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म्या० का टीका भौर हिन्दी-विवेचना ]
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[जाति के बिना बोजादि अवस्थामें 'तरुः प्रतोति होने की प्राशंका] यदि यह कहा जाय कि "प्रतीति के विषयों में एक जाति का स्वोकार न करने पर भी यदि उन विषयों की प्रतीति में तुल्याकारता मानी जायगी तो इस का अर्थ होगा तुल्याकार बुद्धि किसी निमित्त विना हो होती है। यदि उसका कोई निमित्त न होगा तब तहः' इत्याकारक प्रतीति वृक्ष को अपनी अवस्था में हो न होकर उसको बोसाइकुरावस्था में भी उस प्रतीति को प्रापत्ति होगी क्यों कि उसे किसी निमित्त की अपेक्षा है नहीं जिसके सद्भाव से वृक्ष की अवस्था में उस प्रतीति की उपपत्ति का और बोजादि की अवस्था में उस निमित्त के प्रभाव से उस प्रतीति की अनुपपत्ति का उपपादन किया जाय । अयथा जब वह निमित्त के विना होगी तो निमित्तहीन को उत्पति अप्रमाणिक होने से वृक्षावस्था में भी उसकी प्रसोति नहीं होगी, अतः उक्त प्रतीति को तरुत्वजातिनिमित्तक मान कर बोजादि अवस्था में तरुत्व का असम्बन्ध और वृक्षावस्था में तरुत्व का सम्बन्ध मान कर उन विभिन्न अवस्थामों में 'तरु:' इस प्रकार की प्रतीति की उत्पति और अनुत्पत्ति का समर्थन करना आवश्यक है। 'तरु' इस प्रतीति को व्यक्तिनिमित्तक मान कर आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता क्योंकि यदि वह प्रतीति व्यक्तिनिमित्तक होगी तो व्यक्तिरूपता आम्रादि वृक्ष और घटादि द्रक्ष्य में समान है अत: घटादि द्रव्य में भी तरुः' इस प्रकार की प्रतीति को प्रापत्ति होगो ।"-किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि 'ता:' इस प्रतीति के प्रति प्राम्र बकुलादि वृक्षों के प्रतिनियत व्यक्तियों को हो निमित्त मानने से उक्त प्रतिप्रसंग का परिहार हो सकता है।
(व्यक्तियों का प्रतिनियम जाति पर अवलम्बित नहीं है) 'पासबकुलादि व्यक्ति अनेक होने से उनका प्रतिनियमन दुघट होने के कारण उन्हें 'तरुः' इस प्रतीति का निमित्त मानना शश्य नहीं है-यह शंका नहीं की जा सकती, क्योंकि जातिवादी को मो प्रतिनियतजातियों को व्यञ्जक व्यक्तियों को मानना ही पड़ता है। इसलिये व्यक्तिों का प्रतिनियमन किसी न किसी निमित्त से करना हो होगा। अत: जिस निमित्त से अनेक व्यक्तियां प्रतिनियत होकर प्रतिनियतजाति की अभिव्यक्ति करेगो उसी निमित्त से प्रतिनियतव्यक्तियां ही तुल्याकार प्रतिनियत प्रतीति को भी उपपन्न कर सकती है, अतः प्रतीतियों की तुल्याकारता की उपपत्ति के लिये जाति की कल्पना अनावश्यक है। कहने का प्राशय यह है कि प्राम्र-बकुलादि विभिन्न वृक्षों में तरुत्व जाति को अभिव्यक्ति होती है किन्तु घटादि में नहीं होती है, वृक्ष की बोजादि अवस्था में भी नहीं होती है। अतः समस्त वृक्षों में जाति को अभिव्यक्ति और वृक्षभिन्न द्रव्यों में तरुत्व जाति की ग्रनमिव्यक्ति को उपपन्न करने के लिए बोअजन्य व्यरव रूप से सम्पूर्ण पक्षों का अनुगम कर उस निमित्त को ही सम्पूर्ण वृक्षों में तत्वजाति को अभिव्यक्ति का मानना आवश्यक होता है और फिर उस तत्व से 'ग्राम्र यकूलादि में तक: इस प्रतोति की तुल्याकारता का उपपादन होता है । विचार करने पर जातिवादियों की यह प्रक्रिया युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होतो, क्योंकि जो बोजजन्यद्रव्यत्व प्राम्रवृक्षादि में तय की अभिव्यक्ति का निमित्त होता है, उसी को उन वक्षों में 'तरु: तरः' इस तुल्याकार प्रतीति का सीधा कारण मान लेने पर मी प्रतीतियों की तुल्याकारता का उपपादन हो जाता है. प्रतः बीच में तरुत्व जाति की कल्पना का कोई प्रयोजन नहीं रहता।