तरः ।
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इस प्रकार से वर्तमानकालिक रूप में प्रतीति होती है। किन्तु बर्तमानकाल क्षणों को लेने पर यह प्रतीति प्रत्यक्षात्मक नहीं हो सकती, क्योंकि क्षण का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, और वर्तमानकाल के रूप में मुहूर्तात्मक स्थूलकाल को लेने पर यह प्रतीति भ्रमात्मक होगी। क्योंकि इस प्रतीति का विषयभूतज्ञान मुहूर्त पर्यन्त कोई स्थिर नहीं रह सकता, कारण यह कि उन के मत में ज्ञान क्षणद्वयस्थायि होता है। यदि 'पश्यामि' इस प्रतीति को भ्रमरूपता का स्वीकार कर लेंगे तो धारावाहिक ज्ञानस्थल में जो ऐक्य की प्रत्यभिज्ञा होती है उसे सजातीय प्रभेदविषयक मानना पड़ेगा और यदि यह भी मान लेंगे तो घट घादि के क्षणिक होने पर मो उनकी वर्तमानता के भ्रमरूप प्रत्यय को एवं सजातीय प्रभेद विषयक मानकर उन की प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति भी की जा सकेगी। फलतः घटादि को भी स्थिरता सिद्ध न होने से नैयायिक का बौद्धसिद्धान्त में प्रवेश हो जायगा । अतः उक्त अनुभव [ मुहूर्तमात्र महमेक विकल्पपरिणत एवासम् ] की उपपत्ति के लिये क्रमिक ज्ञानों में एक बोधान्वय मानना श्रावश्यक होगा ।
[ 'एक साथ दो उपयोग नहीं होते' वचन के व्याघात की आशंका ]
यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि यदि उक्त अनुभव के अनुरोध से क्रमिक भिनाकार ज्ञानों को परिणामी बोधरूप में एक कालावस्थायी मानने पर जहाँ गोदर्शन यानी गो के निर्विकल्पक प्रत्यक्षकाल में ही पूर्वक्षणोत्पन्न प्रश्वविकल्प यानी श्रश्वविषयक विशिष्टप्रत्यक्ष का 'प्रश्वं पश्यामि' इस प्रकार अनुभव होता है वहां प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष विषय के समानकालिकत्व नियम के अनुरोध से गोदर्शन और अश्वविषयकविकल्प का एक ही काल में अस्तित्व मानना होगा क्योंकि गोवर्शनकाल में श्वविकल्प के अनुभव का प्रत्याख्यान नहीं किया जा सकता । तथा 'ऐसा मान लेने पर एक काल में दा उपयोग नहीं होते' इस जैन सिद्धान्तसूत वचन का व्याघात होगा। क्योंकि एक ही काल में दर्शनात्मक और विकल्पात्मक वो उपयोगों का एक काल में अस्तित्य उक्त अनुभव के अनुरोध से मान लेना पडता है" तो यह ठोक नहीं है क्योंकि सम्मति ग्रन्थ की टीका में अभयदेवसूरि का यह स्पष्ट कथन है कि एक काल में दो उपयोग नहीं होते इस वचन का तात्पर्य समान सविकल्पक वो उपयोगों के एककालीनत्व के निषेध में है, क्योंकि इन्द्रियजन्य उपयोग और मनोजन्यउपयोग दोनों को एक काल में मो अवस्थिति होती है। मिन इन्द्रिय से दो ज्ञानों का एककालीनत्व नहीं माना जाता, क्योंकि भित्र हन्त्रियों का ज्ञानार्जन में सह व्यापार बाधित होता है । अतः प्रकृत में प्रर्थात् श्रग्निज्ञान और धूमज्ञानमें एक उपयोग यानी एक बोधान्वयका अनुभव माननेमें कोई बाध नहीं है ।