Book Title: Nitishastra
Author(s): Shanti Joshi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिशास्त्र शांति जोशी For Personal & Private Use Only -, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिशास्त्र (संक्षिप्त संस्करण) शांति जोशी राजकमल प्रकारान नयी दिल्ली पटना For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य : रु० १२.५० © शांति जोशी, इलाहाबाद, १९६३ प्रथम संक्षिप्त संस्करण : १९६६ द्वितीय संस्करण : १९७६ प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड : ८, नेताजी सुभाष मार्ग, नयी दिल्ली-११०००२ 'मुद्रक : शान प्रिन्टर्स, शाहदरा, दिल्ली-११००३२ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य पिता श्री मथुरादत्तजी जोशी सादर समर्पित For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना विश्वविद्यालयों, विशेषकर इलाहाबाद, गोरखपुर तथा प्रागरा, के बी०ए० के विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए नीतिशास्त्र के इस संक्षिप्त परिवर्धित संस्करण को प्रस्तुत करने में मुझे प्रसन्नता है । दर्शन विभाग, प्रयाग विश्वविद्यालय अक्टूबर १९७७ For Personal & Private Use Only शांति जोशी * Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका प्रथम भाग सामान्य परिचय अध्याय १: नैतिक समस्या १८-३१ विषय-प्रवेश : नीतिशास्त्र की उत्पत्ति : शब्द-विज्ञान के अनुसार नीतिशास्त्र की परिभाषा : मूलगत नैतिक प्रत्यय ; उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ का स्पष्टीकरण : परम शुभ का अभिप्राय : परम शुभ का स्वरूप : नीतिशास्त्र का विषय और क्षेत्र : नीतिशास्त्र की उपयोगिता-उसके पक्ष का समर्थन तथा उसके विरुद्ध अपवादों का खण्डन : वह निर्माणात्मक है : नीतिशास्त्र के दो रूपनिर्माणात्मक तथा आलोचनात्मक : उसका ध्येय वैयक्तिक नहीं सर्वकल्याणकारी है : विवेकसम्मत धर्म : वास्तविक और उपयोगी। अध्याय २ : नीतिशास्त्र और विज्ञान ३२-४३ विज्ञान का अर्थ : विज्ञान के दो वर्ग : नीतिशास्त्र एवं नीतिविज्ञान : नीतिशास्त्र और यथार्थ-विज्ञान में स्पष्ट भेद : तत्त्वदर्शन से सामीप्य : नैतिक अभिधारणाएँ-संकल्प-स्वातन्त्र्य, प्रात्मा की अमरता, ईश्वर का अस्तित्व : आचरण कला की सम्भावना : व्यावहारिक दर्शन : सिद्धान्त और व्यवहार का ऐक्य । । अध्याय ३ : नीतिशास्त्र की प्रणालियाँ ४४-५० नीतिशास्त्र की प्रणालियाँ : दार्शनिक और वैज्ञानिक विधि में भेद : For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैज्ञानिक विधि : अमनोवैज्ञानिक विधि : मनोवैज्ञानिक विधि : दार्शनिक विधि : आलोचना - नैतिक विधि की ओर : नीतिशास्त्र में दोनों प्रणालियाँ परस्पर निर्भर : नैतिक प्रणाली — समन्वयात्मक | अध्याय ४ : नीतिशास्त्र और अन्य विज्ञान ५१-६० नीतिशास्त्र का अन्य शास्त्रों से सम्बन्ध : समाजशास्त्र : राजनीति : ईश्वरविद्या : तत्त्वदर्शन | अध्याय ५ : नीतिशास्त्र का मनोवैज्ञानिक आधार तथा नैतिक निर्णय का विषय ६१-७४ मनोवैज्ञानिक ज्ञान की आवश्यकता : मनोविज्ञान से सम्बन्ध : नैतिक निर्णय का विषय - श्राचरण : दो प्रकार के कर्म – इच्छित और अनिच्छित : अभ्यासगत कर्म भी इच्छित हैं : श्राचरण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण - पशु और मनुष्य के कर्मों में भेद : निर्णीत कर्म के निर्माणात्मक अंग : इच्छा का महत्त्व : नैतिक कर्म की समस्या : श्राचरण के दो रूप -- बाह्य और आन्तरिक : प्रेरणा : उद्देश्य : प्रेरणा और परिणाम के विवाद का निष्कर्ष । श्रध्याय ६ : नैतिक प्रत्यय ७५-८६ कर्तव्य, अधिकार - सामान्य अर्थ : नैतिक अर्थ : कर्तव्य और नैतिक बाध्यता : कर्तव्य की पूर्ण और अपूर्ण बाध्यता : कर्तव्य और सद्गुणदुर्गुण : सद्गुण - परम्परागत और विवेक सम्मत पाप और पुण्य : संकल्प-स्वातन्त्र्य और उत्तरदायित्व : नैतिकता की तीन मूलभूत श्रावश्यकताएँ - संकल्प की स्वतन्त्रता, आत्मा की अमरता तथा ईश्वर का अस्तित्व । श्रध्याय ७ : संकल्पशक्ति की स्वतन्त्रता ८७-६७ - स्वतन्त्र संकल्पशक्ति - आवश्यक नैतिक मान्यता : नियतिवाद : अनियतिवाद : विवाद का मूल प्रेरणा : एकांगी दृष्टिकोणों का परिणाम - नैतिकता अर्थशून्यः श्रात्मम निर्णीत कर्म : नियतिवाद और नियतिवाद | [ ६ ] For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भाग नैतिक सिद्धान्त अध्याय ८ : नियम विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड । १००-११४ विषय-प्रवेश : नियम और ध्येय की समस्या : यह समस्या मिथ्या है : नैतिक आदेश बाह्य आदेश एवं नियम अथवा बाह्य विधान के रूप में प्रकट हया-प्राकृतिक और दैवी शक्ति : ऐतिहासिक स्पष्टीकरण --- अस्थिर जीवन : स्थिर जीवन; नियमों का जन्मदाताप्रचलित नैतिकता : उसके विभिन्न रूप : प्रचलित नैतिकता का मानव-जाति चेतना : राज्यसत्ता तथा ईश्वरीय नियम : प्रचलित नैतिकता की दुर्बलताएँ-अबौद्धिक और विवेकशून्य आचरण : अनैतिक नियम : कमियों को दूर करने का प्रयास : बौद्धिक जागरण : आन्तरिक नियम एवं आन्तरिक विधान का बोध : अन्तर्बोध की स्थिति : प्रान्तरिक नियम की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ : नैतिक नियम का स्वरूप-अान्तरिक होते हुए भी वस्तुगत और सार्वभौम : ध्येय की धारणा उन्हें सार्वभौमिक प्रामाणिकता देती है। प्रध्याय ६ : सामान्य निरीक्षण ११५-१२१ (क) विभिन्न नैतिक सिद्धान्त नैतिक आदर्श : विवाद का केन्द्र-व्यक्ति का स्वभाव : भावनासुखवाद : बुद्धि-बुद्धिपरतावाद : विरोध की प्रगति-समन्वय की ओर : पूर्णतावाद । (ख) सुकरात · सोफिस्ट्स की आलोचना- शुभ वस्तुगत है : सद्गुण, ज्ञान, प्रानन्द __ एक ही हैं। (ग) उत्तर-सुकरात युग शुकरात का प्रभाव : सुकरात पन्थ : भिन्न शाखाएँ । अध्याय १० : सुखवाद १२२-१३३ भूमिकां। [७] For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन सुखवाद प्रथवा मनोवैज्ञानिक सुखवाद 110 स्वार्थ सुखवाद : स्थूल सुखवाद - सिरेनैक्स : जीवन का ध्येय -- तीव्र इन्द्रियसुख : सुख का स्वरूप - तात्कालिक, अनुभवगम्य, अधिक परिमाण : सुख कर्मों का एकमात्र प्रेरक : कर्मों के तत्कालीन परिणाम महत्त्वपूर्ण - शुभ, अशुभ के सूचक : सिद्धान्त में गोपन विरोध : संस्कृत सुखवाद - ऍपिक्यूरियनिज्म : ध्येय - सुख ; यही शुभ आचरण का मापदण्ड : उचित सुखों को अपनाने के लिए विवेकबुद्धि आवश्यक : सुख - दो प्रकार ; ऐन्द्रियक, बौद्धिक : बौद्धिक सुख की श्रेष्ठता - सिरेनैक्स से मतभेद : बौद्धिक सुख - शान्त सुख : प्रणुवाद - भय से मुक्ति : सद्गुण - अनिवार्य साधन : संस्कृत सुखवाद में कठिनाइयाँ : विलासिता से मुक्त नहीं । मनोवैज्ञानिक सुखवाद की आलोचना जड़वादी तत्त्वदर्शन - स्थूल सुखवाद : केवल इन्द्रियसुख - बुद्धि, इच्छा एक-दूसरे के पूरक हैं : असामाजिक, व्यावहारिक तथा अनैतिक : सुखवाद में विरोध : प्रभाव - बस्तुगत मापदण्ड, गुणात्मक भेद, प्रेरणा, कर्तव्य : मनोवैज्ञानिक भ्रान्ति - चयन के क्रियात्मक और हेत्वात्मक पक्ष : पशुधर्म : सुखवाद का मूल्य । श्रध्याय ११ : सुखवाद ( ( परिशेष ) अर्वाचीन सुखवाद प्राचीन सुखवाद से भिन्नता । नैतिक प्रदेश सुख और कर्तव्य में विरोध : समन्वय की ओर प्रयास - नैतिक आदेश का अर्थ | अर्वाचीन सुखवाद : नैतिक सुखवाद अर्वाचीन सुखवाद नैतिक है : दो प्रकार - स्वार्थ, परार्थं । १३४-१६४ स्वार्थ सुखवाद : हॉब्स जड़वाद, इन्द्रियसुखवादी मनोविज्ञान और नैतिक स्वार्थवाद का [ 5 ] For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय : मनुष्य का स्वभाव-स्वार्थी, आत्म-संरक्षण और सुख का इच्छुक : वैयक्तिक-सामाजिक सुख का प्रश्न : नैतिक आदेश-प्रावश्यक और उपयोगी : भ्रान्तिपूर्ण मनोविज्ञान : सिद्धान्त की विशिष्टता। परार्थ सुखवाद : उपयोगितावाद सामान्य परिचय : परार्थ सुखवाद के प्रमुख प्रवर्तक । बेन्थम सुख ही एकमात्र वांछनीय ध्येय-नैतिक-मनोवैज्ञानिक सुखवाद का समन्वय : स्वार्थ से परार्थ की ओर : उपयोगितावाद : नैतिक आदेश द्वारा सामूहिक सुख की प्राप्ति : प्रेरणा, परिणाम, उद्देश्य : परिमाण–सुखवादी गणना : व्यापकता : त्रुटियाँ-विशेषता। मिल उपयोगितावाद के प्रचारक के रूप में : मिल का उपयोगितावादउसकी विशिष्टता : नैतिक ध्येय-सुख; नैतिक-मनोवैज्ञानिक सुखवाद : नैतिक मापदण्ड -सामान्य सुख : तार्किक युक्ति द्वारा पुष्टि : मनोवैज्ञानिक प्रमाण-स्वार्थ से परमार्थ : आन्तरिक प्रादेश-सजातीय भावना : उपयोगितावाद-उच्च आदर्श का पोषक : सुख की क्रमिक व्यवस्था-गुणात्मक भेद : मिल की सफलता और असफलता। . नैतिक सुखवाद की आलोचना मनोवैज्ञानिक सुखवाद से अधिक व्यापक-दोहरी कठिनाई : स्वार्थ और परार्थ का विरोधपूर्ण सामंजस्य : नैतिक कर्तव्य तथा सद्गुण के लिए स्थान नहीं है : सुखवादी गणना असम्भव । अध्याय १२ : सुखवाद (परिशेष) १६५-१७६ ___ सहजज्ञानवादी उपयोगितावाद सिजविक : नैतिक सिद्धान्त का लक्ष्य : आलोचनात्मक पक्ष-सहजज्ञानवाद और सुखवाद का समन्वय : बौद्धिक उपयोगितावाददार्शनिक सहजज्ञानवाद : सुख ही परम शुभ है : सुख वितरण की समस्या-न्याय, प्रात्मप्रेम, परोपकारिता। [६] For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहजज्ञानवादी उपयोगितावाद के साथ सुखवाद की आलोचना सिविक के सिद्धान्त का मूल्य : स्वार्थ परमार्थ का अनमोल मिलाप : सुख और आनन्द | अध्याय १३ : विकासवादी सुखवाद : सामान्य परिचय १७७-२०३ विकास की प्राकृतिक और श्रादर्शवादी व्याख्या : नीतिशास्त्र को safar की देन : विचारकों द्वारा विकासवाद की व्याख्या | विकासवादी सुखवाद : विकासवादी नीतिज्ञ - स्पेंसर : विकास की धारणा का नीति में प्रवेश - नैतिकता विश्व - प्रकृति का अंग : शुभ-अशुभ और सुखदुःख के अर्थ सन्निकट ध्येय और परम ध्येय - नैतिक मापदण्ड : स्वार्थ और परमार्थ : नैतिक चेतना की उत्पत्ति : नैतिक नियम अनुभवनिरपेक्ष नहीं हैं : समाज की व्याख्या : सापेक्ष और निरपेक्ष नीतिशास्त्र | नैतिक ध्येय - स्वास्थ्य | अलेग्जेण्डर सामाजिक सन्तुलन : नैतिकता के क्षेत्र में प्राकृतिक चयन | लेस्ली स्टीफेन श्रालोचना नैतिकता का प्राकृतिक विज्ञान : इसे सुखवाद कहना भ्रान्तिपूर्ण है : अनावश्यक आशावाद : सामंजस्य : सामाजिक जीवरचना का रूपक सन्देहजनक है: सहजज्ञानवाद का विरोध - नैतिकता की उत्पत्ति : कर्तव्य की भावना; स्वार्थ- परमार्थ का प्रश्न : नैतिक कठिनाई | अध्याय १४ : बुद्धिपरतावाद सामान्य परिचय : दो रूप । प्राचीन उग्र बुद्धिपरतावाद : सिनिक्स श्रौर स्टोइक्स सद्गुण सुखवाद का खण्डन : सिनिक [ १० ] सिनिक्स : विद्वेषवाद : ध्येय : २०४-२१५ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन : आलोचनात्मक परीक्षण : सुकरात से थोथा साम्य : विश्वनागरिकतावाद स्वार्थवाद है : अभावात्मक पक्ष प्रमुख है : अनेक दुर्बलताओं से युक्त : वैराग्यवाद की प्रथम अभिव्यक्ति : स्टोइक्स : सद्गुण : व्यावहारिक नैतिकता : ज्ञान, सद्गुण, शुभ-अशुभ : भावहीनता की स्थिति : विश्व-नागरिकतावाद । पालोचना व्यक्तिवाद : जीवन की सारहीनता : कर्तव्य का सम्प्रदाय : सुख का स्थान : महानता। अध्याय १५ : बुद्धिपरतावाद (परिशेष) २१६-२३४ अर्वाचीन उग्र बुद्धिपरतावाद—काण्ट जीवन में नियमनिष्ठता का प्राधान्य : नैतिक अनुभव : मनुष्य स्वशासित है : स्वशासित जीवन में भावना के लिए स्थान नहीं है; सुखवाद अनैतिक है : नैतिक आदेश-निरपेक्ष आदेश : शुभ संकल्प : कर्तव्य और प्रवृत्ति : सद्गुण और आनन्द : नैतिक नियम रूपात्मक हैं : आचरण-विधियाँ । पालोचना नीतिवाक्य असन्तोषप्रद हैं : बाध नियम की सीमाएँ : भावना का नैतिक मूल्य : भ्रान्तिपूर्ण मनोविज्ञान : सिद्धान्त में अस्पष्टताभावनाएं आत्म-सन्तोष का अंग : नैतिक जीवन में कर्तव्य का अर्थ : वैराग्यवाद अपने-आपमें अपूर्ण : सुखवादी भूल : एकमात्र प्रेरणा को महत्त्व देना अनुचित है : काण्ट के कठोरतावाद का व्यावहारिक मूल्य : निरपेक्ष नैतिक आदेश का महत्त्व : इतिहास को बुद्धिपरतावाद की देन । अध्याय १६ : सहजज्ञानवाद २३५-२४५ सहजज्ञानवाद और अन्तर्बोध प्रवेश : सहजज्ञान का व्यापक अर्थ : प्रकृतिवाद तथा सहजज्ञानवाद का ऐतिहासिक विवाद। [११] For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्बोध का व्यापक प्रयोग अन्तर्बोध-उसका अर्थ : कानून : धर्म : सुखवाद : प्रचलित अर्थ : अन्तर्बोध की उपर्युक्त परिभाषाओं की सीमाएँ-सहजज्ञानवाद के अनुसार अन्तर्बोध का अर्थ।। अध्याय १७ : सहजज्ञानवाद (परिशेष) " (रसप) २४६-२६५ कुछ महत्त्वपूर्ण सहजज्ञानवादी बुद्धिवादी सहजज्ञानवाद-परिचय कडवर्थ नैतिक विभक्तियाँ शाश्वत हैं : प्लेटो का प्रभाव : वैज्ञानिक और . नैतिक सत्यों का सादृश्य : अन्तर्बोध और शुभ आचरण। : बुद्धिवादी सहजज्ञानवाद का पालोचनात्मक मूल्यांकन हॉब्स के स्वार्थवाद पर असफल आघात : शुभ का स्वरूप-अमूर्त : हॉब्सवाद के मुख्य भेद-निष्पक्षता का सिद्धान्त, व्यावहारिक और चिन्तन बुद्धि का क्षेत्र : गणित और पदार्थ विज्ञान के रूपक की सीमाएँ। नैतिक बोधवाद सामान्य परिचय : हॉब्स की आलोचना : बुद्धिवादी सहजज्ञानवादियों से भेद । नैतिक बोधवाद की आलोचना नैतिक बोध का हठपूर्वक समर्थन : महत्त्वपूर्ण देन । बटलर आन्तरिक और बाह्य निरीक्षण अन्तर्बोध के सर्वोच्च अधिकार की स्थापना करता है : धार्मिक मनोवृत्ति-समाज का आवयविक रूपक : मनुष्य का स्वभाव-सामाजिक : मानव-स्वभाव भी एक विधान है : विधान की धारणा--- सक्रिय प्रवृत्तियों का विधान : अन्तर्बोध तथा अन्य प्रवृत्तियाँ : अन्तर्बोध : अन्तर्बोध और स्वाभाविक : नैतिक बोध और अन्तर्बोध । [ १२ ] For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालोचना विधान की धारणा वैराग्यवाद की विरोधी : समन्वयात्मक सिद्धान्त -धर्म का प्राधान्य : परम स्वार्थवाद का मनोवैज्ञानिक खण्डन : अन्तर्बोध का अनिश्चित प्रयोग : अन्तर्बोध और.मात्मप्रेम के सम्बन्ध को समझाने में असफल : व्यक्तिवाद और उत्तरदायित्व : आधुनिक विचारधारा पर प्रभाव : उपयोगितावाद : अन्तर्बोध के आदेश की प्रामाणिकता। अध्याय १८ : पूर्णतावाद . २६६-२७७ आत्मा का स्वरूप : बुद्धि-भावना का योग : प्रात्मा और समाज : दोनों का सम्बन्ध अनन्य : स्वार्थ-परमार्थ का प्रश्न : पूर्णतावाद का परिचय । प्राचीन काल : प्लेटो और अरस्तू . बौद्धिक और अबौद्धिक प्रात्मा का प्रश्न : वस्तुगत शुभ की धारणा : मानवतावाद : सद्गुणों का स्वरूप : प्लेटो और अरस्तू की प्रणाली। अर्वाचीन पूर्णतावाद प्रवेश : नैतिक विकास का अर्थ : पूर्णतावाद और अन्य सिद्धान्त : विरोधों में सामंजस्य : कल्याणकारी मार्ग की ओर । अध्याय १६ : मूल्यवाद २७८-२६० प्रवेश : शुभ और मूल्य : मूल्यवाद तथा अन्य विचारक : मूल्य की समस्या : मूल्य का आर्थिक प्रयोग : मूल्य के दो रूप : अर्बन द्वारा मूल्यों का विश्लेषण : मूल्यों के विभिन्न स्तर : प्राभ्यन्तरिक शुभ वैयक्तिक भी है : मूल्यों का उत्तरोत्तर विकास-तुलनात्मक स्थिति : प्राभ्यन्तरिक मूल्य : शुभ, नैतिक शुभ और परम शुभ : शुभ और औचित्य-प्रात्मगत और वस्तुगत औचित्य : शुभ अशुभं से परे : मूल्यवाद का स्थान । For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग पाश्चात्य नीतिज्ञ : मार्क्स और नीत्से अध्याय २० : कार्ल मार्क्स २६३-३०५ जीवनी : हीगल की द्वन्द्वात्मक प्रणाली : द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद : मार्क्स और हीगल में भेद : ऐतिहासिक दृष्टान्त द्वारा स्पष्टीकरण : समाज का विश्लेषण-विरोधी वर्ग : सामाजिक नैतिकता वर्ग नैतिकता है : आर्थिक व्यवस्था विभिन्न विचारों की जन्मदात्री : नैतिक विचारों की प्रसत्यता का स्पष्टीकरण : नैतिक सापेक्षवाद : स्वतन्त्रता का अर्थ : साम्यवाद तथा साध्य और साधन की समस्या। पालोचना प्रार्थिक मूल्यांकन : साध्य-साधन का प्रश्न : प्रान्तरिक चेतना अनिवार्य : जीवन के दो पक्ष-ऊर्ध्व और समतल : व्यक्ति नगण्य : नैतिकता का अर्थ : विरोधाभास । अध्याय २१ : फ्रेडरिक नीत्से ३०६-३२२ जीवनी : सिद्धान्त का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण' : अतिमानव का सिद्धान्त : यूनानी सभ्यता का प्रभाव-समस्त मान्यताओं का पुनमल्यीकरण : ईसाई धर्म का खण्डन : उपयोगितावादी नैतिकता : सोद्देश्य नैतिकता-संकल्प स्वतन्त्र नहीं है : नंतिक सापेक्षता : शुभअशुभ की परिभाषाएँ -सुख-दुख का अर्थ : नीसे के सिद्धान्त का भावात्मक पक्ष-अतिमानव का सिद्धान्त, उसकी पुष्टि : प्रभुत्रों और दासों की नैतिकता। आलोचना मानवता के ध्वंस की ओर : श्रेष्ठता के नाम पर दानवता : असमानता अनैतिक है : तर्कहीन असंस्कृत सिद्धान्त । [ १४ ] For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय नीतिशास्त्र श्रध्याय २२ : चार पुरुषार्थ काम : अर्थ : धर्म : मोक्ष | अध्याय २३ : चार्वाक दर्शन ३२७-३३५. चार्वाक दर्शन एवं जड़वाद : उत्पत्ति-काल तथा ग्रन्थ : दो वर्ग : शुद्ध बुद्धिमय जीवन अथवा निःस्पृहतावाद की प्रतिक्रिया : धर्म की कटु आलोचना : जड़वादी दर्शन - प्रत्यक्ष पर प्राधारित : चार्वाक नैतिकता : परम ध्येय - काम : निःस्पृहता प्रवांछनीय | चतुर्थ भाग श्रालोचना. भोगवादी : अनैतिक : अन्तर्निहित सत्य : अमान्य और अवांछनीय दर्शन | मार्गनिर्देशन : फलासक्ति व्यक्ति नगण्य नहीं है । ३२५-३२६. श्रध्याय २४ : गीता ३३६-३४५ रचनाकाल और रचयिता : गीता की समन्वयात्मक दृष्टि: नैतिक मूल्य : कृष्ण तथा अर्जुन का व्यक्तित्व : नैतिक समस्या और उसका समाधान : कर्म, अकर्म का प्रश्न : कर्मयोग और कर्मसंन्यास : निष्काम कर्म – प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग का समन्वय : आत्म-शुद्धि और अर्पण-बुद्धि निष्काम कर्म के लिए अनिवार्य : वसुधैव कुटुम्बकम् - व्यक्ति और समाज : कर्मवाद - स्वतन्त्रता का प्रश्न । - श्रालोचना अनुचित : वैराग्यवाद को अस्वीकार : श्रध्याय २५ : गांधीजी ३४६-३५६ जीवनी : महत्त्वाकांक्षा - पृथ्वी पर रामराज्य की स्थापना : गांधी [ १५ ] For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन-सत्य की परिभाषा : सत्य का नैतिक स्वरूप : अहिंसा : सत्याग्रह : हिन्दू धर्म और अछूतोद्धार : शिक्षा : गांधीवाद और समाजवाद : पालोचना। अध्याय २६ : जैन नीतिशास्त्र शब्द-विज्ञान के अनुसार अर्थ : तीर्थंकर : अनीश्वरवाद : नीतिशास्त्र -जीव : बद्ध और मुक्त : आत्मा का स्वरूप तथा बन्धन : त्रिरत्न : पंच महाव्रत : नैतिक नियम-अान्तरिक । अध्याय २७ : बौद्ध नीतिशास्त्र ३६५-३७० जीवन : आर्य सत्य : तात्त्विक प्रश्नों के प्रति मौन : प्रथम आर्य सत्य : द्वितीय आर्य सत्य : तृतीय आर्य सत्य : दु:ख-निरोध का मार्ग । [ १६ ] For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग सामान्य परिचय For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नतिक समस्या विषय-प्रवेश-मनुष्य अन्य जीवधारियों से अधिक श्रेष्ठ-स्थिति में है। वह बौद्धिक और विवेकशील है। उसके कर्म स्वतन्त्र और स्वेच्छाकृत होते हैं। वह यह जानने का प्रयत्न करता है कि मानव गौरव के अनुरूप कर्म कौन से हैं। इस जिज्ञासा ने उसका ध्यान आवश्यक और कल्याणप्रद नियमों की ओर आकृष्ट किया। नैतिक प्राणी होने के कारण उचित-अनुचित की भावनाएँ उसके स्वाभाविक गुण हैं। उसमें कर्मों का समर्थन और विरोध करने की एक अबाध प्रवत्ति है । वह उनके प्रौचित्य-अनौचित्य के बारे में निर्णय देता है। अपने दैनिक जीवन के चिन्तन और वार्तालाप में वह अनेक प्रकार के निर्णय करता है-'वह दुष्ट है या सुजन है ? मुझे क्या करना चाहिए ? क्या मेरा कर्म अनचित था ? कर्तव्य और अधिकार के क्या अर्थ हैं ? शुभ और अशुभ का क्या अभिप्राय है ? जीवन का ध्येय क्या है ?' आदि। उसके मानस में उसके व्यक्तित्व के अनुरूप गुणों और अवगुणों की एक अनजानी परिभाषा रहती है। इस परिभाषा के अनुरूप ही उसका चिन्तनशील मानस उसके सम्मुख कुछ मान्यताएँ एवं आदर्श रखता है । अपने वातावरण, शिक्षा और वंशानुगत गुणों तथा जीवन सम्बन्धी अनुभवों के कारण वह अनायास ही मानने लगता है कि भठ बोलना, चोरी करना, शराब पीना, गाली देना आदि अनुचित कर्म हैं। वह अपने उन्नत स्वभाव के कारण स्वार्थ और असत्य का विरोध करता है। उसकी नैतिक चेतना यह जानना चाहती है कि उसकी धारणाएँ और विचार कहां तक ठीक हैं; वह इनका परीक्षण और स्पष्टीकरण करना चाहती है; बौद्धिक विश्लेषण द्वारा श्रेयस्कर कर्मों को अपनाना चाहती है। वह निःश्रेय १८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं परमश्रेय के स्वरूप को समझना चाहती है। - नीतिशास्त्र की उत्पत्ति-यदि इतिहास की ओर दृष्टि करें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि मनुष्य के मन में जब गम्भीर विचारों तथा विवेचनात्रों का उदय हुआ तो सर्वप्रथम उसका ध्यान बाह्य जगत की गुत्थियों को सुलझाने की ओर गया। कुछ काल पश्चात् ही उसने जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं को सुलझाने का प्रयास किया। उसके जीवन के ध्येय को जानना चाहा । यही प्रेरणा नीतिशास्त्र की जन्मदात्री है । इसी प्रेरणा के कारण वह परम्परागत भावनाओं, प्रचलनों और अभ्यासों को समझना चाहता है। प्रचलित मान्यताएं और आस्थाएँ जीवन की प्रगति में तथा मनुष्य को प्रात्म-सन्तोष देने में कहाँ तक सहायक होती हैं, उसकी बौद्धिक जिज्ञासा एवं नैतिक चेतना इस सत्य को निरन्तर खोजती है । नीतिशास्त्र, इस दृष्टि से, वह बौद्धिक प्रणाली है जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति में कर्तव्य का निर्णय किया जाता है । मनुष्य के लिए क्या उचित है, उसे प्रचलनों और अभ्यासों का कहाँ तक अनुकरण करना चाहिए; उसे अपने स्वतन्त्र इच्छित कर्म द्वारा किस ध्येय की प्राप्ति करनी चाहिए, आदि सब बातें नीतिशास्त्र के ही अन्तर्गत आती हैं। शब्द-विज्ञान के अनुसार नीतिशास्त्र की परिभाषा-मनुष्य की बुद्धि ने सर्वोच्च ध्येय (निःश्रेयस) को जानने का तथा उसकी नैतिक प्रवृत्ति ने समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों और अभ्यासों को समझने का प्रयास किया। अभ्यासों एवं रूढिरीतियों का उद्भव आकस्मिक घटना के रूप में नहीं होता। वे मनुष्य की आन्तरिक आवश्यकताओं और स्वभाव को व्यक्त करते हैं। वे देश, समाज और व्यक्ति के प्रान्तरिक जीवन के सूचक हैं । नीतिशास्त्र उन पर न्यायसम्मत निर्णय देने का प्रयास करता है । वह मनुष्य की आदतों और रीति-रिवाजों का विज्ञान है । शब्द-विज्ञान के अनुसार एथिक्स (Ethics) अर्थात् नीतिशास्त्र ग्रीक शब्द एथोस (Ethos) से लिया गया है। एथौस का अभिप्राय चरित्र (Character) से है । यह चरित्र का विज्ञान है । एथिक्स का ही पर्यायवाची शब्द 'मॉरल फिलॉसफी' (Moral philosophy) है। मॉरल शब्द लैटिन के 'मॉरेस' (Mores) से लिया गया है। इसका सर्वप्रथम प्रयोग रीति-रिवाज और अभ्यास के अर्थ में हुआ। इस प्रकार मॉरल फिलॉसफी का अर्थ हुआ : रीतिरिवाज, प्रचलन और अभ्यास का दर्शन । यह मनुष्य के चरित्र का विवेचन कर उन तत्त्वों को जानना चाहता है जिनके आधार पर वे स्वभावत:अभ्यासवश-कर्म करते हैं । यह मनुष्य के शुभ या उचित प्राचार (Conduct) नैतिक समस्या | १६ For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अध्ययन करता है। यह चरम ध्येय को समझने का प्रयास करता है और उसके अनुरूप ही प्राचार को शुभ और अशुभ कहता है। इसके अनुसार वही कर्म श्रेयस्कर हैं जो चरम ध्येय अथवा निःश्रेयस की प्राप्ति में सहायक होते हैं । यह सामाजिक प्रथानों, धार्मिक आस्थानों, राजनीतिक नियमों और व्यक्तिगत एवं सामूहिक अभ्यासों का विवेकसम्मत विश्लेषण करता है और यह बताने का प्रयास करता है कि व्यक्ति अपने दैनन्दिन के जीवन में इन आस्थाओं, विचारों और विश्वासों को अपनाकर अपने ध्येय को कहाँ तक प्राप्त कर सका है। उसके कर्म ध्येय की प्राप्ति के लिए कहाँ तक सफल साधन कहे जा सकते हैं। साधन की सफलता और असफलता को समझाने के लिए यह शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित शब्दों का प्रयोग करता है । कर्तव्य, अधिकार, बाध्यता, सद्गुण, उत्तरदायित्व' आदि भी इन्हीं के अनुगामी शब्द हैं। मूलगत नैतिक प्रत्यय : उचित-अनुचित,शुभ-अशुभ का स्पष्टीकरण-नीतिशास्त्र जीवन के परमलक्ष्य की खोज करता है । इस लक्ष्य की प्राप्ति में सार्थक कर्मों को वह शुभ या उचित कहता है और जो कर्म उपयोगी नहीं होते उन्हें अनुचित या अशुभ कहता है। अतः ये शब्द अधिकतर विशेषणों के रूप में प्रयुक्त होते हैं । वैसे राइट (Right) अर्थात् उचित शब्द लैटिन शब्द रैक्टस (Rectus) से बना है जिसका अर्थ है सीधा अथवा नियम के अनुसार । किसी के चरित्र को उचित कहने का तात्पर्य यह होता है कि वह विशिष्ट नैतिक नियमों के अनुसार कर्म करता है। किन्तु नियम का सम्बन्ध ध्येय से होता है। वे लक्ष्य को सम्मुख रखकर बनाये जाते हैं अतः नियम, लक्ष्य या ध्येय की पूर्ति के लिए साधन मात्र हैं। यदि जीवन का ध्येय सूखी रहना है तो सूखी रहने के लिए आवश्यक नियमों के अनुसार कर्म करना उचित कहलायेगा और इसके विपरीत अनुचित । कोई भी विशिष्ट कर्म या तो उचित ही होता है और या अनूचित । उचित और शुभ (good) आपस में विरोधी लगते हैं। किन्तु इनमें मौलिक सम्बन्ध होता है। यह सम्बन्ध शुभ के अर्थ को समझने पर स्पष्ट होगा। 'गुड' (good) का सम्बन्ध जर्मन शब्द 'गुट' (gut) से है जिसका अर्थ शुभ होता है। शुभ से अभिप्राय है जो परमशुभ के लिए उपयोगी है, जो उसकी प्राप्ति के लिए साधन है। अधिकतर शुभ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है—साधन और साध्य ; शुभ और परमशुभ (ultimate good, १. देखिए-भाग १, अध्याय ६ । .२० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् Summum bonum) से अभिप्राय उस परमध्येय (ultimate end) से है जो अपने आपमें परिपूर्ण है। पूर्णता जिसका अन्तर्जात गुण है। नैतिक दृष्टि से साध्य और साधन में कोई विशेष भेद नहीं है। जो एक दृष्टि से साधन है वही दूसरी दृष्टि से परिणामतः साध्य हो सकता है। शुभ और उचित में भी कोई स्पष्ट अन्तर नहीं है। दोनों का अधिकतर एक ही अर्थ में प्रयोग होता है। उसी ध्येय और कर्म को शुभ और उचित कहेंगे जो कि परमध्येय की प्राप्ति में सहायक होता है। परमशुभ का अभिप्राय-परमशुभ वह है जो अपने आपमें मूल्यवान् है, जिसके लिए और सब कर्म साधनमात्र हैं। शुभ की सर्वोच्च स्थिति ही परमशुभ की स्थिति है । शुभ के, मात्राओं के अनुसार, अनेक भेद होते हैं । शुभ, अधिकशुभ, परमशुभ आदि । अथवा शुभ की एक ऋमिक श्रेणी होती है और इसकी सर्वोत्तम स्थिति ही परमशुभ की स्थिति है । परमशुभ को निर्धारित करना ही नीतिशास्त्र का ध्येय है। परमशुभ के अनुरूप ही वह कर्मों को शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित कहता है। परमशुभ या परमलक्ष्य से क्या अभिप्राय है ? निःश्रेयस का क्या रूप है ? जीवन का क्या ध्येय है ? नैतिक आदर्श किसे कहते हैं ? उपर्यक्त सभी प्रश्न पर्यायवाची हैं। वे एक ही साध्य के सूचक हैं ? नीतिशास्त्र इसी साध्य को जानने का प्रयास है । यह साध्य वह संगतिपूर्ण इकाई है जिसका सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है। मनुष्यों के स्वभाव का विवेचन करने से यह स्पष्ट हो जायेगा कि उनमें जीवन के ध्येय के बारे में मतभेद होता है। कोई यश का अभिलाषी है, कोई धन का और कोई जीवन में, आनन्द और उल्लास का। एक ओर भभूत लगाकर, कोपीन पहनकर घूमनेवाले वैरागी, संन्यासी हैं और दूसरी ओर आमोद-प्रमोद, भोग-विलास में रत रहनेवाले इन्द्रियजीवी। प्रश्न यह है कि नैतिक दृष्टि से जीवन का ध्येय एक है अथवा अनेक । यदि एक है तो इन विभिन्न ध्येयों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। नीतिशास्त्र मनुष्य के अनुभव या प्राचार के किसी विशिष्ट क्षेत्र तक अपने को सीमित नहीं रखता है। वह समस्त आचारों अथवा सम्पूर्ण अनुभवों का अध्ययन करता है। और इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि इच्छित कर्म और वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं : वह जो स्वतः मूल्यवान् हैं और वह जो उपयोगी हैं। प्रथम प्रकार के कर्मों के गुण मौलिक, प्राभ्यन्तरिक और निरपेक्ष हैं। दूसरे प्रकार के कर्मों के गुण गौण, बाह्य, और सापेक्ष हैं । एक साध्य है और दूसरा साधन है। नैतिक समस्या | २१ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्थूल दृष्टि से यह भाषित होता है कि ध्येय अनेक हैं जो वैयक्तिक तथा प्रात्मगत हैं। किन्तु वास्तव में विभिन्न ध्येय अपने आपमें परम नहीं है। वह परमध्येय के लिए साधनमात्र हैं। मनुष्य धन या अन्य इच्छित वस्तु, धन या अन्य इच्छित वस्तु के लिए नहीं चाहता वरन् किसी विशिष्ट प्रादर्श की पूर्ति के लिए। साधारणतः जिनको हम साध्य कहते हैं वे अपने मूल रूप में साधनमात्र हैं। उनका सापेक्ष महत्त्व है। अतः विभिन्न ध्येयों का परमध्येय एक ही है। यह निरपेक्ष ध्येय अनन्त सापेक्ष ध्येयों की संगतिपूर्ण इकाई है। यह वह ध्येय है जिसकी प्राप्ति के लिए मानव सदैव से प्रयत्नशील रहा है, जो एक बौद्धिक प्राणी के लिए परमवांछनीय है तथा जो ध्येय अन्ततः एक है। नैतिक ज्ञान के अनुसार शुभ अपने सर्वोत्तम रूप में एक ही है, जीवन का परम आदर्श भी एक ही है और यह अद्वितीय आदर्श ही नैतिक निर्णय की कसौटी या मापदण्ड है। ... परमशुभ का स्वरूप-यदि यह मान लें कि सर्वोत्तम शुभ एक है तो इसका क्या स्वरूप है ? शुभ के स्वरूप के बारे में नीतिज्ञों के विभिन्न मत हैं, जो विभिन्न सिद्धान्तों के अध्ययन से ही स्पष्ट होंगे। संक्षेप में, कुछ विचारकों के अनुसार, जीवन का सर्वोत्तम शुभ इन्द्रियसुख है, कुछ के अनुसार शुद्ध बौद्धिक जीवन और कुछ के अनुसार प्रात्म-सन्तोष है। नैतिक सिद्धान्तों के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि परमशुभ को समझने में कहाँ तक सफलता मिली है, उसके आदेश को व्यक्ति क्यों मानता है, और यह आदेश आन्तरिक है या बाह्य । नीतिशास्त्र इस आदेश को अन्तःप्रेरित अन्तरुद्भूत और अन्तरारोपित मानता है। उसका कहना है कि विवेकशील आत्म-प्रबुद्ध व्यक्ति नैतिक आदर्श को, उसके अन्तर्जात गुणों के कारण स्वयं स्वीकार करते हैं। क्योंकि वह उनकी नैतिक चेतना और बौद्धिक आत्मा का आदेश है । वह आदेश ही परमवांछनीय शुभ है। नैतिक रूप से जागरूक प्राणी इसका अनिवार्यतः पालन करते हैं। अरस्तू (Aristotle) के अनुसार नीतिशास्त्र उस विचार या धारणा को खोजता है जो कि मनुष्य के लिए परमशुभ या वांछनीय है। जिसे वह स्वयं उसकी पूर्णता के कारण स्वीकार करता है। अतएव मानव-जीवन में जो आदर्श स्वत:निहित है, नीतिशास्त्र सामान्यतः उसी का अध्ययन है।। नीतिशास्त्र का विषय और क्षेत्र नीतिशास्त्र का विषय और क्षेत्र क्या है ? वह मनुष्य के किस सत्य को महत्त्व देता है ? । नीतिशास्त्र मानवता के उच्चतम आदर्शों का पोषक है। वह मनुष्य को २२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताता है कि वह श्रेष्ठ प्राणी है, उसे मानव-गौरव के बोध से प्रेरित होकर कर्म करने चाहिए। इसी उद्देश्य से वह परमशुभ की खोज करता है । उसके अनुरूप कर्मों के औचित्य-अनौचित्य को समझाने का व्यवस्थित प्रयास करता है । उसके क्षेत्र की परिभाषा देना, उसको सीमित या केन्द्रित करना, अत्यन्त कठिन है। उसका विषय व्यापक है। समस्त नैतिक चेतना ही इसका क्षेत्र है, जो मनुष्य के आचरण एवं उसके सम्पूर्ण जीवन को आच्छादित करती है। वह मनुष्य के क्रियाकलापों और कर्मों का मूल्यांकन करता है, जो इस सत्य पर आधारित है कि मनुष्य आत्म-प्रबुद्ध प्राणी है, स्वतन्त्र है, उसके जीवन की गति अर्थहीन या सारहीन नहीं है। वह उच्चतम आदर्शों को प्राप्त कर सकता है । इस आधार पर नीतिशास्त्र मनुष्य के आचरण पर गुणात्मक निर्णय देता है । कर्मों का नैतिक मूल्यांकन करने के लिए वह गुण-अवगुण, कर्तव्य-अधिकार, शुभअशुभ, उचित-अनुचित आदि का बौद्धिक विश्लेषण करता है। उनके पीछे जो सत्य है उसे जानने का भी प्रयास करता है। सम्पूर्ण मानव-जीवन का व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करना एवं मानवता और सभ्यता के आदर्श को स्पष्ट रूप से समझना ही उसका चिरन्तन विषय है। उसे मनुष्य-जीवन की बाहरी सामाजिक झाँकी से सन्तोष नहीं होता है। वह उसके प्राभ्यन्तरिक जीवन में प्रवेश करता है; तत्त्वदर्शन को अपनाता है। उसके लिए यह भी अत्यन्त आवश्यक है कि वह कर्म के उचित और अनुचित के बारे में तार्किक समाधान करे । यहाँ पर वह तर्कशास्त्र और वैज्ञानिक प्रणाली को अपनाता है। व्यक्ति के आचरण को न्याय-संगत बनाने के लिए, उसे मानवीय और नैतिक स्तर पर उठाने के लिए, वह लोक-प्रचलित धारणाओं, जनप्रिय विश्वासों, भ्रान्त विचारों, धार्मिक प्रास्थाओं का आलोचनात्मक परीक्षण करता है। जीवन के गूढ़ सत्य को जानने के लिए सामाजिक प्रचलनों, राजनीतिक नियमों, और व्यक्तिगत निष्ठानों का बौद्धिक विश्लेषण करता है। मनुष्य के कर्मों के औचित्य-अनौचित्य को निर्धारित करने के लिए उन सभी विद्यानों-मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, जीवशास्त्र, राजनीति, ईश्वरज्ञान, तत्त्वदर्शन आदि का अध्ययन नीतिशास्त्र के क्षेत्र के अन्तर्गत प्रा जाता है जो मनुष्य के स्वभाव और स्वरूप पर प्रकाश डालती हैं। मनुष्य के चरमशुभ को समझने के लिए, उसके जीवन के विभिन्न अंगों का उन्नयन करने के लिए वह उसके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण अध्ययन करता है। मानव-जीवन का समस्त क्रियात्मक पक्ष तथा सम्पूर्ण मानव-जीवन ही नीतिशास्त्र क्षेत्र और विषय है। नैतिक समस्या | २३ For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिशास्त्र की उपयोगिता : इसके पक्ष का समर्थन तथा उसके विरुद्ध अपवादों का खण्डन-नीतिशास्त्र की क्या उपयोगिता है ? नैतिक ध्येय और लक्ष्य को क्यों प्राप्त करना चाहिए ? इसका जीवन में क्या मूल्य है ? क्या इसका आदर्श वास्तविक है ? इन सब प्रश्नों के समाधान के लिए आवश्यक है कि इसके विरुद्ध अपवादों की गम्भीरतापूर्वक समीक्षा की जायं । नीतिशास्त्र के पालोचकों के अनुसार वह अपने मूलरूप में ध्वंसात्मक है। वह वैयक्तिक विज्ञान है । व्यक्ति का कल्याण ही उसका ध्येय है। वह अधार्मिक और अवास्तविक है । किन्तु इन अपवादों में सत्य नहीं है। - वह निर्माणात्मक है-नीतिशास्त्र इस आशा और विश्वास पर चलता है कि मनुष्य अपने कर्मों को विवेक से संचालित कर सकता है। इस आधार पर वह मनुष्य के आचार-विचार, सामूहिक एवं राष्ट्रीय चरित्र का विश्लेषण करता है। कोई भी विशिष्ट आचरण, धर्म, संस्कृति और नियम कहाँ तक उचित है वह इस पर प्रकाश डालता है। उसके अनुसार औचित्य और अनौचित्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आलोचनात्मक होना आवश्यक है। किन्तु यह नीतिशास्त्र का बाह्य और अस्थायी पक्ष है। अपने मूलरूप में वह भावात्मक और निर्माणात्मक है। नीतिशास्त्र के दो रूप-निर्माणात्मक तथा पालोचनात्मक-वास्तव में नीतिशास्त्र के दो रूप हैं : धनात्मक या निर्माणात्मक और ऋणात्मक या आलोचनात्मक । आलोचना के द्वारा वह निर्माण करता है। मनुष्य को असत्य से सत्य की ओर ले जाता है। उसको सत्य की ओर आकृष्ट करने के अभिप्राय से प्रमुखअप्रमुख, नित्य-अनित्य तथा भाव और रूप के भेद को समझाता है। बौद्धिक विश्लेषण द्वारा व्यक्ति को उसकी तात्विक स्थिति का बोध कराता है । अन्धविश्वासों, कुरीतियों और धार्मिक कट्टरपन्थी के चक्कर में फंसने से सचेत करता है । उसे सावधान करता है कि कठपुतलों का-सा जीवन मनुष्य के लिए हास्यास्पद है। ये मनुष्यत्व के ह्रास के चिह्न हैं। किसी भी नियम को वेद-पुराण की या दिव्य आदेश की दुहाई देकर मान लेना मूर्खता है । नीतिशास्त्र के अनुसार देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप नियमों में परिवर्तन होना आवश्यक है और विवेकसम्मत, कल्याणप्रद नियम ही पालन करने योग्य हैं। ___नियमों की सत्यता और असत्यता को सिद्ध करने के लिए नीतिशास्त्र वैज्ञानिक और बौद्धिक प्रणाली स्वीकार करता है । बौद्धिक आलोचना, सन्देह और अविश्वास द्वारा वह सार्वभौम नैतिक मान्यताओं का सृजन करता है। २४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य को नैतिक जगत का नागरिक बनाने के लिए उसमें भले-बुरे का ज्ञान उत्पन्न करता है। गले-पचे, मरणोन्मुख नियमों का बहिष्कार करते समय वह अपने पालोचनात्मक एवं ध्वंसात्मक पक्ष को सम्मुख रखता है, क्योंकि नियमों और विचारों की संकीर्णता के कारण जो वैमनस्य और मानसिक संघर्ष उत्पन्न हो जाता है उसके लिए आलोचनात्मक पक्ष उतना ही आवश्यक है जितना कि कैंसर (नासूर) के रोगों के लिए शल्य-चिकित्सा । व्यक्ति समाज एवं मानवता को अवनति के पक्ष से विमुख करने के लिए ही नीतिशास्त्र अपने नकारात्मक रूप द्वारा पथप्रदर्शन का काम करता है एवं आलोचना के द्वारा सुधार करता है, आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। अन्याय से न्याय की ओर, अनुचित से उचित की ओर ले जाकर पवित्र और उपादेय नियमों का सृजन करता है। इस प्रकार वह अपने ध्वंसात्मक रूप में भी सजनात्मक और पुननिर्माणात्मक है। यही नीतिशास्त्र की विशेषता है। जीवन को सुन्दरम् और शिवम् का रूप देना ही उसका ध्येय है। __उसका ध्येय वैयक्तिक नहीं, सर्वकल्याणकारी है—आधुनिक नीतिज्ञ यह मानते हैं कि व्यक्ति और समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । बिना समाज के व्यक्ति का अस्तित्व असम्भव है और बिना व्यक्ति के समाज का अस्तित्व शून्य है। बिना सामाजिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति के आचरण पर निर्णय देना भी निरुद्देश्य तथा मूल्यरहित है। नीतिशास्त्र मनुष्य के कर्मों के औचित्य का स्पष्टीकरण उसके सामाजिक प्राणी होने के कारण ही करता है। यदि सार्वजनिक जीवन सत्य से परे एक ऐसे वैयक्तिक जीवन की कल्पना कर भी लें जिसका कि समाज से कोई सम्बन्ध न हो तो ऐसे व्यक्ति के आचरण पर नैतिक निर्णय देना कोई अर्थ नहीं रखेगा। व्यक्ति और समाज के अनन्य सम्बन्ध के कारण ही नीतिज्ञों ने यह सिद्ध कर दिया है कि सामाजिक सुख से विच्छिन्न व्यक्तिगत सुख और व्यक्तिगत सुख से विच्छिन्न सामाजिक सुख की धारणा भ्रमात्मक है। अतः जीवन का ध्येय केवल व्यक्ति अथवा केवल समाज का ही कल्याण नहीं है, यह सर्वकल्याणकारी है। विवेकसम्मत धर्म-धर्म और अधर्म, इन दो शब्दों को किसी-न-किसी रूप में बच्चा बोध होने के साथ ही सुनता है । धर्म साधारणतः किसी विशिष्ट सम्प्रदाय या रूढ़ि-रीति और औचित्य का सूचक है । एक ओर धर्म का विवेकसम्मत रूप मिलता है और दूसरी ओर रूढ़ि-जर्जर प्रचलित रूप। अपने विवेकसम्मत रूप में वह विश्व-प्रेम, ऐक्य और देवत्व का सन्देश देता है और अपने प्रचलित रूप नैतिक समस्या | २५ For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अन्धविश्वासों एवं संकीर्ण रूढ़ि-रीति-जनित कर्मों का । उदाहरणार्थ, भारत में जो छुपाछूत, अस्पृश्यता, बाल-विवाह, वैधव्य आदि तथाकथित धार्मिक नियम मिलते हैं वे मनुष्य की विवेक-कुण्ठित प्रवृत्ति के सूचक हैं । वे उस अविकसित ह्रासोन्मुखी बौद्धिक स्थिति पर प्रकाश डालते हैं जो मध्ययुगीन पूर्वाग्रहों और अन्धविश्वासों से ग्रसित हैं। जनसाधारण चमत्कारवाद, जादू-टोना आदि इन्हीं अन्ध-रूढ़ि-रीतियों में विश्वास करता है क्योंकि उसकी मानसिक स्थिति विकसित नहीं है। तर्कहीन और विवेकहीन धर्म केवल प्रचलित मान्यताओं, सामाजिक तथा धार्मिक कहे जानेवाले प्रचलनों का सूचक है। अथवा सामान्यतः धर्म को जिस रूप में लोग ग्रहण करते हैं वह केवल बाह्याडम्बर तथा संकीर्णता से भरे नियमों का ढाँचामात्र है। वे प्राचीन युगों के मनुष्यों की आवश्यकताओं और अभ्यासों को सूचित करते हैं। किन्तु विकास और परिवर्तन के कारण उन नियमों का मूल्य भी बदलता जाता है। वे वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते हैं। वे लाभप्रद होने के बदले हानिकारक हो जाते हैं। अविवेकी व्यक्ति इन प्रचलनों और अभ्यासों का पालन धर्म के नाम पर करते हैं, अथवा पूर्वजों और ऋषि-मुनियों के ज्ञान की दुहाई देते हैं। आज की उन्नत भौतिक तथा मानसिक स्थिति इन प्राचीन प्रथाओं को अनैतिक सिद्ध कर सकती है। प्राचीन परिपाटियों का मूल्य उस समय के लिए है जिस समय की आवश्यकता की पूर्ति के लिए उनका निर्माण हुआ। वे वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते हैं। वे बौद्धिक जिज्ञासा को सन्तोष नहीं दे सकते हैं। धार्मिक आदेशों के बीच विरोध भी मिलता है। अतएव नीतिशास्त्र तथाकथित धर्म को उसी रूप में मान्यता नहीं देता । वह शुद्ध आचरण के मापदण्ड की खोज करता है; परमसत्य को समझना चाहता है। वह सत्य के मार्ग को ही धार्मिक (उचित, तर्कसम्मत और विवेकसम्मत) मार्ग कहता है और धर्म को भी सत्य की कसौटी पर कसता है। बौद्धिक विश्लेषण एवं प्रश्न सूचक दृष्टिकोण द्वारा धर्म-सम्बन्धी बाह्य विरोधों के भीतर आन्तरिक एकता को खोजता है । ___ यदि धर्म से अभिप्राय उस ईश्वर-ज्ञान से है जो समष्टि के कल्याण को महत्त्व देता है तो नीतिशास्त्र निस्सन्देह धार्मिक है। वह उदार-चित-वृत्ति, सहिष्णुता, एकता और न्याय का पाठ पढ़ाता है; जनसाधारण के अव्यक्त नैतिक विश्वासों को बौद्धिक अन्तर्दृष्टि देता है; सदाचरणवाले व्यक्तियों को प्रात्मबल का अमोघ अस्त्र देता है और अधर्म, अनीति, अन्याय, अशुभ और अनौचित्य के विरुद्ध लड़ने को कहता है । वह समस्त मानव-जीवन का अध्ययन २६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके एकांगी तथा भ्रमपूर्ण विचारों से ऊपर मानवता की स्थापना करता है. और इस परिणाम पर पहुँचता है कि प्रेम, स्नेह, एकता और समानता का Safer करनेवाला धर्म, धर्म नहीं है । वह भाग्य और थोथे धर्म की दुहाई देनेवाले पण्डितों को धार्मिक कहता है | मंगलमय जीवन के हत्यारों को वह नैतिकता अथवा विवेकसम्मत कर्तव्य की चुनौती देता है । फिर भी नीतिशास्त्र के आलोचक उसे अधार्मिक कहते हैं । इसका एकमात्र कारण यह है कि कर्मों के महत्व के बारे में चिन्तन एवं विश्लेषण करना प्राचीन परम्परा की स्वाभाविक एवं सामान्य प्रवृत्ति नहीं थी । दार्शनिक जिज्ञासा से शून्य चिन्तनहीन प्रवृत्ति के लोग अपनी सुप्त और प्रालसी प्रवृत्ति को जगाने के बदले नीतिशास्त्र के आलोचक बन जाते हैं और उसे अधार्मिक कहकर सन्तोष करते हैं । पर वास्तव में नीतिशास्त्र विवेकसम्मत धर्म है । वास्तविक और उपयोगी - श्रालोचकों का यह भी कहना है कि नीतिशास्त्र श्रवास्तविक है । जीवन सत्य से परे होने के कारण वह तत्कालीन सामाजिक श्रौर राजनीतिक गुत्थियों को नहीं सुलझा सकता है । वह वास्तविक तथ्यों की खोज नहीं करता है । वर्तमान कर्तव्यों की रूपरेखा नहीं बनाता है । वह तात्कालिक को महत्त्व देने और उसकी चिन्ता करने के बदले उन नियमों की खोज करता है जो कि उसके अनुसार भविष्य में आनेवाली आदर्श सामाजिक व्यवस्था के लिए आवश्यक हैं। उनके अनुसार उसकी नींव काल्पनिक होने के कारण उसकी उपयोगिता सन्दिग्ध है । ऐसी आलोचना के द्वारा ये श्रालोचक-गण उसके मूल सिद्धान्त से अपनी अनभिज्ञता ही प्रकट करते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि नीतिशास्त्र आदर्श - विधायक विज्ञान है । किन्तु इसके यह अर्थ कदापि नहीं होते कि वह बच्चे के दिवास्वप्न की भाँति है । नीतिज्ञ कल्पना की उड़ान नहीं भरता, वह उस नैतिक आदर्श की खोज करता है जो जीवन के ठोस वास्तविक सत्य पर प्राधारित है । मानव जीवन को सुखी और सुसंस्कृत बनाने के अभिप्राय से वह विभिन्न विज्ञानों और कलानों का अध्ययन करता है; दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश करता है और मनुष्य तथा विश्व के बारे में सर्वांगीण ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ही वह मानवीय गौरव से युक्त नियम अथवा नैतिक नियम बनाता है । इन नियमों का आवश्यकताओं एवं देश, काल, परिस्थिति के साथ परिवर्तन होना अनिवार्य है । अतः परम्परानुगत नियमों का पालन करना मनुष्य के विकास एवं उन्नति के लिए हानिप्रद है । नीतिशास्त्र एक ऐसे मापदण्ड को प्राप्त करने का प्रयास करता है जिसके आधार नैतिक समस्या | २७ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर जीवन के विरोध एवं विषमताएँ सुलझायी जा सकें । नीतिशास्त्र मनुष्य की बौद्धिक माँग - 'शुभ क्या है'- का विज्ञान है । यह बतलाता है कि मानव जीवन विभिन्न विरोधी इच्छाओं, भावनाओं, आवेगों, रागात्मक प्रवृत्तियों का कोलाहलपूर्ण विप्लवमात्र नहीं है । वह नियमबद्ध और संगतिपूर्ण है एवं उसकी अपनी सार्थकता है । जब विभिन्न कर्तव्यों के बीच संघर्ष होता है, अनेक इच्छाओं के कारण मानसिक द्वन्द्व पैदा होता है तब यह मनुष्य का मार्गदर्शक बनता है। जब मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और नहीं समझ पाता कि वह किस मार्ग का अनुसरण करे, उसका अपने प्रति और समाज के प्रति क्या कर्तव्य है, इन कर्तव्यों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित किया , तब उसे नैतिक अन्तर्दृष्टि की आवश्यकता होती है । नैतिक ज्ञानं ऐसे व्यक्ति के लिए एक दृढ़ अवलम्बन के समान है । यह उसे आत्मबल देता है । इस बल के सहारे ही वह प्रचलित मान्यताओं से ऊपर उठकर महान् कर्म करता है । यदि महापुरुषों की जीवनियों का अध्ययन किया जाय अथवा बुद्ध, ईसा और गान्धी के कार्यक्षेत्र को समझने का प्रयास किया जाय तो यह स्पष्ट - हो जायेगा कि उनका एकमात्र सम्बल उनका नैतिक बल अथवा श्रात्म बल ही था। उसी के सहारे उन्होंने जीवन में अनिवर्चनीय सफलता प्राप्त की । साधारणतः व्यक्ति धर्मभीरु और समाजभीरु होता है । नरक के अथवा पड़ोसी के भय से वह जघन्य कर्म सहर्ष कर लेता है । उसका विवेक कुण्ठित हो जाता है । वह यन्त्रवत् नियमों का पालन करने लगता है । नियमों के औचित्य की ओर से वह उदासीन रहता है । उसकी अन्धनैतिक निष्ठा उससे अनेक अनैतिक कर्म करवाती है । वह न तो जीवन के मूल्य को समझने का प्रयास करता है। और न नियमों का बौद्धिक रूप से विवेचन करता है । मनुष्य को ऐसी दयनीय और हीन स्थिति से उबारने का प्रयास करना ही नीतिशास्त्र का ध्येय है । यह मनुष्य को समझाता है कि वह स्वतन्त्र बौद्धिक प्राणी है । अतः वह शिवत्व को प्राप्त कर सकता है । नीतिशास्त्र प्रत्येक व्यक्ति के आचरण को विवेकसम्मत बनाना चाहता है, जनमत को बौद्धिक स्तर पर उठाना चाहता है ताकि प्रत्येक मानव-शिशु स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण में साँस ले सके; व्यष्टि श्रौर समष्टि सुदृढ़, स्वावलम्बी और सुसंस्कृत बन सकें; रागद्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह से ऊपर उठकर व्यक्ति विश्व का नागरिक बन सके । कई आलोचकों का कहना है कि नीतिशास्त्र कोरा सिद्धान्त है । वह उपयोगिता रहित और वास्तविकताशून्य है । उसका व्यावहारिक मूल्य नगण्य २८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । इस तथ्य को समझने के लिए मानव इतिहास से उदाहरण लेना आवश्यक है । प्रादिमकाल में मनुष्य जीवन सरल था । उसकी आवश्यकताएं थोड़ी थीं । वह अपनी भौतिक और शारीरिक आवश्यकताओं — नींद, भूख प्यास — के लिए ही सचेत था । किन्तु आधुनिक विज्ञान के युग में पहुँचने तक उसका जीवन अत्यन्त जटिल और व्यापक हो गया है । उसकी आवश्यकताएँ केवल उसके समुदाय, झुण्ड, परिवार तक ही सीमित नहीं हैं । उसे अब राष्ट्र और विश्व के रूप में भी सोचना पड़ता है । वह आज सम्पूर्ण विश्व पर अपनी भौतिक, मानसिक आवश्यकताओं के लिए निर्भर है । वह बौद्धिक रूप से अधिक सचेत और जागरूक हो गया है । वह सामूहिक तथा वैश्व मनोवृत्ति को समझना चाहता है । उसकी बौद्धिक जिज्ञासा किसी भी प्रवृत्ति, संस्कृति अथवा धर्म को बिना समझे स्वीकार नहीं करती है । उसे वैयक्तिक, सामाजिक अभ्यासों में जो असंगति मिलती है उसे वह दूर करना चाहता है । नये विचार तथा नयी आवश्यकताओं के प्रादुर्भाव से उसकी व्यावहारिक समस्याएँ बढ़ गयी हैं । इन समस्याओं का रूप अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है । व्यक्ति का जीवन और अस्तित्व केवल उसके जाति वर्ग तक ही सीमित नहीं रह गया है. वह विश्वजनीन हो गया है । उसके सम्मुख एक ओर तो व्यक्तिगत सुख-दुःख है और दूसरी ओर सम्पूर्ण मानवता का शुभ है, जिसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने कर्तव्यों की स्पष्ट रूपरेखा बनाये, व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्ध को समझे । कर्तव्य और अधिकार की क्या सीमाएँ हैं ? उनके क्या अर्थ हैं ? वह कौन से कर्म हैं जिनका मनुष्य के ऊपर सामाजिक ऋण है ? जिन्हें उसे करना ही है, आदि। ये आज के बौद्धिकरूप से सजग प्रत्येक व्यक्ति की समस्याएँ हैं, जिनका उसे स्वयं समाधान खोजना है और जिनके लिए वह आज भाग्य और धर्म की दुहाई देनेवाले पण्डितों के पास जाना व्यर्थ समझता है । वह श्राज जनसाधारण द्वारा स्वीकृत देवी प्रदेश और ईश्वरीय नियमों के मूल की खोज करना चाहता है । चमत्कास्वाद और जादू-टोने के भय से ऊपर उठ जाने के कारण वह नैतिक मान्यताओं की प्रामाणिकता जानना चाहता है । आज के मानव की चिन्तन-धारा प्राचीन मानव की विचारधारा से नितान्त भिन्न है । उसके जीवन में विश्वव्यापी परिवर्तन आ गया है। उसके दार्शनिक, साहित्यिक, कलात्मक तथा व्यावसायिक विचारों में आमूल क्रान्ति आ गयी है । उसका जीवन विश्व - जीवन का अंग बन गया है । उसका सुख व्यक्ति तक अथवा किसी विशिष्ट समुदाय तक ही सीमित नहीं रह गया है । वह सम्पूर्ण मानवता के शुभ नैतिक समस्या | २६ For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा सुख का आकांक्षी है। ज्ञात-अज्ञात रूप से उसके जीवन का ध्येय सर्वकल्याणकारी हो गया है । अतः सोलहवीं शताब्दी के जड़वादी नैतिक सुखवाद के प्रचारक हॉब्स के विरुद्ध आज कहा जा सकता है कि नैतिक दृष्टि से कर्तव्य का बाह्य भय अथवा बाध्यता के कारण पालन करना अनैतिक है। काण्ट का कथन कि 'कर्तव्य का आदेश अन्तःआरोपित आदेश है', आज के व्यक्ति के मन के अधिक निकट है। ___नीतिशास्त्र कर्तव्य का पथ दिखाता है । कठिनाइयों को हल करके जीवन को सरल और सुन्दर बनाता है; कर्मों के वास्तविक मूल्य के सम्बन्ध में प्रकाश डालकर उनका पुनर्मूल्यीकरण करता है । वह प्रचलित नैतिकता के उन नियमों को समझने का प्रयास करता है जिनके कारण हमारे सामाजिक जीवन की प्रगति कुण्ठित हो गयी है; उदाहरणार्थ, बाल-विवाह, बाल-वैधव्य, सती-प्रथा, अस्पृश्यता आदि । व्यक्ति में अपनी भी अनेक दुर्बलताएँ हैं। उसकी अधिकांश इच्छाएँ आत्म-विनाशक और आत्म-घातक होती हैं जिन्हें यथार्थ-रूप से समझकर उनका संयमन तथा उन्नयन करना उसके लिए आवश्यक है। नीतिशास्त्र मनुष्य को बताता है कि नैतिक प्रगति में ही जीवन की सार्थकता है । जीवन के अर्थ एवं मूल्य को समझाने के कारण ही वह निर्देश करता है कि सुख और आनन्द में क्या भेद है। सुख और सद्गुण में क्या अन्तर है। आनन्द को आचरण का परमलक्ष्य क्यों मानना चाहिए। नैतिक बाध्यता के क्या अर्थ हैं ? वैयक्तिक और सामाजिक कर्तव्य की क्या सीमाएँ हैं ? स्वेच्छाकृत कर्म अथवा संकल्प की स्वतन्त्रता का मानव-जीवन में क्या महत्त्व है ? कर्मों की संचालिका भावना है अथवा बुद्धि ? सत्य बोलना, वचन-बद्ध होना, शपथ खाना-शुभ, उचित, अन्तर्बोध, कर्तव्य और अधिकार आदि शब्दों का, जिनका कि प्रतिदिन के जीवन में प्रयोग किया जाता है, क्या मूल्य है ? इन कठिनाइयों को हल करने के लिए नीतिशास्त्र उस मापदण्ड की खोज करता है जिसके आधार पर इन सबका सापेक्ष मूल्य निर्धारित किया जा सके । अत: नैतिक आदर्श की नींव वास्तविक जगत है। व्यावहारिक कठिनाइयाँ ही इसके मूल में हैं । नैतिक आदर्श वह आदर्श है जो कि मानवीय प्रयास और पुरुषार्थ से पृथ्वी पर स्थापित किया जा सकता है । नैतिक प्रादर्श लौकिक और ऐहिक आदर्श है । मनुष्य के जीवन का व्यावहारिक और क्रियात्मक पक्ष ही उसका जन्मदाता है। जीवन की प्रगति और सर्वांगीण उन्नति ही उसका ध्येय है। वह उन नियमों का खण्डन करता है जो उस पारस्परिक व्यवस्था की ३० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नति के प्रतिकूल है जिसे सामाजिक जीवन कहते हैं। अनुकूल नियमों को समझने और कल्याणप्रद नियमों का सृजन करने में वह अमूर्त और दुरूह 'विज्ञान बन जाता है। किन्तु उसकी दुरूहता यह सिद्ध नहीं करती कि नीतिशास्त्र काल्पनिक सिद्धान्त मात्र अथवा बौद्धिक व्यायाम या शतरंज के खेल की भांति है। वह दुरूह इसलिए है कि वह सम्पूर्ण मानवता का आलिंगन करता है। उसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। वह इस अर्थ में भी दुरूह है कि उसे वैज्ञानिक सत्य की भाँति प्रयोग द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता और न उसे काली-पाटी पर लिखकर समझाया ही जा सकता है। साधारण बुद्धिवाले व्यक्ति वैज्ञानिक सत्य को समझ सकते हैं, किन्तु नैतिक सत्य को समझने के लिए सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि की आवश्यकता है। दुरूह होने पर भी नीतिशास्त्र मानव-जीवन के लिए अनिवार्य और आवश्यक है। आधुनिक काल में इसका महत्त्व विशेष रूप से बढ़ गया है। आज के युग में जीवन इतना व्यापक और विविधांगी हो गया है कि मनुष्य को पग-पग पर आचरण के मापदण्ड की आवश्यकता पड़ती है। वह आज वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा उस परम-सत्य की खोज करना चाहता है जिसके आधार पर वह अपने कर्मों को संचालित कर सके । समुचित नैतिक ज्ञान के बिना मनुष्य का जीवन अत्यन्त दुखद हो जाता है। वह कर्तव्यों के झंझावात में खो जाता है। त्रिशंकु की भाँति वह न तो पृथ्वी पर ही रह पाता है और न स्वर्ग में ही। नीतिशास्त्र पृथ्वी और स्वर्ग, वास्तविक जीवन और आदर्श जीवन में सामंजस्य स्थापित करके मनुष्य को अशोभन से शोभन की पोर, अशिव से शिव की ओर एवं अमानुषिकता से मानुषिकता अथवा मनुष्यत्व की ओर ले जाता है । नैतिक समस्या | ३१ For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ नीतिशास्त्र और विज्ञान विज्ञान का अर्थ - किसी भी विशिष्ट विषय को सुसम्बद्ध बौद्धिक प्रणाली द्वारा समझना, उसके बारे में व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करना, विज्ञान का काम है । निर्णयों को विवेक की कसौटी पर कसकर एक सुसंगठित विचार - प्रणाली में बद्ध करना, सामान्यत:, समस्त विज्ञानों का ध्येय है। अधिकतर सामान्य निर्णयों में असंगति और विरोध रहता है । विज्ञान इस विरोध और असंगति को दूर करके एक विशिष्ट विचार पद्धति देता है । उसका सम्बन्ध अधिकतर अनुभवों की अभिन्न रूपता एवं समानता से रहता है । वह वस्तुविशेष का ज्ञान देता है और बताता है कि बाह्य - जगत की घटनाएँ कैसे घटित होती हैं; वस्तुनों का अस्तित्व कैसे सम्भव है । उसके वस्तु विषय कुछ अनिवार्य सत्य हैं । वह वस्तुनों तथा घटनाओं के कार्य-कारण-सम्बन्ध को समझने का प्रयास करता है और उसके आधार पर सामान्य नियमों का प्रतिपादन करता है । कार्य-कारण के नियमों को समझकर अथवा वस्तुनों के परस्पर अनिवार्य सम्बन्ध को समझने के पश्चात् वह नये परिणामों का निगमन करता है । विज्ञान की पूर्णता इसी पर निर्भर है कि वह ज्ञात कारणों के नियमों के आधार पर विशेष परिणामों के बारे में निश्चयपूर्वक कह सके । विज्ञान : दो वर्ग - वैज्ञानिक विषयों को दो श्रेणियों या वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । एक ओर वे विषय हैं जो वर्णनात्मक या प्राकृतिक विज्ञान (Descriptive or Natural Science) के अन्तर्गत आते हैं और दूसरी ओर वे विषय, जो आदर्श विधायक या नियामक विज्ञान ( Normative or Regulative Science) के अन्तर्गत आते हैं। दोनों प्रकार के विज्ञान व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त ३२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने का प्रयास करते हैं। किन्तु दोनों के लक्ष्य और निर्णयों में भेद है । यथार्थविज्ञान (पदार्थविज्ञान), मनोविज्ञान, वनस्पतिशास्त्र और जीवशास्त्र आदि वस्तुविषयक ज्ञान देते हैं। इसके अन्तर्गत वे सभी विज्ञान आते हैं जो प्रकृति के बारे में बताते हैं तथा मनुष्य को एक प्राणी के रूप में मानते हैं। पदार्थविज्ञान का सम्बन्ध अनुभव के एक विशिष्ट अंग से है । उसके विषय यथार्थ और तथ्यात्मक होते हैं। वह यथार्थ और दृश्यमान जगत के नियमों का अनुसन्धान करता है ; अपरिवर्तनशील प्राकृतिक नियमों को समझाता है। सामान्य नियमों का ज्ञान प्राप्त कर इन नियमों के आधार पर भावी परिणामों के बारे में निश्चयात्मक रूप से कह सकता है। पदार्थ एवं असन्दिग्ध विज्ञान का ध्येय किसी आदर्श को निर्धारित करना नहीं है। वह घटनाओं और वस्तुओं का मूल्यांकन नहीं करता वरन उन नियमों की खोज करता है जिनके आधार पर वस्तुओं के अस्तित्व पर अथवा घटनाओं के घटित होने पर प्रकाश डाला जा सके, उन्हें समझाया जा सके। इसके विपरीत प्रादर्श-विधायक विज्ञान उस मापदण्ड अथवा प्रादर्श की खोज करता है जिसके आधार पर विचार, भावना तथा कर्म के गुण का मूल्यांकन किया जा सके। वह मूल्य के मापदण्ड की खोज करता है; मानव-जीवन के मूल्य का निर्धारण करता है । यहाँ पर यह जान लेना उचित होगा कि मानवअनुभूति की तीन सर्वोच्च मान्यताएँ हैं : सत्य, शिव और सुन्दर । यह कुछ अंशों तक मनश्चेतना के तीन स्वरूपों-ज्ञानात्मक, क्रियात्मक तथा रागात्मक से सादश्य रखते हैं । अतः आदर्श-विधायक विज्ञान के अन्तर्गत तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र प्राते हैं । ये तीनों एक ही परिवार के हैं। तीनों ही उन मापदण्डों की खोज करते हैं जिनके आधार पर विचार, प्राचार और सौन्दर्य का मूल्यांकन किया जाता है । तर्कशास्त्र सत्य और असत्य के निर्णय का विज्ञान है। वह सत्य-विचार के मापदण्ड को निर्धारित करता है; तर्क के सिद्धान्तों का निरूपण करता है। नीतिशास्त्र आचरण का विश्लेषण करके उसके शुभाशुभ के बारे में निर्णय देता है। परमध्येय के स्वरूप को निर्धारित करने के पश्चात् वह सिद्ध करता है कि कौन-से कर्म परमध्येय की प्राप्ति में सहायक हैं। वह उस मापदण्ड की खोज करता है जिसके आधार पर उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ के निर्णयों का समाधान कर सकते हैं। नीतिशास्त्र मानव-शुभ का विज्ञान है । इसी प्रकार सौन्दर्यशास्त्र सौन्दर्य और असौन्दर्य के निर्णय का विज्ञान है । यह सौन्दर्य की कसौटी प्रस्तुत कर सौन्दर्य का निर्माण और मूल्यांकन करने के लिए मापदण्ड देता है । अतः आदर्श-विधायक विज्ञानों का सम्बन्ध नीतिशास्त्र और विज्ञान | ३३ For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श के मापदण्ड से है, तथ्यात्मक जगत एवं वस्तुविशेष से इनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । नीतिशास्त्र एवं नीतिविज्ञान - विज्ञान सूक्ष्म निरीक्षण, विश्लेषण, वर्गीकरण, अनुमान और प्रयोग द्वारा वस्तुनों का व्यापक ज्ञान प्राप्त करता है और तदनुसार सामान्य नियमों का प्रतिपादन करता है । वह सामान्य नियमों के आधार पर घटनाओं और वस्तुनों की व्याख्या तथा स्पष्टीकरण करता है । विज्ञान के अनुसार किन्हीं विशेष कारणों से किन्हीं विशेष घटनाओं का जन्म अवश्य होता है । उसकी दृष्टि में विश्व में सभी वस्तुएँ और घटनाएँ कार्य-कारणभाव से परस्पर सम्बद्ध तथा अवलम्बित हैं । किसी वस्तु के बारे में पूर्ण रूप से तभी समझा जा सकता है जब कि उसके परिवेश से सम्बन्ध रखनेवाले अन्योन्याश्रित भाव अथवा परिस्थितियों से सम्बद्ध कार्य-कारण-भाव को पूर्णतया ग्रहण कर लिया जाय । तब यह स्पष्ट हो जाता है कि अमुक घटनाओं या कारणों के क्रम से अमुक वस्तु संगठित होती है । अपने व्यापक अर्थ में विज्ञान वह बौद्धिक प्रणाली है जिसके द्वारा बाह्य जगत का व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त होता है । इस अर्थ में नीतिशास्त्र को चरित्र और आचरण का विज्ञान अथवा नीतिविज्ञान कह सकते हैं । नीतिशास्त्र परमशुभ को समझने का एक क्रमबद्ध प्रयास है । वह वैज्ञानिक दृष्टि - बिन्दु से वैयक्तिक, राष्ट्रीय अभ्यासों, सामाजिक, धार्मिक नियमों तथा चारित्रिक नैतिक सिद्धान्तों का निरीक्षण और विश्लेषण द्वारा अध्ययन करता है । वह नैतिक नियमों को समसामयिक परिस्थितियों अथवा देशकाल की आवश्यकता के आधार पर समझाता है । नीतिशास्त्र नैतिक नियमों के सापेक्ष महत्त्व को स्वीकार करता है । वह नैतिक नियमों को, समयविशेष के सामाजिक ऐक्य का अनिवार्य परिणाम मानता है । विज्ञान की भाँति वह नैतिक नियमों को अपने अस्तित्व के लिए परिस्थिति और परिवेश पर अन्योन्याश्रित भाव से अवलम्बित मानता है । विशिष्ट कारणों से ही नैतिक नियमों का प्रादुर्भाव होता है । अतः उन्हें सामाजिक परिस्थितियों से विच्छिन्न एक-दूसरे से असम्बद्ध सत्य के रूप में नहीं देखा जा सकता । वास्तव में उनका मानव समाज के संगठन से सजीव सम्बन्ध होता है और इस सम्बन्ध के कारण ही वह परस्पर सम्बद्ध हैं । नीतिशास्त्र और यथार्थ विज्ञान में स्पष्ट भेद नीतिशास्त्र को विज्ञान की परिभाषा द्वारा वहीं तक सीमित कर सकते हैं जहाँ तक कि दोनों वैज्ञानिक प्रणाली का आश्रय लेकर अपने निर्णयों को सत्य अथवा यथार्थ की कसौटी पर ३४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसने का प्रयास करते हैं। इसके आगे दोनों के लक्ष्य और क्षेत्र में भिन्नता है। नीतिशास्त्र की प्रणाली वैज्ञानिक होते हुए भी दार्शनिक तथ्यों पर आधारित है। यथार्थ अथवा असन्दिग्ध विज्ञान बाह्य-जगत की घटनाओं का सम्यक्, पर्यवेक्षण करता है। उसका ध्येय वस्तुओं और घटनाओं—मानसिक तथा भौतिक की तथ्यात्मक व्याख्या करना है। नीतिशास्त्र मान्यतामूलक है। उसके निर्णय का लक्ष्य मनुष्य का आचरण है । __ यथार्थ विज्ञान का सम्बन्ध जड़-जगत से है अथवा उन मानसिक घटनाओं से जिनकी कि प्राकृतिक रूप से व्याख्या की जा सकती है । वह मनुष्य और जड़जगत के व्यापारों का उनके स्वाभाविक रूप में वर्णन करता है। जड़-जगत की 'घटनाएँ चेतनाशून्य होती हैं, उनकी यान्त्रिक गति होती है। वे स्थिर प्राकृतिक नियमों द्वारा संचालित होती हैं। अत: यथार्थ विज्ञान जड़-जगत के व्यापारों के अस्तित्व, उत्पत्ति और विकास के बारे में निश्चित रूप से सामान्य नियमों का 'प्रतिपादन कर सकता है । नीतिशास्त्र मनुष्य के कर्मों और उनकी मूल प्रवृत्तियों की खोज करता है । संकल्प और आचरण की मूल प्रेरक शक्तियों की उन्नति, गति एवं व्यवहार की प्रगति को समझने का प्रयास करता है और समयानुकल आचरण को नियमित करने के लिए सापेक्ष नियमों का प्रतिपादन करता है। 'किन्तु यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि मानव-व्यवहार की उत्पत्ति और विकास तक ही यह अपने को सीमित नहीं रखता है। वह नियामक विज्ञान है । उसका परम-लक्ष्य निःश्रेयस को समझना है। वह गौण रूप से ही कालक्रम में घटित होनेवाले आचरण को नियन्त्रित करने के लिए नियमों का प्रतिपादन करता है अथवा आचरण के उत्पत्तिविषयक शास्त्र का अध्ययन करता है। यथार्थ विज्ञान प्रासन्न घटनाओं के बारे में निश्चयपूर्वक कह सकता है। भौतिक 'घटनाएँ विशिष्ट परिस्थितियों के संयोग का अनिवार्य परिणाम हैं। किन्तु नीतिशास्त्र आचरण के बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कह सकता । वह प्रत्यक्ष और ज्ञेय शक्तियों का.परिणाम नहीं है। उसका मल घटनामों से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। वह कार्य-कारण के नियम द्वारा नहीं समझाया जा सकता। १. देखिए-भाग १, अध्याय ३ ।। २. यदि कोई कहे कि मनुष्य का ज्ञान सीमित है और इस कारण विज्ञान के अनुसन्धान शत प्रतिशत सत्य नहीं हो सकते हैं तो यह भी कहा जा सकता है कि यदि विज्ञान निन्यानबे प्रतिशत घदनामों के बारे में निश्चयात्मक रूप से कह सकता है तो नीतिशास्त्र मानव पाचरण के बारे में केवल एक प्रतिशत कह सकता है और वह भी अनिश्चित रूप से । नीतिशास्त्र और विज्ञान | ३५ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके बारे में पूर्वविचार करना अत्यन्त कठिन है । संकल्प की स्वतन्त्रता - संकल्प की स्वतन्त्रता नीतिशास्त्र की एक नावश्यक मान्यता है । यह इस सत्य पर आधारित है कि मनुष्य का आचरण — उसके द्वारा किसी कर्म का होना, न होना— उसकी स्वतन्त्र प्रेरणाशक्ति पर निर्भर है । मनोविज्ञान सिद्ध कर चुका है कि मनुष्य का स्वभाव चंचल और दोलायमन है । प्रबल से प्रबल व्यक्तित्व के आचरण के बारे में भी मिश्रित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । यथार्थ विज्ञान मनुष्य को प्रकृति का अंग मानता है, जिनका सम्बन्ध प्रांगिक है । नीतिशास्त्र के अनुसार मनुष्य आत्म चेतन प्राणी है । वह इस सम्बन्ध में विशेषरूप से सचेत है क्योंकि मनुष्य की अनेक सम्भावित शक्तियाँ हैं । प्राकृतिक नियमों का यन्त्रवत् पालन करना तो दूर रहा, वह अपनी इन विशेष शक्तियों के बल पर प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की आकांक्षा रखता है । अतः एक ओर तो प्राकृतिक घटनाएँ अनिवार्य प्राकृतिक नियमों द्वारा संचालित होती हैं और दूसरी ओर मनुष्य के प्रात्म-प्रबुद्ध प्राणी होने के कारण वे उससे नियन्त्रित भी होती हैं । मनुष्य का आचरण उसकी आदर्श मनःस्थिति एवं सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर निर्भर है । वह अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है । उसके प्रचार के औचित्य अनौचित्य पर विचार किया जा सकता है । यथार्थ विज्ञान का सम्बन्ध देशकाल में घटित होनेवाली घटनाओं से है फलतः उसकी प्रस्तावनाएँ व्याख्यात्मक होती हैं । पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, यह स्थापना एक विशिष्ट घटना के बारे में बताती है । नीतिशास्त्र इससे एक पग आगे बढ़ता है । उसकी स्थापनाएँ न्यायसम्मत होती हैं । उसका सम्बन्ध उन घटनाओं से नहीं है जो देश-काल या भूत वर्तमान में घटित होती हैं अथवा जिनका सम्बन्ध पूर्वापर कार्य-कारण भाव से है । दूसरे शब्दों में नीतिशास्त्र का सम्बन्ध चरित्र के उस पक्ष से नहीं है जो कि कालक्रम में होनेवाला एक व्यापार है । वह चेतन व्यापारों के औचित्य - प्रनौचित्य का अध्ययन करता है । यथार्थ विज्ञान का सम्बन्ध केवल वस्तुनों के अस्तित्व और उनके बोध से है । यथार्थ में 'क्या है', वह इनका निर्णय करता है । नीतिशास्त्र का सम्बन्ध आदर्श से है, 'क्या होना चाहिए' से है । उसके निर्णय नियामक एवं मान्यतामूलक हैं । वे वर्णनात्मक नहीं, आलोचनात्मक हैं । इसको यह कहकर और भी स्पष्ट कर सकते हैं कि नीतिशास्त्र बुद्धि की सहायता से उस सार्वभौम मापदण्ड की खोज करता है जिसके आधार पर तथ्यों का मूल्यांकन किया जाता है। और इसके विपरीत बौद्धिक रूप से उस सार्वभौम नियम या विश्व व्यवस्था का 1 ३६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान करता है जिसके आधार पर विश्व के तथ्यों और घटनामों की संगतिपूर्ण व्याख्या एवं स्पष्टीकरण किया जा सकता है। भौतिक विज्ञान उस वास्तविक विधान या बौद्धिक नियमों का अन्वेषण करता है जिसके द्वारा घटनाएँ संचालित होती हैं, जो उन्हें संगति और एकता देते हैं। नीतिशास्त्र इस ज्ञेयव्यवस्था से परे उस परम आदर्श को खोजता है जिसके द्वारा विश्व-विधान तथा विश्व-व्यापारों का मूल्यांकन किया जा सकता है । यथार्थ विज्ञान का घटनाओं से वहीं तक सम्बन्ध है जहाँ तक वह उनके घटित होने को समझा सकता है, उनकी गणना कर सकता है । नीतिशास्त्र इस भौतिक व्यवस्था से परे उस नैतिक व्यवस्था की खोज करता है जो मानव-जीवन को महान् बना सकती है और यहाँ पर वह मानव-कल्याण का विज्ञान बन जाता है। उसका निःश्रेयस से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। मानव-जीवन की प्रगति और उसका अधिकाधिक कल्याण उसका चरम ध्येय है । वह विज्ञान की शक्ति से ध्वंसात्मक और स्वभावत: लोभी मानव को कल्याण के पथ पर अग्रसर कर उसे लोक-मंगल का विधायक बनने के लिए प्रेरित करता है। तत्त्वदर्शन से सामीप्य-मानव के परम कल्याण की खोज करने के कारण नीतिशास्त्र तत्त्वदर्शन के अत्यधिक निकट आ जाता है । वह अपने आदर्श के लिए विज्ञान पर इतना अधिक निर्भर नहीं है। उसे हम केवल विज्ञान के व्यापक अर्थ में ही विज्ञान कह सकते हैं। विज्ञान का सम्बन्ध अनुभव के विशिष्ट अंग से है। यह सापेक्ष ज्ञान की खोज कर विशेष दृष्टिकोण से अनुभव का अध्ययन करता है। नक्षत्र-विद्या और पदार्थ-विद्या का महत्त्व उन्हीं के लिए है जो इन विद्यानों के बारे में अपनी जिज्ञासा का समाधान अथवा किसी विशिष्ट तथ्य का प्रतिपादन करना चाहते हैं। विज्ञान कुछ आवश्यक मान्यताओं के आधार पर ही अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन कर सकता है। अतः प्राकृतिक विज्ञान अधिकतर तत्त्वदर्शन से स्वतन्त्र रहते हैं। किन्तु नीतिशास्त्र का इससे घनिष्ठ सम्बन्ध है। वह अपने आदर्श का स्वरूप भी तत्त्वदर्शन के अनुरूप निर्धारित करता है। नीतिशास्त्र का सम्बन्ध जीवन के क्रियात्मक पक्ष से है। उसके लिए जीवन का प्रत्येक क्षण महत्त्वपूर्ण और अर्थगभित है। वह उस परमसत्य के स्वरूप को निर्धारित करना चाहता है जिसका सार्वभौम और निरपेक्ष गुण सर्वमान्य हो अथवा जिसका सब देशों और सब कालों में एक ही स्वरूप हो। ऐसे निरपेक्ष आदर्श की स्थापना वह तत्त्वदर्शन की सहायता से ही कर सकता है। नीतिशास्त्र यह भी मानता है कि मनुष्य का अपने भौतिक और सामाजिक वातावरण से नीतिशास्त्र और विज्ञान | ३५ For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतन सम्बन्ध है । इसलिए वह जानना चाहता है कि मनुष्य की विश्व में क्या स्थिति और स्थान है । उसका दूसरों से क्या सम्बन्ध है और वह किस प्रकार अपने स्थिति - ज्ञान के अनुरूप कर्म करता है । यहाँ पर पुनः नीतिशास्त्र का तत्त्वदर्शन से अनन्य सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है । तत्त्वदर्शन उसे बताता है कि मनुष्य केवल अपने सीमित परिवार या राष्ट्र का ही नागरिक नहीं है, वह समस्त मानव समाज – 'वसुधैव कुटुम्बकम्' – का भी अविच्छिन्न अंग है । उसका विश्व से आत्मीय सम्बन्ध है, और इस सत्य के आधार पर नीतिशास्त्र मनुष्य के जीवन का ध्येय सार्वभौम तथा सर्व कल्याणकारी बताता है । तत्त्वदर्शन के निष्कर्ष नीतिशास्त्र को जिस रूप में प्रभावित करते हैं उस रूप में वे वैज्ञानिक जगत में अनिवार्य रूप से ऊहापोह नहीं मचा सकते हैं । नीतिशास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि किसी भी नीतिज्ञ का नैतिक ज्ञान उसके तत्त्वदर्शन के उस पक्ष से पूर्ण गम्भीर रूप से प्रभावित होता है जो कि उसके दृष्टिकोण को शासित करता है । नीतिज्ञों ने नैतिक प्रश्नों का उत्तर अपनी विश्व-विधान की धारणा के अनुरूप ही दिया है। भौतिकवादियों ने केवल वैयक्तिक ऐहिक मुख को ही जीवन का ध्येय बताया है किन्तु अध्यात्मवादियों ने समस्त विश्व के कल्याण को महत्त्व दिया है । इस प्रकार नीतिशास्त्र कर्मों का मूल्यीकरण करने के लिए, प्रचार के औचित्य - अनौचित्य को निर्धारित करने के लिए तत्त्वदर्शन के अत्यधिक समीप आता है । इसीलिए अनेक विचारकों ने इसे नैतिक-दर्शन या श्राचार-व्यवहार का दर्शन भी कहा है । 1 नैतिक अभिधारणाएँ, संकल्प-स्वातन्त्र्य, श्रात्मा की श्रमरता, ईश्वर का अस्तित्व – संकल्प की स्वतन्त्रता' नीतिशास्त्र की वह अनिवार्य आवश्यकता है जिसके बिना नैतिक आचरण सम्भव ही नहीं है । 'नैतिक चाहिए' का अर्थ ही यह है कि हम उस आचरण को करने की क्षमता रखते हैं जो उचित एवं नैतिक है । संकल्प स्वातन्त्र्य, नैतिक अर्थ में, उस प्राचरण का सूचक नहीं है जो प्रेरणारहित है, अथवा जो यों ही, आवेगों के वशीभूत होकर किया जाता है या बिना सोचे-समझे किया जाता है वरन् उस आचरण का जिसे भली-भाँति सोचसमझकर सचेत भाव से किसी निर्दिष्ट लक्ष्य एवं मूल्य की प्राप्ति और संरक्षण के लिए किया जाता है । 1 इसी भाँति आत्मा की अमरता और ईश्वर का अस्तित्व भी नैतिक १. देखिए - पृ० २३ तथा प्रध्याय ७ । ३८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की अनिवार्य मान्यताएँ हैं । नैतिक प्रयासों एवं आचरण के लिए मानवजीवन के नैरन्तर्य की धारणा हमें बल प्रदान करती है। यदि यह मान लें कि क्षणभंगुर है, कल क्या होगा हम नहीं जानते, एवं भविष्य अनिश्चित और अज्ञेय है तथा इस जीवन के साथ ही आत्मा का विनाश हो जायेगा तो मनुष्य का नैतिक मूल्यों से विश्वास हट जायेगा और वह उस आचरण को अपना लेगा जो स्वार्थी, सुखवादी एवं असामाजिक है, जो मानवता-व्यक्ति तथा समाजदोनों के लिए ही घातक है। आत्मा की अमरता पर विश्वास रख मनुष्य उस भावी जगत की कल्पना करता है जहाँ उसका नैतिक आचरण शुभ और मंगल का प्रतीक होगा । भावी एवं नैतिक विश्व में, काण्ट के अनुसार नैतिकता अथवा शुभाचरण और आनन्द एक-दूसरे से सम्बद्ध होंगे । अतः आत्मा की अमरता, उसकी अविच्छिन्नता, शुभ आचरण के लिए प्रेरणादायक है। यदि आत्मा के अस्तित्व का इसी जीवन के साथ पर्यवसान मान लें अथवा आत्मा की क्षणभंगुरता की धारणा को स्वीकार कर लें तो उसका स्पष्ट परिणाम भोगवादी अथवा चार्वाक और स्थूल सुखवादी दृष्टिकोण होगा जो व्यक्ति और समाज के जीवन के लिए विनाशकारी है। जिस भाँति भविष्य जीवन नैतिकता की एक आवश्यक शर्त है उसी भाँति ईश्वर का अस्तित्व भी है। नैतिक ज्ञान उस सत्ता की अपेक्षा रखता है जो पूर्ण, सर्वज्ञाता, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी है एवं जो नैतिकता और प्रकृति का संरक्षक तथा न्याय और औचित्य का रक्षक है । ऐसी सत्ता की धारणा नैतिकता का वह महान् आधार और सम्बल है जो नैतिक व्यक्ति को विषम से विषमतर स्थिति में अडिग रखता है। विश्व एक सुनियोजित सोद्देश्य समग्रता है और इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह शुभ की प्राप्ति के लिए प्रयास करे, शुभ की प्राप्ति में भगवान सहायक होंगे क्योंकि वह शुभत्व का प्रतीक है। प्राचरण-कला की सम्भावना-कुछ विचारक नीतिशास्त्र को प्राचरणकला कहते हैं, किन्तु उसे प्राचारविज्ञान ही कहना उचित है । यथार्थ विज्ञान से अन्तर होने पर भी उसकी प्रणाली के कारण उसे विज्ञान ही कहना चाहिए। . जहाँ तक कला-निबन्धों का प्रश्न है उनका प्रयोग उस सुव्यवस्थित व्यक्त ज्ञान के लिए होता है जो ज्ञात सत्य को व्यवहार में लाता है । कला का उद्देश्य उस १. देखिए-सुखवाद, तथा अध्याय २१ (चार्वाक दर्शन)। २. देखिए-अध्याय ४ के अन्तर्गत. 'ईश्वर विद्या'। नीतिशास्त्र और विज्ञान | ३६ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट फल की उपलब्धि से है जिसे वह व्यक्त करती है। वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उचित साधनों की ओर ध्यान आकृष्ट करती है। नीति इस अर्थ में कला नहीं है । किसी प्रयोजन की सिद्धि इसका ध्येय नहीं है । नैतिकता के पीछे कोई ऐसा महान् उद्देश्य छिपा हुआ नहीं है जो मनुष्यों के आचरण को अप्रत्यक्ष रूप में नियन्त्रित करता है । नीतिज्ञ नैतिक आचरण को अपने में ही पूर्ण मानते हैं। कर्म अपने आपमें साध्य है। कर्म, कर्म के लिए है। वह स्वतः वांछनीय है, किसी महत् उद्देश्य की योजना का अंग नहीं है। नैतिक कर्मों को उनके पाभ्यन्तरिक गुणों के कारण स्वीकार करते हैं। उनका उद्देश्य किसी निश्चित फल का उत्पादन करना नहीं है। वह कला का उद्देश्य है । यदि कला लक्ष्य की पूर्ति की अपेक्षा रखती है तो नैतिकता आन्तरिक ध्येय की । कला की सफलता परिणाम पर एवं लक्ष्य की पूर्ति पर निर्भर है, चित्रकार के भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति पर । उसके लिए अपने भावों को व्यक्त करना आवश्यक है। किन्तु नैतिक कर्म की सफलता परिणाम पर निर्भर नहीं है, वह उसके आन्तरिक गुण पर निर्भर है। अत: नीतिज्ञ कहते हैं-'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।' सदाचारी का एकमात्र कर्तव्य शुभ कर्म करना है, उसे फल की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए । असफलता पाने पर अथवा बुरी परिस्थिति में पड़ जाने पर भी वह सदैव अपने शुभाचरण द्वारा मणि-दीप के समान ज्योतित् रहेगा। व्यावहारिक दर्शन-कई विचारक सिद्धान्त और व्यवहार के बीच स्पष्ट भेद मानते हैं। इसी कारण एक ओर वे नीतिज्ञ मिलते हैं जो नीतिशास्त्र को व्यावहारिक विज्ञान मानते हैं और दूसरी ओर वे जो उसे सैद्धान्तिक विज्ञान मानते हैं । किन्तु नीतिशास्त्र न तो मात्र व्यावहारिक है और न मात्र सैद्धान्तिक ही । वह व्यावहारिक होने के नाते ही सैद्धान्तिक है । इस तथ्य को समझने के लिए विज्ञान से उदाहरण लेना उचित होगा । प्रचलित धारणा के अनुसार विज्ञान केवल सैद्धान्तिक है। इस भ्रान्त धारणा के मूल में यह अभ्यास है कि लोग प्राकृतिक विज्ञानों को सत्य की उन बँधी हुई पद्धतियों के रूप में देखते हैं जो केवल पुस्तकों में पढ़ने को मिलती हैं, और जो बौद्धिक अभ्यासों के लिए साधनस्वरूप तथा लाभप्रद हैं। इतिहास बताता है कि विज्ञान के प्रारम्भ काल में उसके लिए केवल सैद्धान्तिक ही जिज्ञासा नहीं थी । मनुष्य की प्राकृतिक नियमों में स्वाभाविक रुचि होने के कारण वह अपने प्रयोजन की पूर्ति के लिए ही प्राकृतिक घटनाओं का कारण जानना चाहता था। उसकी भौतिक प्रावश्यकताओं ४० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने उसे अनजाने में ही वैज्ञानिक बना दिया। बाह्य-जगत के नियमों को समझने के लिए उसने उनका अनुशीलन किया। वैज्ञानिक चिन्तन तथा सिद्धान्त उसके प्रयोजन के ही प्रतिबिम्ब हैं । दीर्घकाल के पश्चात् उसमें उस 'तटस्थ जिज्ञासा' का प्रादुर्भाव हुआ जो महान् वैज्ञानिक आविष्कारों की जननी है । इसी प्रकार नीतिशास्त्र के क्षेत्र में भी व्यावहारिक आवश्यकताएँ ही नैतिक सिद्धान्त के प्रादुर्भाव का कारण हैं। आवश्यकताओं द्वारा प्रेरित होने के कारण मनुष्य अपने जीवन और विचारों पर मनन करता है। वह सहज प्रेरणावश प्रचलित नियमों, संस्थाओं आदि का या तो अनुमोदन करता है, और या तो विरोध । धीरे-धीरे उसकी बुद्धि के विकास के साथ ही पौचित्य-अनौचित्य के नैतिक नियम बौद्धिक, तर्कसंगत तथा सार्वभौमिक रूप धारण कर लेते हैं। इस रूप में वे अधिक लोगों को आकर्षित करते हैं और नियमबद्ध होने के कारण मानव की बौद्धिक माँगनियम-प्रियता को सन्तुष्ट करते हैं। साथ ही दैनन्दिन के जीवन से सम्बन्धित होने के कारण नैतिक निष्कर्ष तात्कालिक और सार्वभौमिक अभिरुचि के होते हैं। सिद्धान्त और व्यवहार का ऐक्य-नैतिकता का इतिहास यह भली-भांति सिद्ध कर देता है कि व्यवहार और सिद्धान्त एक ही सत्य के दो रूप हैं । नैतिक सिद्धान्त मूर्त सत्य (व्यावहारिक आवश्यकताओं) के ही अमूर्त रूप हैं । नैतिकता अपनी प्रथम स्थिति में सहज प्रवृत्ति, रूढ़ि और आदेश के रूप में प्रस्फुटित हुई, और बाद में इसके प्रति व्यक्ति अधिकाधिक सचेत होता गया। जीवन की बढ़ती हुई अव्यवस्था ने उसे संगति और विधान खोजने को प्रेरित किया । अतः प्रवृत्तियों के विरोध ने तथा बाह्य शक्तियों की क्रान्ति ने मनुष्य के नैतिक ज्ञान को चेतावनी देते हुए जाग्रत किया। वह प्रबुद्ध एवं प्रौढ़ चिन्तन करने लगा। नैतिक ज्ञानी ने आत्मानं विद्धि-आत्मा को जानने का उद्घोष किया । आत्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान ही वास्तव में आचरण-पथ का निर्देशन करता है। नैतिक संहितामों में जो परस्परविरोध, द्वेष, क्रोध, वैमनस्यता आदि मिलते हैं प्रात्म-सत्य उन सबको समन्वित कर मानव-बुद्धि को शुद्ध तथा मुक्त करता है । वह जीवन की केवल इच्छाओं, सहज प्रवृत्तियों, आवेगों, वासनाओं तथा. परिस्थितिजन्य संघर्षों के बीच नहीं बहने देता है। मानसिक विप्लव की स्थिति में नैतिक-ज्ञान शक्ति बनकर मनुष्य की रक्षा करता है। __जीवन की ठोस व्यावहारिक आवश्यकताएँ नैतिक मापदण्ड को खोजती हैं। वे उस मापदण्ड को निर्धारित करना चाहती हैं जो वास्तव में शुभ तथा सार्वभौमिक है। यह व्यावहारिक से सैद्धान्तिक स्थिति परिवर्तन का लक्षण है। नीतिशास्त्र और विज्ञान / ४१ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य जानना चाहता है कि जीवन किस सत्य पर आधृत है-वह सत्य व्यवस्थित तथा सन्तुलित है, अथवा अव्यवस्थित तथा संगतिहीन । जीवन का मूलतः क्या अर्थ है, और वह क्यों रहने योग्य है । यह स्वीकार करना उचित होगा कि प्रत्येक व्यक्ति स्वभावतः कर्मशील है और उसी के अनिवार्य परिणाम-स्वरूप वह नैतिक है । जनसाधारण का चिन्तन अधिकतर अव्यवस्थित, अस्पष्ट और विरल होता है । स्पष्ट और पूर्ण पाचरण का सिद्धान्त दीर्घ-प्रयास का फल है। गूढ़ नैतिक सिद्धान्त को तटस्थ जिज्ञासु ही जन्म दे सकता है-अथवा वह व्यक्ति जो आवश्यकताओं और विरोधों से ऊपर उठकर जीवन को उसकी पूर्णता में देखने का प्रयास करता है। नैतिक ज्ञान द्वारा वह सत्य को केवल बौद्धिक रूप से ग्रहण ही नहीं करता, वह उससे अपने प्राचरण का भी उन्नयन कर सत्य को भी आत्मसात् करता है। इस तथ्य को लक्षित करते हुए एक महान् विचारक ने कहा है कि नीतिज्ञ का चिरस्थायी अनुराग सैद्धान्तिक और व्यावहारिक है। यूनानी नीतिज्ञ, सूकरात की भाषा में 'ज्ञान सद्गुण है', सत्य का ज्ञाता अनिवार्य रूप से सत्य का मार्ग ग्रहण करेगा। बुद्ध ने भी प्रज्ञा और शील के ऐक्य को महत्त्व दिया है। परिपक्व नैतिकता व्यक्ति तथा राष्ट्र की बौद्धिक अन्तर्दष्टि को जाग्रत करती है; सामाजिक संगठनों और विभिन्न संस्थानों को सामूहिक रूप से वांछनीय ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रेरणा देती है; वह व्यक्ति को प्रवत्ति मार्ग की ओर अग्रसर कर उसे कर्मयोग का सन्देश देती है । गांधी की सत्य-अहिंसा की नैतिकता कर्मयोग की नैतिकता है। नैतिक सिद्धान्त आदर्श-विधायक होने के कारण व्यक्ति को उचित कर्म करने के लिए बाधित न कर उसे प्रेरित करता है । वह सजग, प्रबुद्ध प्राणी को उन पथ-प्रदर्शक नियमों का ज्ञान देता है जिसके द्वारा वह अपने कर्मों को सुनियन्त्रित कर सकता है। नैतिक जीवन कोरा नियमों अथवा सिद्धान्तों का जीवन नहीं है। वह शुष्क बुद्धिवाद भी नहीं है। वह आचरण के लिए कठोर नियमों, निश्चित साधनों का प्रतिपादन नहीं करता, वह व्यक्ति की बौद्धिक अन्तर्दष्टि को जाग्रत कर नैतिक जीवन के हृदय-स्पन्दन को उसके भीतर सजीव रूप दे देता है। नैतिक सिद्धान्त का सार स्थिर नियमों के प्रतिपादन में नहीं, नैतिकता की सहज स्वाभाविक उन्नति से है। मानव-जीवन के अभ्युदय को सम्मुख रखते हुए नीतिशास्त्र प्रत्येक देश, काल के सिद्धान्त को उस युग की प्रावश्यकताओं, सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक मानता है । अतः, गूढ़ नतिक सिद्धान्त उस परम मापदण्ड की खोज करता है जो विभिन्न सिद्धान्तों को संगठित ४२ / नीतिशास्त्र ....... For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर उनके मूल कारणों को विशिष्ट समयानुसार प्रकाश में ला सके । नैतिकता की उत्पत्ति की मांग उस सिद्धान्त या मापदण्ड की माँग है जो जीवन के ध्येय और मूल्य को सम्यक् ज्ञान द्वारा प्रदर्शित कर सके । परम मापदण्डी की खोज के लिए नीतिशास्त्र अपनी व्यावहारिक अन्तर्दष्टि का उपयोग करता है जो उसके लिए अनिवार्य है क्योंकि वह मानव आचरण की आवश्यकता का सिद्धान्त है। जहाँ तक नीतिशास्त्र के व्यवहार का प्रश्न है यह मनुष्य के व्यक्तित्व पर निर्भर है कि वह उसे अपने आचरण में कहाँ तक स्वीकार करता है। यह सम्भव हो सकता है कि वह नीतिशास्त्र का अध्ययन केवल परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए अथवा अपने सामान्य ज्ञान की अभिवृद्धि अथवा विद्वत्ता के प्रदर्शन के लिए ही करे। नीतिशास्त्र उसे केवल यह बता सकता है कि वास्तविक सुखोपभोग के लिए, जीवन की सार्थक प्राप्ति के लिए कल्याणप्रद नियम कौन से हैं । वह आत्म-प्रबुद्ध व्यक्ति की चेतना को जगाता है, उसे आत्म-सत्य की ओर प्रेरित करता है। आत्म-चेतन व्यक्ति को शुभप्रद नियमों के पालन के हेतु बाध्य करना वह हेय समझता है। यह सच है कि नैतिक सिद्धान्त का जनक जीवन है किन्तु अपनी नियामक शक्ति के कारण वह जीवन का निर्माता तथा पोषक बन जाता है। फिर भी यह प्रत्येक व्यक्ति पर निर्भर है कि वह अपने उचित ज्ञान के अनुरूप अपने आचरण को कितना संयमित करता है, पशु-जीवन से कितना ऊपर उठाता है और उसमें आत्म-पूर्णता को प्राप्त करने की प्रेरणा कितनी तीव्र है। नीतिशास्त्र और विज्ञान | ४३ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिशास्त्र की प्रणालियाँ नीतिशास्त्र की प्रणालियाँ-नीतिशास्त्र का आदर्श-विधायक स्वरूप यह स्पष्ट कर देता है कि धरती पर पैर होने पर भी यह मात्र धरती का नहीं है। मानव-जीवन के आदर्श से सम्बन्धित होने के कारण एक ओर तो वह यथार्थ विज्ञानों से सम्बन्धित है और दूसरी ओर तत्त्वदर्शन से । अतः यह न तो मात्र वह विज्ञान है जो अनुभव पर आधारित है और न मात्र वह आदर्श है जो अनुभव से स्वतन्त्र एवं अनुभवातीत है। नैतिक सिद्धान्तों का अध्ययन बतलाता है कि नीतिज्ञ इस सत्य की ओर से तटस्थ-सा रहे। प्रत्येक नीतिज्ञ ने एक विशिष्ट प्रणाली को महत्त्व दिया और उसी प्रणाली को उसने स्वयं स्वीकार किया। इस भाँति हमें अनेक प्रणालियाँ मिलती हैं । सुकरात की प्रश्नोत्तर एवं शंका-समाधान की प्रणाली, स्पैंसर की विशुद्ध वैज्ञानिक प्रणाली, हीगल और ग्रीन की दार्शनिक प्रणाली, उपयोगितावादियों की मनोवैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक प्रणाली, ग्रीन की मिश्रित प्रणाली आदि का अध्ययन यह बतलाता है कि नीतिज्ञों ने किसी एक प्रणाली को नहीं अपनाया है बल्कि विभिन्न प्रणालियों का आश्रय लिया है । स्थूल दृष्टि से जिन विभिन्न प्रणालियों को उन्होंने स्वीकार किया है उन्हें दो विधियों के अन्तर्गत समझा सकते हैं : दार्शनिक और वैज्ञानिक । १. वह पालोचनात्मक प्रणाली जो कि अपने प्रतिद्वन्द्वी के मत का खण्डन करके अपने मत का प्रतिपादन करती है। २. सिजविक ने सिद्धान्त को ही विधि मानकर नीतिशास्त्र की सभी विधियों को तीन मुख्य विधियों (स्वार्थवादी सुखवाद, सार्वभौम सुखवाद और सहजज्ञानवाद) के अन्तर्गत माना है। विधियों का इस प्रकार का वर्गीकरण अनुचित है क्योंकि सिद्धान्त पौर विधि में भेद ४४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिक और वैज्ञानिक विधि में भेद-वैज्ञानिक के अन्तर्गत भौतिक, जैव, मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक और उत्पत्ति-विषयक विधियाँ आ जाती हैं तथा दार्शनिक के अन्तर्गत वह विधि है जो परमसत्य के आधार पर नैतिक आदर्श के स्वरूप को निर्धारित करती है। वैज्ञानिक विधि को अपनानेवालों ने अनुभव और प्रत्यक्ष के आधार पर प्रदत्तों को इकट्ठा किया और उनके अध्ययन और वर्गीकरण द्वारा सामान्य नियमों की स्थापना कर नैतिक नियमों का तथ्यात्मक वर्णन किया। दार्शनिक विधिवालों ने प्रदत्तों के अर्थ समझने की चेष्टा की। अपने ज्ञान को सांसारिक घटनाओं एवं बाह्य सत्यों और इन्द्रियजन्य ज्ञान तक सीमित न रखकर गम्भीर चिन्तन, विश्लेषण और बौद्धिक अन्तर्दृष्टि की सहायता ली। उन्होंने व्यक्तियों के सत्यस्वरूप को समझने का प्रयास किया और उस स्वरूप को नैतिक आदर्श का आधार माना। वैज्ञानिक विधि तथ्यात्मक और वर्णनात्मक है और दार्शनिक विधि आलोचनात्मक और चिन्तन-प्रधान है। वैज्ञानिक विश्लेषण की सहायता से प्रत्येक घटना को अलग-अलग समझना चाहता है तो दार्शनिक समग्रता के सम्बन्ध में समझने का प्रयास करता है । वैज्ञानिक विधि-वैज्ञानिक विधि को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं : मनोवैज्ञानिक और अमनोवैज्ञानिक । मनोवैज्ञानिक विधिवाले विचारक वे हैं जिन्होंने नैतिक तथ्य को मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की सहायता से समझाया और अमनोवैज्ञानिक विधिवाले वे हैं जिन्होंने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की सहायता नहीं ली। इन्होंने भौतिक और जैव तथ्यों से नैतिक तथ्यों का निगमन किया। इस भेद को यह कहकर भी समझाया जा सकता है कि अमनोवैज्ञानिक विधिवालों ने निगमनात्मक प्रणाली को स्वीकार किया और मनोवैज्ञानिक विधिवालों ने विश्लेषणात्मक एवं आगमनात्मक प्रणाली को । वह अमनोवैज्ञानिक प्रणाली जिसका प्रयोग विशेष रूप से स्पैंसर और जड़वादियों ने किया है, प्राकृतिक या भौतिक निगमनात्मक प्रणाली कहलाती है। इसका कारण यह है कि अमनो-वैज्ञानिक या निगमनात्मक प्रणाली का प्रयोग दार्शनिक विधिवालों ने भी किया है। अतः उनकी प्रणाली दार्शनिक निगमनात्मक प्रणाली है। ___ अमनोवैज्ञानिक विधि-विकासवादी सुखवादियों ने अपने सिद्धान्त द्वारा भौतिक और जैव प्रणाली को महत्त्व दिया। स्पैंसर का कहना है कि जैव नियमों से नैतिक नियमों का निगमन करना चाहिए । नैतिक नियमों को समझने के लिए है। विधियों का वर्गीकरण उन्हीं की विशेषताओं के आधार पर कर सकते हैं। वास्तव में सिजविक ने सिद्धान्तों का वर्गीकरण किया है। नीतिशास्त्र की प्रणालियाँ | ४५ For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिकविज्ञान, जीवशास्त्र और समाजशास्त्र की सहायता लेनी चाहिए। विकासवादी सुखवादियों (स्पेंसर, लेज्ली स्टीफेन और एलेकण्डर) ने ही, वास्तव में, ऐतिहासिक और उत्पत्ति-विषयक प्रणाली को महत्त्व दिया। नैतिकता की उत्पत्ति का इतिहास बतलाता है कि निनैतिकता से नैतिकता की उत्पत्ति हुई। जीवनसंघर्ष के क्रम में नैतिक नियम उत्पन्न हुए। नैतिक नियम के उद्भव को तथा विकास के क्रम को समझाना समाजशास्त्र का काम है न कि नीतिशास्त्र का। विकासवादियों ने जिस ऐतिहासिक और उत्पत्ति-विषयक एवं समाजशास्त्रीय प्रणाली को मान्यता दी वह समाजशास्त्र की है। नैतिक नियमों के उद्भव का इतिहास उनकी प्रामाणिकता को सिद्ध नहीं कर सकता। नीतिशास्त्र का काम 'नियमों का मूल्यांकन करना है न कि उनका ऐतिहासिक और तथ्यात्मक वर्णन करना। कार्ल मार्क्स ने ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय प्रणाली की शरण लेकर समाज की अर्थशास्त्रीय व्याख्या की ओर, इसके आधार पर समझाया कि नैतिक नियम समाज की भूतकालीन और वर्तमान आर्थिक रचना का प्रतिबिम्ब हैं। इस भाँति उसने सामाजिक मान्यताओं और नैतिक नियमों का आर्थिक स्पष्टीकरण किया। - मनोवैज्ञानिक विधि-मनोवैज्ञानिक विधिवालों ने नैतिक तथ्यों को चेतना के विश्लेषण द्वारा समझाया। नैतिक समस्या मानव-स्वभाव की समस्या है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा इसको सुलझा सकते हैं । ह्य म, बैथम और मिल मे मनुष्य के स्वभाव, कर्म और प्रवृत्तियों का विश्लेषण करके शुभ के स्वरूप को निर्धारित किया । मनुष्य स्वभाववश सुख की खोज करता है और दुःख का परित्याग करता है । सुख जीवन का ध्येय है। मिल ने मनुष्य-स्वभाव के आधार ‘पर सुख को वांछनीय माना और उसी के द्वारा कर्म के औचित्य-अनौचित्य को निर्धारित किया। कडवर्थ, क्लार्क, शेफ्ट्सबरी आदि सहज ज्ञानवादियों ने भी मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाया। चेतना का विश्लेषण बतलाता है कि मानस में कर्म के औचित्य-अनौचित्य को समझने के लिए एक सहजात शक्ति एवं अन्तर्बोध है । सुखवादियों की भाँति मनोवैज्ञानिक और विश्लेषणात्मक प्रणाली को अपनाने पर भी सहजज्ञानवादी भिन्न निष्कर्ष पर पहुंचे । काण्ट ने भी इसी पद्धति को अपना १. देखिए-भाग २ । ४६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हा कर कर्तव्य के निरपेक्ष आदेश को महत्त्व दिया । काण्ट और सहजज्ञानवादी मनोवैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक पद्धति के साथ दार्शनिक पद्धति को अपनाते हैं । वास्तविकता से अधिक महत्त्व प्रादर्श को देते हैं। दार्शनिक विधि-प्लेटो, अरस्तु, हीगल, ग्रीन तथा उसके अनुयायियों ने दार्शनिक निगमनात्मक प्रणाली को अपनाया। इन आदर्शवादी नीतिज्ञों ने नैतिक आदर्श को समझने के पूर्व परमसत्य को समझना आवश्यक समझा । सत्ता के स्वरूप से नैतिकता के अन्तर्तथ्य का निगमन किया। नीतिशास्त्र अपने आदर्श के लिए तत्त्वदर्शन पर निर्भर है। तत्त्वदर्शन ही उसे ध्येय की धारणा देता है । तत्त्वदर्शन के आधार पर प्लेटो ने समझाया कि कालजगत शाश्वत की छायामात्र है । हीगल का कहना है कि अनेकता परमसत्य की ही अभिव्यक्ति है और ग्रीन ने परमसत्य को शाश्वत चैतन्य के रूप में स्वीकार किया । मनुष्य के स्वभाव को ऐसे दर्शन पर आधारित करके इन विचारकों ने कहा कि मनुष्य को अपनी सीमाओं से ऊपर उठकर शाश्वत को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए । शाश्वत ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप एवं आन्तरिक सत्य है। शाश्वत को प्राप्त करना पूर्णता को प्राप्त करना है, यही परमध्येय है। ऐसे सिद्धान्त को, जो कि ज्ञेय का आधार अज्ञेय को मानता है, जनसामान्य के लिए स्वीकार करना कठिन है । जनसामान्य उस सत्य को सरलता से ग्रहण कर सकता है जिसका कि वह अनुभव कर सके । वह यह जानना चाहता है कि अनुभवात्मक आत्मा का आचरण कैसा होना चाहिए । नीतिशास्त्र व्यावहारिक विज्ञान है । वह वास्तविक तथ्यों से विरक्त होकर प्रादर्श की ओर नहीं जा सकता। प्लेटो ने तो शाश्वत और नश्वर जीवन के द्वैत को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है । ऐसे परमतात्त्विक दृष्टिकोण उस विज्ञान के लिए अनुचित हैं जिसका सम्बन्ध व्यावहारिक जीवन से है। पालोचना : नैतिक विधि की प्रोर-भौतिक घटनाओं, जैव और सामाजिक तथ्यों, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तथा भूत और वर्तमान से सम्बन्ध रखनेवाली विधि चाहे और कुछ भी हो, नैतिक विधि नहीं है। नैतिक विधि भविष्य से . असम्बद्ध नहीं रह सकती । वह उस मानवोचित आदर्श को समझना चाहती है जो व्यक्ति को पूर्णता प्रदान करके गौरवान्वित करता है। आदर्श का जिज्ञासु व्यक्ति भत, वर्तमान और भविष्य से अविच्छिन्न रूप से सम्बन्धित है। वह अपने ज्ञान को प्राकृतिक विज्ञान, कार्य-कारण का नियम, अचेतन तथा चेतन तथ्य तक सीमित नहीं रख सकता । नैतिकता इस सत्य पर आधारित है कि आत्मप्रबुद्ध नीतिशास्त्र की प्रणालियाँ | ४७ For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणी केवल देह-मन की सामान्य आवश्यकताओं का प्राणी नहीं है । वह आध्यात्मिक और नैतिक है । यथार्थ से सम्बन्धित होने पर भी नीतिशास्त्र उसी में सीमित नहीं रह जाता है बल्कि उससे ऊपर उठने की चेष्टा करता है। नैतिक आदर्श वह सत्य है जो अनुभवात्मक होने पर भी अनुभवातीत है । वह 'क्या है' को स्वीकार अवश्य करता है पर वह केवल 'क्या है' नहीं है । वह उन समस्त सम्भावनाओं का सूचक है जो भविष्य में पूर्णता प्राप्त करेंगी । यही कारण है कि नीतिशास्त्र उस पूर्णता ( अन्तिम स्थिति) और निश्चयात्मकता को भी प्राप्त नहीं कर सकता जो गणित और भौतिक विज्ञानों का विशेष गुण है । नीतिशास्त्र को भूत और भविष्य तक सीमित कर देना अथवा उसे वर्णना - त्मक विज्ञानों की श्रेणी में रख देना भ्रान्तिपूर्ण है । नैतिक रुचि का केन्द्र अपनेआप में ऐतिहासिक घटनाएँ नहीं हैं किन्तु उन घटनाओं का परम स्पष्टीकरण और शाश्वत अर्थ है । नीतिशास्त्र नैतिक आदर्श एवं मानदण्ड की खोज करता है और प्रचलित या भावात्मक नैतिकता का इस श्रादर्श के सम्बन्ध में समर्थन श्रथवा समर्थन करता है । अतः नीतिशास्त्र के लिए कर्म और घटनाओं के कारणों की खोज उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है जितनी कि स्वयं कर्म, उसका परिणाम और वह आदर्श जिसको कि वह व्यक्त करता है । नीतिशास्त्र का प्रत्यक्ष सम्बन्ध अभ्यास, रीति-रिवाज और नियमों के उद्गम के इतिहास से नहीं है वरन् उनके वर्तमान मूल्य से । वह नियमों का मूल्य उन लोगों के सम्बन्ध में प्रकता है जिनके जीवन में वे व्यवहृत होते हैं । आदर्श से सम्बन्धित होने के कारण ही मनुष्य के स्वभाव का मनोवैज्ञानिक श्रौर विश्लेषणात्मक एवं तथ्यात्मक वर्णन मात्र नैतिक समस्याओं को हल नहीं कर सकता है । अथवा नैतिक तथ्यों का मनोवैज्ञानिक वर्णन नैतिक आदर्श के स्वरूप को निर्धारित नहीं कर सकता । निःसन्देह मनोविज्ञान नैतिक चेतना के दृष्टिगत विषयों को प्रस्तुत करने में पूर्णतः समर्थ है किन्तु नीतिशास्त्र ऐसे ज्ञान से पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि उसके निर्णय मूल्यपरक होते हैं । घटनाओं के अर्थ का स्पष्टीकरण करनेवाले आदर्श - विधायक विज्ञान के लिए शुद्ध वैज्ञानिक विश्लेषण अपर्याप्त हैं । नीतिशास्त्र उचित - अनुचित के मानदण्ड को जानना चाहता है और उस मानदण्ड के आधार पर कर्म का मूल्यांकन करता है । अच्छे कर्म का शुभत्व कर्म की समग्रता पर निर्भर है किन्तु मनोवैज्ञानिक पद्धति विश्लेषणात्मक है । वैज्ञानिक पद्धति की सीमाओं को देखते हुए क्या हम यह कह सकते हैं कि ४८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक आदर्श का क्षेत्र दर्शन का क्षेत्र है और इसलिए दार्शनिक पद्धति उचित पद्धति है ? जिस आदर्श की प्राप्ति के लिए नीतिशास्त्र प्रयास करता है वह मात्र काल्पनिक और चिन्तनप्रधान नहीं है । उस आदर्श का सम्बन्ध वास्तविक अनुभवात्मक जगत से है अथवा प्रतिदिन और प्रतिक्षण के कार्य-कलापों से है । अनुभवात्मक आत्मा से सम्बन्ध रखनेवाले आदर्श के लिए उसका ज्ञान अनिवार्य है एवं मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, जीवशास्त्र आदि विज्ञानों की सहायता लेना आवश्यक है । दार्शनिक प्रणाली को महत्त्व देनेवाले भूल गये कि नैतिक आचरण का एकमात्र उद्देश्य शाश्वत जीवन नहीं है । सद्गुण, कर्तव्य, त्याग, बाध्यता आदि अनुभवात्मक आत्मा के सम्बन्ध से ही अर्थगर्भित होते हैं । नीतिशास्त्र में दोनों प्रणालियां परस्पर निर्भर - नीतिशास्त्र नैतिक निर्णयों को विधान की एकता में बाँधने का प्रयास करता है । वह नैतिक तथ्यों का उस नैतिक आदर्श के सम्बन्ध में व्याख्या और स्पष्टीकरण करता है जो कि सत्ता के विधान से अनन्य रूप से सम्बन्धित है । इस दृष्टि से नीतिशास्त्र के क्षेत्र में वैज्ञानिक और दार्शनिक प्रणाली परस्पर निर्भर हैं । वैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर नीति - शास्त्र नियम, कर्म, चरित्र, अभ्यास आदि का विज्ञान की भाँति निरीक्षण और स्पष्टीकरण करता है । सामान्यबोध के निर्णयों को, चाहे वे तथ्यात्मक हों या मूल्यपरक, विधान की एकता में बाँधकर व्यवस्थित रूप देने का प्रयास करता है । इसके आगे नीतिशास्त्र और विज्ञान में भेद है । नैतिक निर्णय मूल्यपरक और वैज्ञानिक तथ्यात्मक हैं । विज्ञान का क्षेत्र सीमित है । नीतिशास्त्र विज्ञान से युक्त होने पर भी व्यापक क्षेत्र को अपनाता है । वह तब तक पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता जब तक कि नैतिक दर्शन या तत्त्वदर्शन को नहीं अपना लेता है । उसके मूल्यपरक निर्णय चिन्तनप्रधान या दार्शनिक होते हैं । अतः नीतिशास्त्र वैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश करता है । नैतिक निर्णय अपनी परमप्रामाणिकता के लिए एवं नैतिक विचार अपने अर्थ, मूल्य और सार्थकता के लिए तत्त्वदर्शन पर निर्भर हैं । नीतिशास्त्र अपने भीतर अनुभवात्मक और अनुभवातीत तथ्यों का समावेश करता है । नैतिक प्रणाली : समन्वयात्मक - जीवन में निहित प्रदर्श को समझने का विज्ञान शुद्ध विज्ञान से भिन्न है। वह किसी घटना को पूर्वकालीन घटना एवं कार्य-कारण के नियम द्वारा नहीं समझाता वरन् उसे समस्त विश्व की आवयविक व्यवस्था का अभिन्न अंग मानता है । ऐसी स्थिति में विषयों का केवल बाह्य निरीक्षण पर्याप्त नहीं है । प्रत्यक्ष अन्तर्ज्ञान या सहजज्ञान एवं समग्रता का ज्ञान नीतिशास्त्र की प्रणालियाँ / ४६ 1 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 भी आवश्यक है । अतः नीतिशास्त्र ने मिश्रित प्रणाली एवं समन्वयात्मक प्रणाली को स्वीकार किया । ब्रेडले ने मनुष्य के सामाजिक और बौद्धिक स्वरूप को महत्त्व देने के कारण इस प्रणाली को अपनाया है । नीतिशास्त्र अपने लक्ष्य और उद्देश्य में दार्शनिक है किन्तु अपनी प्रणाली में उन सत्यों की पुष्टि वैज्ञानिक रीति से करता है । जिस भाँति हम आदर्श विधायक विज्ञान से दो भिन्न विषयों को नहीं समझते हैं उसी भाँति नीतिशास्त्र के क्षेत्र में वैज्ञानिक और दार्शनिक दो भिन्न प्रणालियाँ नहीं हैं । दोनों प्रणालियों को नैतिक दृष्टि से समझने पर ज्ञात होगा कि नैतिक प्रणाली समन्वयात्मक है । वह तथ्यों के निरीक्षण और वर्गीकरण के साथ ही प्रालोचनात्मक, विश्लेषणात्मक, मूल्यपरक तथा चिन्तनप्रधान है । संक्षेप में नैतिक प्रणाली वैज्ञानिक और दार्शनिक, भागमनात्मक और निगमनात्मक, निरीक्षणात्मक और चिन्तनप्रधान एवं अनुभवातीत है । ५० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिशास्त्र और अन्य विज्ञान नीतिशास्त्र का अन्य शास्त्रों से सम्बन्ध नीतिशास्त्र आदर्श-विधायक विज्ञान है। इस आदर्श की भित्ति वास्तविक व्यावहारिक जगत है। इस दष्टि से नीतिशास्त्र के क्षेत्र में यथार्थ और आदर्श को संयुक्त मानना उचित होगा । नीतिशास्त्र का यथार्थवादी विज्ञानों से अनिवार्य सम्बन्ध है, उन सभी विज्ञानों से है जो मनुष्य के जीवन, स्वभाव और स्थिति पर प्रकाश डालते हैं एवं जो मनुष्य के सम्पूर्ण आचरण को समझाने में सहायक होते हैं । नैतिक सिद्धान्तों का अध्ययन करने पर यह और अधिक स्पष्ट हो जायेगा कि उसके सिद्धान्तों का पुष्टीकरण करने के लिए समाजशास्त्र, ईश्वरविद्या तथा तत्त्वदर्शन का ज्ञान' विशेष रूप से आवश्यक है। अतः इन्हीं विज्ञानों के साथ हम नीतिशास्त्र का सम्बन्ध समझने का प्रयास करेंगे। समाजशास्त्र-समाजशास्त्र सामाजिक विकास और ह्रास की विभिन्न स्थितियों में मानव-जीवन का अध्ययन करता है। आधुनिक स्थिति तक पहुंचने के लिए आदिम बर्बर मनुष्य ने किन-किन स्थितियों का अतिक्रमण किया, प्राज जिस रूप में समाज को देखते हैं उसकी पूर्वकाल में क्या रूप-रेखा थी; समाज की उत्पत्ति, विकास और निर्माण किन नियमों द्वारा परिचालित होता है, समाजशास्त्र इनकी क्या व्याख्या करता है। सामाजिक संस्थानों, नियमों, अभ्यासों, प्रचलनों, रीतियों की उत्पत्ति में कौन विशिष्ट परिस्थितियाँ कार्य कर रही थीं, १. नीतिशास्त्र का मनोविज्ञान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को सभी नीतिज्ञ मानते हैं। इसके लिए देखिए-अध्याय ४ । नीतिशास्त्र और अन्य विज्ञान. / ५१ For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत में अस्पृश्यता, बालविवाह, सतीप्रथा आदि जो सामाजिक नियम मिलते हैं उनके मूल में कौन-सी सामाजिक प्रेरणाएं काम कर रही थीं आदि ऐसी अनेक समस्याओं पर प्रकाश डालकर वह समाज की वस्तु-स्थिति के बारे में पूर्ण ज्ञान देता है। समाजशास्त्र यथार्थ विज्ञान है। वह वर्णनात्मक तथा इतिवृत्तात्मक है और नीतिशास्त्र मनुष्य के आचरण का विज्ञान है, आदर्श-विधायक तथा विधि-निषेधात्मक है । वह मनुष्य के कर्मों का इस आधार पर मूल्यांकन करता है कि वह एक सामाजिक प्राणी है। उसका एकाकी अस्तित्व अचिन्तनीय है । अनुभव, अध्ययन एवं मनोवैज्ञानिक चिन्तन के फलस्वरूप सभी नीतिज्ञ यह मानने लगे हैं कि मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्माण तथा उसके चारित्रिक गठन में सामाजिक संस्थानों, वातावरण एवं परिवेश का विशिष्ट हाथ है। वह अपनी भाषा, संस्कृति, सभ्यता और नैतिक गुणों के लिए बहुत अंशों तक समाज पर निर्भर है । वह अपने जीवन के सुख, स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए सामाजिक सहयोग की याचना करता है। संक्षेप में, व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। इस अनन्य सम्बन्ध को सम्मुख रखते हुए कुछ नीतिज्ञों-विकासवादी सुखवादियों का कहना है कि नीतिशास्त्र समाजशास्त्र का अंगमात्र है। उसे अपने नियमों का प्रतिपादन करने के लिए पूर्णरूप से समाजशास्त्र पर आश्रित रहना चाहिए। क्योंकि नैतिकता की समद्धि सामाजिक संगठन और स्वास्थ्य पर निर्भर है। विकासवाद यह बताता है कि मनुष्य ने अपने जीवन-संरक्षण के लिए बाह्य परिवेश तथा परिस्थितियों के साथ संयोजित होने का प्रयास किया है। इस प्रयास के क्रम में उसे कुछ लाभप्रद नियम मिले। और यही नियम नैतिक हैं जो सामाजिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं । सामाजिक विकास के साथ ही इन नियमों का विकास हुआ है जिससे यह सिद्ध होता है कि समाजशास्त्र का अध्ययन ही नैतिक नियमों का स्पष्टीकरण कर सकता है। अथवा नैतिक नियमों का ज्ञान उन नियमों का ज्ञान है जिन्हें कि जाति ने अपने संरक्षण के लिए लाभप्रद पाया । अतः समाजशास्त्रीय नीतिज्ञों का कहना है कि नीतिशास्त्र के लिए समाजशास्त्र का ज्ञान अनिवार्य है। व्यक्ति और समाज के अनन्य सम्बन्ध को आधुनिक नीतिज्ञ मानते हैं, और परिणामस्वरूप नीतिशास्त्र और समाजशास्त्र के घनिष्ठ सम्बन्ध को स्वीकार करते हैं । नीतिशास्त्र का ज्ञान भी यह स्पष्ट करता है कि मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के कारण ही उसके आचरण पर नैतिक निर्णय दिया जाता है। ५२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और समाज एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं । व्यक्ति की नैतिक अन्तदृष्टि सामाजिक मलिन प्रवृत्तियों का परिष्कार कर उसे एक शिष्ट और संस्कृत स्तर देती है । स्वस्थ और संस्कृत सामाजिक संस्थाएं पुष्ट परिपक्व व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं । अथवा व्यक्ति युगचेतना का अंश है, उसका प्राचरण सामाजिक पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता है । उसकी प्रेरणाएँ, आन्तरिक प्रवृत्तियाँ बहुत हद तक वातावरण और परिस्थितिजन्य होती हैं । किन्तु सामाजिक महत्त्व को स्वीकार करने के अर्थ यह कदापि नहीं हैं कि नैतिकता अपने मौलिक सत्य को भूल जाय । नीतिशास्त्र आदर्श - विधायक होने के कारण समाजशास्त्रीय यथार्थ से प्रागे बढ़ता है | समाजशास्त्र सामाजिक विधान को समभता है; उन आचरणों, भावनात्रों, निर्णयों को समझाता है जो कि सामाजिक प्राणियों या सामान्य मनुष्यों के संगठित समुदाय द्वारा व्यक्त होते हैं । नीतिशास्त्र मानव स्वभाव के इस व्यक्त रूप को समझने के साथ ही अपना आदर्शविधायक दृष्टिकोण भी रखता है । वह सामाजिक आदर्शों एवं प्रणालियों के चित्य - अनौचित्य पर निर्णय देता है । समाजशास्त्र उन सामाजिक ऐक्य के नियमों का स्पष्टीकरण करता है जिसके द्वारा मानव-आचरण सम्बन्धी विभिन्नतान, विरोधी भावनाओं और निर्णयों के अस्तित्व को समझा जा सकता है । नीतिशास्त्र इसके भी ऊपर यह बताता है कि कौन-सी आचरण की विभिन्नता उचित है और कौन-सा निर्णय प्रामाणिक है । उपर्युक्त कथन इन दोनों के सम्बन्ध और भेद को भी स्पष्ट करता है अर्थात् समाजशास्त्र केवल वर्णनात्मक विज्ञान है और नीतिशास्त्र आदर्श - विधायक विज्ञान है । आदर्श - विधायक होने के नाते नीतिशास्त्र समाजशास्त्र की भाँति तत्त्वदर्शन के निष्कर्षों से मुक्त नहीं है | समाजशास्त्र मुख्यतः सामूहिक जीवन का अध्ययन करता है । उसके अनुसार व्यक्ति सामूहिक जीवन का ही प्रतिबिम्ब मात्र है, उसका अपना अस्तित्व नगण्य है । नीतिशास्त्र व्यक्ति के उस स्वतन्त्र अस्तित्व का अध्ययन करता है जो समाज का अविच्छिन्न अंग होते हुए भी अपना विशिष्ट व्यक्तित्व रखता है । अतएव संकल्प की स्वतन्त्रता यदि नीतिशास्त्र की आवश्यक मान्यता है तो. समाजशास्त्र के लिए वह केवल थोथी प्रमाणित होती है । समाजशास्त्र मानसिक क्रियाओं का वस्तुगत विश्लेषण करता है । नीतिशास्त्र मानसिक व्यापारों का प्रान्तरिक दृष्टिकोण से अध्ययन करता है । वह आन्तरिक प्रवृत्तियों - इच्छा, प्रेरणा, उद्देश्य, संकल्प आदि - पर प्रकाश डालता है । समाजशास्त्र केवल सैद्धान्तिक है । नीतिशास्त्र सैद्धान्तिक के साथ ही व्यावहारिक भी है। नीतिशास्त्र और अन्य विज्ञान / ५३ For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यावहारिक होने के कारण इसके निष्कर्षों का सार्वभौमिक और तात्कालिक महत्त्व है। समाजशास्त्र सामाजिक स्वास्थ्य की वृद्धि एवं भौतिक सुख को सम्मुख रखते हुए लाभप्रद नियमों को महत्त्व देता है। किन्तु नीतिशास्त्र भौतिक सूख के उद्देश्य से लाभप्रद नियमों को अनैतिक कहता है। वह उच्चतम नैतिक ध्येय के लिए ऐहिक सुख की उपेक्षा करता है। नीतिशास्त्र भौतिक कल्याण से परे विश्व के नैतिक कल्याण की भी स्थापना करना चाहता है। यह कल्याण समाजशास्त्र की भाँति केवल सामाजिक ही नहीं, वैयक्तिक और सामाजिक दोनों है । समाजशास्त्र नैतिकता की विकसित स्थितियों अथवा विकासक्रम में विकसित नैतिक प्रगति के व्यक्त रूप को ही समझाता है। किन्तु नीतिशास्त्र उस परम आदर्श की खोज करता है जो कि सामाजिक संस्थाओं के औचित्यअनौचित्य को समझा सके । ईश्वर विद्या-ईश्वरविद्या सृष्टितत्त्व तथा सृष्टिकर्ता के बारे में बताती है। सृष्टि का सम्बन्ध वास्तविक दृश्यमान जगत से है । वह जगत जिसमें हम रहते, खाते और चलते हैं। इस जगत का निर्माण करनेवाला ईश्वर है। ईश्वरविद्या ईश्वर, प्रात्मा और सृष्टि के सम्बन्ध में प्रकाश डालती है। ईश्वर इस विश्व का स्रष्टा है । वह सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञाता, सर्वदर्शी, न्यायशील है। वह शुभ और सद्गुण की पूर्णता का प्रतीक है। सत्यशील एवं न्यायप्रिय होने के कारण उसने विश्व-विधान का संचालन अनिवार्य नैतिक नियमों द्वारा किया है। मनुष्य उसकी सृष्टि का उच्चतम प्राणी है। उसके पास स्वतन्त्र मनःशक्ति है। वह प्रात्मचेतन है। अतः वह सृष्टिकर्ता के प्रति अनुगृहीत है । उसको चाहिए कि वह ईश्वरीय शाश्वत नैतिक नियमों को समझे । उसका कर्तव्य है कि वह अपनी स्वतन्त्र बुद्धि तथा मन:शक्ति का सदुपयोग करे; भगवद्-इच्छा के अनुरूप कर्म करे। ईश्वरविद्या अथवा अध्यात्म बताता है कि जीवन का ध्येय सार्वभौम शुभ है। प्रत्येक प्राणी के सुख के लिए प्रयास करना ही मनुष्य का कर्तव्य है। सत्तात्मक रूप से सब प्राणी समान हैं और सबका जनक ईश्वर है । सब प्राणी एक ही परिवार के बालक हैं। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' में भेद के लिए, तेरे-मेरे के लिए, स्थान नहीं है। भिन्नता या विभेद माया मात्र है, अर्थ-शून्य है। ईश्वर परमसत्य है। सृष्टि उसी का रूप है। इस प्रकार ईश्वरविद्या अहिंसा एवं विश्व-प्रेम की नींव डालता है। वह जीवन के ध्येय को सार्वभौम शुभ बताकर व्यक्ति को वैयक्तिक संकीर्णता से ऊपर उठाकर विश्वात्मा के दर्शन कराता है। ५४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ विचारकों के अनुसार नीतिशास्त्र और ईश्वरविद्या में प्रमुख अन्तर यह है कि नीतिशास्त्र उस परमशुभ की खोज करता है जो व्यक्ति के लिए वांछनीय है अर्थात् नीतिशास्त्र व्यक्ति के लिए वांछनीय शुभ एवं प्रात्मकल्याण को महत्त्व देता है और ईश्वरविद्या सामूहिक सार्वभौम शुभ को; अथवा एक के सम्मुख व्यक्ति का कल्याण है और दूसरे के सम्मुख समष्टि का। उनके अनुसार नीतिशास्त्र के लिए समाज नगण्य है और ईश्वरविद्या के लिए व्यक्ति । किन्तु व्यक्ति और समष्टि में भेद देखना मूर्खता है। दोनों परस्पर सजीव रूप से सम्बद्ध हैं । इनका सम्बन्ध सांगोपांग है। वैयक्तिक कल्याण सार्वभौम कल्याण की अपेक्षा रखता है और सार्वभौम वैयक्तिक कल्याण की। दोनों के ही ध्येय को सर्वकल्याणकारी कह सकते हैं। नैतिकता व्यक्ति और समष्टि के द्वारा इस मार्ग को ग्रहण करती है और ईश्वरविद्या सृष्टितत्त्व और सृष्टिकर्ता के बोध द्वारा। जहाँ तक दोनों के प्राचार-सम्बन्धी नियमों का प्रश्न है, दोनों समान हैं । नीतिशास्त्र और ईश्वरविद्या दोनों ही मानते हैं कि मनुष्य जैव और भौतिक आवश्यकताओं के हाथ का खिलौना मात्र नहीं है । उसके जीवन का ध्येय महान है । उसका वर्तमान जीवन वांछनीय शुभ के लिए साधन मात्र है। वह अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है । उसके कर्म स्वेच्छाकृत हैं । उसका संकल्प स्वतन्त्र है । यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि दोनों स्वतन्त्रता का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में करते हैं। नीतिशास्त्र के अनुसार मनुष्य को अपने कर्मों को विवेक द्वारा परिचालित करना चाहिए। उसे उन्हीं कर्मों को करना चाहिए जो उचित हों। उसे अपनी आत्मा के आदेश को मानना चाहिए । नैतिक नियम आत्म-आरोपित हैं। किन्तु ईश्वरविद्या के अनुसार मनुष्य की स्वतन्त्रता इस तथ्य पर निर्भर है कि वह भगवइच्छा को समझ सकता है, उसके अनुरूप कर्म कर सकता है। ईश्वरीय आदेश का पालन कर सकता है; भगवत्कृपा द्वारा परम आदेश एवं ईश्वरीय आदेश को समझ सकता है। नीतिशास्त्र के अनुसार अनैतिक कर्म करने से पश्चात्ताप होता है। व्यक्ति की सत्यात्मा उसे प्रताड़ित करती है । आत्मसन्तोष के लिए उसे नैतिक आदेश का अनिवार्य रूप से पालन करना पड़ता है। किन्तु ईश्वर विद्या के अनुसार न्यायशील ईश्वर द्वारा दण्डित होने के भय से अथवा नरक के भय एवं स्वर्ग की लालसा से ही व्यक्ति सदाचार करता है। वह अपने कर्ता को प्रसन्न करने के लिए अथवा उसका साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए देवी नियमों का पालन करता है। नैतिक आदेश प्रान्तरिक आदेश है। नीतिशास्त्र और अन्य विज्ञान | ५५ For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैवी प्रदेश बाह्य प्रदेश है । फिर भी यह वास्तविक सत्य है कि जनसाधारण ईश्वरविद्या एवं धर्म से ही अधिक प्रभावित होता है । वह भयवश नियमों का पालन करता है । नीतिशास्त्र ऐसे कर्मों को अनैतिक कहता है । वैसे, दोनों ही स्वार्थ से परे परमार्थ की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं; मनुष्य को सद्गुणी बनने के लिए प्रेरित करते हैं; उसे उसके कर्तव्यों के बारे में सचेत करते हैं । यह अवश्य है कि नीतिशास्त्र में नैतिक कर्तव्यों की रूप-रेखा बुद्धि द्वारा निर्धारित की जाती है और ईश्वरविद्या में कर्तव्य का निर्णय ईश्वर की धारणा के अनुरूप किया जाता है । ईश्वर विद्या नीतिशास्त्र को यह बताती है कि नैतिक आदर्श मानव-मन की कल्पना मात्र नहीं है । वह मनुष्य की अन्तरात्मा या परमात्मा का व्यक्त रूप है और नीतिशास्त्र ईश्वरविद्या को विवेकसम्मत करके उसके नियमों को वस्तुगत तथा सार्वभौम स्वरूप देकर देवी प्रदेश के प्रान्तरिक पक्ष पर प्रकाश डालता है । यह आदेश बाह्य प्रदेश नहीं, मनुष्य की अन्तरात्मा का आदेश है । ईश्वरविद्या नीतिशास्त्र को पुष्ट आधार देती है । भगवान् मानव- पूर्णता का प्रतीक है । नैतिक आदर्श का मूर्तिमान स्वरूप ही भगवान् है । नैतिक आदर्श निर्जीव आदर्श या कोरा स्वप्न नहीं है । ईश्वरविद्या से संयुक्त होकर वह उस व्यक्तित्व को प्राप्त कर लेता है जो पूर्ण कल्याणमय, आकर्षक तथा आह्लादमय है । आत्मा के अमरत्व को स्थापित करके वह आत्म-त्याग का सन्देश देता है और स्थूल जड़वाद तथा श्रात्म घातक सुखवाद से मन को मुक्त करता है । नैतिक मान्यताओं का चरम उत्कर्ष भगवान् है । वह नैतिकता का मापदण्ड है, उसका प्रेरणा-स्रोत है । किन्तु इसके अर्थ यह कदापि नहीं हैं कि नीतिशास्त्र अपने औचित्य - अनौचित्य के निर्णय के लिए जनसाधारण के धर्म अथवा विशिष्ट सम्प्रदाय के धर्म पर आश्रित है । मध्ययुगीन यूरोप की ईश्वरविद्या ने अनैतिक होने के कारण व्यक्तियों को त्रासित कर दिया । समृद्धि और स्वर्ण की महदाकांक्षा बेची जाने लगी । विवेक से शून्य ईश्वर विद्या लुटेरों का धर्म बन गयी । भारत में भी नीति-रहित ईश्वरविद्या को अपनाने के कारण पण्डों, पण्डितों और पुजारियों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने की लालसा से मानवजीवन में भयंकर वैषम्य ला दिया है । नीतिशास्त्र और ईश्वरविद्या प्रादर्शवादी होने के कारण परस्पर अवलम्बित हैं । दोनों ही मानवीय चरमोत्कर्ष को प्राप्त करना चाहते हैं । आत्म- त्याग द्वारा अद्वितीय आनन्द का अनुभव करना चाहते हैं । नीतिशास्त्र अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए विवेक का आश्रय लेता है और ५६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरविद्या श्रद्धा, भक्ति एवं विश्वास का। एक-दूसरे से संयुक्त होकर ही दोनों पूर्णता को प्राप्त करते हैं । नीतिशास्त्र ईश्वरविद्या को विवेकसम्मत बनाता है और ईश्वरविद्या नीतिशास्त्र को सरस एवं आह्लाददायक बनाती है। नैतिकता की पराकाष्ठा ईश्वरविद्या है और ईश्वरविद्या का व्यावहारिक तथा व्यक्त रूप नैतिकता है। तत्त्वदर्शन-नीतिशास्त्र के आदर्श-विधायक स्वरूप का स्पष्टीकरण करते समय यह कहा जा चुका है कि इसका तत्त्वदर्शन से अत्यधिक सामीप्य है। तत्त्वदर्शन सत्ता के सम्यक स्वरूप को समझाने का सुव्यवस्थित प्रयास है। वह आत्मा, ईश्वर और जड़ जगत के विधान पर प्रकाश डालता है। वह बताता है कि विश्व प्रयोजनपूर्ण है या प्रयोजनशून्य ; वह नैतिक नियमों द्वारा संचालित होता है अथवा वह नैतिकता से शून्य है। तत्त्वदर्शन दृश्यमान और ज्ञेय के परे अज्ञेय जगत को समझना चाहता है; अनेकता और एकता के सिद्धान्तों का अध्ययन करना चाहता है । वह नीतिशास्त्र को बताता है कि व्यक्ति का सत्यस्वरूप क्या है, उसकी विश्व में क्या स्थिति है, उसकी एकाकी सत्ता कहाँ तक सम्भव है । तत्त्वदर्शन उस अन्तर्जगत का पूर्ण ज्ञान देता है जो मानव-जीवन, मानव-कार्यों एवं विचारकों का क्षेत्र है। मानव-जीवन के क्रियात्मक पक्ष से सम्बन्ध रखने वाले नीतिशास्त्र के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह मनुष्य की सत्ता, उसके वास्तविक स्वरूप तथा परिस्थिति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर ले। नीतिशास्त्र यह मानता है कि मनुष्य केवल निम्न प्राणियों अथवा वनस्पतियों का-सा जीवन नहीं बिताता है। वह मात्र दैहिक और भौतिक आवश्यकताओं का प्राणी नहीं है। वह नैतिक प्राणी है, वह अपनी प्रकृति का परिष्कार कर सकता है। उसका अपने सामाजिक और भौतिक वातावरण से चेतन सम्बन्ध है। उसकी प्रात्म-चेतना परमध्येय के अनुरूप कर्म करना चाहती है। वह जानना चाहता है कि उसका वास्तविक स्वरूप क्या है; विश्व में उसकी क्या स्थिति और स्थान है। अपने कर्मों को वांछनीय ध्येय के अनुसार निर्धारित करने के लिए वह तत्त्वदर्शन के समीप आता है । नतिक सिद्धान्तों का अध्ययन यह बतलाता है कि व्यक्ति की नैतिक धारणाएँ उसके तात्त्विक दृष्टिकोण से सर्वाधिक प्रभावित होती हैं । नैतिक प्रश्नों का समाधान विश्व-निर्माण सम्बन्धी दार्शनिक विचारों पर निर्भर है,' एक ओर स्थूल जड़वादी नीतिज्ञ हैं १. नीतिशास्त्र और तत्त्वदर्शन के सम्बन्ध के बारे में वास्तव में तीन मत हैं नीतिशास्त्र और अन्य विज्ञान | ५७ For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो क्षणिक दैहिक सुख में विश्वास करते हैं, दूसरी ओर वे अध्यात्मवादी नीतिज्ञ हैं जो आत्मा के शाश्वत स्वरूप को मानने के कारण क्षणिक सुख को जीवन का ध्येय नहीं मानते । यदि हम कुछ देर के लिए यह मान लें कि विचारक अपने नैतिक सिद्धान्त को तत्त्वदर्शन से सरलतापूर्वक पृथक रख सकते हैं तो एक दूसरी कठिनाई उपस्थित होती है। इन विचारकों के नैतिक दर्शन की सत्यता तथा उनके नैतिक सत्यों के प्रमाण को समझने का प्रयास करने पर हमें घूम-फिरकर तत्त्वदर्शन के ही क्षेत्र में जाना पड़ता है। नैतिक धारणाओं की प्रामाणिकता सत्ता के सत्यस्वरूप पर निर्भर है। नैतिक निर्णयों के विधान को स्वीकार करने के लिए तत्त्वदर्शन का आश्रय लेना ही पड़ता है । चार्वाकमत के विचारकों ने ऐन्द्रिय सुख को जीवन का ध्येय इसलिए बताया कि वे जड़वाद में विश्वास रखते थे। अपने विश्व के स्वरूप के ज्ञान के अनुसार ही नीतिज्ञों ने नैतिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । तत्त्वदर्शन के निष्कर्षों का नैतिक मान्यताओं पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। अन्य विज्ञानों के लिए यह कह सकते हैं कि वे अपने सीमित क्षेत्र में तत्त्वदर्शन से मुक्त हैं। पदार्थ विज्ञान जड़ और शक्ति के अस्तित्व को मानकर चलता है और गणित देश के अस्तित्व को। इन विज्ञानों के लिए यह जानना अनावश्यक है कि तत्त्वदर्शन जड़ पदार्थ, शक्ति और देश की धारणा को कैसे समझाता है; उन्हें वह वस्तुमूलक मानता है या आत्ममूलक । किन्तु जहाँ तक नैतिक मान्य-- ताओं का प्रश्न है वे अपने व्यापक और गूढ़ ज्ञान के लिए तत्त्वदर्शन पर आधारित हैं। उनकी प्रामाणिकता. और मूल्य का प्रश्न वास्तव में सत्ता के स्वरूप का प्रश्न है । जब मनुष्य यह जानना चाहता है कि मानव-जीवन-सम्बन्धी सक्रिय मूल्यों का निर्माण कैसे हुआ, मानव-व्यक्तित्व का सारतत्त्व क्या है, विश्व में उसका क्या स्थान है, तब वह तत्त्वदर्शन के क्षेत्र में प्रवेश करता है। बिना यह समझे कि 'मैं क्या हूँ' और 'मेरा सत्य रूप क्या है' यह कहना कठिन है कि मेरा क्या कर्तव्य है। मानव-चरित्र का मूल्यांकन करने के लिए उसके तात्त्विक स्वरूप को समझना अनिवार्य है। आध्यात्मिक तत्त्वदर्शन नीतिशास्त्र को (अ) तात्त्विक ज्ञान से नैतिक ज्ञान का निगमन करना चाहिए। (ब) नैतिक ज्ञान से तात्त्विक ज्ञान का निगमन करना चाहिए। (स) तत्त्वदर्शन और नीतिशास्त्र एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं। ___ इन मतों के विवादों में न जाकर हम यह मानेंगे कि नीतिशास्त्र अपने आदर्श तथा मान्यताओं के प्रमाण के लिए तत्त्वदर्शन पर माश्रित है। १८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताता है कि वह केवल अपने परिवार या अपनी राजसत्ता का ही नागरिक नहीं है, वह मानव-समाज एवं वसुधैव कुटम्बकम् का भी अविच्छिन्न सदस्य है । वह परस्पर सम्बद्ध सार्वभौम सजीव विश्व-व्यवस्था का अंश है। उसका जीवन धर्मक्षेत्र है। सामाजिक कल्याण ही उसका आत्म-कल्याण है। आध्यात्मिक दर्शन को माननेवाले नीतिज्ञ विश्व को आध्यात्मिक चेतना का व्यक्त रूप मानते हैं । उनके अनुसार विविधता के मूल में एकता है । व्यक्ति सत्तात्मक रूप से एक है। जीवन का ध्येय सर्वकल्याण है । किन्तु कुछ नीतिज्ञ अपने भौतिक तत्त्वदर्शन की व्याख्या के अनुसार विश्व का निर्माण अणुओं के संघर्ष के कारण मानते हैं । इनका नैतिक सिद्धान्त केवल वैयक्तिक कल्याण का पोषक है । ये अध्यात्मवादियों की तरह व्यक्ति और समाज को एक अविच्छिन्न सत्ता के रूप में नहीं देखते । इस प्रकार विश्वविधान के विभिन्न दर्शनिक दृष्टिकोणों के अनुरूप आचरण के दो भिन्न मापदण्ड देखने को मिलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि नीतिशास्त्र तत्त्वदर्शन के निष्कर्षों से अपने को सर्वथा मुक्त नहीं कर सकता है। नैतिक निर्णय स्वेच्छाकृत कर्म पर दिया जाता है। संकल्प की स्वतन्त्रता नीतिशास्त्र की आवश्यक मान्यता है। तत्त्वज्ञान बताता है कि संकल्प-शक्ति क्या है। उसकी स्वतन्त्रता के क्या अर्थ हैं। ईश्वर का अस्तित्व और आत्मा की अमरता भी नीतिशास्त्र की आवश्यक मान्यताएँ हैं। ईश्वर का अस्तित्व उसके सिद्धान्त को आकर्षक ही नहीं बनाता है, उसकी वास्तविकता की पुष्टि भी करता है। ईश्वर नैतिक आदर्श का प्रतीक है । आत्मा की अमरता मनुष्य को क्षणिक सुख से ऊपर उठाती है। विश्वात्मा के साथ उसके तादात्म्य पर प्रकाश डालती है । नीतिशास्त्र अपनी तीनों आवश्यक मान्यताओं के लिए तत्त्वदर्शन पर आधारित है। नीतिशास्त्र का आचरण से सम्बन्ध है। वह आचरण पर निरपेक्ष निर्णय देता है । इसके निर्णयों का रूप सार्वभौम होता है, वैयक्तिक और सापेक्ष नहीं होता है। कर्मों के औचित्य-अनौचित्य को वैयक्तिक इच्छा या विशिष्ट परिस्थिति के आधार पर निर्धारित नहीं किया जा सकता, क्योंकि नीतिशास्त्र जीवन के निरपेक्ष मूल्य को या परमवांछनीय शुभ को समझने का प्रयास है। अतः तत्त्वज्ञान (वस्तुओं का सम्यक् ज्ञान) ही नैतिकता के पथ को प्रकाशित कर सकता है। कुछ नीतिज्ञों का कहना है कि नीतिशास्त्र का सम्बन्ध जीवन के क्रियात्मक वास्तविक पक्ष से है। इसलिए नीतिशास्त्र को अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन नीतिशास्त्र और अन्य विज्ञान | ५९. For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान और जीवन के वास्तविक अनुभवों के आधार पर करना चाहिए, न कि अध्यात्मवाद के आधार पर । उसका क्षेत्र यथार्थवाद, अनुभववाद, वास्तविकवाद और प्रतिभासवाद तक ही सीमित रहना चाहिए। उसका पारमार्थिक सत्य से सम्बन्ध नहीं है। अपने विषय के लिए उसे व्यक्ति और मानवता के प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन पर ही निर्भर रहना चाहिए । इसमें कोई सन्देह नहीं कि नीतिशास्त्र का क्षेत्र तत्त्वदर्शन से अधिक सीमित है। अपने आदर्श के मापदण्ड के लिए तत्त्वदर्शन पर निर्भर होने पर भी वह मूलतः व्यावहारिक विज्ञान है। किन्तु विज्ञान और दर्शन में अन्तर प्रकार का नहीं, मात्रा का है । तत्त्वदर्शन नैतिक ज्ञान की अपूर्णता की पूर्ति करता है। कोई भी नैतिक सिद्धान्त मन को तब तक सन्तोष नहीं दे सकता है जब तक कि वह विश्व और विश्व में मनुष्य के स्थान के बारे में भी तर्कसम्मत ज्ञान का प्रतिपादन न कर ले। नैतिक मान्यताओं का व्यापक, गूढ़ और निश्चयात्मक ज्ञान दृश्यमान से परे पारमार्थिक सत्य पर निर्भर है । ईश्वर, आत्मा और विश्व का पूर्ण ज्ञान ही नैतिक आदर्श को प्रेरणात्मक बना सकता है, उसमें जीवन और गति का स्फुरण भर सकता है। नैतिक आदर्श कल्पना की सृष्टि नहीं है। यह मनुष्य की अनन्त सम्भावनाओं और पूर्णतानों तथा उसके देवत्व का सूचक है। वस्तुओं का तात्त्विक ज्ञान ही नैतिकता का सन्तोषप्रद स्पष्टीकरण कर सकता है। वह नैतिक निर्णयों की प्रामाणिकता और वस्तुपरकता को समझा सकता है। मानव-जीवन का सारतत्त्व विश्व-सार-तत्त्व का अंग है, नैतिक व्यवस्था वैश्व व्यवस्था का अंग है, नैतिक प्रणाली वैश्व प्रणाली का अंग है। ६० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिशास्त्र का मनोवैज्ञानिक आधार तथा नेतिक निर्णय का विषय मनोवैज्ञानिक ज्ञान की आवश्यकता-मनोविज्ञान मनुष्य को वास्तविक स्थिति तथा क्रियाकलाप का ज्ञान देता है । यह मानव-मन का विज्ञान है । नीतिशास्त्र और मनोविज्ञान को असम्बद्ध नहीं मानना चाहिए। नैतिक सिद्धान्त की सार्थकता और पूर्णता को समझने के लिए मनुष्य के मानस का ज्ञान अनिवार्य है । आदर्शविधायक विज्ञान होने के कारण नीतिशास्त्र मनुष्य के नैतिक जीवन का तथ्यात्मक अध्ययन करता है । नीतिशास्त्र का सम्बन्ध मानव-चेतना से है । मनुष्य आत्मप्रबुद्ध चेतन प्राणी है। उसके जीवन में कर्तव्य और अधिकार अपनी विशेष सार्थकता रखते हैं। उसके कर्मों के सम्मुख औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न उठता है । किन्तु इस प्रकार के विवेचन मनुष्य के मानसिक विकास के सूचक हैं । अबोध बालक, पागल, अपसामान्य, निर्बुद्धि, मूढ़ और अल्पमति व्यक्तियों तथा जंगली मनुष्यों के आचरण पर नैतिक निर्णय अर्थशून्य है। मनुष्य के लिए वांछनीय जीवन क्या है ? उसकी स्वाभाविक प्रकृतिजन्य विशिष्टता क्या है ? इन प्रश्नों का उत्तर देने के पूर्व यह आवश्यक है कि मनुष्य के स्वभाव और उसके निर्माणात्मक तत्त्वों को भली-भाँति समझ लें। __ मनोविज्ञान से सम्बन्ध-मनोविज्ञान मनुष्य के मानस तथा उसके व्यक्तित्व का अध्ययन करता है। वह बताता है कि ज्ञान, संकल्प और भावना कैसे कार्य करती हैं । मनुष्य स्वेच्छाकृत कर्मों को कैसे निर्धारित करता है । मन के निर्माणात्मक तत्त्व क्या हैं । कर्म की प्रेरणाशक्ति क्या है। मनुष्य अपने कर्मों में कहाँ . मनोवैज्ञानिक आधार तथा नैतिक निर्णय | ६१ For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक सचेत है। उसे उसके कर्मों के लिए कहाँ तक उत्तरदायी ठहरा सकते हैं। उसके कर्म भावना-प्रधान हैं या बुद्धि-प्रधान । मानव-चरित्र के विकास में वंशानुगत गुणों, वातावरण, परिवेश आदि का कितना हाथ है। इस प्रकार मनोविज्ञान मानसिक घटनाओं का अध्ययन करता है । नीतिशास्त्र मनुष्य के मानसिक जीवन का अध्ययन कर नैतिक निर्णय देता है। कर्मों के बाह्य परिणामों के आधार पर निर्णय देना अनुचित है । नैतिक दृष्टि से ध्येय, प्रेरणा और मानसिक प्रवृत्तियों को समझना आवश्यक है। बाह्य परिणाम कर्ता के सत्य स्वभाव एवं चरित्र को पूर्ण रूप से प्रकाशित नहीं करते । वह यह अवश्य बताते हैं कि उसके कर्मों की दूसरों पर क्या प्रतिक्रिया हुई । अरस्तू ने कहा है कि नीतिशास्त्र उस मानवीय शुभ को निर्धारित करता है जिसका सम्बन्ध मानव-व्यक्तित्व से है । इसी तथ्य को मानते हुए आधुनिक सभी नीतिज्ञ यह कहते हैं कि उनकी खोज का मुख्य लक्ष्य मानव का मानसिक धरातल है । नैतिक जिज्ञासा मनश्चेतना के ज्ञान के पश्चात् ही अपने मार्ग में अग्रसर हो सकती है। यही कारण है कि विभिन्न नीतिज्ञों ने अपने सिद्धान्तों की पुष्टि मनोविज्ञान द्वारा की है। सुखवादियों ने मनुष्य को ऐन्द्रिक मानकर अपने सिद्धान्त को समझाया है और बुद्धिपरतावादियों ने मनुष्य को शुद्ध बुद्धिमय समझा है। तीसरे प्रकार के विचारक वे हैं जो मनुष्य को बुद्धि और भावना का योग मानते हैं। मनुष्य की प्रकृति के ज्ञान के अनुरूप ही इन विचारकों ने नैतिक आदर्श के स्वरूप को समझाया है । मनुष्य का परम वांछनीय शुभ उसकी स्वाभाविक प्रकृति का प्रतिबिम्ब है, यह सभी जानते हैं। किन्तु अपनी-अपनी मनोवैज्ञानिक धारणाओं के आधार पर उनमें उसके स्वरूप के बारे में मतभेद है। जैसा कि सिद्धान्तों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाएगा कि मनश्चेतना का अपूर्ण ज्ञान ही एकागी और अपूर्ण नैतिक सिद्धान्तों का जनक है। जीवन के वांछनीय शुभ को समझने के लिए मनुष्य की मनश्चेतना तथा उसके व्यक्तित्व का उचित ज्ञान अनिवार्य है । वास्तविक तथ्यों के आधार पर ही परमसाध्य और उसको प्राप्त करने के साधनों पर प्रकाश डाला जा सकता है। विभिन्न नतिक विवाद -प्राचरण का स्वरूप, निर्णीत कर्म के निर्माणात्मक अंग, उद्देश्य, प्रेरणा, संकल्प एवं मनःशक्ति की स्वतन्त्रता आदि अपनी पुष्टि मनोविज्ञान के ही द्वारा करते हैं। नैतिक निर्णय मानव-स्वभाव के पूर्ण अध्ययन के पश्चात् ही सम्भव है। नीतिशास्त्र और मनोविज्ञान के घनिष्ठ सम्बन्ध को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। महत्त्वपूर्ण नैतिक धारणाएँ मनोवैज्ञानिक धारणाएँ भी ६२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है । किन्तु यह अवश्य है कि शुभ और अशुभ, औचित्य और अनौचित्य के बारे में उनमें मौलिक मतभेद है। इसका कारण यह है कि मनोविज्ञान का प्रत्यक्ष सम्बन्ध 'क्या है' से है न कि 'क्या होना चाहिए' से। नैतिक सिद्धान्तों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नीतिज्ञों ने परमशुभ के बारे में विभिन्न मत दिये हैं। इसका क्या कारण है ? यदि परमशुम मनुष्य के सत्यस्वरूप के अनुरूप है तो वह अनेक कैसे हो सकता है ? यदि मनुष्य का परमवांछनीय शुभ उसकी वास्तविक आत्मा का प्रतिबिम्ब है तो वांछनीय शुभ के बारे में मतभेद का क्या कारण है ? इस मतभेद के मूल में अपूर्ण मनोवैज्ञानिक ज्ञान ही है । सैद्धान्तिकों ने मनुष्य के स्वभाव को दो भागों में विभाजित कर लिया है—बौद्धिक और अबौद्धिक । वह यह भूल गये कि व्यक्ति बुद्धि और भावना की सामंजस्यपूर्ण इकाई है । बुद्धि और भावना एक-दूसरे के पूरक हैं। जीवन की उन्नति और कल्याण इन दोनों के समन्वय से सम्भव है। किन्तु इस तथ्य को भूलते हुए कुछ नीतिज्ञों ने बुद्धि को प्रधानता दी और कुछ ने भावना को; अथवा एक ओर बुद्धिपरतावाद मिलता है और दूसरी ओर इन्द्रियपरतावाद । मनुष्य न तो शुद्ध बुद्धि है और न केवल भावना है। उपर्युक्त दोनों सिद्धान्त अमनोवैज्ञानिक हो जाने के कारण अनैतिक हो गये हैं। मानव-स्वभाव की भ्रान्त धारणा इस एकांगी सिद्धान्त के लिए दोषी है । अतः मानसविज्ञान से. अनभिज्ञ होना नीतिज्ञों के लिए कुछ कम खतरे की बात नहीं है । उनका व्यावहारिक दर्शन पंगु तथा अव्यावहारिक हो जाता है। मनोविज्ञान का अधूरा ज्ञान नीतिशास्त्र के उन दुर्बल और क्षीण सिद्धान्तों को जन्म देता है जिनके कि प्रांशिक सत्य को मानते हुए भी हमें मोड़ना पड़ता है। नीतिशास्त्र का सम्बन्ध सम्पूर्ण व्यक्ति से है। नैतिक प्राणी कर्ता है। वह अपने इस रूप में ज्ञानात्मक, क्रियात्मक और रागात्मक प्रवृत्तियों का संयोजित रूप है। उसकी संकल्प-शक्ति उसके बौद्धिक, अबौद्धिक स्वभाव का व्यक्त रूप है । संकल्प शक्ति में दोनों ही निहित हैं। उसकी संकल्पशक्ति वह क्रिया है जिसकी बुद्धि और भावना अनिवार्य अंग है, जिसमें दोनों ही सम्मिलित हैं । नीतिशास्त्र विज्ञान होने के नाते मनोविज्ञान के क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर सकता है। इसीलिए सिजविक ने कहा है कि मैं नीतिशास्त्र को एक अध्ययन अथवा विज्ञान के रूप में देखना पसन्द करता हूँ जो हमें इसका ज्ञान देता है कि उचित क्या है और वास्तव में क्या होना चाहिए-जहाँ तक कि वह व्यक्तियों के स्वेच्छा-प्रेरित कर्म पर अवलम्बित है। इसी आधार पर नीतिशास्त्र को एथोलोजी (Ethology) मनोवैज्ञानिक आधार तथा नैतिक निर्णय | ६३ For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या चरित्र अथवा चित्तवृत्तियों का विज्ञान भी कहा गया है । I नीतिशास्त्र और मनोविज्ञान दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध होते हुए भी अन्तर है । नीतिशास्त्र का क्षेत्र अधिक व्यापक है । वह वास्तविक मानसिक घटनाओं के आगे उस भविष्य को समझना चाहता है जो कि मानवीय गौरव का प्रतीक है । वह यथार्थ घटनाओं को समझकर तत्त्वदर्शन की सहायता से आदर्श का निर्माण करता है । मनोविज्ञान इसे केवल स्वेच्छाकृत कर्मों और उनके स्रोत के बारे में बताता है; नैतिक मान्यताओं और निर्णयों का वास्तविक घटनाओं की भाँति अध्ययन करता है । नीतिशास्त्र मनुष्य के प्रात्मिक सत्य और उसके तात्त्विक स्वरूप को भी समझने का प्रयास करता है । वह मनश्चेतना के वास्तविक और दृष्टिगोचर रूप तक ही अपने को सीमित नहीं रखता । मानव-प्रांत्मा के पूर्ण रूप को समझने के लिए प्रयोगशाला पर्याप्त नहीं है । नीतिशास्त्र आदर्शविधायक विज्ञान है । वह व्यावहारिक और विधि - निषेधात्मक है । मनोविज्ञान यथार्थ विज्ञान है | यह मानसिक घटनाओं का तथ्यात्मक अध्ययन तथा मानवचरित्र का विश्लेषण करता है और इस अर्थ में यह सैद्धान्तिक है । नीतिशास्त्र आचरण के औचित्य और अनौचित्य के मापदण्ड को निर्धारित करता है । मनोविज्ञान का सम्बन्ध 'क्या है' से है और नीतिशास्त्र का सम्बन्ध 'क्या होना चाहिए' से है | क्या होना चाहिए को निर्धारित करने के लिए ही वह मनोविज्ञान के आगे दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश करता है । मानसिक तथ्यों के ज्ञान के आधार पर वह नैतिक आदर्श की प्राप्ति के लिए साधन जुटाता है । नैतिक तथ्य मानसिक अवश्य है । किन्तु इसके अर्थ यह नहीं हैं कि नीतिशास्त्र मनोविज्ञान पर आधारित है । श्राचरण का तथ्यात्मक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् वह आचरण के आदर्श का प्रतिपादन करता है । नीतिशास्त्र और मनोविज्ञान दोनों ही मानव चेतना को दो भिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं । मनोवैज्ञानिक वैज्ञानिक की भाँति मानव चेतना की विभिन्न स्थितियों का विश्लेषण करता है और नीतिज्ञ कला के प्रालोचक की भाँति उसका मूल्यांकन करता है । नैतिक निर्णय का विषय : आचरण - नैतिक दृष्टि वैज्ञानिक की दृष्टि से भिन्न है । यथार्थ विज्ञान की भाँति यह मानसिक घटनाओं तक ही अपने को सीमित नहीं रखती है बल्कि उनके औचित्य - अनौचित्य को निर्धारित करती है । नैतिक निर्णय का विषय मनुष्य का आचरण है । नैतिक निर्णय आत्मचेतन प्राणी के स्वेच्छाकृत कर्मों पर ही दिया जाता है । वह प्राकृतिक घटनाओं, अप्रबुद्ध लोगों, पागलों तथा बच्चों के कर्मों पर नहीं दिया जाता है । उन्हीं कर्मों ६४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर नैतिक निर्णय दिया जा सकता है जिनके लिए कर्ता उत्तरदायी है, जिन्हें कि वह समझ-बूझकर स्वेच्छा से करता है । स्वेच्छा से किये हुए कर्मों का क्या रूप है, नैतिक निर्णय वस्तुतः किस पर देते हैं ? इन प्रश्नों का उत्तर यह है कि नैतिक निर्णय आचरण पर देते हैं; और आचरण को ही मनोवैज्ञानिक परिभाषा में स्वेच्छाकृत एवं इच्छित कर्म (Willed-action) कहते हैं। दो प्रकार के कर्म-इच्छित और अनिच्छित-इच्छित कर्म को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समझने के पूर्व उसकी अन्य कर्मों से तुलना कर लेना उचित होगा। मनुष्य के कर्म दो प्रकार के होते हैं; इच्छित और अनिच्छित । अनिच्छित कर्म नैतिक गुण से हीन हैं। उनके अन्तर्गत उत्क्षिप्त, सहजप्रेरित आवेगपूर्ण, अप्रबुद्ध आदि कर्म आते हैं । ये कर्म स्वतःजात होते हैं । आकस्मिक आवेग के कारण व्यक्ति उन्हें करता है। स्वतःजात और आकस्मिक होने के कारण अनिच्छित कर्म अपने किसी भी रूप में नैतिक निर्णय का विषय नहीं हो सकते । उनके लिए कर्ता को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। इच्छित कर्म वे हैं जिन्हें कि कर्ता स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विवेक से परिचालित करता है। उन कर्मों को आत्म-निर्णीत (Self-determined) या बौद्धिक कर्म भी कहते हैं । कर्ता इन कर्मों के लिए उत्तरदायी है। ये नैतिक निर्णय के क्षेत्र के अन्दर आते हैं। अभ्यासगत कर्म भी इच्छित हैं-ध्यान देने की बात है कि अभ्यासगत कर्मों पर भी नैतिक निर्णय देते हैं। यह कहा जा सकता है कि अभ्यासगत कर्म अनिच्छाप्रेरित और दुनिवार (Irresistible) होते हैं । किन्तु मनोविज्ञान का कहना है कि केवल स्थूल दृष्टि से हीन्प्रभ्यासगत कर्मों को अनिच्छाप्रेरित कह सकते हैं। मानसिक और शारीरिक अभ्यासों का अनुशीलन करने से प्रतीत होगा कि प्रारम्भ में वे स्वेच्छाप्रेरित कर्म होते हैं और समय के साथ दुहराये जाने से वे अभ्यास बन जाते हैं। अतः बुरे अभ्यासोंवाला व्यक्ति अथवा दुःशील व्यक्ति अपने आचरण के लिए उत्तरदायी है। उसे प्रारम्भ में ही अपने अभ्यासों में सुधार अथवा परिवर्तन कर लेना चाहिए। यह सत्य है कि धीरे-धीरे अभ्यास मनुष्य के स्वभाव का अंग बन जाते हैं। किन्तु मनुष्य का कर्तव्य है कि वह दृढ़ निश्चय और मनःशक्ति द्वारा बुरे अभ्यासों को छोड़ दे या उनका उन्नयन कर ले । मनुष्य को अपने जीवन के हर क्षेत्र में, प्रत्येक कर्म में सुरुचि और सुथरेपन को अपनाना चाहिए। उसके जीवन में छोटे-से-छोटे कर्म का भी महत्त्व है, चाहे वह घास छीलना ही क्यों न हो। नैतिक ज्ञान बताता है कि निर्णीत मनोवैज्ञानिक आधार तथा नैतिक निर्णय | ६५ For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म का सम्बन्ध जीवन के किसी एक अंग से नहीं, बल्कि सम्पूर्ण जीवन से है। आचरण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण-पशु और मनुष्य के कर्मों में भेदयदि पशुओं के जीवन की ओर ध्यान दें तो हमें मालूम होगा कि वे अपने कर्मों में सहजप्रवृत्तियों और अन्धप्रवृत्तियों से प्रेरित हैं। उनके कर्म भावना से संचालित होते हैं, किन्तु मनुष्य के कर्म उनसे भिन्न हैं। मनुष्य में भी अनेक प्रवृत्तियाँ और आवेग होते हैं। उसके इच्छित कर्म में स्रोत के रूप में आवेग वर्तमान रहता है। किन्तु बौद्धिक होने के कारण वह 'आगे-पीछे' की बात भी सोचता है। वह अपने आवेगों और प्रवृत्तियों का स्वामी है। वह अपनी संवेदनाओं और आवेगों के जीवन में ध्येय का निर्माण करता है। वह अपने अनुभवों और प्रवृत्तियों के अर्थ समझता है । पशु बाह्य प्रभावों से अपने को मुक्त नहीं कर सकता, किन्तु मनुष्य बाह्य प्रभावों तथा आन्तरिक आवेगों का आलोचनात्मक अध्ययन करके अपने कर्मों को बौद्धिक चेतना से निर्धारित कर सकता है । इस अर्थ में उसके कर्म आत्मनिर्णीत हैं। निर्णीत कर्म के निर्माणात्मक अंग-निर्णीत अथवा स्वेच्छाकृत कर्म के चार निर्माणात्मक अंग हैं; भावना, इच्छा, विवेचन और निर्णय । उपयुक्त अंगों को समझने के लिए यदि हम यह उदाहरण लें कि परीक्षा का विचार आते ही विद्यार्थी खेलना छोड़कर पढ़ने बैठ जाता है तो यह निर्णीत कर्म कहलायेगा। निर्णीत कर्म सचेत कर्म है। कर्ता परिस्थिति-विशेष के बारे में पूर्ण रूप से जागरूक रहता है। परीक्षा का विचार विद्यार्थी के मन में खेलने के प्रति विरक्ति उत्पन्न कर देता है। उसमें अतृप्ति की भावना उत्पन्न होती है। भावना परिस्थिति के परिणामस्वरूप सुख और दुःख की सूचक है। प्रत्येक सचेत कर्म में भावना का स्तर रहता है। विद्यार्थी को खेलते समय उदासीनता अनुभव होती है। यह आवश्यकता या प्रभाव की भावना उसमें इस इच्छा को उत्पन्न करती है, 'मुझे पढ़ना चाहिए'। अथवा भावना में सदैव इच्छा निहित रहती है। अभाव की भावना के साथ ही इस अभाव, अशान्ति को दूर करने की इच्छा उत्पन्न होती है । इच्छा भावना का ही सक्रिय रूप है। साथ ही यह भी सत्य है कि इच्छा के साथ मनुष्य की अभिरुचि का भी सम्बन्ध है। यदि विद्यार्थी की रुचि पढ़ने में नहीं है तो उसके मन में कोई अन्य इच्छा बलवती हो उठेगी। ___ इच्छा का महत्त्व--मनुष्य की इच्छा सदैव किसी विशिष्ट ध्येय या लक्ष्य की ओर संकेत करती है । मनुष्य इस ध्येय के बारे में सचेत होता है। व्यक्ति ६६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छित ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है। उसके मानस के सम्मुख दो परिस्थितियाँ रहती हैं, वर्तमान और वांछित परिस्थिति । इच्छा मन की वर्तमान परिस्थिति और अप्राप्त भावी परिस्थिति के बीच की खिंचाव की अवस्था है । यह दो परिस्थितियों के बीच के संघर्ष की स्थिति है । कर्ता यह सोचता है कि वह अपने इच्छित ध्येय को कैसे प्राप्त करे। वह उसको प्राप्त करनेवाले साधन और परिणाम के बारे में सोचता है। किन्तु कई बार ऐसा होता है कि उसमें एक से अधिक इच्छाओं का प्रादुर्भाव हो जाता है, जो उसके लिए मानसिक संघर्ष की स्थिति होती है। उसे विभिन्न इच्छाओं में से एक इच्छा को चुनना होता है। इन इच्छानों का स्वरूप उसके चरित्र के अनुरूप होता है। उसमें उसके व्यक्तित्व के समान ही भिन्न श्रेणियों की इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। प्रत्येक इच्छा के सम्मुख भिन्न लक्ष्य रहता है, मनुष्य का चरित्र ही उन इच्छाओं का जनक है। उसी की भिन्न मानसिक अवस्थाओं की वे व्यक्त रूप हैं। एक ही चरित्र में इच्छाओं के विभिन्न स्तर मिलते हैं। एक स्तर उसे आत्म-सुख की ओर ले जाता है तो दूसरा पर-सुख की ओर और तीसरा वैराग्य की अोर। इस प्रकार के और भी अनेक स्तर हो सकते हैं। और प्रत्येक स्तर अपने पूर्ण प्रभावों के साथ उसके सम्मुख पाता है। यह मानसिक अथवा आन्तरिक संघर्ष की स्थिति है। उसके विभिन्न दृष्टिकोण उसके सम्मुख अपनी-अपनी विशिष्टता रखते हैं। वह केवल योद्धा ही नहीं, योद्धा और युद्ध दोनों ही है। यह स्थिति वास्तव में विवेचन की स्थिति है। वह निष्पक्ष रूप से सोचना चाहता है कि उसे क्या करना चाहिए । वह अपनी ही आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं पर चिन्तन और मनन करता है; विकल्पों के पक्षान्तरों को समझना चाहता है और जब विवेचन के परिणामस्वरूप संकल्प-शक्ति किसी एक इच्छा को स्वीकार कर लेती है तब यह निर्णय की अवस्था कहलाती है। किन्तु केवल निर्णय पर नैतिक निर्णय नहीं देते हैं। यदि कोई विद्यार्थी केवल यह निर्णय करके सन्तोष कर ले कि शाम से मन लगाकर पढ़गा और वास्तव में न पड़े तो यह नहीं कह सकते कि वह सचमुच में ही अध्ययनशील विद्यार्थी है । इसी प्रकार परोपकार का निर्णय कई व्यक्ति करते हैं। किन्तु जब तक वे इस निर्णय को अपने आचरण का अंग न बना लें, निर्णय को वास्तविक रूप न दे दें, उन्हें परोपकारी नहीं कह सकते। मनुष्य की संकल्पशक्ति जब स्वीकृत इच्छा के अनुरूप कार्य करने लगती है, कर्म के रूप में परिणत हो जाती है तब वह नैतिक निर्णय का विषय हो जाती है। यहां यह समझना आवश्यक है कि संकल्प-शक्ति किसी मनोवैज्ञानिक आधार तथा नैतिक निर्णय | ६७ For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवीन परिस्थिति का निर्माण नहीं करती। वह इच्छाओं, आवेगों एवं प्रवृत्तियों को ही राह दिखाती है। जब संकल्प-शक्ति बाहरी स्वरूप धारण कर लेती अथवा बाहर की ओर प्रवाहित हो जाती है तब वह आचरण में परिणत हो जाती है। संकल्प-शक्ति दृढ़ निश्चय के कारण ही एक विशिष्ट रूप धारण करती है। प्रबल इच्छा को कर्म में बदल देती है। निर्णीत कर्म सकल्प-शक्ति का ही यथार्थ और वास्तविक रूप है और संकल्प-शक्ति चरित्र या आत्मा के स्वरूप को व्यक्त करती है । संकल्प-शक्ति या मनुष्य के निर्णय का मूल्य तभी आँक सकते हैं जब वह आचरण का रूप धारण कर लेता है। मनुष्य के व्यक्तित्व की महत्ता और नैतिकता तभी सिद्ध हो सकती है जब कि वह उचित रूप से व्यवहार करे। नैतिक कर्म की समस्या निर्णीत कर्म में जहाँ तक इच्छात्रों का स्वरूपविवेचन और निर्णय का प्रश्न है, नैतिक और अनैतिक प्राणी की विचारप्रणाली में भेद है। जहाँ तक जंगली, अप्रबुद्ध व्यक्तियों का प्रश्न है वे अपनी प्रवृत्तियों, आवेगों और बाह्य प्रभावों के अनुरूप कर्म करते हैं। कुछ व्यक्ति तो इतनी अभ्यस्त प्रकृति के होते हैं कि वह बिना सोचे-समझे अपने जीवनमार्ग में चलते रहते हैं । उनका विवेचन और चिन्तन एक प्रकार से यान्त्रिकसा होता है। उनकी निर्णयात्मक शक्ति कुण्ठित हो जाती है। उनके जीवन में उचित मानसिक द्वन्द्व के लिए कोई स्थान नहीं है। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे चरित्र भी होते हैं जो अत्यन्त स्वार्थी और लोभी प्रवृत्तियों को पालते हैं; आत्मलाभ को सम्मुख रखकर वं मानसिक द्वन्द्व से मुक्ति पा लेते हैं । कुछ ऐसे अपसामान्य लोग भी होते हैं जो मानसिक संघर्ष में ही पड़े रहते हैं। अपने मार्ग को निर्धारित नहीं कर पाते हैं। इसी प्रकार व्यक्तियों को विभिन्न वर्गों में बाँटा जा सकता है। किन्तु नैतिक जीवन आत्म-संचालित जीवन है जिसका क्षेत्र स्वेच्छाकृत कर्म है। नैतिक दृष्टि से स्वेच्छाकृत कर्म को केवल मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तक सीमित करना उचित नहीं होगा। नैतिक प्राणी गूढ़ विवेचन द्वारा ही अपने कर्म को निर्धारित करता है । वह उपयोगी या परिस्थिति के अनुकूल कर्मों को नहीं करता है। उसके कर्मों का उचित होना आवश्यक है। नैतिक प्रापी के स्वेच्छाकृत कर्म को भी इच्छाएँ और आवेग जन्म देते हैं। नैतिक कर्म का मुख्य लक्षण यह है कि उसे अपनाने के पूर्व व्यक्ति का धर्म हो जाता है कि वह कर्म का व्यापक और पूर्ण मूल्यांकन करे; भिन्न पक्षान्तरों के 'सम्मख होने पर इस पर विचार करे कि उसके लिए किस पक्षान्तर को अपनाना ६८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचित होगा। कर्म के प्रौचित्य-अनौचित्य की समस्या ही नैतिक समस्या है। इस समस्या के मूल में स्वार्थ-परमार्थ, सहजप्रवृत्ति-न्याय, भावना कर्तव्य तथा विश्वास और औचित्य का विरोध एवं असमानता है। यदि नैतिक चेतना सम्पन्न व्यक्ति समान रूप से बलवती इच्छाओं अथवा आत्महित और परिहित के द्वन्द्व में फंस जाता है तो उसे निष्पक्ष चिन्तन की आवश्यकता पड़ जाती है। वह देखता है कि एक सृजन व्यक्ति-विशेष के विरुद्ध कहने मात्र से वह अपने नंगे-भूखे बच्चों, परिवार एवं प्रात्मीयों को सुख-समृद्धि और उचित शिक्षा में सहायक होगा तो उसके सामने एक और अनेक तथा अपने और पराये का प्रश्न उठेगा। नैतिक आचरण औचित्य और न्याय का आचरण है, अतः भावना या दया से संचालित नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसे द्वन्द्वों की विभिन्न परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। प्रश्न यह है कि सदाचार का इच्छुक व्यक्ति अपने मार्ग को कैसे निर्धारित करे । क्या प्रत्येक द्वन्द्व की स्थिति में वह नैतिक नियमों की संहिता देखे ? यदि हां तो क्या ऐसी संहिता सम्भव एवं उपलब्ध है ? नैतिक नियम निश्चित और अपरिवर्तनशील नहीं हैं । वे देश, काल और परिस्थिति से विमुख नहीं हो सकते। नैतिक कर्म परम ध्येय के लिए साधनमात्र हैं। अत: विवेकी व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह नियमों का अन्धानुकरण न करे बल्कि देशकाल और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करे। कर्म के औचित्य को निर्धारित करने के लिए, मानसिक संघर्ष की स्थिति में, व्यक्ति को पक्षान्तरों एवं विकल्पों के पक्ष-विपक्ष को समझने का प्रयास करना पड़ता है । वह सब प्रकार के सम्भाव्य परिणामों को अपने सम्मुख रखता है। उनका तुलनात्मक परीक्षण और युक्तिसंगत विवेचन करता है। उन परिस्थितियों के साथ काल्पनिक तादात्म्य अनुभव करके उन्हें अपनी नैतिक अन्तर्दृष्टि द्वारा भली-भाँति समझ लेना चाहता है । वह यह भी जानना चाहता है कि किसी विशिष्ट विकल्प को स्वीकार करके, उसके अनुरूप कर्म करने से वह दूसरों की स्थिति को कहाँ तक प्रभावित करेगा। वह अपने आचरण द्वारा दूसरों की नैतिक हानि तो नहीं करेगा। अपने सम्मुख व्यापक दृष्टिकोण रखकर वह विकल्पों में निहित मान्यताओं का मूल्यांकन करेगा। वह साध्य और साधन को समझना चाहता है। उसके लिए आवश्यक है कि उसका ध्येय और उसे प्राप्त करने के उपाय दोनों ही शुभ हों। वह यदि किसी निर्धन को धन देना चाहता है तो इस धन को वह किसी अमीर का गला काटकर नहीं लायेगा। . मनोवैज्ञानिक प्राधार तथा नैतिक निर्णय | ६६ For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था तो स्वतः इस धन को अजित करेगा या अमीर की नैतिक चेतना को जागृत करेगा। नैतिक कर्म करने के लिए सम्पूर्ण परिस्थिति को भली-भाँति समझना आवश्यक है। आचरण के दो रूप : बाह्य और प्रान्तरिक-नैतिक निर्णय का विषय, जैसा कि कह चुके हैं, मनुष्य का आचरण है और मनोविज्ञान यह बताता है कि जब संकल्पशक्ति व्यक्ति के चरित्र के अनुरूप उसकी प्रबल इच्छा से समीकरण करके कार्य रूप में परिणत हो जाती है तब उसे आचरण कहते हैं। इस प्रकार आचरण के दो रूप सम्मुख आते हैं-पान्तरिक और बाह्य । आन्तरिक रूप ' में यह निर्णय करनेवाली संकल्पशक्ति है और बाह्य रूप में कार्यरत आत्मा या संकल्पशक्ति । एक दष्टि से आचरण वह संकल्पशक्ति है जो चेतन कर्म द्वारा अपने को व्यक्त करती है । संकल्पशक्ति के रूप में यह भावना और इच्छा है, जिसके सम्मुख एक विशिष्ट ध्येय है और दूसरी दृष्टि से यह कर्म है। कर्म में परिणाम भी अन्तहित रहता है। एक अोर संकल्पशक्ति ध्येय और प्रयोजन की सूचक है और दूसरी ओर आचरण और परिणाम की। अपने क्रियात्मक रूप में यह परिणाम (कार्य) का कारण है। यहाँ पर प्रश्न उठता है कि नैतिक निर्णय संकल्पशक्ति के किस रूप पर देते हैं ? प्रयोजन पर या परिणाम पर? कार्य पर या कारण पर ? उस प्रबल इच्छा पर देते हैं जिसके अनुसार संकल्पशक्ति कर्म करती है या उन घटनाओं पर जो कर्म करने पर उत्पन्न होती हैं ? अथवा आचरण का औचित्य-अनौचित्य भावना और इच्छा के स्वरूप पर निर्भर है या उन परिणामों पर जो संकल्पशक्ति के कार्य रूप में परिणत होने पर उत्पन्न होते हैं ? कुछ नीतिज्ञों ने आचरण के इन दो रूपों के बीच परम भेद देखा और इस भ्रान्त धारणा के आधार पर कुछ ने प्रेरणा (आन्तरिक रूप) को और कुछ ने परिणाम (बाह्य रूप) को नैतिक निर्णय का विषय कहा। प्रेरणा-प्रेरणा (motive) और परिणाम (consequences) के बारे में नीतिज्ञों के विभिन्न मत हैं। पहले प्रेरणा को समझने का प्रयास करेगे। प्रेरणा के स्वरूप के बारे में एक ओर काण्ट, बटलर और सहजज्ञानवादियों का मत मिलता है और दूसरी ओर बैंथम और मिल का। दोनों ही प्रकार के विचारकों ने प्रेरणा को भिन्न अर्थ में समझा है। प्रेरणा किसे कहते हैं ? इससे क्या अभिप्राय है ? सुखवादियों (बैंथम, मिल) के अनुसार प्रेरणा वह है जो कर्म करने के लिए प्रेरित करती है । सुख-दुःख की भावना ही प्रेरणा है । प्रेरणा ही कर्म का स्रोत है। सब प्रेरणाओं का एक ही स्वरूप होता है-सुख की ७० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोज और दुःख से दुराव । प्रेरणा गुणहीन है । यह अपने-आपमें न तो अच्छी ही है और न बुरी ही । परिणाम के सन्दर्भ में ही इसे अच्छा या बुरा कह सकते हैं । सुखवादियों के अनुसार प्रेरणा भावनामात्र है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि कई बार मनुष्य भावनावश कर्म करते हैं । किन्तु नैतिक निर्णय उस आचरण पर दिया जाता है जो कि साभिप्राय कर्म है । साभिप्राय कर्म का परम कारण भावना नहीं है । मनोविज्ञान बताता है कि भावना निर्णीत कर्म का अनिवार्य अंग है । इसे कर्म का निमित्त कारण कह सकते हैं किन्तु परम-कारण नहीं । यह निर्णीत कर्म का अंग होते हुए भी व्यक्ति को पूर्ण रूप से कर्म करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकती । भावना और इच्छित ध्येय की धारणा मिलकर ही व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं । अतः भावना को कार्य का प्रेरक नहीं कह सकते। यह कर्म का स्रोत नहीं है । अथवा प्रेरणा भावनामात्र नहीं है । यह वह प्रबल इच्छा है जो कि कर्म की प्रवर्तक है, या जिसके लिए कर्म किया जाता है । माँ-बाप के सम्मुख उनके बच्चे का हित है । बच्चे का हित वह प्रबल इच्छा या प्रेरणा है जो कि उन्हें प्रेरित करती है कि बच्चे की बुरी प्रादतों को छुड़ाने के लिए उसे दण्डित करें । यहाँ पर प्रेरणा बच्चे का हित है | प्रेरणा का सम्बन्ध प्रत्यक्ष ध्येय से है । प्रेरणा वह है जिसके लिए कि व्यक्ति कर्म करता है, जिसे वह चुनता है। प्रेरणा इस अर्थ में कर्म का परम कारण है, कर्म का प्रान्तरिक स्रोत है । यहाँ पर काण्ट और बटलर का कहना है कि कर्म का प्रौचित्य अनौचित्य प्रेरणा पर निर्भर है । परिणाम से नैतिकता का कोई सम्बन्ध नहीं है । यदि प्रेरणा पवित्र है तो कर्म पवित्र है । संक्षेप में एक मत के अनुसार प्रेरणा द्वारा ही कर्म के औचित्य को निर्धारित कर सकते हैं और दूसरे के अनुसार परिणाम द्वारा । उद्देश्य - परिणाम को महत्त्व देते हुए बेंथम ने कहा कि कर्म के औचित्य को समझने के लिए उद्देश्य ( intention) को समझना चाहिए । उद्देश्य का क्षेत्र प्रेरणा से अधिक व्यापक है । प्रेरणा वह है जिसके लिए कर्म किया जाता है किन्तु उद्देश्य केवल वह नहीं है जिसके लिए कर्म किया जाता है । किन्तु वह भी है जिसमें परिणाम को समझ-बूझकर कर्म किया जाता है । इसमें सब प्रकार की सम्भावनाएँ सोच ली जाती हैं । यदि बच्चे और माँ-बाप वाला ही उदाहरण लें तो मालूम होगा कि माँ-बाप यह भली-भाँति जानते थे कि बच्चे को सुधारने के लिए उसे दण्डित करना पड़ेगा । उद्देश्य के अन्तर्गत प्रेरणा और परिणाम दोनों ही आते हैं । किन्तु प्रेरणा के अन्तर्गत उद्देश्य नहीं आता है । मनोवैज्ञानिक आधार तथा नैतिक निर्णय / ७१ For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरणा के सम्मुख बच्चों की भलाई है, न कि उसे दण्डित करना । उसका सम्बन्ध साध्य से है। उद्देश्य का साध्य और साधन दोनों से है। किसी भी कर्म को सोद्देश्य कहने का अर्थ यही होता है कि उस कर्म के बारे में कर्ता को पूर्ण ज्ञान है । वह जानता है कि उसे किन साधनों को अपनाना होगा और उस कर्म के सम्भाव्य परिणाम क्या होंगे। सम्पूर्ण परिस्थिति को समझकर और स्वीकार करके ही वह कर्म करता है । परिणामों के बारे में वह उत्तरदायी है। फिर भी यह सम्भव हो सकता है कि कभी अकस्मात् ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाय कि उसकी कल्पना उसने स्वप्न में भी न की हो। ऐसी परिस्थिति के लिए कर्ता को प्रत्यक्ष रूप से दोषी नहीं ठहरा सकते । इतना अवश्य कह सकते हैं कि उसने दूरदर्शिता से काम नहीं लिया । अतः उद्देश्य के सम्मुख केवल ध्येय. ही नहीं है किन्तु उस ध्येय की प्राप्ति के लिए आवश्यक साधन भी है। यह प्रेरणा से इस अर्थ में व्यापक है कि इसमें प्रेरक और निवारक अथवा प्रवर्तक और निवर्तक दोनों ही सम्मिलित हैं। - प्रेरणा और परिणाम के विवाद का निष्कर्ष-सहजज्ञानवादियों का यह कहना है कि कर्म का औचित्य-प्रनौचित्य प्रेरणा पर निर्भर है। निर्णीत कर्म में प्रेरणा अथवा कर्म के स्रोत की पवित्रता अनिवार्य है। नैतिकता का परिणाम से कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु निर्णीत कर्म में प्रेरणा और परिणाम में परम भेद नहीं कर सकते हैं। प्रेरणा वह अभीप्सित परिणाम है जिसके लिए कर्म किया जाता है । कर्ता ध्येय के साथ ही उसकी प्राप्ति के साधनों के प्रति भी जागरूक है । प्रात्म-प्रबुद्ध प्राणी यह भली-भाँति जानता है कि इच्छित ध्येय की प्राप्ति के लिए उसे किन उपायों को अपनाना होगा और उनका क्या परिणाम होगा । उस तथ्य को सम्मुख रखते हुए गांधीजी ने अहिंसा को साध्य और साधन दोनों माना है। साध्य की पवित्रता के साथ ही साधन की पवित्रता को भी आवश्यक बताया है। प्रेरणा में परिणाम पूर्वकल्पित होता है। निर्णीत कर्म में नैतिक निर्णय देते समय परिणाम की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं । बुरे साधनों का उपयोग करने के लिए और पूर्वज्ञात बुरे परिणामों के लिए कर्ता दोषी है। आत्म-प्रबुद्ध प्राणी अपनी प्रेरणा को वास्तविक रूप देते समय इनके बारे में सचेत है। जब कोई व्यक्ति गरीबों की भलाई की प्रेरणा से अमीरों के घर में डाका डालता है तो वह यह भली-भाँति जानता है कि अपनी प्रेरणा को वह मूर्त रूप अमीरों के रक्त द्वारा दे रहा है। नैतिक दृष्टि से केवल प्रेरणा की पवित्रता सम्मुख रखकर कर्म की पवित्रता सिद्ध नहीं की जा सकती। नैतिक ७२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म वह कर्म है जिसके साध्य और साधन दोनों पवित्र हैं। शुभ साध्य की दुहाई देकर अशुभ साधन को न्यायोचित नहीं कह सकते । अशुभ साधन का प्रयाग करनेवाला निर्दोष नहीं है। अतः नैतिक निर्णय का विषय वह प्रेरणा है जो परिणाम और साधन से सर्वथा मुक्त नहीं है। . ___इसी प्रकार सुखवादियों का यह कहना भ्रान्तिपूर्ण है कि नैतिकता का प्रेरणा से कोई सम्बन्ध नहीं है। वे इस तथ्य को तो स्वीकार करते हैं कि उद्देश्य के अन्तर्गत प्रेरणा और परिणाम दोनों पाते हैं; किन्तु जहाँ तक प्रेरणा के स्वरूप का प्रश्न है वे उसे भावनामात्र मानते हैं और इसी अर्थ में इसे नैतिक गुणहीन कहते हैं। उनके अनुसार परिणाम अथवा अधिक परिमाणवाला परिणाम ही कर्म के औचित्य को निर्धारित करता है। निर्णीत कर्म का विश्लेषण यह सिद्ध करता है कि निर्णीत कर्म की प्रेरक भावना नहीं हो सकती। इसका स्रोत वह प्रेरणा है जिसकी प्राप्ति के लिए प्रात्मा प्रयास करती है अथवा संकल्प-शक्ति बाह्य रूप धारण करती है। नैतिक निर्णय कर्म पर नहीं दिया जाता, कर्ता पर दिया जाता है। कर्म का प्रौचित्य-अनौचित्य कर्ता के चरित्र को प्रतिबिम्बित करता है। बिना कर्ता के कर्म पर नैतिक निर्णय देना उतना ही अर्थशून्य है जितना कि प्राकृतिक घटना पर। कर्ता के चरित्र की सूचक प्रेरणा है । प्रेरणा के द्वारा ही व्यक्ति के चरित्र को समझ सकते हैं। इस अर्थ में प्रेरणा भावनामात्र नहीं है। वह आत्म-चेतन-व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाधित करनेवाली शक्ति है। कर्ता के चरित्र के अनुरूप प्रेरणा उसे किसी विशिष्ट परिस्थिति, समय और काल में एक विशिष्ट रूप से प्रेरित नहीं करती है। अत: प्रेरणा कर्ता के कर्म करते समय उसके मानसिक स्तर एवं चरित्र की सूचक है। यह आन्तरिक है। बाह्य परिस्थितियाँ व्यक्ति को प्रेरित नहीं करतीं। वे उद्दीपकमात्र होती हैं। यही कारण है कि दो भिन्न लोगों को एक विशिष्ट परिस्थिति दो भिन्न प्रकार से प्रभावित करती है। अपने आन्तरिक चरित्र के अनुरूप ही समान परिस्थिति में रहते हुए भी एक साधु हो जाता है और दूसरा चोर । अतः नैतिक निर्णय देते समय प्रेरणा को समझना अनिवार्य है, क्योंकि यह व्यक्ति के चरित्र को व्यक्त करती है। यह भी सत्य है कि जब व्यक्ति प्रेरणा के अनुसार कर्म करता है तो उसे परिणाम का पूर्वबोध होता है। प्रेरणा अपने व्यापक अर्थ में अनुमानित और इच्छित परम-परिणाम है। कर्म के उचिन मूल्य को आँकने के लिए परम-परिणाम या प्रेरणा को समझना अनिवार्य है। कोई कृपण, भिखारी के बार-बार माँगने से, झुंझलाकर उसकी , मनोवैज्ञानिक आधार तथा नैतिक निर्णय | ७३ For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर एक पैसा इस अभिप्राय से फेंकता है कि भिखारी की आँख फूट जाय और वह भविष्य में आकर उसे दिक न करे। किन्तु दुर्भाग्यवश कृपण का निशाना चक जाता है और भिखारी बिना कष्ट के पैसा प्राप्त कर लेता है । यदि कृपण के कर्म के परिणाम को ही केवल देखें तो नैतिक दृष्टि से यह उचित नहीं होगा । कर्म का नीतिसम्मत मूल्यांकन करने के लिए उस प्रेरणा को भी समझना आवश्यक है जिसके लिए कर्म किया जाता है । इस तथ्य को सम्मुख रखते हए ग्रीन का कहना है कि प्रेरणा ध्येय के बारे में वह विचार है जिसे प्रात्मचेतन व्यक्ति अपने सम्मुख रखकर उसे प्राप्त करने का प्रयास करता है । प्रेरणा वह पर्याय है जो परिणाम अथवा उद्देश्य के लिए प्रयोग में लाया जाता है । इस अर्थ में प्रेरणा नैतिक निर्णय का विषय है। प्रेरणा और परिणाम में परम भिन्नता देखना भूल है। उद्देश्य अपने सीमित अर्थ में प्रेरणा है और प्रेरणा अपने व्यापक अर्थ में उद्देश्य है । प्रेरणा और उद्देश्य अपृथक् हैं, किन्तु साथ ही अपनी विशिष्टता रखते हैं। प्रेरणा और परिणाम एवं कर्म एक ही क्रिया के आन्तरिक और बाह्य पक्ष हैं, क्योंकि किसी विचार का मानस में प्रकट होना, उसका संकल्प करना और उसे निर्धारित करना एक ही क्रिया का आदि और अन्त है । यदि पुनः यह प्रश्न किया जाय कि नैतिक निर्णय का विषय क्या है तो कहा जा सकता है कि वह आचरण है और आचरण से अभिप्राय उसके दोनों पक्षों से-पान्तरिक और बाह्य पक्षों से है। नैतिक निर्णय विवेकसम्मत है । यह सम्पूर्ण परिस्थिति के अध्ययन के पश्चात् ही कर्मों के औचित्य-अनौचित्य को निर्धारित करता है । जहाँ तक व्यक्ति के आचरण का प्रश्न है यह उसके चरित्र का ही व्यक्त रूप है। अथवा आचरण पर निर्णय देना या चरित्र पर निर्णय देना एक ही बात है। व्यक्ति की संकल्प.. शक्ति, आत्मा और प्रेरणा भी उसके चरित्र के ही सूचक हैं । अतः नैतिक निर्णय का विषय व्यक्ति का आचरण, चरित्र, संकल्प-शक्ति, प्रात्मा और प्रेरणासभी समान रूप से हो सकते हैं, क्योंकि ये सब एक ही सत्य के रूप हैं । इनको विवादग्रस्त परिभाषाओं से मुक्त करके नैतिक निर्णय का विषय बनाया जा सकता है। ७४ | नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक प्रत्यय कर्ता, कर्म और ध्येय के नैतिक स्वरूप को समझने के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग करते हैं अर्थात् उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ, कर्तव्यं-अधिकार, सद्गुणदुर्गुण, पाप-पुण्य, स्वतन्त्रता-उत्तरदायित्व' प्रादि, जिन्हें नैतिक प्रत्यय कहते हैं; नीतिशास्त्र में वे विशिष्ट अर्थों से युक्त हैं, और नैतिक निर्णय में सहायक होते हैं। नैतिक निर्णय वे हैं जो कि स्वेच्छित कर्मों तथा उन कर्मों को करनेवाले व्यक्तियों तथा उन ध्येयों पर, जिनकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति प्रयास करते हैं, उनके स्वरूप का मूल्यांकन करने के लिए, दिये जाते हैं। ___शुभ और उचित के प्रत्यय नैतिकता के मूलगत प्रत्यय' हैं और अन्य प्रत्यय इन्हीं के समानार्थी हैं। फिर भी यह उचित है कि हम प्रत्येक प्रत्यय के विशिष्ट अर्थ का ज्ञान प्राप्त कर लें। दैनन्दिन जीवन में इन प्रत्ययों का प्रयोग सामान्य रूप में किया जाता है क्योंकि सामान्यबोध इनमें कोई स्पष्ट भेद नहीं करता है। नीतिशास्त्र के अनुसार ध्येय के स्वरूप को समझाने के लिए शुभ और अशुभ का, व्यक्ति या वैयक्तिक चरित्रों के लिए सदगुण और दुर्गण का और स्वेच्छा. कृत कर्म के रूप को समझाने के लिए उचित और अनुचित का प्रयोग करना अधिक मान्य है। इन भिन्न विशेषणों के यह अर्थ कदापि नहीं हैं कि कर्ता, कर्म और ध्येय का मूल्यांकन करने के लिए हम भिन्न मान-दण्डों का प्रयोग करते १. Duty-Obligation, Virtue-Vice, Merit-Demerit, Freedom___Responsibility. २. देखिए-भाग १, मध्याय ११ . नैतिक प्रत्यय | ७५ For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । जिस मान-दण्ड से हम ध्येय को शुभ कहते हैं उसी मान-दण्ड से हम कर्ता को सद्गुणी और कर्म को उचित कहते हैं। उदाहरणार्थ, उपयोगितावाद के अनुसार अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख ही परम-ध्येय है। यही नैतिक निर्णय का मानदण्ड है। इसके अनुरूप कर्म, चरित्र और ध्येय को ही नैतिक अनुमोदन के योग्य मानना चाहिए। कर्तव्य, अधिकार : सामान्य प्रर्थ-मनुष्य का सामान्य जीवन कर्तव्य और अधिकार के बीच व्यतीत होता है । वह समाज का अनिवार्य अंग और देश का नागरिक है। समाज अपने सदस्य को मौलिक अधिकार प्रदान करता है ताकि वह भली-भाँति अपने जीवन की विविधांगी आवश्यकतानों की पूर्ति कर सके। 'किन्तु अधिकार बिना कर्तव्य के अधुरा और अर्थशून्य है। यदि किसी व्यक्ति को अपनी सम्पत्ति रखने का अधिकार है तो उसका कर्तव्य हो जाता है कि वह दूसरे की सम्पत्ति का अपहरण न करे। प्रत्येक नागरिक के सुव्यवस्थित जीवन की रक्षा करने के लिए ही समाज और राजसत्ता कर्तव्य और अधिकार की 'रूपरेखा बनाती है और उसे लोगों पर आरोपित करती है। - नैतिक अर्थ-नैतिकता, कर्तव्य और अधिकार को मानते हुए, उन्हें एक उच्च मान्यता प्रदान करती है। वह कर्तव्य को महत्त्व देते हुए कहती है कि बौद्धिक प्राणी का यह जन्म-जात अधिकार है कि वह अपने नैतिक और आध्यात्मिक अधिकारों की मांग कर सकता है। वह अधिकार शक्ति-प्रदर्शन, भोग-विलास, यश-लालसा तथा धन की तृष्णा का नहीं है अपितु आत्मिक उन्नति का है। आत्मिक उन्नति मानव-जाति की उन्नति की अपेक्षा रखती है। अत: व्यक्ति को अपने अधिकार के साथ ही दूसरों के प्रति जागरूक रहना चाहिए। ___ अंग्रेजी का 'राइट' शब्द द्वयर्थक है । वह भिन्न सन्दर्भो के अनुरूप औचित्य और अधिकार का सूचक है। समाज में संस्कृत और सभ्य कहलाने के लिए शिष्टाचार के नियमों का पालन करना नैतिकता नहीं है और न दण्ड से बचने के लिए राज्य के नियमों के अनुरूप कर्म करना नैतिक कर्म करना है। मनुष्य नैतिक प्राणी है और नैतिक नियम अान्तरिक नियम है। जब किसी कर्म को लोक-व्यवहार के कारण नहीं बल्कि उसकी आन्तरिक श्रेष्ठता के कारण अपनाते हैं तो वह उचित कर्म कहलाता है। समझ-बूझकर सदाचार को अपनाना ही १. Right. ७६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचित (राइट) है। वही कर्म नैतिक है जो उचित के बोध से किया गया हो अथवा नैतिक बाध्यतावश या कर्तव्य की चेतना से प्रेरित होकर किया गया हो। कर्तव्य और औचित्य समानार्थी हैं। कर्तव्य करना ही उचित है और उचित करना ही कर्तव्य है। कर्तव्य और उचित को महत्त्व देकर नीतिशास्त्र यह संकेत करता है कि मानवीय दुर्बलताएं मनुष्य को अनैतिक मार्ग की ओर खींचती हैं। किन्तु उसे नैतिक ज्ञान और दृढ़ संकल्प की सहायता से उस मार्ग को अपना लेना चाहिए जो नैतिक और शुभ है। स्वेच्छित कर्म करनेवाले बौद्धिक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह सदैव उचित को अपनाये । कर्तव्य और नैतिक बाध्यता-कुछ लोग कर्तव्य और बाध्यता में भेद देखते हैं और कहते हैं कि बाध्यता कानून अथवा समझौते की उपज है। वे बाध्यता और कर्तव्य में भेद देखते हैं। बाध्यता वह है जिससे कि व्यक्ति निश्चित बोध और समझौते द्वारा कर्म करने के लिए बद्ध हो जाता है । कर्तव्य वह है जो कि एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति देय है, क्योंकि मनुष्य मूलतः एक नैतिक और सामाजिक प्राणी है। कर्तव्य और बाध्यता का वणित भेद नैतिक दृष्टि से व्यर्थ है । नीतिशास्त्र में कर्तव्य और बाध्यता पर्यायवाची हैं। दोनों से ही अभिप्राय उससे है जिसे मनुष्य की बुद्धि उसके लिए अनिवार्य मानती है। उसकी वास्तविक आत्मा उसे विशिष्ट प्रकार से कर्म करने के लिए बाध्य करती है। सब कर्तव्य अनिवार्य हैं एवं नैतिक मनुष्य उन्हें करने के लिए बाध्य है । नैतिक जीवन में कर्तव्य के बोध एवं नैतिक बाध्यता के बोध का प्रमुख स्थान है। नैतिक बाध्यता मनुष्य के उस नियम के प्रति सचेत सम्बन्ध को प्रकट करती है जिसे कि वह विशिष्ट परिस्थितियों में पालन करने के लिए सर्वश्रेष्ठ समझता है और जिसका पालन करना उसके लिए. सम्भव है। ऐसे नियम का पालन करना व्यक्ति का कर्तव्य है। ____ कर्तव्य और नैतिक बाध्यता व्यक्ति के चंचल और दोलायमान तथा आवेग-पूर्ण स्वभाव के सूचक हैं । मनुष्य सहज ही निम्न प्रवृत्तियों के प्रवाह में बह जाता है। उनसे ऊपर उठना एवं शुभ के मार्ग को ग्रहण करना उसका कर्तव्य है । यही नैतिक बाध्यता है। नीतिशास्त्र वह विज्ञान है जो कि नैतिक ध्येय के प्रति व्यक्ति को सचेत और जागरूक रखता है ताकि वह समझ-बूझकर ध्येय के मार्ग पर चल सके। इस अर्थ में कर्तव्य के नियम बाह्य सत्ता द्वारा निर्धारित किये हुए नहीं हैं । वे आत्म-आरोपित हैं । कर्तव्य के निरपेक्ष आदेश नतिक प्रत्यय / ७७ For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं प्रात्म-प्रारोपित नियम की श्रेष्ठता को काण्ट ने भली-भांति समझाया कर्तव्य की पूर्ण और अपूर्ण बाध्यता-कुछ विचारकों ने कर्तव्यों को दो वर्गों में विभाजित किया है। वे यह मानते हैं कि आचरण के नियमों अथवा सब कर्तव्यों को पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता। कर्तव्य की निश्चित संहिता बनाना सम्भव नहीं है, फिर भी वे यह मानते हैं कि सहायता के इच्छक जनसामान्य का नीतिशास्त्र कुछ हद तक पथ-निर्देशन कर सकता है। इस अभिप्राय से नीतिज्ञों ने कहा कि दो प्रकार की बाध्यताएं हैं : (१) जिनको निर्धारित किया जा सकता है और (२) जिनको निर्धारित नहीं किया जा सकता है। इसी आधार पर कुछ विचारकों ने निश्चित बाध्यताओं को कर्तव्य और अनिश्चित को सद्गुण कहा है। कुछ निश्चित कर्तव्यों को न्याय के अन्तर्गत समझाते हैं और उनका पालन करना नैतिक बाध्यता मानते हैं। काण्ट ने उपर्यक्त भेद को महत्त्व देकर पूर्ण बाध्यता के कर्तव्य और अपूर्ण बाध्यता के कर्तव्य की भिन्नता को समझाया। पूर्ण बाध्यता के कर्तव्य बतलाते हैं कि कुछ आचरण अनुचित हैं, और ऐसे अनुचित प्राचरण को न करने का आदेश हमें मिलता है। अतः पूर्ण बाध्यता के कर्तव्य निषेधात्मक हैं । बिना किसी शर्त के एक निश्चित प्रकार के आचरण की आशा की जाती है—'चोरी नहीं करोगे', 'झूठ नहीं बोलोगे' आदि। ये नीति-वाक्य सर्वदेशीय और सर्वकालीन हैं; अनिवार्य आदेश के रूप में ये हमें मिलते हैं। ये निश्चित कर्तव्य हैं । अपूर्ण बाध्यता के कर्तव्य विधेयात्मक हैं। इन्हें निषेधात्मक आदेशों की भाँति परमरूप से व्यक्त नहीं कर सकते। ये सर्वदेशीय और सर्वकालीन नहीं हैं। देश, काल और परिस्थिति के वृत्त में ही इन्हें समझ सकते हैं। परोपकार, दान, दया आदि के कर्तव्य विशिष्ट अवसर एवं देश, काल और परिस्थिति से सम्बन्धित हैं। निश्चित कर्तव्यों का बाह्य आदेश प्राप्त होता है। उनका उल्लंघन दण्ड से युक्त है । किन्तु अनिश्चित एवं अपूर्ण बाध्यता के कर्तव्य आत्म-आरोपित हैं । कर्ता स्वयं ही सत् प्राचरण को अपनाता है। जब देश की भलाई के लिए स्वेच्छा से प्रसन्नवदन होकर व्यक्ति जीवनोत्सर्ग कर देता है तो वह अपूर्ण बाध्यता के कर्तव्य को अपनाता है। ऐसे कर्तव्य उन्नत चरित्र एवं नैतिक श्रेष्ठता के सूचक हैं । श्रेष्ठ चरित्र किसी भी विशिष्ट परिस्थिति में शुभ के अनुरूप कर्म को अपनायेगा । उसका आचरण सदैव ही शुभ की प्राप्ति के लिए साधनमात्र रहेगा। ७८ । नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी' ने मनुष्य के कर्तव्यों को तीन वर्गों में बाँटा है : (१) वे निश्चित कर्तव्य जिन्हें कि राज्यसत्ता निर्धारित करती है और जिनका उल्लंघन दण्ड से - युक्त है । (२) वे कर्तव्य जिन्हें कि राजकीय या राष्ट्रीय नियम का रूप नहीं दे सकते हैं किन्तु फिर भी प्रत्येक सम्माननीय नागरिक के लिए वे आवश्यक हैं । (३) वे कर्तव्य जो कि प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करते हैं । प्रत्येक से भिन्न प्रकार के नैतिक आचरण की आशा करते हैं । कर्तव्यों में निश्चित भेद देखना, जैसा कि स्वयं मेकेंजी ने स्वीकार किया है, अनुचित है । इस भाँति का भेद विवेकसम्मत नहीं है । यह भेद कानूनी है, न कि नैति । नैतिक क्षेत्र में सद्गुण, नैतिक बाध्यता, कर्तव्य आदि समानार्थी हैं और इन सबका सम्बन्ध ध्येय से है । शुभ एवं ध्येय के अनुरूप कर्म करना सद्गुण, नैतिक बाध्यता एवं कर्तव्य है । कर्तव्य सदैव विशिष्ट परिस्थितियों में निश्चित तथा निर्धारित होता है । नीतिज्ञों ने कर्तव्यों के बीच जो भेद माना है वह सामयिक है, परम और स्थायी नहीं है । तीनों प्रकार के नियमों में जो भेद दीखता है वह परम नहीं है बल्कि देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर है। नियमों का ऐतिहासिक अध्ययन बतलाता है कि आवश्यकताएँ, विकास और परिवर्तन किसी वर्ग के नियम को स्थायी नहीं रहने देता; कर्तव्यों के वर्गों को बदला जाता है। प्रथम वर्ग का कोई कर्तव्य द्वितीय में आ सकता है और द्वितीय का तृतीय में । राज्यविधान तथा नागरिकों के शिष्टाचार के नियम कठोर और अपरिवर्तनशील नहीं रह सकते । आवश्यकता और समयानुसार कुछ कर्तव्य अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं और कुछ कम । अतः कर्तव्यों की सामयिक संहिता बनायी जा सकती है, स्थायी नहीं । तो क्या हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निश्चित कर्तव्यों की रूपरेखा बनाना भूल है ? क्या मनु ने अपनी मनुस्मृति तथा बाइबिल ने अपने दस आदेश देकर अव्यावहारिक काम किया ? समय और काल की सीमा के अन्दर सापेक्ष कर्तव्यों को निर्धारित करके जनसामान्य के मार्ग को निर्देशित करना उचित श्रौर आवश्यक है, किन्तु इसके अर्थ यह कदापि नहीं हैं कि हम विकास, परिवर्तन और नवीन आवश्यकताओं को भूल जायँ । 1 नीतिशास्त्र ध्येय की चेतना को जाग्रत करके आचरण के नियमों का आभासमात्र देता है | वह कर्म करने के लिए विस्तृत उपदेश नहीं देता । नैतिक अन्तर्ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति अपने कर्तव्य को स्वयं निर्धारित कर सकता है । प्रत्येक 2. Mackenzie. For Personal & Private Use Only नैतिक प्रत्यय / ७६ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति विशिष्ट परिवार, समाज, देश, जाति और राष्ट्र का अंग है। उसके स्वरूप की अपनी विशेषताएं हैं। अपने परिवार और परिवेश को, प्रवृत्तियों को वह दायरूप में प्राप्त किये रहता है । वह एक विशिष्ट परिस्थिति में अपने को निर्धारित पाता है और उसी स्थिति के जीवन के सामान्य विधान में वह सहयोग देता है । इस विधान के लिए सक्रिय कर्म करना ही उसका प्रमुख कर्तव्य हो जाता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने स्वधर्म को समझकर कर्म करे । जो व्यक्ति जिस कर्म के योग्य हो उसे ही श्रेष्ठ समझकर भली-भाँति करे । अपने क्षेत्र के अन्दर आचरण के नियमों का पालन करना प्रत्येक का धर्म है । वास्तव में कर्तव्य की समस्या चरित्र और ध्येय की समस्या है। बौद्धिक प्राणी के लिए यह जानना अनिवार्य नहीं है कि नियम क्या हैं क्योंकि नियम का अनुवर्तन मात्र करना यन्त्रवत् रहना है। मनुष्य के लिए चरित्र के उस आदर्श को समझना आवश्यक है जिसका कि वह अपने अन्दर विकास करना चाहता है । एक सुविकसित चरित्र को चाहे किसी भी विशिष्ट परिस्थिति में रख दें उसे अपने आचरण के मार्ग को खोजने में देर नहीं लगेगी । ऐसे व्यक्ति को नियमों के अध्ययन की आवश्यकता नहीं । उसका ध्येय निर्दिष्ट है । वह स्वयं मार्ग खोज सकता है । यदि व्यक्ति में शुभ की प्राप्ति के लिए आन्तरिक प्रेरणा और तीव्र जिज्ञासा हो तो उसका कर्म अपने आप ही सुनिर्देशित हो जाता है, किन्तु यदि वह ध्येय के प्रति उदासीन हो अथवा उसका नैतिक ज्ञान कुण्ठित हो तो प्राथमिक स्थिति में नियम सहायक सिद्ध होंगे । यहाँ पर नीतिज्ञ का कर्तव्य हो जाता है कि मानव जीवन के सामान्य स्वभाव के आधार पर आचरण के कुछ नियमों का प्रतिपादन करे और उन स्थितियों को समझाये जिनके लिए वे उपयोगी सिद्ध होंगे । यहाँ पर यह ध्यान में रखना आवश्यक है. कि नियम को पूर्ण महत्त्व देनेवाले लोग भूल करते हैं । पहले तो जीवन की अनन्त आवश्यकताओं को लिपिबद्ध नहीं किया जा सकता और दूसरा जीवन नियममात्र नहीं है | अतः नीतिज्ञ केवल ध्येय के स्वरूप को हमारे सम्मुख रख सकता है । प्रत्येक व्यक्ति का काम है कि मूर्त स्थिति को समझकर अपना मार्ग निर्धारित करे । यही कर्तव्य का मार्ग है । कर्तव्य और सद्गुण-दुर्गुण – स्वतन्त्र संकल्पवाले आत्म-प्रबुद्ध प्राणी का कर्तव्य है कि वह उस कर्म को करे जो शुभ है, अर्थात् शुभ-कर्म करना कर्तव्य है और अशुभ कर्म करना अकर्तव्य है । जब व्यक्ति को कर्तव्य करने का ८० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास हो जाता है और कर्तव्य उसका अभ्यास बन जाता है तब वह श्रेष्ठ चरित्र (सदाचार या सदगुण) को प्राप्त कर लेता है। सदगूण चरित्र की श्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता का सूचक है और दुर्गुण दुर्बलता तथा दोष का । सद्गुण चरित्र के प्रान्तरिक से आन्तरिक स्वरूप को अभिव्यक्ति देता है। अनेक शुभ कर्मों की पुनरावृत्ति से व्यक्ति इसे अजित कर लेता है। यह चरित्र का वह स्वभाव, गुण या अजित प्रवृति है जो स्थायी है। चरित्र का गुण होने पर भी कर्मों और प्रेरणानों के लिए इसका प्रयोग किया जाता है । यह शुभ कर्म का सूचक है। श्रेष्ठ चरित्र कर्म द्वारा अपने को व्यक्त करता है। कर्तव्य का सम्बन्ध भी कर्म-विशेष से है। कर्तव्य-बोध की चेतना से युक्त व्यक्ति सच्चरित्र होते हैं । कर्तव्य का अभ्यास शुभ चरित्र का निर्माण करता है और शुभ चरित्र ही कर्तव्य है। यदि व्यक्ति अपने चरित्र का उत्थान चाहता है तो उसे चाहिए कि वह बारम्बार कर्तव्य के मार्ग को पकड़े क्योंकि कर्तव्य करने की अनवरत पेष्टा एवं अभ्यास सच्चरित्र का जनक है । कर्तव्य को अपनाने के लिए प्रालस्य और असावधानी का त्याग आवश्यक है अन्यथा अनायास ही व्यक्ति दुर्गुण को अपना लेगा। सच्चरित्र की स्थापना के लिए कर्म से युक्त होना पड़ता है। दढ़ संकल्प, सतर्क चिन्तन, शुभ मार्ग को अपनाने की उत्कट प्रेरणा, कठिनाइयों से न डरना आदि सच्चरित्र की ओर ले जाते हैं। जब धीरे-धीरे कर्तव्य करना मनुष्य का स्वभाव हो जाता है तो कर्तव्य सहज और आनन्दप्रद हो जाते हैं। अतः कर्तव्य ज्ञान और संकल्प-स्वातन्त्र्य की अपेक्षा रखता है । कर्तव्य न करनेवाला व्यक्ति दोषी है। नैतिक दुर्गुण मानवीय संकल्प पर निर्भर है। व्यक्ति प्रकर्तव्य के लिए उत्तरदायी है। परपी एवं दुर्गुणी जान-बूझकर कर्तव्य नहीं करता है। किन्तु कई बार ऐसा भी हो जाता है कि कर्तव्य का इच्छुक व्यक्ति अनुचित मार्ग को अपने भ्रमपूर्ण चिन्तन के कारण अपना लेता है । ऐसी स्थिति में चिन्तन को भ्रान्तिपूर्ण कहने पर भी व्यक्ति को दोष नहीं देते । व्यक्ति हृदय से सद्गुणेच्छु है । उसके स्वभाव और संकल्प का झुकाव सद्गुण की अोर है यद्यपि चिन्तन भ्रमपूर्ण है। नैतिक दृष्टि से सद्गुण को विशिष्ट गुण के रूप में नहीं समझ सकते क्योंकि वह चरित्र का स्वभाव या गुण है । ऐसा कथन बतलाता है कि सद्गुण का प्रयोग दो अर्थों में होता है-नैतिक सद्गुण और विशिष्ट सद्गुण । विशिष्ट सदगुण को हम उस अभिरुचि के रूप में समझ सकते हैं जो स्वेच्छित कर्म द्वारा किसी विशेष शुभ ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करती है। इसे हम अच्छे नैतिक प्रत्यय / ८१ For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानों और कलाकारों में देखते हैं । वह व्यक्ति, जो अपने क्षेत्र में योग्यता प्राप्त कर लेता है अथवा वह व्यक्ति जो किसी अच्छे काम को अच्छी तरह कर लेता है, विशिष्ट गुणसम्पन्न व्यक्ति है । विशिष्ट गुण अपने-आपमें अच्छे हैं । वे समृद्ध समाज के लिए आवश्यक हैं। विशिष्ट गुणों में पारस्परिक भेद सम्भव हो सकता है । यह आवश्यक नहीं कि एक अच्छा गायक एक अच्छा चित्रकार अथवा एक अच्छा चित्रकार एक अच्छा लेखक भी हो । विशिष्ट गुण प्रतिभा का परिणाम है और सामान्य बोध यह मानता है कि वह भगवान् प्रदत्त है । यह अवश्य है कि प्रयास द्वारा इस प्रतिभा को अधिक विकसित कर सकते हैं । यही नहीं, यदि विशिष्ट गुण सम्पन्न व्यक्ति अथवा लेखक कुछ काल के लिए अनिवार्य कारणोंवश (शारीरिक रोग, मानसिक आघात, प्रेरणा प्राप्त न कर सकने के कारण, आदि) अपना काम न करे तो वह क्षम्य है । नैतिक गुण का होना प्रत्येक सम्माननीय नागरिक के लिए आवश्यक है । संयम, न्याय, दया आदि सद्गुण नाममात्र से भिन्न हैं । वास्तव में वे एक ही सद्गुण की अभिव्यक्ति हैं क्योंकि सद्गुण एक है । नैतिक सद्गुण सम्पूर्ण चरित्र की वह अभिरुचि है जो कि निरन्तर कार्यान्वित रहना चाहती है । प्रत्येक परिस्थिति में जो सबसे अधिक उत्तम है उसे शुभ चरित्र खोजता है । उसके लिए सब कर्म अपनेआपमें साध्य हैं एवं परम शुभ के लिए साधन हैं। जिस भाँति भूखा व्यक्ति एकमात्र भोजन चाहता है उसी भाँति सद्गुणी एकमात्र नैतिक आदर्श का भूखा है | चाहे पत्थर बरसे या बिजली गिरे उसे अपने कर्म से छुट्टी नहीं मिल सकती । सद्गुण - परम्परागत और विवेकसम्मत – नैतिक सद्गुण दो रूपों में दीखता है— परम्परागत और विवेकसम्मत । जनसामान्य उस व्यक्ति को सद्गुणी मानता है जो प्रचलित नैतिक नियमों और परम्पराम्रों का सदैव पालन करता है; जो दयालु, संयमी, सम्माननीय, न्यायशील और उद्योगी है । किन्तु नैतिक दृष्टि से स्वीकृत नियमों का पालन मात्र करना अपने को यन्त्र बना लेना है । नैतिकता उचित नियमों के अन्ध-पालन की अपेक्षा नहीं रखती । वह उचित नियम द्वारा उस ध्येय को पालन करने की श्राशा रखती है जो कि विवेकशील व्यक्ति के लिए वांछनीय है । अतः नैतिक सद्गुण वह अभ्यासगत प्रवृत्ति है जो सदैव चेतन रूप से उन ध्येयों की प्राप्ति के लिए प्रयास करती है जो श्रेष्ठ और वांछनीय हैं । यह अवश्य व्यक्ति की योग्यता, प्रतिभा, लगन और व्यक्तित्व पर निर्भर है कि वह कहाँ तक ध्येय को समझ सका है। ध्येय के स्वरूप का जिज्ञासु ८२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदैव वस्तुगत नैतिक मानदण्ड की सहायता से अपने मानदण्ड को सुधार सकता है । सम्यक् मानदण्ड को समझने के लिए श्रात्मगत और वस्तुगत एवं वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों का उचित सन्तुलन अनिवार्य है । व्यक्ति और समाज दोनों के हित की समान रूप से वृद्धि करने की प्रवृत्ति का सामान्य रूप ही नैतिक सद्गुण है । इसका रूप समय और काल के अनुसार परिवर्तित होता है । नैतिक सद्गुण और विशिष्ट सदगुण में परम भेद देखना व्यर्थ है । नैतिक सद्गुण विशिष्ट सद्गुणों द्वारा अभिव्यक्ति पाते हैं और विशिष्ट सद्गुण 'नैतिक' सद्गुण द्वारा ही स्थायी मूल्य पाते हैं । यदि उन व्यक्तियों और संस्थानों के लिए नैतिक सद्गुण - दया, दान, न्याय आदि - सहायक नहीं हैं जो वास्तव में योग्य पात्र हैं और जो उचित सहायता पाकर अपनी प्रतिभा और विशिष्टता को प्रस्फुटित कर सकते हैं तथा समाज के जीवन को संस्कृत, सभ्य और कलात्मक बनाने में सक्रिय योग दे सकते हैं तो नैतिक सद्गुण व्यर्थ और अमूर्त जायेंगे । कला और साहित्य का स्थायी मूल्य इस पर निर्भर है कि वे अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को कहाँ तक निभा सके हैं। यदि चित्रकार की तूलिका और लेखक की लेखनी सामाजिक जीवन को सुन्दर और मंगलमय बनाने में असमर्थ है तो वह श्रेष्ठ नहीं है । पाप और पुण्य - गुण एक व्यापक प्रत्यय है जिसके अन्दर पाप और पुण्य हैं | अपने स्वरूप के अनुरूप वह पाप और पुण्य का सूचक है । चरित्र की भावात्मक नैतिक श्रेष्ठता पुण्य है और अभावात्मक नैतिक योग्यता पाप है । यदि पहला यह बतलाता है कि चरित्र नैतिक दृष्टि से कितना मूल्यवान् है तो दूसरा उसके नैतिक ह्रास का ज्ञान देता है । वास्तव में पाप और पुण्य चरित्र के गुण हैं । चरित्र के नैतिक स्वरूप को व्यक्त करने के लिए ही इनका प्रयोग करते हैं । ये दोनों कर्म द्वारा चरित्र को अभिव्यक्ति देते हैं । उचित कर्म एवं पुण्य, चरित्र की श्रेष्ठता का सूचक है और अनुचित कर्म एवं पाप, चरित्र के दोष का । उचित और अनुचित के आधार पर भी पाप और पुण्य को समझा जा सकता है । जब कर्म उचित एवं नैतिक मानदण्ड के अनुरूप है तो वह पुण्य है और अनुचित पाप है । दोनों प्रत्ययों का ऐसा भेद बतलाता है कि चरित्र के नैतिक विकास के बिना पुण्य सम्भव नहीं है । ऐसे कर्म स्वतन्त्र संकल्प पर निर्भर हैं । जब विवेकी व्यक्ति स्वेच्छा से कर्तव्य के मार्ग को अपनाता है, तब वह अपने कर्म द्वारा नैतिक प्रत्यय / ८३ For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने उन्नत चरित्र को अभिव्यक्ति देता है । जब व्यक्ति नैतिक ध्येय को समझकर भी उसके विपरीत कर्म करता है तो वह पाप करता है। ऐसा कर्म उसके चरित्र के पतन का सूचक है। पाप और पुण्य का सम्बन्ध व्यक्ति से है, अतः इनमें गुणात्मक भेद दीखता है। चरित्र की नैतिक पूर्णता मुणात्मक अन्तर की अपेक्षा रखती है। व्यक्ति के चरित्र का उत्थान और पतन समझाने के लिए कम पतन, अधिक पतन, अधिक श्रेष्ठ आदि वाक्यों का प्रयोग किया जाता है। चरित्र की अपूर्णता से पूर्णता तक में एक क्रमिक शृंखला मिलती है। पाप और पुण्य चरित्र के सूचक हैं। इस कारण कुछ नीतिज्ञ संकल्प द्वारा इनके स्वरूप को समझाते हैं। यदि उचित मार्ग को पकड़ने के लिए आवेगों और प्रवृत्तियों पर अत्यधिक नियन्त्रण रखना पड़े अथवा त्याग के लिए दृढ़ संकल्प की आवश्यकता हो तो चरित्र अत्यधिक श्रेष्ठ है। इन्द्रियों का दमन करने के लिए और इच्छाओं को सन्मार्ग दिखाने के लिए जितना अधिक प्रयास करना पड़े उतना ही अधिक पुण्य-चरित्र,होने का सूचक है। किन्तु ऐसा भेद एकांगी है। इसे सर्वसामान्य मानदण्ड नहीं मान सकते । वास्तव में उन्नत चरित्र में संकल्प और इच्छा के बीच द्वन्द्व या तो कम दीखेगा या दीखेगा ही नहीं। नैतिक दष्टि से जो व्यक्ति जितना ही कम विकसित होगा उसे उतना ही अधिक त्याग और प्रयास करना पड़ेगा। दो समान चरित्र के व्यक्तियों की श्रेष्ठता को इस आधार पर अवश्य आँका जा सकता है । पर सम्पूर्ण परिस्थिति का व्यापक और सूक्ष्म ज्ञान ही पाप-पुण्य के रूप को निर्धारित कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति मूर्खतावश ऐसी स्थिति में त्याग करता है जहाँ कि त्याग की आवश्यकता नहीं है तो उसका आचरण चरित्र की श्रेष्ठता का सूचक नहीं है । नैतिक दष्टि से हम उसे मूर्ख और अविवेकी कहेंगे। वही चरित्र श्रेष्ठ है जो समझ-बूझकर आवश्यकतानुसार सहर्ष पूर्ण त्याग करता है । - संकल्प-स्वातन्त्र्य' और उत्तरदायित्व-अभी तक जितने भी नैतिक प्रत्ययों का प्रयोग किया है उनके मूल में यह अनिवार्य मान्यता है कि संकल्प-शक्ति स्वतन्त्र है। बिना संकल्प-स्वातन्त्र्य को माने नैतिकता एवं नैतिक प्रत्यय अस्तित्व-शून्य हैं। संकल्प-स्वातन्त्र्य और उत्तरदायित्व सापेक्ष हैं। दोनों का १. नैतिक जीवन में संकल्प-स्वातन्त्र्य का महत्त्वपूर्ण स्थान होने पर भी नीतिज्ञों में मतभेद है । अत: इसका विस्तार से वर्णन करना आवश्यक है जिसकी पूर्ति अगले अध्याय में की गयी। संकल्प का स्वरूप उत्तरदायित्व के स्वरूप पर भी अधिक प्रकाश डालेगा। ८४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह-अस्तित्व है। नीतिशास्त्र संकल्प को स्वतन्त्र मानकर कर्मों को प्रात्म-निर्णीत तथा नियतिवाद और अनियतिवाद को एकांगी सिद्धान्त मानता है। नियतिवाद अथवा अनियतिवाद को स्वीकार कर लेने पर नैतिक उत्तरदायित्व पर घोर आघात पहुंचता है। मनुष्य अपने कर्मों के लिए दोषी नहीं रह जाता है । उसके कर्मों पर नैतिक निर्णय देना व्यर्थ हो जाता है। नीतिशास्त्र यह मानता है कि व्यक्ति अपने प्रात्म-निर्णीत कर्मों के लिए उत्तरदायी है। यदि वह ऐसे कर्म करता है जो अशुभ हैं अथवा जिनका परिणाम बुरा है तो नैतिकता उससे प्रश्न कर सकती है कि तुमने ऐसा क्यों किया? विवेकशील और स्वतन्त्र प्राणी होने पर भी शुभ ध्येय के अनुरूप कर्म क्यों नहीं किया ? अपने को पूर्वग्रहों से मुक्त करके तथा क्षणिक आवेगों पर नियन्त्रण रखकर तुमने न्याय के मार्ग को क्यों नहीं अपनाया? उस ध्येय को क्यों नहीं अपनाया जो वास्तव में शुभ है ? नैतिक दृष्टि से ऐसा प्राणी अपने ही सम्मुख दोषी है, उसे अपनी ही प्रात्मा को उत्तर देना पड़ेगा और यदि वह अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकता है तो उसका कर्म निन्दनीय और दण्डनीय है। नैतिकता को तीन मूलभूत प्रावश्यक मान्यताएँ काण्ट मानते हैं कि बुद्धि की धारणाओं के कारण नैतिकता के स्वतः सिद्ध आधार को समझने में मनुष्य असमर्थ हैं। अतः श्रद्धा का पथ प्रशस्त करने के लिए उन्होंने ज्ञान की सीमाएं निर्धारित की। वे लिखते हैं, "श्रद्धा के लिए स्थान बनाने के लिए हमें ज्ञान का परिसीमन करना होगा।" । उन्होंने नैतिकता की तीन मूलभूत आवश्यक मान्यताओं को माना हैईश्वर का अस्तित्व, आत्मा की अमरता, और संकल्प की स्वतन्त्रता। इन मान्यताओं का ज्ञान हमें नैतिक बोध द्वारा प्राप्त होता है । इनके बिना नैतिक जीवन सम्भव भी नहीं है। ये नैतिकता और कर्तव्यनिष्ठता का सबल हैं। संकल्प की स्वतन्त्रता-संकल्प की स्वतन्त्रता के बिना न तो नैतिक कर्म सम्भव है और न कर्म का नैतिक मूल्यांकन ही सम्भव है। नैतिकता का उचित मूल्यांकन करने के लिए संकल्प स्वातन्त्र्य आवश्यक है, अन्यथा 'करना चाहिए' का कोई अर्थ नहीं है। काण्ट के शब्दों में, 'चाहिए' अपने अन्दर कर सकना का समावेश करता है। इसीलिए आचरण, स्वेच्छित कर्म या आत्मनिर्णीत कर्म ही नैतिक निर्णय का विषय है । उन्हीं कर्मों को हम शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित नैतिक प्रत्यय | For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं जिन्हें कर्ता स्वतन्त्र रूप से करता है । संकल्प की स्वतन्त्रता के कारण ही व्यक्ति अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है। आत्मा की अमरता-आत्मा की अमरता को स्वीकार करना नैतिकता के लिए अनिवार्य है । बिना आत्मा की अमरता को माने हमारा दृष्टिकोण स्थूल जड़वादी हो जायेगा। यह उस असंस्कृत चार्वाक विचारधारा या भोगवादी विचारधारा स्थूल सुखवाद को प्रश्रय दे सकता है जो व्यक्ति को उसके सामाजिक नैतिक आध्यात्मिक कर्तव्य से मुक्त कर देता है, उसके जीवन को पशु जीवन का पर्यायवाची बना देता है। आत्मा की अमरता को मानने पर ही हम कह सकते हैं कि जिस नैतिक आदर्श को प्राप्त करने का मनुष्य प्रयास कर रहा है, वह यदि इस जीवन में उसे नहीं मिल पाया, उसे वह कालान्तर में अवश्य प्राप्त कर लेगा। - ईश्वर का अस्तित्व-सर्वशक्तिमान चेतन स्रष्टा में एकान्तिक विश्वास नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। ईश्वर नैतिक आदर्श का प्रतीक है। वह हमारे कर्मों का द्रष्टा और निरपेक्ष निर्णायक है। ईश्वर पर विश्वास हमें वह आशा दिलाता है कि सद्गुण आनन्ददायक है। ८६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता स्वतन्त्र संकल्प-शक्ति-प्रावश्यक नैतिक मान्यता-अभी तक यह मानते आये हैं कि मनुष्य के कर्म आत्म-निर्धारित हैं। उसकी संकल्प-शक्ति स्वतन्त्र है। वह अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है । उसके कर्म नैतिक निर्णय का विषय हैं । इस अर्थ में संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता आवश्यक नतिक मान्यता है । ऐतिहासिक दृष्टि से संकल्प अथवा संकल्प-शक्ति के बारे में दो परम विरोधी सिद्धान्त मिलते हैं : नियतिवाद (Determinism) या अस्वच्छन्दतावाद (Anti-Libertarianism) और अनियतिवाद (Indeterminism) या स्वच्छन्दतावाद (Libertarianism)। इन दोनों मतों का पालोचनात्मक अध्ययन यह बतायेगा कि इन मतावलम्बियों ने एकांगी दृष्टिकोण को सम्मुख रखा । नियतिवाद और अनियतिवाद दोनों को ही समान रूप से अनिवार्य मानते हुए तीसरे प्रकार के विचारक नैतिक कर्मों को आत्म-निर्णीत मानते हैं। इन्हीं का नैतिक दृष्टि से मूल्यांकन कर सकते हैं । यदि इसके विपरीत यह मान लें कि मनुष्य के कर्म आत्म-निर्णीत नहीं हैं, संकल्प-शक्ति स्वतन्त्र नहीं है, तो नैतिक प्रादेश और नैतिक मान्यताएं अर्थशून्य हो जायेंगी। नैतिक दृष्टि से जब यह कहते हैं कि 'तुम्हें यह करना चाहिए', 'यह कर्म उचित है', 'यह पाप है', आदि, तो इसके अर्थ यही होते हैं कि तुम इस कर्म को करने के लिए स्वतन्त्र हो, यदि तुम चाहो तो तुम्हारी कर्म-शक्ति उचित मार्ग को ग्रहण कर सकती है । संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता को बिना माने 'नैतिक चाहिए' पागल का प्रलाप है। नैतिक आदर्श की प्राप्ति व्यक्ति के लिए उतनी ही असम्भव हो जायेगी जितना कि किसी अन्धे के लिए सुन्दर दृश्य देखना । अथवा नैतिक आदर्श उस सुन्दर कल्पना की.भौति संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता | ८७ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे सम्मुख पायेगा जो कि मूर्त और व्यावहारिक रूप प्राप्त नहीं कर सकती। ऐसी स्थिति में नीतिशास्त्र को अस्तित्वहीन मान लेना अनुचित न होगा। इस सत्य को सम्मुख रखते हुए ही काण्ट ने कहा कि संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता नैतिकता की आवश्यक मान्यता है । स्वतन्त्र प्राणी अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है। इस तथ्य का स्पष्टीकरण करने के लिए आवश्यक है कि पहले दोनों सिद्धान्तों -नियतिवाद और अनियतिवाद-को समझ लें। नियतिवाद-नियतिवादियों के अनुसार मनुष्य की संकल्प-शक्ति स्वतन्त्र नहीं है, पूर्व-निर्धारित है। उनका कहना है कि निर्णीत कर्म में संकल्प-शक्ति प्रेरणा के साथ समीकरण करती है और प्रेरणा का स्वरूप व्यक्ति के चरित्र पर निर्भर है। अतः यदि व्यक्ति के चरित्र का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लें तो उसके भविष्य के आचरण के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। यह पहले से ही बताया जा सकता है कि उसके कर्मों की रूप-रेखा कैसी होगी। उसकी संकल्पशक्ति का बाह्य रूप क्या होगा। जन्म के समय से ही मनुष्य का अन्त:संस्कार सामाजिक और भौतिक परिस्थितियों से प्रभावित होता रहता है। चरित्र का उत्थान और पतन उन परिस्थितियों के आधार पर ही होता है। उन परिस्थितियों के ज्ञान के द्वारा उसके चरित्र का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। चरित्र का ज्ञान प्राप्त करना ही उसके वर्तमान और भविष्य के कर्मों को समझना है। व्यक्ति के कर्म सदैव उसके कर्म करते समय तक के निर्धारित चरित्र के अनुरूप होते हैं । उसका चरित्र बाह्य परिस्थितियों, वंशानुगत गुणों, मौलिक स्वभाव तथा परिवेश का योग है। उन्हीं के द्वारा उसका चरित्र निश्चित स्वरूप ग्रहण करता है। मनुष्य के कर्म उसके मौलिक स्वभाव, वंशपरम्परा और परिस्थिति का अनिवार्य परिणाम होते हैं । इस प्रकार उसके कर्म पूर्व निश्चित होते हैं । इस आधार पर नियतिवादी कहते हैं कि यदि किसी व्यक्ति के विगत जीवन को भली-भांति समझ लिया जाये तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उसके कर्म कैसे होंगे। किसी भी व्यक्ति के मौलिक स्वभाव, परिवार, परिस्थिति, शिक्षा और वातावरण प्रादि का पर्याप्त ज्ञान उसके भावी आचरण को स्पष्ट रूप से प्रतिविम्बित कर सकता है। वह यहां तक कहते हैं कि यदि दो व्यक्तियों का मौलिक स्वभाव और वातावरण बिलकुल एक-सा हो तो उनके कर्म निश्चित रूप से समान होंगे, भिन्न नहीं हो सकते । इस तथ्य को समझाने के लिए वे उदाहरण देते हैं कि, यदि ऐसे दो जुड़वाँ भाइयों को लें जिनके अन्तःसंस्कारों या मूलगत प्रवृत्तियों में पूर्ण रूप से समानता हो और जन्म से ही उनका लालन ८८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालन समान रूप से एक जैसी सामाजिक परिस्थितियों में हुमा हो तो वे सदैव एक ही रूप से व्यवहार करेंगे। नियतिवादियों के अनुसार उन भाइयों का व्यवहार किसी भी विशिष्ट प्रायु में भिन्न अथवा पृथक् नहीं हो सकता। वे संकल्प-शक्ति को पूर्वनिश्चित मानते हैं। व्यक्तियों के प्राचरण को उनके मूलगत स्वभाव और भूतकालीन परिस्थितियों से संचालित मानते हैं । संकल्प शक्ति की स्वतन्त्रता का निराकरण करते हुए वह मनुष्य के कर्मों को प्राकृतिक घटनाओं की भाँति समझाने का प्रयास करते हैं। उसके कर्मों में कार्य-कारण के नियम को घटित होते हुए देखते हैं। उनके अनुसार मनुष्य के विगत जीवन का "पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर (कारण को समझ) लेने से उसके कर्म (कार्य) के बारे में निश्चित रूप से भविष्यवाणी की जा सकती है। नियतिवादी मनुष्य को प्रकृति का ही अंग मानते हैं। वे व्यक्ति (प्रात्म-चेतन प्राणी) के प्राचरण और प्राकृतिक घटनाओं को एक ही नियम से संचालित होते देखते हैं। वे अपने सिद्धान्त की पुष्टि के लिए अनेक तर्क भी देते हैं। मनोविज्ञान (विशेष रूप से आचरणवाद), जीवशास्त्र, नृतत्वशास्त्र (Anthropology), शरीरशास्त्र (Physiology), जननशास्त्र (Genetics), सर्वेश्वरवाद (Pantheism), ईश्वरज्ञान आदि के ज्ञान के आधार पर वे संकल्प-शक्ति की नियतिवादिता को समझाते हैं । अधिकतर अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिए उन्होंने इन्द्रिय संवेदनवादी (sensationalistic) · और जड़वादी दृष्टिकोण को ही अपनाया है । नियतिवादी अपने सिद्धान्त की धुन में यह भूल जाते हैं कि व्यक्ति आत्म-प्रबुद्ध प्राणी है। उसकी अनेक सम्भावनाएं हैं और वह इन सम्भावनाओं को प्राप्त करने के लिए स्वतन्त्र है। वे व्यक्ति के आचरण को भौतिक घटना की भांति देखते हैं। जिस प्रकार गणित ज्योतिष द्वारा यह बतला सकते हैं कि सूर्य और चन्द्रग्रहण कब घटित होंगे, उसी प्रकार मनुष्य के स्वभाव, वातावरण, बहिर्गत परिस्थितियों के पूर्ण ज्ञान द्वारा वे मनुष्य के भावी कर्मों के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। अतीत के जीक्न, अभ्यासों और अनुभकों का व्यक्ति की वर्तमान मानसिक स्थिति के बनाने में वैसा ही सहयोग रहता है जैसा कि उनके अनुसार किसी तरकारी के बनाने में मसालों और उसके बनाने की विधि का। अनियतिवाद-अनियतिवादियों के अनुसार संकल्प शक्ति स्वतन्त्र है। 'मनुष्य के कर्म पूर्वनिर्धारित नहीं हैं । उसके कर्मों के बारे में पहले से कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। मनुष्य का प्राचरण अनिश्चित होस संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता | Ek For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। उसमें अनेक प्रकार की सम्भावनाएं हैं। उसके कर्म प्रेरणाहीन होते हैं। नियतिवादियों के विरुद्ध अनियतिवादियों का कहना है कि संकल्प-शक्ति प्रबल इच्छा के अनुरूप कर्म नहीं करती है । जब इच्छानों में द्वन्द्व होता है तो संकल्प-- शक्ति बिना प्रेरणा के ही आकस्मिक चुनाव करती है। संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता इस पर निर्भर है कि वह प्रबल इच्छाया प्रेरणा से समीकरण न कर क्षणिक आवेग में कर्म कर लेती है। वह किसी भी इच्छा को चुन लेती है। संकल्प-शक्ति एक अज्ञात शक्ति की भाँति है। उसके कर्म तात्कालिक आवेग या क्षणिक प्रवृत्तियों से संचालित होते हैं। कर्म करने के पूर्व व्यक्ति के सम्मुख अनेक इच्छाएँ और प्रेरणाएं होती हैं। किन्तु संकल्प-शक्ति उनमें से किसी के अनुरूप कर्म करने के लिए बाध्य नहीं है। वह उनसे प्रभावित नहीं होती, उसका निर्णय आकस्मिक होता है। अतः नियतिवादियों का यह कहना कि भूत और वर्तमान के ज्ञान के आधार पर भविष्य के कर्मों के बारे में निर्णय दिया जा सकता है, सर्वथा दुस्साध्य है। स्वेच्छित कर्म किसी ऐसी वस्तु अथवा चरित्र का अनिवार्य परिणाम नहीं हैं जो कि पहले से ही वर्तमान हो। संकल्प-शक्ति जिस क्षणिक आवेग से कर्म करती है उसकी पूर्व सम्भावना मनुष्य के भीतर नहीं होती। कर्म करने के क्षण तक कोई भी ऐसी सम्भावना ज्ञात नहीं है जिससे कि व्यक्ति की इच्छा का पता चल सके । संकल्प-शक्ति का कर्म पूर्णतः एक नयी सृष्टि है। उसका कर्म स्वतन्त्र है । यहाँ पर अनियतिवादी यह स्वीकार करते हैं कि कर्म का कर्ता व्यक्ति है, किन्तु यह निर्धारित चरित्र या प्रेरणा पर निर्भर नहीं है । संकल्प-शक्ति का स्वरूप व्यक्ति के उसी क्षण के व्यक्तित्व पर निर्भर है। यह उस चरित्र पर निर्भर है जिसके स्वरूप का अभी तक निर्माण हुआ है अथवा जिसको लेकर वह उत्पन्न हुआ। संकल्प-शक्ति प्रत्येक कर्म के लिए स्वतन्त्र है। कर्मरत संकल्प-शक्ति प्रेरणा और पूर्वनिश्चित चरित्र से मुक्त है। उसका अपना एक अज्ञेय अस्तित्व है। व्यक्ति की आत्मा सजनशील है, वह प्रत्येक कर्म में संकल्प-शक्ति द्वारा नवीन रूप में प्रकट होती है। मनुष्य के कर्म पूर्ण रूप से अनिश्चित हैं। यहाँ तक कि उसके नैतिक और विचारयुक्त कर्मों के बारे में भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, भले ही उसके विगत जीवन का इतिहास ज्ञात हो। यदि जुड़वाँ भाइयों का उदाहरण लें तो अनियतिवादियों के अनुसार उनका व्यवहार किसी भी परिस्थिति में समान नहीं होगा। दोनों का व्यवहार सदैव भिन्न रहेगा। यह सम्भव हो सकता है कि जुड़वां भाइयों में से एक साधु निकल जाये और दूसरा चोर । ९०/नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतः मानव-स्वभाव के बारे में निश्चित रूप से किसी सिद्धान्त या नियम को घटित नहीं कर सकते, जिसके आधार पर उसके भविष्य के आचरण के बारे में निश्चित रूप से निर्णय दिया जा सके। विवाद का मूल :प्रेरणा--दोनों ही सिद्धान्तों के मुख्य विवाद का प्रश्न यह है कि क्या दृढ़तापूर्वक कह सकते हैं कि मनुष्य का भावी आचरण कैसा होगा ? क्या उसके कर्म का स्वरूप पूर्वनिर्धारित है ? नियतिवादियों का उत्तर स्वीकारात्मक है और अनियतिवादियों का उत्तर नकारात्मक । नियतिवादियों के अनुसार मनुष्य का आचरण उसी प्रकार पूर्व-निर्धारित है जिस प्रकार की भौतिक घटनाएँ-वे आचरणवादियों की भाँति मनुष्य को प्रयोगशाला की वस्तु समझते हैं। विश्लेषण द्वारा उसके सम्यक व्यक्तित्व को मानसिक और भौतिक प्रकृति के अंशों में बांटकर उसके आचरण के बारे में प्रामाणिक भविष्य-- वाणी करने का दावा करते हैं । अनियतिवादियों को इसके विपरीत मनुष्य के सम्यक व्यक्तित्व में ज्वार-भाटे उठते दिखायी देते हैं, वे उसके कर्मों को आवेग-. पूर्ण और प्रेरणाहीन कहते हैं; उसकी संकल्प-शक्ति को उस रहस्यमयी शक्ति की भाँति देखते हैं जिसका स्वरूप कर्म करने के पूर्व तक बिलकूल अनिश्चित और अज्ञेय रहता है। इस अर्थ में मनुष्य का भावी आचरण पूर्वनिश्चित नहीं है। इन दोनों सिद्धान्तों के प्रतिवादों के मूल में 'प्रेरणा' है। इन दोनों ने ही प्रेरणा को विभिन्न अर्थों में समझा है। इच्छा, प्रेरणा, संकल्प-शक्ति तथा आत्मा के सम्बन्ध को बाह्य लिया है अथवा निर्णीत कर्म के निर्माणात्मक अंगों को असम्बद्ध माना है। वे भूल गये कि वे एक ही इकाई के अभिन्न अंग तथा एक ही सत्य के विभिन्न रूप हैं। निर्णीत कर्म का विश्लेषण बताता है कि प्रबल इच्छा या प्रेरणा वह इच्छित ध्येय है जिसकी प्राप्ति के लिए प्रात्मा प्रयास करती है। संकल्प-शक्ति अपने आन्तरिक रूप में प्रात्मा अथवा भावना और इच्छा है तथा बाह्य रूप में प्राचरण है। नियतिवादी इस तथ्य को भूलते हुएसे प्रेरणा और संकल्प-शक्ति के सम्बन्ध को बाह्य लेते हैं। वे कहते हैं कि संकल्प-शक्ति स्वतन्त्र नहीं है क्योंकि वह प्रेरणा के अनुरूप कर्म करती है और प्रेरणा प्रात्मा के स्वरूप को व्यक्त करती है। इसी प्रकार अनियतिवादी कहते हैं कि संकल्प-शक्ति स्वतन्त्र है क्योंकि यह इच्छा, आत्मा और चरित्र से प्रभावित नहीं होती है। इच्छा और संकल्प-शक्ति को भिन्न मानना भ्रमपूर्ण है। संकल्प-शक्ति" इच्छा पर निर्भर है और इच्छा का सम्बन्ध चरित्र और आत्मा से है। इस अर्थ संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता | ६१ For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में संकल्प शक्ति कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे प्रात्मा अधिकृत किये हो और न यह वह प्रज्ञात शक्ति है जिसका श्रात्मा से भिन्न अस्तित्व हो । संकल्प- शक्ति वह आत्मा है जो ज्ञात रूप से इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रयास करती है । जब इच्छाओं में द्वन्द्व होता है तो द्वन्द्वों द्वारा श्रात्मा अपने ही विभिन्न स्तर को अभिव्यक्ति देती है । इच्छाएँ सदैव विषयमूलक होती हैं और इन विषयों का उस श्रात्मा से सम्बन्ध होता है जिसके लिए कि ये उपयोगी होती हैं। अत: इच्छाएँ सदैव आत्मा के चरित्र को प्रतिबिम्बित करती हैं । इच्छाएँ केवल उन विवेकहीन शक्तियों या प्रवृत्तियों की भाँति नहीं हैं जो व्यक्ति को इधर-उधर नचाती रहें। इच्छाओं का सम्बन्ध किसी ज्ञात विषय से है और इसी विषय की प्राप्ति के लिए आत्मा संकल्प शक्ति के रूप में ज्ञात रूप से बाहर की ओर प्रवाहित होती हैं । निर्णीत कर्म में इच्छाओंों की सन्तुष्टि द्वारा श्रात्मा स्वयं को सन्तुष्ट करती है । - एकांगी दृष्टिकोणों का परिणाम : नैतिकता अर्थशून्य – नियतिवादी एक वैज्ञानिक की भाँति मनुष्य के सम्यक् व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास करते हैं । उनके अनुसार व्यक्ति अपने समय और परिस्थिति का शिशु है । यह उनके सम्मुख शक्त है । उसका जीवन निम्न प्राणियों की भाँति क्रिया-प्रतिक्रया का जीवन है । उसका चरित्र भौतिक और मानसिक शक्तियों का योग है । उसके कर्म उसके चरित्र के अनिवार्य परिणाम हैं । उसकी संकल्प - शक्ति पूर्वनिर्धारित है । यदि व्यक्ति के कर्म पूर्वशक्तियों के अनिवार्य परिणाम हैं तो व्यक्ति को उसके कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहरा सकते; क्योंकि उसके कर्मों की गति यान्त्रिक है । उसके प्राचरण पर निर्णय देना उतना ही अर्थशून्य है जितना कि हवा से उड़ते हुए पत्ते पर देना है । जिस प्रकार विजली के बटन को दबाने से बिजली की बत्ती जल जाती है, उसी प्रकार एक विशिष्ट परिस्थिति में व्यक्ति विशिष्ट रूप से कर्म करता है । व्यक्ति के पूर्वनिर्धारित स्वरूप अथवा कारण के अनुरूप कर्म करनेवाली कार्यरत संकल्प-शक्ति नैतिक निर्णय का विषय नहीं हो सकती और न ऐसे कर्त्ता के सम्मुख कर्तव्य, पश्चात्ताप आदि नैतिक मान्यताओं का ही कुछ मूल्य है । नियतिवादियों की प्रमुख भूल यह है कि उन्होंने व्यक्ति के चरित्र को वैज्ञानिक परिभाषा में बाँधना चाहा। उसके आचरण का कार्य-कारण के नियम के द्वारा स्पष्टीकरण करने का प्रयास किया । सभी प्रबुद्ध विचारक यह मानते हैं कि मनुष्य की कर्म शक्ति का क्षेत्र अन्य घटनाओं की भाँति पूर्व घटनानों पर प्राधारित नहीं है । व्यक्ति के कर्म श्रात्म २ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निर्णीत हैं। वह अपने कर्मों को अपना कहता है । शुभ-कर्म करने पर उसे प्रात्मसन्तोष होता है एवं अशुभ-कर्म करने पर ग्लानि और पश्चात्ताप । वह कहता है, 'मुझं ऐसा नहीं करना चाहिए' और भविष्य के लिए दृढ़ संकल्प करता है। उस संकल्प का उसके जीवन में मूल्य है। किन्तु नियतिवादियों के अनुसार पश्चात्ताप तथा दृढ संकल्प के लिए मानव-जीवन में कोई स्थान नहीं है । आत्मोन्नति, चरित्र का उत्थान, पतन और धार्मिक परिवर्तन आदि सब खोखली बातें हैं। . किसी भी व्यक्ति का चरित्र उसके भूत और वर्तमान आचरण द्वारा पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं होता है। उसमें अनेक अविकसित सम्भावनाएँ हैं, अघटित घटनाएँ हैं। ज्ञान की वृद्धि और अनुभव की व्यापकता तथा तीव्रता उसका पूर्ण रूप से रूपान्तर कर देती हैं। एक मनुष्य का स्वभाव ऐसा भी हो सकता है कि वह निन्यानवे बार तक विशेष उत्तेजना पाकर एक ही तरह का आचरण करेगा और सौवीं बार दूसरी तरह का । मनुष्य स्वभाव का अध्ययन यह भली-- भाँति बता देता है कि किसी दढ़ व्यक्तित्व के मनुष्य के बारे में भी विश्वासपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि किसी विशेष परिस्थिति में उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी। नियतिवादियों ने यह कहकर बड़ी भूल की कि मनुष्य के कर्म पूर्वपरिस्थितियों से उसी प्रकार प्रभावित होते हैं जिस प्रकार भौतिक जगत की घटनाएँ । उन्होंने नैतिक उत्तरदायित्व, नैतिक आदेश का ही नहीं, नैतिकता का भी निराकरण कर दिया। नैतिक मनुष्य मात्र इच्छाओं तथा परिस्थितियों का प्राणी नहीं है । वह अपने विश्व का निर्माता भी है । उसके नैतिक, बौद्धिक विकास के साथ उसकी इच्छाओं और इच्छित वस्तुओं का स्वरूप बदल जाता है । वह अपने इच्छित कर्मों के लिए उत्तरदायी है। ___अनियतिवादियों के अनुसार मनुष्य की संकल्प-शक्ति उस शैतान की भाँति है जो मनुष्य के संघटित व्यक्तित्व तथा चरित्र की स्थिरता की उपेक्षा करता है और अचानक किसी अनजाने पथ से पाकर अपना काम पूरा कर जाता है। ऐसी संकल्प-शक्ति की सृष्टि प्रत्येक क्षण में नवीन है। ऐसे अनजाने कर्म का कर्ता होते हुए भी व्यक्ति उस कर्म को अपनाने में कठिनाई प्रतीत करता है । उसमें उसे अपने अविच्छिन्न व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब नहीं मिलता। वह कह सकता है कि यह कर्म उसके कर्म करने के पूर्व तक के चरित्र का सूचक, उसके चिन्तन-मनन का पमिणाम नहीं है। उसका कर्म उस संकल्प-शक्ति द्वारा किया गया है जिस पर उसके चरित्र और इच्छाओं का अधिकार नहीं है। ऐसे संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता / ६३ For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचरण को नैतिक दष्टि से अशुभ नहीं कह सकते हैं। इस प्रकार संकल्पशक्ति को इस अर्थ में स्वतन्त्र माननेवाले सैद्धान्तिकों के लिए दढ़-संकल्प का कोई मूल्य नहीं है। इस दृष्टि से मानव-स्वभाव में संगति और एकता देखना व्यर्थ है और ऐसी स्थिति में नैतिकता का लोप तो हो ही जायेगा, साथ ही मनुष्य का सामाजिक जीवन भी असम्भव हो जायेगा । सामाजिक जीवन की पूर्णता व्यक्तियों के सम्यक् चरित्र पर निर्भर है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ सीमा तक अपने तथा अन्य लोगों के चरित्र को समझता है, उनके आचरण के बारे में अपनी सम्मति दे सकता है। वह अपने तथा दूसरों के कर्मों का स्पष्टीकरण चरित्र तथा परिस्थिति-विशेष के नाम पर करता है और उस परिस्थिति से सम्बद्ध कर्तव्य के बारे में भी सचेत है। किन्तु संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता के पोषक प्रेरणाहीन कर्मों को ही स्वतन्त्र कर्म कहते हैं। नैतिक मनुष्य के लिए बिना उस प्रेरणा के कर्म करना, जो कि कर्ता को बौद्धिक रूप से कर्म करने के लिए प्रेरित करती है, पशु-जीवन को स्वीकार करना है। वह अन्ध-प्रवृत्तियों तथा आवेगों का दास नहीं है, अपने चरित्र का निर्माता तथा अपने आचरण के लिए उत्तरदायी भी है। उसकी संकल्प-शक्ति उसकी प्रात्मा है । संकल्प-शक्ति के बाह्य रूप द्वारा उसकी आत्मा सन्तोष प्राप्त करती है। यदि हम इस अर्थ में संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता को न मानें तो पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ, उचितअनुचित, आदि नैतिक प्रत्यय अस्तित्वहीन हो जाते हैं । यदि मनुष्य की संकल्पशक्ति उसे समझ-बूझकर कर्म नहीं करने देती और अन्धड़ की तरह आवेश में आकर उसे ऊपर-नीचे गिराती है तो निश्चय ही नैतिक आदेश काल्पनिक हैं। संकल्प-शक्ति का मुक्त शासक की भांति प्रत्येक क्षण ऐसा नवीन सृजन करना कि वह भूत और वर्तमान से असम्बद्ध हो-मानव-चरित्र की स्थिरता और अविच्छिन्नता को धूल में मिलाना है । नैतिकता दृढ़-चरित्र से ही उद्भूत होती है। आवेगपूर्ण प्रेरणाहीन कर्म और नैतिकता आपस में विरोधी हैं तथा एकदूसरे के विनाशक हैं। प्रात्म-निर्णीत कर्म : नियतिवाद और अनियतिवाद-निर्णीत कर्म के विश्लेषण ने यह बतलाया कि आत्मा और संकल्प-शक्ति एक हैं। प्रात्मा ही ज्ञात रूप से इच्छित ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करती है । संकल्प-शक्ति का स्वरूप आत्मा के स्वरूप पर निर्भर है। उस आत्मा का क्या स्वरूप है जिसके द्वारा कर्म किये जाते हैं ? क्या इसका स्वरूप निर्धारित नैतिक गुणों, वंशानुगत विशेषताओं, भूतकालीन कर्मों और भावनाओं का परिणाम है ? अथवा क्या ९४ / नीतिशास्त्र । For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई ऐसी सम्भावना सदैव रहती है जिसके आधार पर व्यक्ति अपने अभी के उचित-अनुचित के निर्णय के अनुसार कर्म कर सकता है, चाहे उसके पूर्व के कर्म और अनुभव कुछ भी क्यों न हों ? व्यक्ति के आचरण का अध्ययन यह बतलाता है कि व्यक्ति सदैव जिस प्रकार कर्म करता है वह एक विशिष्ट नियम के अनुरूप होता है। यह नियम उसके चरित्र का नियम है और चरित्र उसके जन्मजात मानसिक संस्कारों, वंशानुगत-गुणों तथा परिस्थिति का परिणाम है। साथ ही यह भी सच है कि उसके चरित्र को पूर्ण रूप से समझना असम्भव है। चरित्र का निर्माण करने वाले तत्त्व अत्यन्त जटिल होते हैं। उनकी सफलतापूर्वक गणना करना सैद्धान्तिक रूप से सम्भव होने पर भी वास्तव में असम्भव है । अतः प्रेरणा द्वारा निर्धारित कर्मों को प्राकृतिक घटना की भांति समझने का प्रयास करना मूर्खता है। नैतिक कर्म यह भी बताता है कि संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता इस पर निर्भर नहीं है कि कर्म प्रेरणाहीन हैं, किन्तु इस पर है कि वे प्रेरणा द्वारा निर्धारित हैं। प्रेरणा नैतिक प्राणी के स्वरूप को अभिव्यक्ति देती है। मनुष्य का चरित्र सहज प्रवृत्तियों और आवेगों का अस्थिर समुद्र नहीं है। उसके कर्म स्वयं उसे तथा उसके सम्पर्क में आनेवालों को चमत्कृत नहीं करते हैं। वे प्रात्म-निर्णीत होते हैं; उसके चरित्र के अनुरूप होते हैं। नैतिक जीवन के लिए दृढ़-चरित्र का निर्माण आवश्यक है और चरित्र विशेष अभ्यासों से निर्मित जगत् की अपेक्षा रखता है। शुभ-चरित्र शुभ-अभ्यासों का संगतिपूर्ण विधान है। मनुष्य की संकल्प-शक्ति में एकरूपता मिलती है। उसके निश्चय उसके चरित्र से समानता रखते हैं। उसके कर्मों के बारे में कुछ सीमा तक निश्चित रूप से कहा जा सकता है । इस अर्थ में नीतिशास्त्र नियतिवाद को मानता है । यदि नियतिवाद अभ्यासों की समानता का सूचक है तो वह आवश्यक है । यह समानता नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। नैतिक प्राणी हर क्षण गिरगिट की भाँति रूप नहीं बदलता है। उसका व्यक्तित्व प्रात्म-निर्धारित है। उसका जीवन नियमबद्ध है । उसकी संकल्प-शक्ति नियम के अनुरूप कर्म करती है। इसके प्राचरण में एकरूपता और व्यवस्था मिलती है । उसके प्राचरण का नैतिक रूप से समान होना अनिवार्य है। वह विवेक और बुद्धि द्वारा परिचालित है, न कि क्षणिक आवेग द्वारा। नैतिक प्रामी माध्यात्मिक प्राणी है। वह प्रात्मोन्नति के लिए प्रयास करता है । संस्कृति और सभ्यता का उपासक है। उसका नैतिक ज्ञान उसे बताता है संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता | ६५ For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि वह 'नैतिक चाहिए' के अनुसार कार्य कर सकता है । वह स्वतन्त्र है, अपने चरित्र को विकसित कर सकता है, नये अभ्यासों की नींव डाल सकता है; पर यह भी सच है कि प्रत्येक व्यक्ति की सम्भावनाएँ सीमित हैं। वह अपनी मानसिक, शारीरिक और भौतिक प्रकृति पर निर्भर है। इस निर्भरता के साथ ही वह प्रात्म-चेतन प्राणी भी है। वह अपने ध्येय को समझता है। अपने को बाह्य-बन्धनों से मुक्त कर सकता है। उनके प्रतिकूल कर्म कर सकता है। अपने कर्मों के स्वरूप को स्वयं निर्धारित कर सकता है और अपना उन्नयन कर सकता है। यह सभी मानेंगे कि व्यक्ति का वर्तमान चरित्र विभिन्न शक्तियों का परिणाम है। किन्तु व्यक्ति की आकांक्षाएं और सम्भावनाएँ भविष्य की मोर इंगित कर उसे बताती हैं कि इस 'परिणाम' से ऊपर उठने की उसमें शक्ति और सामर्थ्य है। इस अर्थ में उसके कर्म प्रात्म-निर्णीत हैं। वह समझबूझकर कर्म कर सकता है। अपनी वास्तविक प्रात्मा के प्रादेश एवं प्रान्तरिक प्रादेश को मान सकता है। यही संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता है। कर्तव्य तथा नैतिक मान्यताएँ आदि की धारणाएं इसी स्वतन्त्रता की सूचक हैं। इन धारगानों का उसके जीवन से चेतन-सम्बन्ध है। वह परिस्थिति-विशेष में अपनी सामर्थ्य के अनुकूल जिस नियम को सर्वश्रेष्ठ समझता है, उसे कर सकता है। यही उसका नैतिक कर्तव्य है । कर्तव्य का आदेश उसे अनुचित मार्ग की ओर झुकने से बचाता है । उसे बताता है कि उसे अपनी स्वतन्त्र संकल्प-शक्तियों के द्वारा निम्न-प्रवलियों, कुण्ठित-सम्भावनामों का उच्चतम ध्येय से लिए उन्नयन करना चाहिए। उसकी संकल्प-शक्ति उसकी बौद्धिक और भावुक प्रकृति को संगतिपूर्ण एकत्व में बांध सकती है। उसे संस्कृति के उच्चतम शिखर की ओर ले जा सकती है। मनुष्य दृढ़-सकल्प द्वारा भविष्य के आचरण को सुधारने का प्रयास कर सकता है। संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता के कारण ही वह दुनिवार बुरे अभ्यासों को त्यागने में सफल होता है । प्रारम्भ में उसे बुरे अभ्यासों को छोड़ने में कठिनाई होती है, किन्तु धीरे-धीरे वह उन पर विजयी हो जाता है। आत्मोन्नति के लिए संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता आवश्यक मान्यता है । जहाँ तक व्यक्ति के शुभ-अभ्यासों का प्रश्न है, उसकी संकल्प-शक्ति नियतिवाद, स्थिरता, दृढ़ता, संकल्प और संस्कृति की द्योतक है। यहाँ पर यह न भूलना चाहिए कि यह नियतिवाद प्राकृतिक नियतिवाद से भिन्न है। इसमें आत्मोन्नति के लिए विस्तृत क्षेत्र है । नैतिक नियतिवाद में संकल्प-शक्ति स्वतन्त्र है । उसकी पूर्ण स्वतन्त्रता इस पर निर्भर है कि वह अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्ण रूप से १६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागरूक है । इस प्रकार मनुष्य परिस्थिति, परिवेश और स्वभाव की सीमाओं से बद्ध होने पर भी अपनी आत्मोन्नति के लिए प्रयास कर सकता है क्योंकि उसके कर्म श्रात्म-निर्णीत हैं । संकल्प - शक्ति की स्वतन्त्रता / ९७ For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भाग नैतिक सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) विषय-प्रवेश-नैतिक निर्णय के मानदण्ड का प्रश्न वास्तव में नैतिक चेतना के विकास का प्रश्न है। नैतिक चेतना के विकास के ऐतिहासिक अध्ययन से प्रकट होता है कि किस प्रकार नैतिक निर्णय अनेक बर्बर स्थितियों को अतिक्रम कर आज की विकसित अवस्था में पहुँचा है । उसका मापदण्ड अब वैयक्तिक अथवा एकदेशीय नहीं रह गया है । वह सार्वभौम प्रामाणिकता प्राप्त कर चुका है। उसका ध्येय सार्वभौमिक कल्याण और उसका निर्णय मानवता का निर्णय है। नियम और ध्येय की समस्या-यह कहा जा चका है कि नैतिक निर्णय स्वेच्छाकृत कर्मों पर दिया जाता है अथवा उन कर्मों पर, जिन्हें बुद्धिजीवी स्वतन्त्रतापूर्वक करता है। किन्तु प्रश्न यह है कि वह कौन-सा मापदण्ड है जिसके आधार पर कर्मों को नैतिक अथवा अनैतिक कहते हैं, उनके औचित्यअनौचित्य पर निर्णय देते हैं । कर्मों के स्वरूप को समझने के लिए मुख्यतः शुभअशुभ, उचित-अनुचित का प्रयोग किया जाता है। कर्मों के विशेषणों के रूप में अन्य जितने भी शब्द मिलते हैं वे किसी-न-किसी रूप में इन्हीं के पर्यायवाची हैं। वह कर्म शुभ है जो ध्येय की प्राप्ति के लिए उपयोगी है और वह कर्मउचित है जो नियम के अनुरूप है। इन अर्थों पर ध्यान देने से यह प्रतीत होता है कि कर्मों का मूल्यांकन करने के लिए दो भिन्न मापदण्ड हैं : एक ध्येय सम्बन्धी और दूसरा नियम सम्बन्धी। __यह समस्या मिथ्या है—किन्तु विभिन्न मापदण्डों की धारणा, वास्तव में, मिथ्या है । नियमों के उद्गम के इतिहास से ज्ञात होता है कि निर्णय का माप १०० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्ड एक ही है। यदि पूछा जाय कि मानव-विकास में ध्येय और नियम में कौन-सा मापदण्ड पूर्वनिर्धारित हुआ तो प्रथम दृष्टि में ऐसा प्रतीत होता है कि नियम का मापदण्ड ही पहला मापदण्ड है। नियम के स्रोत पर ध्यान देने पर यह भ्रान्ति दूर हो जाती है और यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप में नियम से पहले ध्येय का अस्तित्व अनिवार्य है। बिना ध्येय के नियम का निर्माण सम्भव नहीं है । नियम ध्येय का अनुगामी है, पूर्वगामी नहीं हो सकता । आदि काल में लोगों ने व्यक्ति, समाज एवं समुदाय की आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही नियमों का निर्माण किया। उनकी चेतना ने जिन नियमों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उपयोगी माना, आज की नैतिक चेतना उन नियमों को अनुपयोगी, अहितकर तथा हानिप्रद कह सकती है; किन्तु, आदिम चेतना का मानव जिन भौतिक परिस्थितियों, जिस वातावरण तथा जीवन-यापन के जिन साधनों के बीच रहता था एवं उस समय उसका जो मानसिक-कायिक अस्तित्व था, वह तब उनसे अधिक स्वस्थ नियम नहीं बना सकता था। उस समय की अविकसित चेतना ध्येय के स्वरूप को अधिक निश्चित एवं स्पष्ट कर सकने में असमर्थ थी। ध्येय, नियमों की प्रामाणिकता, कर्तव्य, अधिकार, उत्तरदायित्व आदि के बारे में न तो वह सचेत थी और न उसे इनके बारे में कोई जिज्ञासा ही थी। उसने झुण्ड, जाति एवं समुदाय के लिए हितकर नियमों को स्वभावतः ही अनायास रूप से अपनाया। वह उसकी नैतिक चेतना की सम्भावित स्थिति थी। आज की विकसित चेतना की तुलना में वह अविकसित, अर्धव्यक्त तथा सुप्त थी। नैतिक प्रदेश बाह्य प्रदेश एवं नियम अथवा बाह्य प्रादेश के रूप में प्रकट हा–प्राकृतिक और देवी शक्ति-ध्येय की पूर्ति के लिए ही नियम बनाये गये जो निर्माणात्मक दृष्टि से ध्येय के लिए साधनमात्र थे। किन्तु व्यावहारिक जीवन में उन्हें ही प्रधानता मिली; अपने आचरण में व्यक्ति ने उन्हीं को प्रमुख माना । यही कारण है कि सर्वप्रथम नैतिक आदेश बाह्य आदेश के रूप में प्रकट हुा । नैतिकता की अभिव्यक्ति सर्वत्र विभिन्न देश-कालों में इसी रूप में हुई। व्यक्तियों एवं जातियों की सहज-प्रेरणाओं, आवेगों और इच्छाओं पर उसकी नैतिक-आत्मा ने नियन्त्रण नहीं रखा, किन्तु बाह्य शक्तियों ने अर्थात् प्राकृतिक, सामाजिक, देवी आदि शक्तियों ने उसे नियन्त्रित रखा । इन शक्तियों ने बाह्य आदेशों के रूप में स्वाभाविक प्रवत्तियों का दमन किया। इस स्थिति में कर्म और परिणाम को महत्त्व दिया गया, न कि प्रेरणा की नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) / १०१ For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्रता और चरित्र को । अतः नैतिक नियम अपने अभ्युदय काल में बाह्य आरोपित नियम थे, न कि आत्म- आरोपित । उन्होंने आचरण के बाह्य पक्ष पर निर्णय दिया, न कि आन्तरिक पक्ष पर । ऐतिहासिक स्पष्टीकरण : अस्थिर जीवन नैतिक नियम की सर्वप्रथम वह स्थिति मिलती है जबकि व्यक्ति हेरियों का जीवन बितांता था । प्राकृतिक श्रावश्यकताएँ उसके जीवन को संचालित करती थीं, उसके कर्म अधिकतर आवेग - जन्य होते थे । वे दूरदर्शिता से रहित, चिन्तनहीन, परिणाम के विचार से मुक्त थे । ऐसे कर्मों को केवल वैयक्तिक आवेगों से प्रेरित कहना भी उचित नहीं है । उस युग का व्यक्ति अपनी जाति, समुदाय अथवा झुण्ड का सदस्य था । 'अनुकरण और संकेत' का उसके जीवन में स्थान था । जो कुछ भी उसने देखा उसे उसी रूप में सहज भाव से स्वीकार कर लिया । वह जाति के प्रचलनों, रीति-रिवाजों से बद्ध था और प्राकृतिक शक्तियों के उत्पातों से भयभीत था । वह अपने दल के मुखिया के प्रदेश को परम प्रदेश मानता था । स्थिर जीवन; नियमों का जन्मदाता : प्रचलित नैतिकता - धीरे-धीरे वह इस अस्थिर अवस्था से ऊपर उठा । उसने व्यवस्थित जीवन से प्राचरण के विशिष्ट नियमों को जन्म दिया । किन्तु नियमों का निर्माण करने पर भी वह प्रचलनों से ऊपर नहीं उठ सका । वास्तव में नियम द्वारा उसने प्रचलनों को ही स्पष्ट रूप दिया । अतः नियम अपने मूल रूप में प्रचलन ही हैं। जैसा कि प्रथम अध्याय में कह चुके हैं एथॉस एवं मौरेस शब्द प्रचलन के सूचक हैं । समुदायों, जातियों और राष्ट्रों की नैतिकता के निर्माण में इन प्रचलनों का अत्यधिक योग रहा है । इतना अवश्य है कि जब प्रचलन नियम बने तो उनमें अनायास ही कुछ परिवर्तन आ गये । उदाहरणार्थ, जब हत्या श्रादि दुष्कर्मों के लिए दण्डविधान बना तो प्रतिशोध, द्वेष श्रादि की धारणाओं को न्याय की अस्पष्ट धारणा ने वृत कर दिया। नियमों का यह युग प्रचलित नैतिकता (Customary morality) का युग था । नियम और प्रचलन से निर्देशित आचरण नैतिक आचरण है । उसके विभिन्न रूप — प्रचलित नैतिकता ही धनात्मक नैतिकता (Positive morality) के रूप में प्रकट होती है । यह धनात्मक नियमों को जन्म देती कल्याण के लिए जनसमाज, जाति या देश | धनात्मक नियम वह नियम हैं जिन्हें समाज के समुदाय स्वीकार करता है अथवा वे नियम जिन्हें कोई अपने समय के कर्मों के सदसत् को निर्धारित करने के लिए स्वीकार करता है । १०२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन नियमों का सम्बन्ध आचरण के बाह्य पक्ष से है। कर्म और परिणाम ही निर्णय का लक्ष्य है। वास्तव में धनात्मक नियम या धनात्मक नैतिकता प्रचलनों, रीति-रिवाजों, विचारशन्य परम्पराओं पर आधारित होती है। मानवजीवन की विभिन्न स्थितियों ने ही जाने-अनजाने में उसे जन्म दिया है। उसकी कम विकसित बुद्धि ने अपनी शक्ति, ज्ञान और आत्मचेतना के अनुरूप भौतिक, दैहिक, सामाजिक, भौगोलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त नियम बनाये। तत्पश्चात् भय, विश्वास तथा अभ्यासवश वह उन्हीं का यन्त्रवत् पालन करने लगा। ऐसे अनेक नियम अथवा बाह्य आदेश हैं जिनका वह पालन करता है और साथ ही जिन्हें अनिवार्य मानता है। वे प्राकृतिक नियम, जाति के नियम, सामाजिक नियम, राजसत्ता के नियम, अधिकारी एवं शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा बनाये गये नियम इत्यादि हैं। उनके अतिरिक्त उसने शास्त्र, श्रुति, पण्डित, साधु-सन्तों के आदेशों को भी अनिवार्य माना। इन अनेक आदेशों का पालन उसने हर्ष और उत्साह के साथ किया और अब भी कर रहा है। प्रचलित नैतिकता का मानव-जाति चेतना-सभ्यता का प्रथम चरण बाह्य-नियमों अथवा प्रचलित नैतिकता का चरण था। उस समय का व्यक्ति झुण्ड का सदस्य था। उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था। वह प्रचलनों, रूढ़ि-रीतियों और नियमों के जगत् में रहता था। उसका विश्व जाति का विश्व था। उसके नैतिक निर्णय झुण्ड, जाति एवं समाज के प्रचलनों को अभिव्यक्ति देते थे। जाति के आचरण का अनुकरण करना उसका कर्तव्य था। सामाजिक व्यवस्था के नियमों का पालन करना उसका एकमात्र ध्येय था। जाति-चेतना उसे शासित करती थी। उसकी विवेकशक्ति एवं विधि-निषेधात्मक बुद्धि ने अपना व्यक्तित्व तथा अपनी स्वतन्त्रता जाति-चेतना में खो दी थी । जाति-चेतना ही उसके कर्मों तथा अन्य व्यक्तियों के कर्मों पर निर्णय देती थी। जाति की भलाई तथा उसके सम्मान की रक्षा ही उसके जीवन का ध्येय था। उसके नियमों का अन्धानुकरण ही नैतिकता थी। वह यह मानता था कि प्रचलित रीति के अनुरूप कर्म ही उचित और शुभ कर्म है। प्रौचित्य-अनौचित्य का परममापदण्ड जाति ही है । जाति के नियमों में अनन्य श्रद्धा और विश्वास रखना अनिवार्य है। अतः उन नियमों के विरुद्ध कुछ करना तो दूर रहा, वह उनके विरुद्ध सोचने तक की कल्पना नहीं कर सकता था । वास्तव में व्यक्ति के लिए प्रचलित नैतिकता का राज्य तानाशाही राज्य था। वह उसकी स्वतन्त्र तर्कबुद्धि को विकसित करने के बदले उसे कुण्ठित कर देती है । प्रचलित नैतिकता नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) | १०३ For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अनुसार नियमों की प्रामाणिकता पर सन्देह करना भयंकर पाप है, उनके औचित्य को समझने का प्रयास करना नरक का मार्ग खोजना है और निर्धारित कर्तव्यों की संहिता को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना ही नैतिकता है। ऐसे स्थिर नियमों को पूजनेवाला व्यक्ति सामाजिक हित को अपना लक्ष्य नहीं बना सकता था। विकास के साथ प्रगति करने के बदले वह कट्टरपन्थी हो गया। नियमों का अन्धानुकरण करने के कारण उसने दुष्कर्मों और अनैतिक आचरण को अपना लिया। नियमों के स्रोत की ओर से विमुख हो जाने के कारण वह उनका पालन केवल अभ्यास और भयवश करने लगा। उसने उन नियमों के मूलतत्त्व को और उनकी उपयोगिता को समझने का प्रयास नहीं किया। वह धीरे-धीरे नैतिक ज्ञान-शून्य हो गया । वह रीति-रिवाजों को ही सब-कुछ मानने लगा । नैतिक संहिताओं, प्रचलित धारणाओं, विश्वास तथा धार्मिक आस्थाओं के अनुरूप आचरण को ही वह शुभ समझने लगा। उसकी दृष्टि में वही व्यक्ति नैतिक गुणसम्पन्न रहा जो प्रचलित मान्यताओं का मूक भाव से पशुवत् पालन करता हो; जिससे प्रचलन-रूपी तलवार की धार का भय अमानुषीय, असामाजिक और अनैतिक कर्म करवा देता हो। राजसत्ता तथा ईश्वरीय नियम--ऐसे व्यक्ति के आचरण को नैतिक आत्मा संचालित नहीं करती; बल्कि पुरस्कार और दण्ड की भावना, पड़ोसी का भय, परिवेश, राजसत्ता और परिवार का मोह आदि बाह्य प्रतिबन्ध परिचालित करते हैं। उनसे भयभीत होकर वह एक विशिष्ट प्रकार से कर्म करता है । ये उसे आदेश देते हैं- ऐसा करो' और वह बलि-पशु की भांति उसे हरी घास समझकर सहर्ष स्वीकार करता है। बिना समझे-बूझे नियमों का पालन करनेवाला व्यक्ति 'यह करना चाहिए' अथवा 'यह करना उचित है' आदि तथ्यों की ओर से तथा आचरण के आन्तरिक पक्ष की ओर से अचेत है। उसके आचरण की बागडोर प्रचलनों के हाथ में है। वह उनकी सत्ता को बिना आपत्ति और विरोध के चुपचाप स्वीकार कर लेता है। उनके विरुद्ध उसके मानस में किसी प्रकार का संकल्प-विकल्प नहीं उठता। जिस वातावरण में वह पलता और रहता है उसके नियमों का पालन करना ही उसके लिए स्वर्ग है और उसका उल्लंघन करना ही नरक है। ऐसे व्यक्ति का आचरण नैतिकता की कसौटी में खरा नहीं उतर सकता । भगवान्, नरक, राजसत्ता, शक्तिशाली व्यक्ति, पड़ोसी, अदृश्य शक्तियोंआदि से भयभीत होकर कर्म करना अनैतिक है। प्रचलित नैतिकता का अन्धा १०४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुकरण करनेवाला, अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को भूलनेवाला, बुद्धि को कुण्ठित करनेवाला, नैतिक ज्ञान पर रीति का पर्दा डालनेवाला व्यक्ति सब-कुछ होते हए भी नैतिक मानव नहीं है। प्रलापी तथा धर्मोन्मादी लोगों के पशु-सदश व्यवहार करने का यही कारण है कि उन्होंने अपने को बाह्य नियमों तथा आडम्बरों में सीमित कर दिया है। उन नियमों का पालन करके हम कहाँ पहुंचेंगे, इसे समझने का प्रयास नहीं किया है। जीवन का क्या ध्येय है ? सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? कल्याण के क्या अर्थ हैं ? आदि समस्याएँ उनके जीवन में नहीं उठतीं । यही कारण है कि वे नियमों की कमियों और बुराइयों की ओर से उदासीन हैं । यह विरक्ति ही उनसे जड़-नियमों का पालन तथा अनैतिक कर्म करवाती है । स्थिर नियमों का पालन करना नैतिकता नहीं है। वही नियम नैतिक हैं जो मानवता के विकास और कल्याण के लिए शुभ हैं । विज्ञापन और कला की उन्नति, सभ्यता और संस्कृति का विकास, ज्ञान और अनुभव की वृद्धि एवं जीवन का सांगोपांग अभ्युदय नियमों में भी परिवर्तन की अपेक्षा रखता है। एक ही नियम सब कालों और परिस्थितियों में मान्य नहीं . हो सकता। व्यक्ति की मानसिक-कायिक स्थिति, उसकी आवश्यकता और परिवेश, समाज की आर्थिक स्थिति, सांस्कृतिक चेतना, प्रौद्योगिक और राजनीतिक क्रान्तियाँ नियमों के सापेक्ष महत्त्व को समझाती हैं। परिस्थिति और समय के अनुसार कर्तव्य का रूप बदल जाता है। किन्तु विवेकहीन प्रचलनों का दास मानव इस सत्य को नहीं समझ पाता। प्रचलित नैतिकता की दुर्बलताएं-अबौद्धिक और विवेकशून्य आचरणइसमें सन्देह नहीं कि अपनी प्रारम्भिक अवस्था में नैतिक नियम प्रचलित लौकिक नीतियों और अनीतियों के सूचक रहे। किन्तु कालक्रम में उनमें अनेक त्रुटियाँ आ गयीं, वे व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सके । वास्तव में प्रचलित नैतिकता का राज्य अविवेक का राज्य है। यह अपनी प्रजा की स्वतन्त्र बुद्धि और विवेक को निष्क्रिय कर देता है। परिणामस्वरूप प्रजा नियमों को परम मान लेती है। वह अबौद्धिक आचरण को अपना लेती है और समझबूझकर कार्य नहीं करती। ध्येय को समझने का प्रयास किये बिना ही स्थिर 'नियमों को अपना लेती है। अपरिवर्तनशील नियम नैतिक विकास में बाधा डालते हैं । वे जीवन की प्रगति के लिए अनुपयोगी हो जाते हैं और व्यावहारिक कठिनाइयों को नहीं सुलझा पाते। वे जनसाधारण को अन्धविश्वास, रूढिप्रियता, चमत्कारवाद एवं थोथी प्रास्थानों-विश्वासों से जकड़ देते हैं और इस बात पर नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) / १०५ For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोर देते हैं कि रूढ़ि-रीतियों, ईश्वरीय नियमों, प्राप्त वाक्यों, श्रुतिसम्मत मतों, प्रागम-निगमों के रहस्यों, धार्मिक आस्थाओं और कथनों को बुद्धि से ग्रहण करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। क्योंकि केवल वही लोग (पादरी, मसीहा, पण्डित आदि) इन्हें समझ सकते हैं जिन्हें भगवद् अनुकम्पा प्राप्त है। जनसाधारण यदि इनके उपदेशों और आदेशों को नतमस्तक होकर स्वीकार नहीं करेगा तो उसे भयंकर यातनाएं सहनी पड़ेगी। अनैतिक नियम-यातनाओं से त्रस्त और भयभीत व्यक्तियों ने प्रचलित नैतिकता के अनुरूप कर्म को शुभ और उचित कहा। नैतिक दृष्टि से जिन्हें विवेकसम्मत कर्म कहते हैं वे प्रचलित नैतिकता के उपासकों के पलड़े में अनैतिक उतरे। नरक, भगवान् और शक्तिशाली व्यक्तियों से घबड़ाकर जनसाधारण ने अन्धविश्वासों और प्रचलनों को अपना सम्बल बनाया। वह आस्थाओं, विश्वासों, रूढ़ि-रीतियों एवं बाह्य आदेशों का जीवन बिताने लगा। एक ओर तो जनसाधारण बाह्याडम्बर, शारीरिक कष्ट, सामाजिक नियम, धार्मिक विधि पर आधारित अबौद्धिक जीवन बिताने लगा, दूसरी ओर समाज के लालची पण्डितों, शक्तिशाली व्यक्तियों, कूटनीतिज्ञों ने धर्म के नाम पर अत्याचार करने प्रारम्भ किये । नैतिकता की आड़ में अमानुषीय कर्म होने लगे एवं अत्यन्त क्रूर तथा रोमहर्षक नियम बनने लगे । फलस्वरूप सती-प्रथा, दास-प्रथा, बाल-विवाह, बहपत्नी-प्रथा, देवदासी-प्रथा आदि असभ्य रीतियाँ फैलने लगीं। इस रूप में प्रचलित नैतिकता ने मानव-कल्याण के बदले रक्तपात करवाया। समाज में एकता, स्नेह, प्रेम, सहृदयता, प्रात्म-त्याग आदि के बदले स्वार्थ, लोभ, द्वेष, क्रोध, भेदभाव, मनोमालिन्य आदि दुष्प्रवृत्तियों का राज्य स्थापित हुआ। . कमियों को दूर करने का प्रयास-विवेकशून्य होकर नियमों का पालन करनेवालों को पग-पग पर अधिक नियमों की आवश्यकता हुई और प्रचलित नैतिकता का विधान व्यापक और विशाल होता गया। किन्तु लोगों को वह फिर भी व्यावहारिक सहायता नहीं पहुंचा सका। उनका पथ-प्रदर्शन करना तो दूर रहा, विधान की व्यापकता अपने-आपको ही नहीं संभाल सकी। उसमें आन्तरिक विरोध पैदा होने लगे। साधारण मनुष्य के लिए अपना कर्तव्य निर्धारित करना कठिन हो गया। यदि वह एक नियम को मानता है तो दूसरे का उल्लंघन करता है। पिता का कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों का पालनपोषण करे, नागरिक होने के नाते उसका यह भी कर्तव्य है कि वह देश की रक्षा के लिए युद्ध करे। धर्म-ग्रन्थों के अनुसार 'झूठ नहीं बोलना चाहिए' एवं १०६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 'आर्त की रक्षा करनी चाहिए' किन्तु जब तक कर्ता को विषम स्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा तब तक तो ऐसे प्रदेश ग्राह्य हो सके पर यदि कभी ऐसी स्थिति आ गयी कि आर्त की रक्षा के लिए झूठ बोलना श्रावश्यक हो गया अथवा सच बोलकर आर्त की रक्षा करना सम्भव नहीं हो सका तो मनुष्य अपने को असहाय स्थिति में पाता है । उसकी समझ में नहीं आता है कि वह क्या करे । नैतिक नियमों का जब सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि नियमों से विरोध होता है तब भी कर्ता असमंजस में पड़ जाता है । इस कारण कुछ लोगों ने इन नियमों को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। उदाहरणार्थ, मनुस्मृति में कर्तव्य की व्यापक व्याख्या मिलती है । यह सच है कि कुछ हद तक व्यवस्थित नैतिक विधान बनाने में सफलता भी प्राप्त हुई है । समाज में अथवा व्यक्तियों के समुदाय में एक मत मिल सकता है । जनसाधारण के विचारों में वंशपरम्परा, वातावरण, शिक्षा आदि के कारण समानता मिलना दुर्लभ नहीं है । विचारों की समानता के आधार पर नैतिक कर्तव्यों की रूपरेखा बनायी जा सकती है । किन्तु ऐसे नियम सदैव प्रचलित नैतिकता के अंग रहेंगे । नैतिकता जनसाधारण के विचारों की समानता की सूचक नहीं है, वह ध्येय की प्राप्ति के लिए शुभ नियमों का निर्देशन करती है । कर्तव्यों का विधान बनाने -- वालों ने चरम ध्येय अथवा उद्देश्य को समझने का प्रयास नहीं किया । उनका नैतिक विधान ध्येय की संगति को प्राप्त नहीं कर सका । वह आन्तरिक विरोध से नियमों को मुक्त न कर सका । अतः ऐसे विधानों को सन्तोषप्रद मान लेने पर भी सार्वभौम मूल्य की दृष्टि से सफल नहीं कह सकते । पहले तो जीवन की प्रत्येक भिन्न परिस्थिति के लिए आचरण का नियम बनाना अपनी प्रति-व्यापकता के कारण एक असम्भव प्रयास है । परिस्थितियों की विभिन्नता और विषमता अनन्त कर्तव्यों की अपेक्षा रखती है । परिस्थिति, देश और काल के अनुसार कर्तव्य का रूप बदल जाता है, अनन्त कर्तव्यों को समझना, उनकी गणना करना, उन्हें लिपिबद्ध करना, मानव शक्ति के परे है और यदि थोड़ी देर को यह मान भी लें, तो क्या मनुष्य की स्मरण शक्ति अनन्त नियमों को याद रख सकती है ? क्या सदैव नियमों को याद रखकर उनके अनुरूप बिना. सोचे-समझे ही कर्म करनेवाला व्यक्ति नैतिक है ? क्या ऐसे समस्त नियमों एवं प्रदेशों का पालन करना बौद्धिक और विवेकसम्मत है ? वास्तव में बिना ध्येय को समझे न तो आचरण का मार्ग निर्धारित किया जा सकता है और न नियमों के विरोध को दूर ही किया जा सकता है । नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड ) / १०७ For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता का काम विशिष्ट नियमों को देना नहीं है और न वह मनुष्य पर 'नियमों को आरोपित ही करती है। वह केवल मार्ग-निर्देशित करती है और बुद्धिजीवी स्वेच्छा से उस मार्ग को स्वीकार करता है। विशिष्ट कर्तव्यों की रूपरेखा बनाना, जैसा कि अभी कहा जा चुका है, असम्भव तो है ही, अनैतिक भी है। फिर ऐसा व्यापक विधान नियमों के विरोध को बढ़ाता है, घटाता नहीं। धर्म ने इस विरोध को दूर करने का एक भिन्न उपाय निकाला। धर्मनिष्ठ का कर्तव्य है कि वह दैवी आदेशों का चुपचाप, बिना आपत्ति किये, सविनय पालन करे। मनुष्य को चाहिए कि वह राजा, धर्माध्यक्ष या प्रधान पुरोहित के निर्णयों को दैवी उपदेश समझकर स्वीकार करे। प्राचीन काल में भारत में राजा को धर्म की धुरी धारण करनेवाला माना जाता था। राजा ही प्रजा का पति तथा ईश्वर समझा जाता था। मध्ययुगीन यूरोप में भी राजा के देवी अधिकारों तथा प्रधान पादरी के आदेशों का बोल-बाला था। किन्तु इस 'सविनय आज्ञा पालन करने की आवाज़ को उठाकर भी धर्म व्यावहारिक कठिनाइयों और नियमों के विरोध को सुलझा नहीं पाया। दैवी आदेश को परम कहकर उसने नियमों के विधान में जिस संगति और सामंजस्य को स्थापित करना चाहा वह सम्भव न हो सका। बौद्धिक जागरण—यह काल वास्तव में परिवर्तन का काल था। लोगों के अनुभव और ज्ञान की वृद्धि ने, संस्कृतियों के संघर्ष और कर्तव्यों की मूठभेड़ ने नैतिक बुद्धि को जागृत कर दिया। विकास की सर्वांगीण उन्नति ने मनुष्य का ध्यान गूढ़ चिन्तन की ओर आकर्षित किया। मनुष्य की बुद्धि ने अपने को सुप्तावस्था से मुक्त करके एकता की मांग सम्मुख रखी और उसका समाधान करने के लिए कर्तव्यों का संगतिपूर्ण विधान बनाने का प्रयास किया तथा 'सविनय आज्ञा पालन' करने की सलाह दी। लोगों के सन्देह और संशय को, उनकी आपत्तियों और विरोधों को 'दैवी इच्छा' के नाम पर दूर करना चाहा। आत्मा, सत्य और न्याय की पुकार को 'स्वर्ग की आकांक्षा', 'नरक का भय' अथवा पुरस्कार एवं दण्ड के भय से दबाना चाहा और इस प्रकार दैवी प्रादेश के नाम पर नैतिकता का विनाश करना चाहा। यह सभी मानेंगे कि नैतिकता शक्तिशाली बाह्य आदेशों की अनुवतिनी दासी नहीं है। इसमें भी सन्देह नहीं है कि आचरण के नियम असंस्कृत और अनैतिक व्यक्ति के लिए अनिवार्य हैं। वे उसको शिक्षित बनाने के लिए परम उपयोगी हैं। किन्तु नैतिक व्यक्ति जब प्रचलनों के अन्तःसत्य को समझने का प्रयास करता है और उसे उनमें अन्तविरोध १०८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलता है तो उसकी आत्मा नियमों की विरोधी हो जाती है। वह उनके बन्धनों से अपने को मुक्त कर यह जानने का प्रयास करता है कि उसका ध्येय क्या है । जब धर्म या नीति उससे कहती है कि अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो तो वह जानना चाहता है कि उसका अपने प्रति क्या कर्तव्य है। क्या पड़ोसी और उसके अधिकार समान हैं ? यदि समान हैं तो वह परस्पर के स्वार्थों के संघर्ष के कारण विरोधी परिस्थिति उत्पन्न होने पर क्या करे ? यह एक नैतिक चिन्तन की स्थिति है। बाह्य नियम के बन्धन और चेतना की प्रान्तरिक स्वतन्त्रता के विरोध का प्रश्न है। उसकी नैतिक चेतना बाह्य आरोपित नियमों के विपरीत आत्म-आरोपित नियम के स्वायत्व को स्थापित करती है । वह विवेकसम्मत और उचित नियमों को चाहती है। दण्ड का भय और पुरस्कार का लालच उसे अपने मार्ग से विचलित नहीं करता है। इस प्रकार व्यक्ति ज्यों-ज्यों नैतिक प्रौढ़ता की ओर बढ़ता गया त्यों-त्यों वह अपने को बाह्य नियमों से मुक्त करता गया। आन्तरिक नियम एवं प्रान्तरिक विधान का बोध-प्रचलित नैतिकता ने अपनी दुर्बलताओं के कारण अपने विरोधी बीज बोये । रीति-रिवाजों के संकुचित दायरे में नैतिकता पनप नहीं सकी। उसकी घुटन एवं धनात्मक नियमों की कट्टरता ने लोगों की आलोचनात्मक बुद्धि को जाग्रत कर दिया। जीवन की विषम परिस्थितियों ने विवेक को सक्रिय बनाया। व्यावहारिक कठिनाइयों ने प्रचलित मान्यताओं के प्रति सन्देह और अविश्वास को जन्म दिया। लोकमत और शास्त्रमत के प्रति मनुष्य ने विद्रोह किया। उसने यह आवश्यक समझा कि वह इनको स्वीकार करने के पहले उनके सत्य को समझे और जब उसने उन्हें आलोचनात्मक कसौटी पर कसकर तर्क-बुद्धि से ग्रहण करना चाहा तो उसे रूढ़ियों और पूर्वग्रहों के खोखलेपन का तथा धर्म के बाह्याडम्बर और प्रचलित आदेशों की व्यर्थता का बोध हुआ। उसने उन सबसे अपने को मुक्त करने का प्रयास किया और उसका ध्यान आन्तरिक नियमों की ओर खिचा । इस प्रकार सर्वत्र ही नैतिकता का विकास बाह्य नियमों से आन्तरिक नियमों की ओर होने लगा। ___ नियमों की सत्यता को समझने के प्रयास में मनुष्य को यह ज्ञात हुआ कि प्रचलित नैतिकता विवेकसम्मत नहीं है। वह सच्चरित्रता को महत्त्व नहीं देती है, उद्देश्य, प्रेरणा एवं चरित्र का उचित मूल्यांकन नहीं करती है; वह जीवन के बाह्य पक्ष को ही सब-कुछ मानती है, आन्तरिक पक्ष की ओर से विमुख है। . नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) | १०६ For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने मूल में शुभ होते हुए भी वह आभ्यन्तरिक रूप से अशुभ है, बौद्धिक दष्टि से खोखली और व्यावहारिक दष्टि से भ्रमपूर्ण है। उसके नियमों में देशकाल की विभिन्नता एवं विचित्रता नहीं मिलती, अत्यन्त कट्टर हो जाने के कारण वह स्थिर नियमों का समर्थन करती है, जिनका पालन करने से आत्मप्रबुद्ध व्यक्ति को सन्तोष नहीं मिल सकता क्योंकि वह अविवेकी एवं नैतिक ज्ञान-शून्य व्यक्ति की भांति नियमानुवर्तिता को ही सब-कुछ नहीं समझ सकता। वह आन्तरिक नियम को भी जानना चाहता है। वह उस नियम को समझना चाहता है जिसके अनुरूप कर्म करने के लिए वह बाध्य है। नैतिक माप-दण्ड क्या है ? नैतिक निर्णय का मूल आधार क्या है ? किस माप-दण्ड के आधार पर कर्म को उचित और अनुचित कहा जा सकता है ? क्या नैतिकता उस माप-दण्ड को दे सकती है जो नियम, रीति-रिवाज एवं अभ्यास का स्थान ले सके या जो समाज, जाति देश के ऊपर एक सार्वभौम वस्तुगत सत्य की पूर्ति कर सके ? वह कौन-सा अनुभव है जिसे हम अपने नैतिक आचरण द्वारा प्राप्त करना चाहते हैं ? मनुष्य के विवेक ने जानना चाहा कि कौन-सा आदेश सर्वोच्च आदेश है । जीवन में जो अनन्त आदेश दीखते हैं उनमें कौन-सा आदेश वरेण्य है ? आचरण में किस माप-दण्ड की शरण ली जाये कि आदेशों और नियमों के जगत् में जो विरोध मिलता है वह दूर हो जाये ? क्या प्रचलित नैतिकता को सही अर्थ में नैतिक कह सकते हैं ? क्या उसके नियमों का पालन करना शुभ है ? क्या वे ध्येय के लिए उपयोगी हैं ? क्या उनमें आत्म-संगति मिलती है ? और यदि नहीं मिलती तो इसका क्या कारण है ? संक्षेप में, अनेक प्रकार के प्रश्नों को उठाकर मनुष्य ने नैतिक मान्यताओं की प्रामाणिकता को जानना चाहा । व्यावहारिक कठिनाइयों ने उसे विवश किया कि वह नैतिकता के परम-स्वरूप को समझे। उसने तर्क बुद्धि से काम लिया और व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया। मनन और चिन्तन उसे नैतिक प्रगति की ओर ले गये। दण्ड और पुरस्कार का युग अनायास ही पीछे छुट गया। बाह्य नियमों का भय जाता रहा। मनुष्य सदाचार की ओर झुक गया । प्रचलित नैतिकता का अनैतिक व्यक्तियों के लिए जो कुछ भी महत्त्व रहा हो, नैतिक दृष्टि से वह केवल ऐतिहासिक जिज्ञासा का समाधान करती है। उनके अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार दण्ड-पुरस्कार के सामाजिक नियम से व्यक्ति प्रात्मोन्मुखी हुमा और किस प्रकार नैतिकता के विकास के द्वितीय चरण ने विचार प्रधान प्रणालियों (reflective systems) ११० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को जन्म दिया। - अन्तर्बोध की स्थिति-विचारकों ने नियमों को समझने का प्रयास किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बाह्य शक्ति द्वारा आरोपित नियमों का भय, विनय या दासता के भाव से पालन करना नैतिकता नहीं है। रीति-रिवाज, प्रचलनों और बाह्य नियमों से नैतिक व्यक्ति मुक्त है। वह उन्हीं नियमों को अपने आचरण में स्वीकार करता है जिनका कि उसका अन्तर्बोध (conscience)' अनुमोदन करता है । उसका जीवन अपने-आपमें अपना नियम बना लेता है। नैतिक प्रौढ़ता को प्राप्त व्यक्ति बाह्य नियम का प्राज्ञाकारी नहीं है, वह अपने प्रान्तरिक नियम या अन्तर्बोध से शासित है। नैतिक नियम वास्तव में अन्तर्बोध की देन है और नैतिक निर्णय अन्तर्बोध का निर्णय है। यह मनुष्य का अपना वैयक्तिक अधिकार है कि वह नैतिक क्षेत्र में स्वतन्त्र निर्णय दे सकता है, अन्तर्बोध की ध्वनि को सुन सकता है और उसके आदेश का पालन कर सकता है। अन्तर्बोध बताता है कि उसे क्या करना चाहिए और आचरण का कौन-सा नियम उसके लिए उचित है। अन्तर्बोध नैतिकता का माप-दण्ड है, वह व्यावहारिक मार्ग को निर्धारित करनेवाला है। प्रान्तरिक नियम की अच्छाइयां और बुराइयाँ-अन्तर्बोध के शासन का काल नैतिक-जीवन का वह काल है जब कि मनुष्य प्रचलनों की नैतिकता तथा लौकिक आचारविधियों से विद्रोह करके अन्तर्दर्शन का ज्ञान प्राप्त करने लगा और अपने अन्तःकरण की शुद्धता पर मनन-चिन्तन करने लगा। वह बाह्य नियमों से विमुख होकर आत्मिक सत्य को खोजने लगा, किन्तु अपरिपक्व मानसिक स्थिति के कारण वह अपने ही साम्प्रदायिक आवेश और कट्टरपन्थी का शिकार हो गया। उसकी प्रास्थाओं, पूर्वग्रह, रूढिप्रियता और प्रचलनों का भय ही उसके अंन्तर्बोध द्वारा अपने को व्यक्त करने लगे। इन दुर्बलतानों के होने पर भी आन्तरिक नियम की अपनी विशेषता रही। उनके प्रभाव से व्यक्ति नैतिक रूप से अधिक जागरूक हो गया। प्रचलित नैतिकता ने आचार के बाह्य पक्ष को-कर्मों और उनके परिणामों को महत्त्व दिया था। किन्तु विवेकसम्मत नैतिकता (Rationalistic Ethics) ने, अथवा विचार-प्रधान प्रणा १. नैतिक नियम के प्रान्तरिक स्वरूप को सहज ज्ञानवादियों (Intuitionists) ने सम माने का प्रयास किया है। उन्होंने अन्तर्बोध के विभिन्न अर्थ किये हैं। वे अपने इस प्रयास में कहाँ तक सफल अथवा प्रसफल रहे उसके लिए देखिए, भाग २, अध्याय १० । नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) ) १११ For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लियों ने बाह्य के अतिरिक्त आन्तरिक पक्ष को भी महत्त्व दिया। उसने इस बात की ओर विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया कि प्रेरणा, उद्देश्य एवं चरित्र को समझना आवश्यक है और बाह्य नियमों के सविनय पालन को अनैतिक माना । उसके अनुसार नैतिक नियम प्रात्म-आरोपित हैं। प्रेरणा की पवित्रता नैतिकता का चिह्न है। नैतिक कर्म 'हृदय की पवित्रता' की अभिव्यक्ति हैं। मन, वचन और कर्म से नैतिक होना अनिवार्य है। .. नैतिक नियम का स्वरूप : प्रान्तरिक होते हुए भी वस्तुगत और सार्वभौम–बाह्याचार से मुक्त होने के पश्चात् वह स्थिति आयी जबकि व्यक्ति ने अपनी प्रात्मगत कठिनाइयों और सीमानों से अपने नैतिक ज्ञान को संकुचित कर दिया। किन्तु पूर्ण रूप से नैतिक होने के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रात्मगत सीमाओं से ऊपर उठे; आत्मगत से वस्तुगत, वैयक्तिक से वैश्विक एवं अपूर्ण से पूर्ण की ओर जाये + अथवा उसके लिए प्रान्तरिक और बाह्य नियम की एकता समझना अनिवार्य है। इस सन्दर्भ में नैतिक नियम आत्मगत होते हए भी वस्तुगत हैं, सार्वभौम हैं। नैतिकता का मूल्य सार्वभौम है। बिना इसके सार्वभौम मूल्य को समझे व्यक्ति एवं राष्ट्र नैतिक प्रगति की अोर नहीं बढ़ सकते । उन्हें उनके स्वभाव, वातावरण और परिवेश की सीमाएँ बाँध देती हैं। नैतिक नियम विशिष्ट व्यक्तियों, जातियों और राष्ट्रों तक सीमित नहीं हैं। नैतिक विचार और मान्यताएँ व्यक्ति एवं जाति-विशेष की थाती नहीं हैं, उनका मूल्य सार्वभौमिक है। सब प्राणियों के लिए वे समान रूप से अनिवार्य हैं और देश और काल की परिधि से मुक्त हैं । वे सब देश और काल में समान रूप से लागू हैं । उनका सार्वभौमिक मूल्य यह बताता है कि वे स्वतः वांछनीय हैं। उनका आदेश आत्मा के सत्य का आदेश है, अत: निरपेक्ष है। ज्ञानी (नैतिक ज्ञानी) व्यक्ति ही इस निरपेक्ष तथा आन्तरिक आदेश को समझ सकते हैं। ज्ञान सद्गुण है, इसलिए सत्य का ज्ञान ज्ञानियों को सत्य की ओर खींचता है, सदाचारी बनाता है। सदाचार के नियमों को मनुष्य स्वयं अपने ऊपर आरोपित करता है । पण्डितों, शास्त्रों और श्रुतियों की दुहाई देकर नैतिक नियम दूसरों पर आरोपित नहीं किये जा सकते। स्वेच्छापूर्वक तथा समझ-बूझकर सदाचार के मार्ग को ग्रहण करना ही नैतिकता है। __सदाचार का यह मार्ग प्रानन्द का मार्ग है । यह सदाचारियों को आकर्षित करता है। उनके जीवन को आह्लादमय बनाता है। किन्तु जो व्यक्ति अपने नैतिक ज्ञान पर अविवेक का पर्दा डाल देते हैं और भयवश नियमों का पालन ११२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं उनके लिए यह अत्यन्त कठिन और नीरस मार्ग है। नैतिक मार्ग को अधिकांश व्यक्ति भयवश ही अपनाते हैं और फिर वे उलाहना करते हैं कि यह अव्यावहारिक और अतिमानवीय है । वे यह भूल जाते हैं कि नीति के अनुसार व्यक्तियों का प्राचरण उनके सामान्य और स्वतन्त्र जीवन का प्रतिरूप है। नैतिक व्यक्तियों के कर्म उनके चरित्र एवं जीवन-सिद्धान्त के सूचक होते हैं। वे उन्हीं कर्मों को करते हैं जिन्हें व योग्य और मूल्यवान समझते हैं, जिन पर कि उनके जीवन की सार्थकता निर्भर है। - नैतिक विचार, मान्यताएँ और निर्णय प्रारम्भ में विशिष्ट जाति, राष्ट्र, समुदाय तथा परिस्थिति-विशेष तक सीमित थे। देश और काल अथवा भौगोलिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति के अनुरूप नैतिक नियमों में भिन्नताः । थी। वे अपने ही उत्पत्ति-स्थल और निवास-स्थान के संकुचित घेरे की चेतना को व्यक्त करते थे। वहीं के लिए उनकी प्रामाणिकता थी। धीरे-धीरे वे व्यापक और सार्वभौमिक होने लगे। उनकी सार्वभौमिकता के साथ उनका आन्तरिक रूप भी स्पष्ट हो गया। नैतिक निर्णय के रूप का रूपान्तर हो गया। इस प्रकार नैतिक नियम मूल्यपरक हो गये। वे इस पर प्रकाश डालने लगे कि कौनसे कर्म अथवा नियम ध्येय की प्राप्ति में सहायक हैं और कौन-से नहीं हैं। ध्येय की धारणा उन्हें सार्वभौमिक प्रामाणिकता देती है—विकास विकसित चेतना के व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र के लिए यह जानना आवश्यक है कि उनके जीवन का गढ़ ग्रान्तरिक सत्य एवं ध्येय क्या है। प्रचलनों और नियमों के जगत् से उन्हें उन्हीं नियमों को स्वीकार करना चाहिए जो कि ध्येय के लिए सहायक हैं। नियमों का अपना मूल्य अवश्य है। वे नैतिक बुद्धि के विकास में सहायक होते हैं। नैतिक जीवन का अान्तरिक तथा बाह्य-पक्ष अथवा बुद्धि तथा नियमों का द्वन्द्व तथा उनकी आलोचना-प्रत्यालोचना एक-दूसरे के बिकास में सहायक होते हैं । अन्तर्बोध का आन्तरिक नियम अपने-आपमें संकुचित होता है और प्रचलनों का बाह्य नियम जर्जर तथा रूढिप्रिय होता है। नियमों को स्वीकार करने के पहले उनका मूल्यांकन करना अनिवार्य है। जब व्यक्तिः विरोधी नीतिवाक्यों और विरोधी परिस्थितियों में पड़ जाता है एवं जब आचरण के औचित्य अनौचित्य का प्रश्न उठता है तो उसे अपने ध्येय को सामने रखकर उसका निराकरण करना चाहिए। नियमों के विरोधों को ध्येय की धारणा ही एकता के सूत्र में बाँध सकती है । आर्त की रक्षा करना और सत्य बोलने में विरोध नहीं है । आर्त की रक्षा करने के लिए सत्य न बोलने में पाप . नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) / ११३ For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है । जीवन का ध्येय मानव-कल्याण है, उसे ही सम्मुख रखकर कर्म करने चाहिए । वस्तुतः अपनी प्रारम्भिक अविकसित मनःस्थिति में मनुष्य को अनिवार्यतः: बाह्य नैतिक नियमों की श्रावश्यकता पड़ती है। किन्तु जब उसके भीतर सदसत् का बोध उदय हो जाता है तब वह उन प्रचलित बाह्य नियमों की परीक्षा कर तथा उन्हें अपने अन्तर्सत्य की कसौटी पर कसकर उनका वास्तविक मूल्य निर्धारित करता है और अपने लिए एक प्रान्तरिक नैतिक नियम को खोजने का प्रयत्न करता है जिसे प्राप्त कर लेने पर वह बाह्य नियमों को रूढ़ि तथा संस्था सम्बन्धी सीमाओं तथा जड़तानों से मुक्त होकर उस सार्वजनिक अन्तर्तत्य के नियम से परिचालित होना पसन्द करता है जो मनुष्यत्व के उपादानों से पूर्ण होने के कारण सर्वकल्याणकर होता है । ध्येय के स्वरूप को समझने के क्रम में मनुष्य व्यक्ति विशेष के कल्याण से विश्व के कल्याण की ओर उन्मुख हुआ । प्रेम का श्रान्तरिक सिद्धान्त, सार्वभौम विवेक, कर्तव्य कर्म, निष्काम कर्म, अहिंसा, वसुधैव कुटुम्बकम् की धारणाएँ विश्व कल्याण की धारणाएँ हैं । व्यक्ति नैतिक विश्व का सदस्य है । उसे उस नियम को अपनाना चाहिए जो मुख्यतः मानवीय है, मनुष्यत्व के बोध से प्लावित है। नैतिक नियम जीवन का वह सिद्धान्त है जो कि एक ही विश्व के सदस्य होने के कारण सब मनुष्यों की धरोहर सम्पत्ति है । वह एक सार्वभौम धर्म तथा विश्वव्यापी सिद्धान्त है । आचरण का नियम सार्वजनीन है । उसकी सार्वभौमिकता उसके वस्तुगत स्वरूप पर प्रकाश डालती है और उसका मानवीय पक्ष या गुण उसके आन्तरिक स्वरूप पर । वास्तव में, नैतिक जगत् में बाह्य और आन्तरिक का भेद नहीं होता। जैसा कि कहा जा चुका है केवल बाह्य नियम अनैतिक और मानव- गौरव विहीन हैं तथा केवल श्रान्तरिक संकुचित या सीमित एवं वैयक्तिक हैं । नैतिक जगत् में यह एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं प्रत्युत् एक-दूसरे को पूर्ण और स्वस्थ बनाते हैं । नैतिक दृष्टि से बाह्य नियम कुछ नहीं हैं बल्कि प्रान्तरिक नियमों के ही प्रतिबिम्ब हैं । प्रान्तरिक सत्य बहिर्मुखी होकर प्रवाहित होता है । नैतिक नियम सम्पूर्ण जीवन के सिद्धान्त हैं। नैतिक निर्णय द्वारा मानवता का सत्य विकास की ओर अग्रसर होता है और वह व्यक्तियों द्वारा अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है । ११४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य निरीक्षण (क) विभिन्न नैतिक सिद्धान्त नैतिक पादर्श-नीतिशास्त्र इस तथ्य पर आधारित है कि मनुष्य के कर्म आत्मनिर्णीत होते हैं। उसका आचरण साभिप्राय होता है। बौद्धिक होने के नाते वह जानना चाहता है कि किस परम ध्येय के लिए अपने जीवन को संचालित करे। अथवा नैतिक आदर्श क्या है ? जीवन की पूर्णता किस पर निर्भर है ? आत्म-सन्तोष कैसे प्राप्त हो सकता है ? उस सर्वश्रेष्ठ शुभ का क्या स्वरूप है जो कि मानवीय गौरव का प्रतीक है ? मनुष्य किसी भी नियम या आदेश का-चाहे वह आत्म-आरोपित हो या बाह्य-आरोपित–यान्त्रिक रूप से पालन नहीं कर सकता। वह उसका अर्थ समझना चाहता है। नियमों और आदेशों को व्यावहारिक रूप देने में उसे कई प्रकार की कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं। विरोधों का सामना करना पड़ता है। नियमों में भी आत्मविरोष मिलता है। ऐसी असहाय अवस्था में वह एक परम मापदण्ड की खोज करता है। उस आदर्श को जानना चाहता है जिसके लिए नियम साधनमात्र हैं, जिसके द्वारा परस्परविरोधी नियमों की आत्मा तक पहुंचा जा सके। . विवाद का केन्द्र : व्यक्ति का स्वभाव-यदि नैतिकता के इतिहास का अध्ययन करें तो मालूम होगा कि नैतिक चिन्तन के शैशवकाल से ही परम आदर्श के स्वरूप के बारे में दो विरोधी धारणाएं चली आ रही हैं । नीतिज्ञों ने मनुष्यस्वभाव को बुद्धि और भावना की सामंजस्यपूर्ण इकाई न लेकर दो योद्धामों का युद्ध-क्षेत्र मान लिया है। एक मत के अनुसार मनुष्य का मूल रूप भावनात्मक सामान्य निरीक्षण | ११५ For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और दूसरे के अनुसार उसका मूल रूप बौद्धिक है । दोनों प्रकार के मत के प्रतिपादकों ने अपनी मनुष्य-स्वभाव की धारणा के अनुरूप अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । भावना : सुखवाद - मनुष्य को भावनात्मकं प्राणी माननेवालों ने कहा कि जीवन का चरम ध्येय अथवा नैतिक आदर्श सुख है । उसका कल्याण इन्द्रियसुख में निहित है । इस इन्द्रियपरक नीतिशास्त्र (Ethics of Sensibility) के सिद्धान्त के अनुसार जीवन का ध्येय सुख ( Hedone ) है | यह सिद्धान्त सुखवाद (Hedonism) के नाम से प्रसिद्ध है | सुखवाद का प्रतिपादन प्राचीन 'काल में यूनान में सिरेनैक्स (Cyrenaics) और ऍपिक्यूरियन्स ( Epicureans) ने किया और आधुनिक काल में उपयोगितावादियों (Utilitarians) ने । इसके तीन रूप मिलते हैं : अनुभवात्मक, बौद्धिक और विकासात्मक | बुद्धि : बुद्धिपरतावाद - दूसरी ओर बुद्धिपरतावाद ( Rationalism) मिलता है जिसके अनुसार मनुष्य पूर्ण रूप से बौद्धिक है । उसका शुभ इन्द्रिय-सुख में नहीं, बौद्धिकता में हैं । बुद्धिपरतावाद को बुद्धिपरक नीतिशास्त्र (Ethics of Reason) भी कहते हैं । इसका प्रतिपादन प्राचीन काल में सिनिक्स (Cynics) नौर स्टोक्स (Stoics) ने किया तथा आधुनिक काल में काण्ट तथा सहजज्ञानवादियों (Intuitionists) ने । विरोध की प्रगति : समन्वय की श्रोर - नैतिक इतिहास के क्रम में सुखवाद और बुद्धिपरतावाद, दोनों ही, समय-समय पर भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होते गये। दोनों सिद्धान्तों का अध्ययन यह बताता है कि नैतिक विचारकों ने शुभ (परमध्येय ) को समझने का प्रयास किया है । इन सिद्धान्तों के प्राचीन यूनानी प्रवर्त्तक यह भली-भाँति जानते थे कि शुभ का सम्बन्ध वास्तविक जीवन से है। शुभ वह है जिसे कि प्रयास द्वारा व्यक्ति प्राप्त कर सकता है और जिसका वह आत्म-साक्षात्कार कर सकता है । उसका प्रत्यक्षीकरण करके वह आत्मसन्तोष प्राप्त कर सकता है। यूनानी दर्शन श्रात्म-बोध (Self-realisation) को शुभ कहता है । आत्म बोध का क्या रूप है ? उससे अभिप्राय इन्द्रियतृप्ति से है या बौद्धिक सन्तोष से ? – यह प्रश्न अपने उत्तर के लिए स्वयं इस प्रश्न पर निर्भर है कि मनुष्य क्या है ? उसका क्या स्वरूप है और उसके सत्य रूप को भावना अभिव्यक्त करती है या बुद्धि ? 'आत्म- बोध' के स्वरूप को समझने में सुखवाद और बुद्धिपरतावाद दोनों ही दो रूप में सम्मुख आते हैं, उग्र रूप में और नम्र रूप में। अपने उग्र रूप में बुद्धिपरतावाद ने भावनानों ११६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उन्मूलन करना चाहा और सुखवादियों ने भोग-विलासपूर्ण मानव-जीवन में बुद्धि को संकट समझा। किन्तु जैसा कि उन सिद्धान्तों के अध्ययन से ज्ञात है दोनों ने ही अपने-अपने सिद्धान्तों की परम सत्यता को सिद्ध करने के आवेग में अपनी नींव खोद डाली। मनुष्य न तो भावना-शून्य ही है और न बुद्धिरहित ही । उसका नैतिक जीवन बुद्धि और भावना के समन्वय की अपेक्षा रखता है। सुखवाद बिना बुद्धि को स्वीकार किये नहीं टिक सकता है और बुद्धिवाद बिना भावना को स्वीकार किये वास्तविक नहीं हो सकता। बुद्धि और भावना मानवस्वभाव के दो अविच्छिन्न अंग हैं। इनका सन्तुलन बिगड़ने से मनुष्य जीवन में आगे नहीं बढ़ सकता। पूर्णतावाद-बुद्धिपरतावाद और सुखवाद ने अपने-अपने सिद्धान्तों को सिद्ध करने के आवेश में न तो तर्क का आधार लिया और न मनुष्य के स्वभाव को ही समझने का प्रयास किया। उन्होंने स्थूल बुद्धि से काम लिया। एक ही व्यक्तित्व में दो विरोधी प्रवृत्तियों को देखा । सच तो यह है कि मनुष्य के पूर्ण संगठित व्यक्ति में बिना इच्छाओं के बुद्धि निष्क्रिय है और बिना बुद्धि के इच्छाएं अन्धी हैं । अतः स्थूल दृष्टि से विरोधी होते हुए भी वे एक-दूसरे की पूरक हैं। उपर्युक्त दोनों सिद्धान्तों की मुख्य त्रुटि यही है कि उन्होंने मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्व को एवं बुद्धि और भावना के एकत्व को नहीं समझा और उनके विरोध को अत्यधिक महत्त्व दे दिया। जनसांधारण में जो जीवनयापन के दो मत मिलते हैं उनके मूल में भी मानव-व्यक्तित्व की यही भ्रान्तिपूर्ण धारणा है। सुखवादी और बुद्धिपरतावादी मनुष्य के व्यक्तित्व को बुद्धि और भावना की संगतिपूर्ण इकाई न मानते हुए जनसाधारण की भांति पूछते हैं कि उसके सत्य स्वरूप को इच्छाएँ अभिव्यक्त करती हैं या बुद्धि ? नीतिशास्त्र के इतिहास मेंयह विरोध हिरेक्लिटस-डिमोक्रिटस, एण्टिस्थीनीज-ऍरिस्टिपस, जीनो-एपिक्यूरस, कडवर्थ-होब्स और काण्ट-बेंथम आदि के बीच प्रकट हुआ । उसके साथ ही वह मत भी मिलता है, जिसने मनुष्य के मूर्त व्यक्तित्व को समझने का प्रयास किया। मनुष्य भावनामात्र या बुद्धिमात्र नहीं है। उसका मूर्त व्यक्तित्व उन . दोनों का समन्वय है। दोनों की तुष्टि अथवा आत्म-तुष्टि उसके जीवन का ध्येय है। यह मत व्यक्तित्व का नीतिशास्त्र (Ethics of Personality) या पूर्णतावाद (Perfectionism) के नाम से प्रसिद्ध है । इसने दोनों सिद्धान्तों की सीमामों और विरोधों का अतिक्रमण करके उनमें सामंजस्य स्थापित किया। इस मत की ओर प्लेटो, अरस्तू और हीगल ने ध्यान आकृष्ट किया। सामान्य निरीक्षण | ११७ For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त तीन सिद्धान्तों के अतिरिक्त अन्य मत भी मिलते हैं । उन मत को मिश्रित सिद्धान्तों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है और उनको उन्हीं सिद्धातों के प्राधार पर समझाया जा सकता है । प्रमुख सिद्धान्त तीन ही हैं । (ख) सुकरात सोफिस्ट्स की श्रालोचना : शुभ वस्तुगत है- सुकरात ( Socrates ) ' ने सोफिस्ट्स' की चुनौती का उत्तर देने का प्रयास किया । सोफिस्ट्स ने शुभ के वैयक्तिक पक्ष को महत्त्व दिया था । वैयक्तिक शुभ को सामाजिक शुभ से वियुक्त एक स्वतन्त्र अस्तित्व दे डाला था । इससे उनके सिद्धान्त का विकास परमस्वार्थवाद की ओर हुआ । सोफिस्ट्स का व्यक्तिवाद इस तथ्य को प्रकाश में लाता है कि उन व्यक्तियों के अतिरिक्त, जो कि समाज का अनिवार्य निर्माणात्मक अंग हैं, सामाजिक शुभ का कोई अर्थ नहीं है । सोफिस्ट्स के इस कथन को स्वीकार करते हुए भी ध्वनि निकलती है कि वैयक्तिक शुभ और सामाजिक शुभ एक ही हैं । किन्तु सोफिस्ट्स अपने परमस्वार्थवाद की धुन में यह भूल जाते हैं कि व्यक्तिगत शुभ सामाजिक भी है । वे शुभ के केवल व्यक्तिगति पक्ष को ही महत्त्व देते हैं । प्रत्येक का सम्बन्ध उसी तक सीमित रखते हैं । उनके इस सिद्धान्त में वैयक्तिक शुभ की सामाजिक शुभ से संगति नहीं मिलती है। सुकरात ने सोफिस्ट्स समुदाय के विश्वविख्यात उपदेशक प्रोटेगोरस की उक्ति - मनुष्य ही सब वस्तुनों का मापदण्ड है - में जो सत्य है उसे स्वीकार किया और इस बात का समर्थन किया कि जिस शुभ की खोज हम करते हैं उसका सम्बन्ध मानव कल्याण ( Human well-being) से है और वह व्यक्तियों के ही द्वारा प्राप्त हो सकता है । प्रथवा शुभ का सम्बन्ध व्यक्तियों से है। किन्तु इस कारण हम इसे आत्मगत नहीं कह सकते हैं । जब सोफिस्ट्स कहते हैं कि शुभ का सामाजिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है तब सुकरात उनके विरुद्ध यह घोषित करता है कि शुभ वस्तुगत है, वह वैयक्तिक और सापेक्ष नहीं है । सुकरात के अनुसार यह भ्रान्तिपूर्ण है कि व्यक्तियों द्वारा प्राप्त हो १. जम्म ४६६ ई० पू० - मृत्यु ३६६ ई० पू० । २. शिक्षकों का समुदाय जिसने एथिन्स के नागरिकों को योग्य नागरिक बनाने के लिए शिक्षित करने का बीड़ा उठाया । ११८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकने के कारण ही शुभ प्रात्मगत है । सोफिस्ट्स के विरुद्ध यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि शुभ व्यक्तिगत या प्रात्मगत नहीं है, उसका स्वरूप सार्वभौम और वस्तुगत है । वह सामान्य प्रत्ययों द्वारा समझा जा सकता है । नंतिक प्रत्ययों की परिभाषा या नैतिक धारणाओं की व्याख्या की जा सकती है । सुकरात ने यह बताया कि नैतिक गुणों की अपनी स्वतन्त्र वस्तुगत सत्ता है । वह व्यक्तियों के अनुभवों और भावनाओं पर निर्भर नहीं है । उन्हें बिना अपवाद के प्रत्येक व्यक्ति स्वीकार करता है । देश, काल का भेद मिथ्मा है । उदाहरणार्थ, संयम, न्याय आदि को सभी लोग सब समयों में शुभ कहेंगे । वे सर्वभौम हैं । सद्गुण, ज्ञान, श्रानन्द एक ही हैं—सोफिस्ट्स ने नैतिक मान्यताओं का जिस भाँति स्पष्टीकरण किया उससे सुकरात प्रसन्तुष्ट था । सोफिस्ट्स के सम्मुख उनका वैयक्तिक, व्यावसायिक तथा उपयोग प्रधान दृष्टिकोण था । सुकरात नैतिक - जिज्ञासु था। उसके जीवन का ध्येय प्राचरण की पूर्णता को प्राप्त करना था । उसने सदैव अपने को नीतिशास्त्र का विद्यार्थी माना । वह नैतिक विज्ञान का संस्थापक था । उसने सामान्य नैतिक धारणाओं की उचित वैज्ञानिक परिभाषा देना आवश्यक समझा । विशिष्ट नियमों को समझाना वाहा । विभिन्न नियमों को एक व्यवस्थित विधान के अन्तर्गत रखने का प्रयास किया । सोफिस्ट्स ने प्राकृतिक नियमों और यथार्थ नियमों एवं रीति-रिवाजों के बीच एक अनमेल खाई खोदी । सुकरात ने प्राकृतिक नियमों को यथार्थ नियमों का प्राधार बताते हुए सामान्य विश्वासों को समझाया । जनसामान्य द्वारा स्वीकृत शुभ-अशुभ के नियमों को उनकी प्रसंगत जटिलतानों के साथ स्वीकार किया। उनके विरोधों में साम्य स्थापित किया । उसके अनुसार सद्गुणों के जगत में श्रव्यवस्था नहीं है, व्यवस्था है, जिसे समझा और समझाया जा सकता है। उसके अनुसार सद्गुण ही ज्ञान है,' प्रज्ञा ही शील है । पूर्णज्ञान और पूर्णशील एक ही है । शुभ के ज्ञान को व्यवहार से पृथक् नहीं कर सकते । मूर्ख अथवा अज्ञानी ही अशुभ आचरण करता है। शुभ का ज्ञाता सदैव शुभ कर्म करता है, उसे ज्ञात रहता है कि शुभाचरण में उसका स्वार्थ निहित है । श्रतः १. Virtue is Knowledge. २. स्वार्थ (interest ) से सुकरात का अभिप्राय प्रात्मोन्नति और प्रात्मसन्तोष से है । वह कहता है कि व्यक्तियों को अपनी प्रात्मा को पहचानना चाहिए। उसके अनुरूप कर्म करना चाहिए।. सामान्य निरीक्षण / ११ For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह उसके विपरीत पाचरण नहीं कर सकता। व्यक्तियों का स्वार्थ सदैव सामान्य शुभ के अनुरूप होता है, क्योंकि शुभ सार्वभौम और अपरिवर्तनशील है। सद्गुण और मानव-कल्याण व्यक्तियों की बदलती हुई. रुचि से भिन्न अपरिवर्तनशील नियमों के आश्रित है। शुभ का ज्ञान व्यक्तियों के आचरण और नियमों में एकरूपता ला देता है। शुभ वह है जो सार्वभौम रूप से सबके लिए उचित एवं लाभप्रद है। शभ वह है जो कि परम उपयोगी (Supremely useful) है। शुभ और उपयोगी एक ही है। इनका ऐक्य सिद्ध करता है कि सद्गुण की अन्तिम परिणति प्रानन्द (Happiness) है । बौद्धिक अन्तर्दृष्टि द्वारा शुभ एवं सद्गुण को समझा जा सकता है । इसके स्वरूप को समझ लेने से विवेकी व्यक्ति को बाह्य ऐहिक आकर्षणों के प्रति घृणा एवं अरुचि हो जाती है। वह आनन्द को पवित्र सुख मानने लगता है, जिसका अभिप्राय है सामान्य सुखभोग का त्याग । प्रानन्द अपने-आपमें साध्य है । उसकी प्राप्ति में सहायक अन्य शुभ साधन एवं सापेक्ष शुभ हैं । परमशुभ प्रानन्द अथवा सद्गुण ही हैं। (ग) उत्तर-सुकरात युग सुकरात का प्रभाव-सुकरात के अनुसार चरित्र की पूर्णता को प्राप्त करना ही मनुष्य का ध्येय है। उसने अपने आचरण, पाख्यानों, व्यक्तिगत वादविवादों द्वारा नैतिक-जीवन की आवश्यकता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। सुकरात ने किसी विशिष्ट सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया और न उसने नीतिशास्त्र पर कोई निबन्ध ही लिखा । उसने सदैव अपने को जिज्ञासु माना । उसके आचरण और उपदेश के कारण मीतिशास्त्र ने युनान में अपने लिए प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया । सुकरात की प्रेरणा के कारण ही लोगों का ध्यान बाह्य जगत से हटकर आचरण पर गया। उन्होंने नैतिक प्रश्नों को समझना चाहा। उसकी मृत्यु के पश्चात् कई सिद्धान्तों का प्रादुर्भाव हुमा जिन्होंने धीरे-धीरे स्पष्ट रूप धारण किया। - सुकरात पन्थ-सुकरात से प्रभावित होकर चिन्तकों ने यह जानना चाहा कि परम शुभ का क्या रूप है । सुकरात के साथ उन्होंने यह स्वीकार किया कि उचित जीवन के बारे में व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है तथा नैतिक विज्ञान सम्भव है। किन्तु प्रश्न यह है कि मानव कल्याण क्या है ? उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? सुकरात के पन्थ को माननेवाले चार प्रमुख सिद्धान्त मिलते हैं : मेगेरियन (Megarian), प्लेटोनिक (Platonic), सिनिक १२० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Cynic) और सिरेनंक ( Cyrenaic) ये चारों यह मानते हैं कि मनुष्य के लिए शुभ का ज्ञान आवश्यक है । किन्तु शुभ के स्वरूप के बारे में इनमें पारस्परिक विरोध मिलता है । इसका मूल कारण यह है किं सुकरात के सिद्धान्त में विच्छिन्न रूप से अनेक विचार-धाराएं मिलती हैं । उसके अनुयायियों ने उसको अपना गुरु मानते हुए उसके सिद्धान्त में अपने ही विशिष्ट सिद्धान्तों का प्रतिदेखा । सुकरात के मुख्य शिष्यों में प्लेटो और अरस्तू ( Aristotle ) हैं । अन्य सिद्धान्तों के प्रतिपादक भी उसके शिष्य एवं अनुयायी थे । भिन्न शाखाएँ - मेगेरियन ने अपने नीतिशास्त्र को रहस्यवादी बना दिया । वे व्यावहारिक दर्शन के नाम पर तत्त्वदर्शन में प्रवेश कर गये । अतः नैतिक दृष्टि से वे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं कर सके । प्लेटो के लिए "परम शुभ ज्ञान और सुख का सन्तुलित योग है किन्तु सिनिक और सिरेनेक विचारधारा में परम विरोध मिलता है | सिरेनक के अनुसार जीवन का ध्येय इन्द्रियसुख और सिनिक के अनुसार इन्द्रिय-विजय । सामान्य निरीक्षण / १२१ For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० . सुखवाद भूमिका-सुखवाद (Hedonism) सामान्यतः उन सिद्धान्तों का सूचक है जो सुख-भोग को ही जीवन का परमध्येय मानते हैं। यह यूनानी शब्द हीडोन (Hedone) से लिया गया है । हीडोन के अर्थ होते हैं, सुख । अतः वे सिद्धान्त, जो सुख को जीवन का ध्येय मानते हैं, सुखवाद के नाम से प्रसिद्ध हैं। सुखवाद के प्रवर्तक अपने को सुकरात का अनुयायी मानते हैं। वे इस बात से प्रभावित हुए कि सुकरात ने अपने चारों ओर की परिस्थितियों का अधिक-से-अधिक उपयोग किया। उन्होंने सुकरात के प्रांचरण की पवित्रता और सात्विकता को नहीं समझा। उसमें चतुराई और दूरदर्शिता देखी । सुकरात के अनुसार जीवन का ध्येय आनन्द है । सुखवादियों ने इसके अर्थ बदल दिये । प्रानन्द का अर्थ उन्होंने स्थूल इन्द्रियजन्य सुख से लिया और कहा कि अधिक-से-अधिक परिमाण में सुख की प्राप्ति ही जीवन का ध्येय है । सुख के स्वरूप को समझाते हुए उन्होंने कहा कि सुख भावनामात्र है और वह नैतिक मान्यता का केन्द्रबिन्दु है । नैतिक दष्टि से उसी कर्म, उद्देश्य तथा प्रेरणा को हम शभ कहेंगे जो कि सूख की उत्पत्ति तथा दु:ख के विनाश में सहायक होती है। वे अशुभ होते यदि वे दुःखप्रद होते और वे महत्त्वहीन होते यदि वे दुःख और सुख दोनों में से किसी का भी कारण नहीं होते । व्यापक दृष्टि से सुखवादियों को दो भागों में बांटा जा सकता है । कालक्रम के अनुसार प्राचीन और अर्वाचीन तथा सैद्धान्तिक रूप से मनोवैज्ञानिक और नैतिक । २२ / नीतिशास्त्र | For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन सुखवाद अथवा मनोवैज्ञानिक सुखवाद स्वार्थ सुखवाद-प्राचीन काल में सुखवाद की सर्वप्रथम नींव यूनान में पड़ी। सुकरात की मृत्यु के पश्चात् उसके अनुयायी, ऍरिस्टिपस ने उसके सिद्धान्त को स्पष्ट रूप से समझाने का प्रयास किया। उसके इस प्रयास के फलस्वरूप ही स्वार्थ सुखवाद (Egoistic Hedonism) या मनोवैज्ञानिक सुखवाद (Psychological Hedonism) की उत्पत्ति हुई । प्राचीन सुखवाद वैयक्तिक और स्वार्थपूर्ण है। वह इस तथ्य पर आधारित है कि मनुष्य का कर्तव्य केवल अपने ही प्रति है। मनुष्य को अपने सुख की खोज करनी चाहिए चाहे उसका सुख दूसरों के लिए विनाशकारी ही सिद्ध हो । जब भी वैयक्तिक सुख और सामाजिक सुख के बीच विरोध उत्पन्न हो तब मनुष्य को चाहिए कि निश्चित रूप से अपने ही सुख की खोज करे । मनुष्य का एकमात्र अपने प्रति कर्तव्य है, प्रात्मसुख ही उच्चतम नैतिक ध्येय है। यह सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक भी है। यह इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को मानता है कि मनुष्य स्वभाववश सदैव सूख की खोज करता है। उसकी इच्छा का परम केन्द्र सुख है । उसकी सहज प्रवृत्तियाँ और स्वभाव सुख की खोज करते हैं। मनोवैज्ञानिक सुखवाद तथ्यात्मक है। वह मनुष्य स्वभाव का वास्तविक चित्रणमात्र, वर्णनमात्र करता है । वह पुनः दो भागों में बांटा जा सकता है : स्थूल और संस्कृत (gross and refined) । स्थल सुखवादी अधिक-से-अधिक इन्द्रिय-सुख को महत्त्व देते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य आवेगपूर्ण और उत्तेजनापूर्ण जीवन बिताना चाहता है। किन्तु संस्कृत सुखवादी शान्त सुख को महत्त्व देते हैं । उनके अनुसार मनुष्य दुःखों और कष्टों से बचना चाहता है। ___ स्थूल सुलवाद : सिरेनैक्स-स्थूल सुखवाद का प्रवर्तक ऍरिस्टिपस' (Aristippus) था। ऍरिस्टिपस सीरीन देश का निवासी था। अतः उसका सिद्धान्त सिरेनैक्स (Cyrenaics) कहलाया। ऍरिस्टिपस अपने को सुकराल का मतावलम्बी मानता था। सुकरात के अनुसार जीवन का ध्येय आनन्द है। कर्मों के मूल्य को समझना ही बौद्धिक जीवन का उद्देश्य है। कर्मों को समझना, उनके तात्कालिक भविष्यत् और सुदूर भविष्यत् के सुखप्रद और दुःखप्रद परिणामों को समुचित रूप से प्राकना व्यक्ति का कर्तव्य है। ऍरिस्टिपस ने सुकरात के इस सिद्धान्त को स्थूल सुखवादी. रूप दे दिया। उसका कहना था कि जिस १. जन्म लगभग ४३५ ई. पू. : सुसाद / १२३ For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द की अोर सुकरात ने संकेत किया वह इन्द्रिय-सुख पर निर्भर है। जीवन का ध्येय : तीव्र इन्द्रियसुख-~इस प्रकार उसने इन्द्रियपरक सुखवाद या विशुद्ध सुखवाद (Pure Hedonism) का प्रतिपादन किया। वह मनुष्यस्वभाव की दुहाई देकर कहता है कि मनुष्य सदैव सुख की खोज करता है । जहाँ तक सुख के स्वरूप का प्रश्न है सब सुख जाति में समान होते हैं। उनमें केवल मात्राओं अथवा तीव्रता का अन्तर होता है। तीव्रता के आधार पर ही एक सुख दूसरे सुख से अधिक वांछनीय और शुभ माना जाता है। शारीरिक सूख क्षणिक होने पर भी मानसिक सुख से अधिक तीव्र होते हैं । अतः वे अधिक वांछनीय हैं। तीव्र इन्द्रियसुख ही जीवन का ध्येय है। - सुख का स्वरूप : तात्कालिक, अनुभवगम्य, अधिक परिमाण-ऍरिस्टिपस ने सोफिस्ट्स के सापेक्षवाद को स्वीकार किया। उसने भी यह माना कि मनुष्य केवल अपनी संवेदनामों और अनुभवों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। तात्कालिक संवेदन ही ज्ञान का एकमात्र विषय है। मनुष्य का भविष्य अनिश्चित है। अनुभव बताता है कि तत्कालीन इन्द्रियसुख एकमात्र ज्ञेय शुभ है। अन्य कोई सुख इससे अधिक महान् नहीं है। मनुष्य तात्कालिक सुख की परवाह करता है। तात्कालिक शारीरिक सुख अनुभवगम्य सुख है। अधिक-से-अधिक परिमाण में सुख भोगना ही परम ध्येय है । आचरण का मूल्य सुख के परिमाण पर निर्भर है। सुख कर्मों का एकमात्र प्रेरक-मनुष्य की सहज प्रवृत्ति और स्वभाव सदैव सुख की खोज करते हैं। उसके कर्मों का एकमात्र प्रेरक सुख है। मनुष्यों की प्ररणा में कोई अन्तर नहीं है; सब सुख की प्रेरणा से प्रेरित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अधिक-से-अधिक सुख की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है। किन्तु अपने ज्ञान और अनुभव के अनुरूप कुछ लोग अधिक परिमाण में सुख प्राप्त करते हैं पौर कुछ कम । शुभ प्राचरण वही है जो कि विशिष्ट परिस्थिति में अत्यधिक सुख प्राप्त कर लेता है। . ___ कर्मों के तत्कालीन परिणाम महत्त्वपूर्ण : शुभ, अशुभ के सूचक--इस आधार पर ऍरिस्टिपस ने सुकरात के विरुद्ध यह भी कहा कि कर्मों के सुदूर भविष्य के परिणामों को प्रांकने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को तत्कालीन सुख की चिन्ता करनी चाहिए। कर्मों के औचित्य-अनौचित्य को उनके परिणामों द्वारा आँकना चाहिए। वही कर्म शुभ है जिसका परिणाम सुखप्रद है। कर्म अपनेआपमें शुभ-अशुभ नहीं हैं। परिणामों द्वारा ही उनका मूल्यांकन कर सकते हैं। सुखप्रद परिणामों को महत्ता देने के लिए वह यहां तक कहता है कि चोरी, १२४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप, व्यभिचार आदि कुछ स्थितियों में शुभ हैं । सुख चाहे किसी प्रकार का हो, शुभ है । केवल इतना आवश्यक है कि वह साम्प्रतिक ( तत्क्षण) और अनुभवगम्य हो, वही प्राचरण शुभ है जो कि सुखप्रद है अथवा सुख के लिए उपयोगी है । वही कर्म बौद्धिक और विवेकसम्मत है जो कि सुख के लिए साधनमात्र है । सिद्धान्त में गोपन विरोध - ऍरिस्टिपस यह भी कहता है कि विवेकी व्यक्ति आत्म-संयम द्वारा अत्यधिक सुख का भोग कर सकता है । सुख की प्राप्ति के लिए विवेक से काम लेना आवश्यक है । वह अपनी स्थूल सुखवादी धारणा का संशोधन-सा करता हुआ कहता है कि मनुष्य को अपनी प्रान्तरिक स्वतन्त्रता कभी नहीं खोनी चाहिए। उसे सुख पर अधिकार करना चाहिए न कि सुख को उस पर । सुखभोग के बीच अपनी बौद्धिक दृढ़ता कभी नहीं खोनी चाहिए। एक ओर तो वह मनुष्य को चिन्तनशून्य जीव मानते हुए कहता हैं कि जीवन का ध्येय इन्द्रियसुख है और दूसरी भोर सुखी जीवन के लिए बुद्धि आवश्यक मानता है । संस्कृत सुखवाद : ऍपिक्यूरियनिज्म - सिरेनैक्स पन्थ को ऍपिक्यूरस ( Epicurus ) ' ने विकसित और गौरवान्वित बनाया । ऍपिक्यूरस का सिद्धान्त उसके नाम से प्रचलित हुआ। वह ऍपिक्यूरियनिज़्म ( Epicureanism) कहलाया । ऍपिक्यूरस ने अपने सिद्धान्त में स्थूल सुखवाद को डिमोक्रिटस के अणुवाद तथा आत्मानन्द की भावना से संयुक्त किया । उसका विश्वास था कि मानव कल्याण को वैज्ञानिक रूप से समझना ही दर्शन है । ऍपिक्यूरस ने अपने सिद्धान्त में संवेदनात्मक मनोविज्ञान को स्वीकार किया और कहा कि संवेदना ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत है । अतीत के अनुभव, स्पष्ट स्मृति और प्रत्यक्ष अनुभव ही सत्य के ज्ञान को देते हैं | सिरेनैक्स के सुखवाद को उसने सुकरात की विवेकबुद्धि और डिमोटिस के बौद्धिक सुख के ढाँचे में ढालने का प्रयास किया । वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सुख केवल भावनात्मक नहीं होता, बौद्धिक और सामाजिक भी होता है । ध्येय : सुख: यही शुभ प्राचरण का मापदण्ड – सामान्य निरीक्षण यह बताता है कि सब जीव जन्म के समय से ही सुख की खोज करते हैं और दुःख से बचने का प्रयत्न करते हैं । सुख मनुष्य का प्रथम और स्वाभाविक ध्येय है । १. जन्म ३४१ ई० पू० - मृत्यु २७० ई० पू० । For Personal & Private Use Only सुखवाद / १२५ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी प्राप्ति के लिए प्रत्येक प्राणी प्रयास करता है । अतः यह शुभ है । सुख आचरण का परम मापदण्ड है । यही नीतिशास्त्र का प्रथम सिद्धान्त है । 'दुःख से बचाव, सुख की खोज' अथवा 'सुख के प्रति भासक्ति, दुःख के प्रति विरक्ति' यह सार्वभौम मान्यता है । जीवन का परमध्येय सुख है । सु और दुःख कर्म की एकमात्र प्रेरणाएँ हैं । सार्वभौम अनुभव यह बताता है कि प्रत्येक प्राणी कर्मों के औचित्य और अनौचित्य को भावना के मापदण्ड से तौलता है अथवा सुख-दुख द्वारा कर्मों के औचित्य अनौचित्य को निर्धारित करता है। उन्हीं के श्राधार पर यह बताया जा सकता है कि मनुष्य के लिए क्या वांछनीय है । उसे किस मार्ग को अपनाना चाहिए, किसका त्याग करना चाहिए । उचित सुखों को पनाने के लिए विवेकबुद्धि प्रावश्यक — ऍपिक्यूरस का यह कहना था कि जीवन का ध्येय सुख है और सब सुख श्राभ्यन्तरिक रूप से शुभ हैं। साथ ही वह यह भी मानता था कि सुखों की श्रेष्ठता तथा अधिक ' वांछनीयता को व्यावसायिक बुद्धि द्वारा ग्रांकना आवश्यक है । उसने यह स्पष्ट रूप से समझाया कि नैतिक जीवन के लिए बुद्धि अस्तित्वहीन और अर्थशून्य नहीं है, उसका महत्त्व है । ऍपिक्यूरस ने अपने सिद्धान्त में सिरेनक्स की दो विरोधी धारणाओं - क्षणिक सुख और आत्म-संयम — में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया । उसने स्थूल सुखवाद के साथ विवेकबुद्धि को महत्त्व दिया । इस प्रकार संस्कृत सुखवाद में सिरेनैक्स और सुकरात के विवेक की धारणा को एकता के सूत्र में बाँधा गया है। शुभ जीवन बुद्धिहीन नहीं है । जीवन का ध्येय क्षणिक सुख नहीं, सुखी जीवन है । यहाँ पर उसने प्लेटो और अरस्तू के इस कथन को कि बुद्धि जीवन की मार्गदर्शी है, सुखवादी रूप दिया है । जीवन का ध्येय सुख है । बुद्धि उस ध्येय को प्राप्त करने के लिए साधन देती है । अतः सिरेनैक्स के क्षणिक सुख के विरुद्ध वह कहता है कि यदि भविष्य में अधिक अथवा स्थायी सुख की सम्भावना हो तो उसके लिए तत्कालीन सुख का त्याग उचित है । सुख : दो प्रकार - ऐन्द्रियक, बौद्धिक - व्यावसायिक बुद्धि के इस प्रदेश को सम्मुख रखकर ऍपिक्यूरस ने सुख का दो भागों में विभाजन किया । इन्द्रिय - या सक्रिय सुख और बौद्धिक या निष्क्रिय सुख । इन्द्रिय सुख प्रत्यक्ष, सजीव, तीव्र और क्षणिक होता है, बौद्धिक सुख शान्त, गम्भीर और चिरस्थायी होता है । बुद्धि बताती है कि मनुष्य को सुखी जीवन बिताना चाहिए । इस अर्थ में क्षणिक और आवेगपूर्ण सुख जीवन का ध्येय नहीं है । अतः सुख का मूल्यांकन केवल तीव्रता १२६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अनुसार नहीं करना चाहिए, किन्तु उसकी दीर्घता और स्थिरता को महत्त्वः देना चाहिए तथा उसके परिणामस्वरूप सहवर्ती पीड़ा से मुक्ति प्राप्ति पर भी ध्यान रखना चाहिए । बुद्धि और स्मृति यह बताती है कि विवेकपूर्वक सुख की खोज करने पर ही सुखी जीवन सम्भव है। सुखी जीवन के दो आवश्यक. प्रालम्बन हैं । दैहिक दुःख का प्रभाव तथा मानसिक अशान्ति का अभाव | इस मापदण्ड से ऐन्द्रियक सुख और बौद्धिक सुख का मूल्यांकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्धिक सुख अधिक श्रेष्ठ है । atfare सुख की श्रेष्ठता : सिरेनंक्स से मतभेद - मानसिक सुख केवल प्रस्तुत संवेदनों तक ही सीमित नहीं है, वह सुखप्रद स्मृति और सुखमय प्रशा का भी सूचक है । इस प्राधार पर ऍपिक्यूरस ने सस्ती इन्द्रिय-परायणता की. कटु आलोचना की । एक ओर तो उसने यह स्वीकार किया कि यथार्थ शुभ. दैहिक सुख है और दूसरी प्रोर उसने बौद्धिक विश्लेषण द्वारा मानसिक सुख को अधिक महत्त्वपूर्ण कहा । शारीरिक दुःख की तुलना में मानसिक दुःख अधिक तीव्र, दीर्घकालीन प्रौर प्रसह्य होता है । इसलिए मानसिक सुख को मानव-जीवन के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण मानना चाहिए । बौद्धिक सुख शान्त सुख - ऍपिक्यूरस के अनुसार जीवन का ध्येय सुख है । उसकी प्राप्ति बुद्धि द्वारा सम्भव है । भावना अपने आपमें अन्धी है । ध्येय के स्वरूप को निर्धारित कर लेने पर भी वह अपनी तृप्ति के साधन को बुद्धि की सहायता से खोजती है । ऍपिक्यूरस का कहना था कि जीवन उद्वेगों और आवेगों का वासनापूर्ण तूफान नहीं है । वह एक संगतिपूर्ण इकाई है । मनुष्य और पशु, दोनों की इच्छाओं का विषय सुख है। दोनों के जीवन का आदि और अन्त सुख है । किन्तु मनुष्य की महत्ता के कारण दोनों के सुख को समान माननाः उचित नहीं है । दोनों के लिए सुख के अर्थ भिन्न हैं, उसकी प्राप्ति के साधन में अन्तर है | मनुष्य पशु की भाँति क्षणिक सुख की खोज नहीं करता है। वह इन्द्रियसुख से अधिक मानसिक सुख को मूल्य देता है । असम्बद्ध, अव्यवस्थित आवेगपूर्ण जीवन उसे दुःखपूर्ण लगता है । उसके जीवन का ध्येय शान्त सुख है । यह उसी को प्राप्त होता है जो वासनाओं, दुःख और भय से अपने को मुक्त कर लेता है । वासनाओं के स्वच्छन्द उपभोग से बौद्धिक प्राणी में ऊब और अतृप्ति उत्पन्न होती है । उसके शारीरिक स्वास्थ्य का ह्रास हो जाता है । उसका विवेक: उसे बताता है कि इच्छाओं के संयमन, उनके उचित चुनाव से प्रात्मिक शान्ति मिलती है और मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता बन जाता है । अतः विवेक और सुखवाद / १२७ For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-संयम से शान्त सुख की प्राप्ति होती है । अणुवाद : भय से मुक्ति - शान्त, अविचल मानसिक स्थिति प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य भय से अपने को मुक्त करे । वह अन्धविश्वासों - मृत्यु, नरक, ईश्वर आदि के हाथ का खिलोना बनकर सुखी नहीं रह सकता । वह मृत्यु और देवताओं के भय से सदैव त्रस्त रहेगा । मनुष्य को इस भय से मुक्त करने के लिए उसने डिमोक्रिटस के जड़वादी विश्व निर्माण के सिद्धान्त को स्वीकार किया । उसका कहना था कि भगवान् सृष्टिकर्त्ता नहीं है । विश्वनिर्माण की दृष्टि से भगवान् महत्त्वहीन हैं। जहाँ तक मृत्यु का प्रश्न हैं, उससे भी भयभीत होने का कोई कारण नहीं । मृत्यु का विचारं दुःखप्रद है, न कि मृत्यु । वास्तव में मृत्यु कुछ नहीं है । जब तक हम हैं, मृत्यु नहीं है; जब मृत्यु प्राती है, हम नहीं रहते । अतः मनुष्य काल्पनिक भयों से ऊपर उठकर शान्त, अविचल स्थिति को प्राप्त कर सकता है । सद्गुण : अनिवार्य साधन - सुखी जीवन के लिए सद्गुण अनिवार्य साधन है । वे बुद्धि द्वारा प्राप्त होते हैं । उनकी सहायता से अत्यधिक सुख की उपलब्धि सम्भव है । उदाहरणार्थ, सुखप्रद जीवन के लिए न्याय उचित है, अन्याय नहीं | अन्याय को अपनाने पर एवं अनुचित कर्म करने पर, मानसिक शान्ति खो जाती है । अनुचित कर्म के पता लगने का निरन्तर भय लगा रहता है । अतः संयम, न्याय, सद्भाव, सौहार्द आदि गुणों को अपनाना चाहिए । व्यावसायिक बुद्धि ( Prudence ) सर्वश्रेष्ठ सद्गुण है । उसके आधार पर उचित सुख का संग्रह किया जा सकता है । साथ ही उसने प्रचलित मान्यताओं और सद्गुणों को अपनाया । यह ध्यान देने योग्य है कि सद्गुण सुखी जीवन के लिए साधनमात्र हैं, साध्य नहीं हैं । संस्कृत सुखवाद में कठिनाइयाँ - ऍपिक्यूरस के अनुसार सुख एकमात्र शुभ है और दुःख एकमात्र अशुभ है । व्यावसायिक बुद्धि बताती है कि उस सुख का त्याग करना चाहिए जिसका परिणाम दुःखप्रद है अथवा उसी दुःख को स्वीकार करना चाहिए जो अधिक सुख के लिए उपयोगी है। सद्गुण, नियम, रीति-रिवाज उपयोगी साधन हैं । व्यवसायात्मिक चिन्तन तथा शुभ प्राचरण तब तक अर्थशून्य और निरर्थक है जब तक कि वह कर्त्ता को सुख नहीं पहुँचाता । सुख के अर्थ मूलतः ऐन्द्रियक हैं । विलासिता से मुक्त नहीं - सुख को ऐन्द्रियक मानते हुए भी वह बौद्धिक की खोज करने को कहता है । बौद्धिक सुख अपने-आपमें शुभ नहीं है । वह सुख १२८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखी जीवन के लिए आवश्यक है। ऍपिक्यूरस स्पष्ट रूप से बौद्धिक सुख की . गुणात्मक श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करता है । सद्गुण इसलिए प्रावश्यक नहीं हैं कि उनसे मानसिक प्रवृत्तियों का परिष्कार होता है किन्तु इसलिए कि वे निरन्तर सुख का कारण हैं। मनोवैज्ञानिक सुखवाद की मालोचना जड़वादी तत्त्वदर्शन : स्थूल सुखवाद-मनोवैज्ञानिक सुखवाद की मूलगत प्रमुख त्रुटि तात्त्विक है । स्थूल सुखवाद को अपनाने के कारण ही उसका सिद्धान्त असामाजिक, अव्यावहारिक, अवास्तविक, अमनोवैज्ञानिक तथा अनैतिक हो गया है। अपने जड़वादी तत्त्वदर्शन के कारण उसने यह माना कि आत्मा का मूल रूप इन्द्रिय है । वह सहज-प्रवृत्तियों, संवेदनाओं, भावनाओं आदि का क्रम मात्र है। मानव-स्वभाव के ऐसे एकांगी ज्ञान पर ही उसने अपने सिद्धान्त को आधारित किया। मनुष्य के जीवन का परमध्येय इन्द्रिय-सुख है। उसे चाहिए कि पाँख मूंदकर सुखभोग करे। व्यक्ति का वर्तमान ही निश्चित है। भविष्य अनिश्चित और अज्ञेय है । न जीवन ही शाश्वत है । मनुष्य काल के अधीन है। ऐसी परिस्थिति में उसे केवल इन्द्रियमय बुद्धिहीन सरल जीवन बिताना चाहिए। केवल-इन्द्रिय सुख : बुद्धि, इच्छा एक-दूसरे के पूरक हैं-सब प्राणी स्वभाववश सुख चाहते हैं। मनुष्य के जीवन का ध्येय भी सूख है। उसे अधिकतम परिमाण में सुख भोगना चाहिए। तात्कालिक, तीव्र और दीर्घकालीन सुख वांछनीय है । मनुष्य के बौद्धिक भी होने के कारण उसमें तथा निम्न प्राणियों में यही अन्तर है कि वह उनकी अपेक्षा अधिक सुख का भोग कर सकता है। दोनों के ध्येय समान हैं, साधन में अन्तर है। मनुष्य की बुद्धि ध्येय की प्राप्ति के लिए उचित साधन खोज सकती है। किसी कर्म का बौद्धिक महत्त्व इस पर निर्भर है कि सुख की प्राप्ति के लिए कहां तक उचित साधनों का उपयोग किया गया है । सुखवादियों ने निर्णीत कर्म के स्वरूप को नहीं समझा । उन्होंने बुद्धि और इच्छा के सम्बन्ध के बारे में भ्रान्तिपूर्ण धारणा बना ली थी। इच्छा के उत्पन्न होते ही बुद्धि उसके सन्तोष के लिए ही नहीं सक्रिय हो उठती है, उचित चिन्तन और विवेचन के पश्चात् ही बुद्धि इच्छा की पूर्ति के सम्बन्ध में अपना निर्णय देती है । 'इच्छा का विषय' या 'इच्छित ध्येय' उसी व्यक्ति के लिए अर्थ रखता है जो सोच-समझ सकता है; अनुभव और चिन्तन कर सकता है । इच्छा में स्वयं भी उस ध्येय का विचार निहित है जो मनुष्य की सम्पूर्ण सुखवाद | १२६ For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मा (बुद्धि मय और भावनामय) की अभिव्यक्ति है । भावना, इच्छा, विवेचन, निर्णय बुद्धि प्रादि एक ही कर्म के अविच्छिन्न अंग हैं । ये कर्ता के चरित्र और व्यक्तित्व के सूचक हैं। असामाजिक, अव्यावहारिक तथा अनैतिक-मनोवैज्ञानिक सुखवाद अन्तर्चेतनाशून्य तथा नैतिक संज्ञाहीन व्यक्तियों के आदर्श को सम्मुख रखता है। यह स्थूल इन्द्रियजन्य सुख को महत्त्व देता है। इसके अनुसार मनुष्य पूर्ण "रूप से स्वार्थी है। वह निरन्तर वैयक्तिक सुख की खोज करता है। इस प्रकार 'सखवादियों का दृष्टिकोण वैयक्तिक, असामाजिक और अनैतिक है। जिस परम स्वार्थवाद का उन्होंने प्रतिपादन किया वह अव्यावहारिक और अवास्तविक है । समाज में वही व्यक्ति रह सकता है जो सामाजिक कर्तव्यों तथा कर्मों को करता है। वही व्यक्ति समाज में रहकर अपने अधिकारों की मांग कर सकता है जो दूसरे के अधिकारों को समझता है। सुखवाद के अनुसार सामाजिक सुख अथवा सर्वकल्याण का कोई महत्त्व नहीं, वह हेय है । स्नेह, दया, ममता से दूर रहकर व्यक्ति अपने तत्कालीन सुख की चिन्तां करता है। यदि सुखवादी धारणा को सजीव और वास्तविक मान लें तो ऐसे इन्द्रियरत परम स्वार्थी प्राणी के लिए समाज में कोई स्थान नहीं है। पशु-पक्षी तक अपने बच्चों तथा निकटवासियों के लिए त्याग करते हैं। अपत्य स्नेह के आगे वे तत्कालीन तीव्र सुख को भूल जाते हैं। मनुष्य में उच्च प्रवृत्तियाँ हैं। उसमें प्रात्म-त्याग की आश्चर्यपूर्ण शक्तियाँ और सम्भावनाएं हैं। वह अपने सत्य रूप में परमार्थी है। उसकी बद्धि उसे विश्वस्नेह से संयुक्त करती है। मनुष्य की इन प्रवृत्तियों का निराकरण करना मनुष्यत्व का निराकरण करना है। सुखवाद सब व्यक्तियों को समान रूप से स्वार्थी मानता है । साधु-प्रसाधु, पापी-पुण्यात्मा, चोर-देशप्रेमी, सब एक ही श्रेणी के हैं। किन्तु वह भूल जाता है कि मित्रता प्रत्येक के चरित्र के अनुरूप होती है और यह प्रत्येक व्यक्ति के बौद्धिक, मानसिक तथा नैतिक विकास की सूचक है । सच तो यह है कि स्वार्थ सुखवाद का सिद्धान्त "नैतिक चेतना के सम्मुख एक घृणित रूप प्रस्तुत करता है", और वह अनैतिक भी है । यदि सब व्यक्ति स्वभाववश इन्द्रिय-सुख की खोज करते हैं तो 'नैतिक चाहिए' अर्थहीन है। प्राकृतिक एवं स्वाभाविक शक्तियों के प्रवाह में बहनेवाला व्यक्ति उचितअनुचित को नहीं समझ सकता । अथवा जैसा कि ग्रीन ने कहा है "एक व्यक्ति, 1. Mackenzie-A Manual of Ethics, p. 171. १३० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कि केवल प्राकृतिक शक्तियों का परिणाम है, उसे नैतिक नियमों का पालन करने का आदेश देना निरर्थक है।" ____ सुखवाद में विरोध–यदि यह मान भी लिया जाये कि सुख ही एकमात्र मनुष्य का नैतिक लक्ष्य है तो इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? सुखवाद के अनुसार निरन्तर सुख की खोज करनी चाहिए। किन्तु सुख की प्राप्ति का येह साधन आत्मघाती है। सुखवादियों की इस उक्ति में कि सदैव क्षणिक और तत्कालीन सुख की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए, स्वयं आत्मविरोध मिलता है। बाद के सुखवादियों ने माना कि सुख पाने की उत्तम रीति यही है कि उसे भूले रहें। चिन्तन और गूढ़ अध्ययन द्वारा अत्यन्त तीव्र और शुद्ध सुख प्राप्त होता है । इसका कारण यही है कि अध्ययन में तल्लीन होने के कारण अध्येता या विद्वान अपने को तथा अपनी संवेदनाओं को भूला रहता है। सुखवाद में मूलगत विरोधाभास यही है कि "यदि सुख के प्रति आवेग अत्यन्त प्रबल है तो यह अपने ध्येय में हार जाता है।" अथवा सुख की खोज करने से सुख प्राप्त नहीं होता है। इसी सत्य को मिल यह कहकर समझाता है कि वही व्यक्ति सुखी है जिसका मन सुख के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु पर केन्द्रित है। "अपने से पूछिये कि क्या आप सुखी हैं, और आप सुखी नहीं रहते ?" यदि सुख चाहते हैं तो यह भावना न लाइये कि सुख चाहिए। एकमात्र सुख की खोज करना सुख के विनाश की ओर अग्रसर होना है। जब ऍरिस्टिपस कहता है कि केवल तत्कालीन क्षणिक सुख की खोज करनी चाहिए तो क्या इससे यह ध्वनि नहीं निकलती है कि दूसरे क्षण दुःख सहना पड़े तो कोई हानि नहीं ? प्रभाव : वस्तुगत मापदण्ड, गुणात्मक भेद, प्रेरणा, कर्तव्य-सुखवाद नैतिकता का एकरूप मापदण्ड नहीं दे सकता। वह उस वस्तुगत मापदण्ड को निर्धारित नहीं कर सकता जिसे कि सार्वभौम रूप से स्वीकार किया जा सके। सुखवाद के माधार पर सुख का मूल्य उसकी तीव्रता पर निर्भर है। किन्तु तीव्रता को कैसे प्रांका जा सकता है। सुख सापेक्ष और वैयक्तिक है। वह परिस्थिति, चरित्र और मानसिक स्थिति पर निर्भर है। प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव के अनुरूप ही वस्तु सुखप्रद अथवा दुःखप्रद होती है । बौद्धिक व्यक्तित्व के लिए बौद्धिक सुख तीव्र है, दयालु के लिए दान और परोपकार से प्राप्त सुख और विषयी के लिए शारीरिक सुख अत्यन्त तीव्र है । इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की सुख-दुःख की भावना आत्मगत एवं दूसरे से भिन्न है। ऐसी स्थिति में नैतिकता की क्या पहचान है ? सुख का मूल्यांकन कैसे किया जा सकता है ? : सुखवाद | १३१ For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीव्रता के आधार पर कौन सुख श्रेष्ठ है ? वस्तुगत मापदण्ड कैसे सम्भव है ? मनोवैज्ञानिक सुखवाद के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। सुखवाद के अनुसार सब सुख समान हैं। किन्तु जैसा कि अभी देख चुके हैं, सुख का स्वरूप उस वस्तु पर निर्भर है जो कि उसके उत्पादन का कारण है और वह भोक्ता (अनुभवी) के व्यक्तित्व पर भी निर्भर है। सुख में केवल मात्राओं (अधिक या कम तीव्र) का भेद नहीं है किन्तु गुणात्मक भेद भी है। इस तथ्य को मिल स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है। .. मनोवैज्ञानिक भ्रान्ति : चयन के क्रियात्मक और हेत्वात्मक पक्ष-सुखवाद के इस सिद्धान्त का (कि सुख ही एकमात्र इच्छा का विषय है) मूल आधार मनोवैज्ञानिक भ्रान्ति है। वह सुख की भावना को कर्म का प्रवर्तक मानता है । भावना कर्म का अनिवार्य अंग अवश्य है किन्तु उसकी प्रवर्तक नहीं है। मनुष्य सब कर्म सुख की इच्छा से प्रेरित होकर नहीं करता, किन्तु इच्छित वस्तु की प्राप्ति उसे सुख देती है। अपने व्यक्तित्व के अनुरूप वस्तु की वह इच्छा करता है । समाज-सुधारक, देश-प्रेमी, परोपकारी, विषयी, इन सभी की इच्छा का विषय उनके चरित्र और व्यक्तित्व के अनुरूप होता है। सबके ध्येय भिन्न हैं। सुख ही एकमात्र कर्म का प्रवर्तक नहीं है और यहीं पर सुखवादी भूल करते हैं। वे सबके ध्येय को समान मान लेते हैं। सुख की इच्छा करना और इच्छित वस्तु की प्राप्ति से सुख प्राप्त होना, ये दो भिन्न बातें हैं। जिस ध्येय को मनुष्य चुनता है वह सुखप्रद अवश्य है, किन्तु वह स्वयं सुख नहीं है। सुखवादियों की इस भूल का कारण यह है कि वे चुनने (चयन) के क्रियात्मक (Dynamical) और हेत्वात्मक पक्षों में कोई भेद नहीं देखते हैं। सुख का विचार (Idea of Pleasure) और सुखद विचार (Pleasant Idea) को एक ही मान लेते हैं। यदि यह प्रश्न किया जाये कि मनुष्य किस वस्तु को चुनता अथवा उसकी चयन-रुचि को प्रेरित कौन करता है तो उसके उत्तर में यही कहा जा सकेगा कि मनुष्य उसी विचार की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है जो उसे आकर्षक लगता है अथवा जो सूखद है। इस अर्थ में सुख चुनने की क्रियात्मक शक्ति है । यह संचालक शक्ति और कार्य में प्रविष्ट कराने का सक्रिय कारण है। सुख की इच्छा करना और ध्येय को सुखद पाना, दो भिन्न क्रियाएँ हैं । सुख शुभ या ध्येय का अनिवार्य निर्माणात्मक अंग अवश्य है किन्तु वह उसका मूलगत रूप एवं एकमात्र निर्माता नहीं है। सुख अपने-आपमें बुद्धिजीवी को पूर्ण सन्तोष नहीं दे सकता। वह उन वस्तुओं से युक्त है जिनकी कि व्यक्ति १३२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा करता है । व्यक्ति वस्तुओं को स्वयं चुनता है, इसलिए वे सुखद हैं । सुख । 'चुनाव' के आत्मगत पक्ष का सूचक है। किन्तु चुनाव का कुछ वस्तुगत मूल्य भी होता है। वह मूल्य वस्तु के स्वरूप पर निर्भर है, चुनाव का विषय क्या है और कौन-सी वस्तु चुनी जाती है इसे सुखवाद नहीं बता पाया । वह यह नहीं समझा पाया कि सुख का चुनाव में उचित स्थान तो है पर एकमात्र सुख ही चुनाव का लक्ष्य नहीं है। पशु धर्म-सुखवाद यह मानता है कि जीवन का परम ध्येय इन्द्रियजन्य है, बौद्धिक नहीं। सुखवादी व्यक्ति अनैतिक है। उसके आचरण का मूल्य ध्वंसात्मक है। वह सामाजिक कर्तव्य करने के बदले अपने अधिकारों की मांग करता है किन्तु वह यह बतलाने में असमर्थ है कि मनुष्यत्व की मांग क्या है ? मनुष्य के लिए सुखप्रद क्या है ? सुख को शुभ कहकर सुखवादियों ने सोचा कि उन्होंने नैतिक समस्या का समाधान कर दिया किन्तु इसके विपरीत उन्होंने नैतिकताको समूल नष्ट कर दिया, मनुष्य को पशु बना दिया। -सुखवाद का मूल्य-सुखवाद पशु प्रादर्श को ही सब-कुछ मानता है। वह मानव-गौरव की चेतना में जुगुप्सा उत्पन्न कर. मनुष्यत्व को आघात पहुंचाता है। किन्तु फिर भी यह मानना पड़ेगा कि प्रत्येक सिद्धान्त तथा चिन्तन-पद्धति में प्रांशिक सत्य अवश्य रहता है जो चिन्तन के लिए सामग्री देता है। मनुष्य में भावनाएँ और इच्छाएँ हैं। चिन्तनशील नैतिक जीवन में उनकी सन्तुष्टि आवश्यक है । उनका निराकरण नहीं किया जा सकता। सुखवाद के विरोधी सिद्धान्त वैराग्यवाद की तुलना में हम सुखवाद के मूल्य को प्रांक सकते हैं। वैराग्यवाद ने जीवन के अत्यन्त कठोर, अनाकर्षक तथा प्रभावात्मक पक्षों को.. स्वीकार किया है। सुखवाद यह बताता है कि भावनाओं तथा सहज प्रवृत्तियों के निराकरण से प्रात्म-सन्तोष नहीं मिल सकता। भावनाएं और इच्छाएं: मानव-स्वभाव का अनिवार्य अंग हैं। प्रात्म-निषेध द्वारा प्रात्म-पूर्णता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। अगले अध्याय में हम बतलायेंगे कि वैराग्यवाद ने केवल बुद्धि को महत्त्व देकर नैतिकता के रूप को समझा। सुखवादियों ने भावनात्रों द्वारा उसके पदार्थ को समझाया । वास्तव में दोनों सिद्धान्त एकदूसरे के प्रभाव को दूर करते हैं । इनका समुचित समन्वय ही पूर्ण सिद्धान्त को जन्म देता है। सुखवाद | १३३ For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ सुखवाद (परिशेष) अर्वाचीन सुखवाद प्राचीन सुखवाद से भिन्नता–प्राचीन और अर्वाचीन सुखवाद दोनों ही मूलतः यह मानते हैं कि जीवन का परम ध्येय सुख है। किन्तु फिर भी दोनों में अन्तर है। यह अन्तर मानव-संस्कृति और सभ्यता के विकास का अन्तर है। आधुनिक सुखवादियों ने अपने सिद्धान्त को दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आधार देने का प्रयास किया। प्राचीन सुखवाद मनोवैज्ञानिक है। मनुष्य स्वभाववश सुख की खोज करता है। आधुनिक सुखवाद इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को स्वीकार करने के साथ ही इसे नैतिक मान्यता भी देता है कि मनुष्य को सुख की खोज करनी चाहिए। प्राधुनिक सुखवादियों ने यह भी स्वीकार किया कि व्यक्ति को जनसामान्य के सुख की खोज करनी चाहिए। अतः उन्होंने यह जानना चाहा कि व्यक्ति किस प्रेरणा के वशीभूत होकर वैयक्तिक सुख के साथ ही जनसामान्य के सुख के लिए प्रयास करता है। हॉब्स, बैंथम, मिल, स्पैंसर, सिजविक आदि ने इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया। उसमें वे कहाँ तक सफल हुए यह उन विचारकों के सिद्धान्तों का अध्ययन करने से स्पष्ट होगा। प्राचीन सुखवाद निराशावादी था। आधुनिक सुखवाद प्राशावादी है। स्पेंसर का तो यहाँ तक विश्वास था कि सुख सद्गुण का अनिवार्य परिणाम है। विकास की अन्तिम स्थिति पूर्ण सुख की स्थिति होगी। ___ कुछ प्राधुनिक सुखवादियों ने अपने सिद्धान्त को वैज्ञानिक और तार्किक . आधार देना चाहा। उन्होंने नीतिशास्त्र को जीवशास्त्र और विकासवाद से संयुक्त किया और नैतिक मान्यताओं की ऐतिहासिक और प्राकृतिक व्याख्या १३४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की। उन्होंने सामाजिक नैतिकता के मूलस्रोत को समझना चाहा और यह जानना चाहा कि नैतिक मान्यताओं का उद्गम क्या है। क्या नैतिक मान्यताएं: अनिवार्य और सार्वभौम हैं ? विकासवाद को माननेवाले सुखवादियों ने नैतिक जीवन की गतिशीलता को महत्त्व दिया। नैतिक मान्यताएँ सापेक्ष हैं। वे विकास और परिवर्तन को प्राप्त हो रही हैं। प्राचीन सुखवादियों का सिद्धान्त वैयक्तिक है। व्यक्ति का हित उनके सम्मुख है। इस स्वार्थ सुखवाद के विरुद्ध अधिकांश आधुनिक विचारकों ने परमार्थ या सार्वभौम सुखवाद को महत्त्व दिया। मानवता का कल्याण (सर्वकल्याण) जीवन का ध्येय है। 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख', इस सिद्धान्त द्वारा हम कर्मों के पौचित्य-अनौचित्य को माप सकते हैं। प्राचीन सुखवाद उस व्यक्ति को विवेकी कहता है जो अपने स्वार्थ को समझते हुए कर्म करता है। मित्रता, प्रात्म-संयम प्रादि शुभ हैं क्योंकि वे व्यक्तिगत सुख का उत्पादन करते हैं। किन्तु प्राधुनिक सुखवादियों ने स्वार्थ-परमार्थ के भेद को मिटाना चाहा। मिल, बैंथम ने उपयोगिता के नाम पर 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' को महत्त्व दिया और विकासवादियों ने व्यक्ति और समाज के अनन्य सम्बन्ध द्वारा स्वार्थ और परमार्थ में एकत्व स्थापित किया। ऍरिस्टिपस, ऍपिक्यूरस, हॉब्स, बैंथम ने सुख के परिमाण के आधार पर आचरण का मूल्यांकन किया, मिल ने परिमाण के साथ ही गुणात्मक भेद को स्वीकार किया। जीवन का ध्येय सुख अवश्य है, किन्तु बुद्धिजीवी श्रेष्ठ सुख चाहता है । ऍपिक्यूरस भी मानसिक और दैहिक सुखों के भेद को स्वीकार करता है किन्तु वह गुणात्मक भेद को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं करता। नैतिक प्रादेश . सुख और कर्तव्य में विरोध-प्राधुनिक सुखवादियों के अनुसार इच्छा का अनिवार्य और स्वाभाविक विषय सुख है। किन्तु साथ ही वे यह भी मानते हैं कि मनुष्य को सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए एवं सार्वजनिक सुख की परवाह करनी चाहिए।' एक ओर तो वे यह मानते हैं कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रात्मसुख की ओर है और दूसरी ओर वे कहते हैं कि नैतिक आदर्श का मापदण्ड 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' है । यदि व्यक्ति १. देखिए, पृष्ठ १६०-६१ । . .. सुखवाद (परिमेष) | १३५६ For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदैव अपने ही सुख की प्रेरणा से प्रेरित होकर कर्म करता है तो यह कैसे कहा जा सकता है कि कर्मों के औचित्य और अनौचित्य का मापदण्ड सार्वजनिक सुख है । यदि यह सत्य है कि मनुष्य क्षणिक अथवा. वैयक्तिक सुख की ही इच्छा करता है तो यह कहना विरोधपूर्ण है कि उसे सामाजिक सुख के लिए यत्न करना चाहिए अथवा सुख की खोज के साथ ही उसे अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। सुखवादियों ने यह माना कि कर्मों की एकमात्र प्रेरणा सख की भावना है, सुख ही जीवन का ध्येय है। वे यह भी कहते हैं कि प्रात्मसुख-रत व्यक्ति सामाजिक प्राणी भी है । उसके लिए सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना आवश्यक है। उसके कर्मों और सामाजिक नियमों में समानुरूपता होनी चाहिए। किन्तु सुख और कर्तव्य, ये दो विरोधी विचार हैं। इनमें सामंजस्य कैसे सम्भव हो सकता है ? कैसे कह सकते हैं कि स्वार्थी व्यक्ति को परमार्थी कर्म करने चाहिए । सुख के बदले उस कर्तव्य का पालन करना चाहिए जो सामान्य सुख की वृद्धि करता है। - समन्वय की अोर प्रयास : नैतिक प्रदेश के अर्थ-सुखवादियों के अनुसार समाज में कुछ ऐसे प्रचलित और निर्धारित नियम हैं जिनका उल्लंघन करने से व्यक्ति को दुःख सहना पड़ता है । वह समझ जाता है कि इनका पालन करने में ही उसकी भलाई निहित है जिसके परिणामस्वरूप उसे सुख मिलेगा। इन नियमों के कारण ही वह प्रत्यक्ष रूप से अपने सुख की खोज नहीं करता प्रत्युत कर्तव्यों का पालन करता है। इस तथ्य को सुखवादी यह कहकर समझाते हैं कि कुछ ऐसे नैतिक नियम एवं 'नैतिक प्रादेश' हैं जिनके कारण व्यक्ति सुख के बदले कर्तव्य को चुनता है। अपने प्राथमिक रूप में प्रादेश (Sanction) के अर्थ होते हैं निश्चित करना या स्थिर करना। संक्शन लैटिन शब्द संक्टियो (Sanctio) से उद्भूत हुआ । इसके अर्थ होते हैं 'बाँधने की क्रिया' अथवा वह वस्तु जो व्यक्ति को बाँधने में सहायक हो। आदेश वह है जो राष्ट्र के नियमों को निश्चित और प्रमाणित करता है, जो व्यक्ति को नियमों के पालन करने के लिए आज्ञा देता तथा बाधित करता है । प्रादेशों की अवज्ञा करने से व्यक्ति को दण्डित होना पड़ता है, सुख से कहीं अधिक दुःख भोगना पड़ता है । इसलिए वह उनके उल्लंघन के दुःखप्रद परिणामों से बचने के लिए उनका पालन करता है। उन नियमों का परिणाम सुखप्रद होने के साथ ही सामान्य सुख की वृद्धि करता है । अतः आदेश वह हैं जो एक विशिष्ट रूप से कर्म करने के लिए व्यक्ति को बाधित करते हैं । शुभ आचरण का कारण नैतिक पादेश हैं। वही व्यक्ति के व / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक आचरण को प्रोत्साहित कर व्यक्ति को कर्तव्य पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं। अर्वाचीन सुखवाद : नैतिक सुखवाद अर्वाचीन सुखवाद नैतिक है-अर्वाचीन सुखवाद नैतिक है। वह मनोवैज्ञानिक सुखवाद की भाँति तथ्यात्मक नहीं है। वह कर्मों का मूल्यांकन कर उस आदर्श को सम्मुख रखता है जिसके आधार पर सदसत् का विचार किया जा सके । नैतिक सुखवादियों ने प्राचीन सुखवाद के मौलिक तत्त्व को स्वीकार 'किया। मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ सुख की खोज करती हैं । किन्तु उसकी बाह्य प्राकृति का उन्होंने रूपान्तर कर दिया। मानव-स्वभाव को उन्होंने मानव-प्रादर्श का लिबास पहनाया । मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियां जिस सुख की खोज करती हैं वही सख नैतिक मान्यतात्रों को निर्धारित करता है। मनुष्य को सुख की खोज करनी चाहिए, यही इच्छा का एकमात्र उचित और विवेकसम्मत विषय है। सख नैतिकता का मापदण्ड हैं। उसके द्वारा कर्मों के औचित्य अनौचित्य को निर्धारित किया जा सकता है। नैतिक दृष्टि से वही शुभ है जो सुखप्रद है । अतः मनुष्य को सुख की खोज करनी चाहिए। इस प्रकार आधुनिक सुखवादियों ने मनोवैज्ञानिक सुखवाद को ही नैतिक सुखवाद का रूप दिया है।' - दो प्रकार : स्वार्थ, परार्थ-नैतिक सुखवाद (Ethical Hedonism) अपने प्रारम्भिक रूप में वैयक्तिक और स्वार्थी (Individualistic and Egoistic) था । धीरे-धीरे उसने सामाजिक कल्याण को अपनाया । वह परार्थ सुखवाद (Altruistic Hedonism) या सार्वभौमिक सुखवाद (Universar listic Hedonism) कहलाया और उपयोगितावाद (Utilitarianism) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्वार्य सुखवाद : हॉब्स - जड़वाद, इन्द्रिय सुखवादी मनोविज्ञान और नैतिक स्वार्थवाद का समन्वय , माधुनिक सुखवादियों ने, विशेषकर हॉन्स, वैथम, मिल ने मनोवैज्ञानिक सुखवार को नैतिक सुखवाद का प्राधार माना। किन्तु दोनों में प्रसंमति है। यदि व्यक्ति स्वभाक्यक सुख की खोज करता है तो उससे यह कहना पर्थशून्य है कि उसे सुख की खोज करनी ' चाहिए । दोनों के बीच कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। .. ..... सुखवाद (परिमेष) | १३७ For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हॉब्स' जड़वादी विचारक था। उसने यूनानी विचारकों से, विशेषकर अरस्तु से प्रभावित होकर यह स्वीकार किया कि मनोविज्ञान नीतिशास्त्र का पूर्वविषयः है । मनोविज्ञान यह बतला सकता है कि मनुष्य किस प्रेरणा के वशीभूत होकर कर्म करता है। जड़वादी होने के कारण हॉब्स ने अपने मनोविज्ञान को इन्द्रिय एवं शारीरिक सुख तक सीमित कर दिया। नीतिशास्त्र के क्षेत्र में ऐसे मनोविज्ञान की परिणति परम स्वार्थवाद में हुई । मनुष्य का स्वभाव : स्वार्थी, प्रात्म-संरक्षण और सुख का इच्छुक - हॉब्स: जड़वादी और अनात्मवादी था । उसने मनुष्य के विचारों, कल्पनाओं, भावनाओं श्रादि को शारीरिक व्यापारों का सूचक माना । सुख से उसका अभिप्राय उन व्यापारों से है जो जीवन अथवा प्राणिक क्रियाओं की वृद्धि करते हैं । दुःखः के व्यापार उसके अनुसार इन क्रियानों के अवरोधक हैं। शारीरिक सुख ही एकमात्र शुभ है । उसने अपने दर्शन द्वारा यह समझाने का प्रयास किया कि मनुष्य अपने शरीर की रक्षा करता है । अतः उसे सुख की खोज करनी चाहिए उसने मनुष्य के स्वभाव का विश्लेषण भी किया । वह इस परिणाम पर पहुँचा कि मनुष्य की इच्छाएँ, भावनाएँ, प्रवृत्तियां आदि श्रात्मरक्षण सम्बन्धी हैं । उसका सम्बन्ध आत्मसुख से है। मनुष्य स्वभाव से असामाजिक और स्वार्थी है । जिन्हें उच्चभाव और परमार्थी प्रवृत्तियाँ कहा जाता है, जैसे दया, त्याग, सहानुभूति, स्नेह प्रादि- वे अपने मूलरूप में स्वार्थ की उपज हैं । उनके मूल में श्रात्म-प्रेम है । वैयक्तिक- सामाजिक सुख का प्रश्न - हॉब्स के अनुसार मनुष्य की प्रवृत्तियाँ श्रात्म-संरक्षण सम्बन्धी हैं । उसमें दूसरे का सुख खोजने की कोई प्रेरणा नहीं है । किन्तु फिर भी वह कहता है कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता इसी में है कि वह दूसरों के सुख की भी खोज करे । व्यक्तिगत सुख सामाजिक सुख के साथ सामंजस्यः . स्थापित करने पर ही सम्भव है । एक ओर तो वह स्पष्ट रूप से वैयक्तिक श्रात्म-कल्याण और वस्तुमूलक सामाजिक कल्याण को श्रसम्बद्ध मानता है और दूसरी ओर यह कहता है कि व्यक्ति को सामाजिक सुख की परवाह करनी चाहिए । यदि व्यक्ति के कर्म श्रात्मसुख की प्रेरणा से संचालित होते हैं तो परसुख आवश्यक क्यों है ? हॉब्स का कहना है कि वैयक्तिक सुख की प्राशा से, व्यक्ति सामाजिक सुख की खोज करता है । 1. Thomas Hobbes 1588-1679. १३८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नैतिक श्रादेश: श्रावश्यक और उपयोगी - सामाजिक सुख वैयक्तिक 'सुखः के सम्बन्ध में ही सार्थक है। जितने भी नियम और नैतिक प्रदेश हैं (दैवी, राजनीतिक, सामाजिक आदि ) उन सबका सम्बन्ध वैयक्तिक सुख से ही है । प्रोटेगोरस की भाँति हॉब्स भी कहता है कि शुभ व्यक्तिगत है; सामाजिक शुभ for वैयक्तिक शुभ के अर्थशून्य है । जीवन के संरक्षण या सुखभोग के लिए नैतिक प्रदेश साधनमात्र हैं । इनकी अनिवार्यता इनके उपयोगी होने पर निर्भर | नैतिक आदेश मार्गदर्शक प्रदेश हैं । नीतिशास्त्र और नैतिक प्रदेशों की यही उपयोगिता है कि वे व्यक्ति को उचित - अनुचित का ज्ञान देते हैं । नैतिक विवेक बताता है कि सुख की प्राप्ति कैसे सम्भव है । व्यक्ति स्वभाव से असामाजिक है । किन्तु प्रसामाजिक जीवन एकाकी, असुन्दर, तुच्छ और हीन होता है । मनुष्य की आवश्यकताएँ उसे सामाजिक जीवन बिताने के लिए. बाधित करती हैं । आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह सामाजिक बना, किन्तु अपने अधिकारों और स्वार्थों को वह नहीं भूल सका । उनकी रक्षा के लिए उसने नियमों के रूप में समाज के साथ समझौता किया । राजनीतिक एकता में अपने को बाँधा । सद्गुणों को स्वीकार किया। उसके श्रात्म- प्रेम ने ही नैतिक नियमों को जन्म दिया है । अतः ये अनिवार्य और उपयोगी हैं । भ्रान्तिपूर्ण मनोविज्ञान- हॉब्स का मनोवैज्ञानिक ज्ञान उसे बतलाता है कि परमार्थी भावनाओं के मूल में आत्म-प्रेम है, सुखभोग है । हॉब्स का मनोविज्ञान भ्रान्तिपूर्ण है। उसने सब प्रवृत्तियों को स्वार्थी कहकर भयंकर भूल की । उसकी इस भूल के फलस्वरूप ही सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के सहज-ज्ञानवादियों का सिद्धान्त प्रस्फुटित हुआ। हॉब्स स्वयं भी अपने सिद्धान्त में पूर्ण रूप से परम स्वार्थवाद को नहीं अपना सका है। उसके सिद्धान्त में परम स्वार्थवाद लड़खड़ा उठता है । एक मोर तो वह यह मानता है कि नैतिकता का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, मानव-निर्णीत सामाजिक समझौता ही नैतिक मान्यताओं को एवं उचित और अनुचित को निर्धारित करता है; नैतिकता राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर है। दूसरी ओर वह यह मानता है कि सामाजिक एवं नैतिक आदेश का पालन करना अनिवार्य है । सामाजिक संघटन के लिए त्याग करना आवश्यक है । सामाजिक शुभ व्यक्ति के लिए उपयोगी है । इस प्रकार उसके सिद्धान्त में दो विरोधी कथन मिलते हैं । यदि यह मान लें कि सामाजिक शुभ वैयक्तिक शुभ के लिए उपयोगी है तो इसके अर्थ यह हुए कि सामाजिक शुभ और वैयक्तिक शुभ परस्परविरोधी नहीं हैं । वे एक ही सत्य सुखवाद (परिशेष ) - / १३६: For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो रूप हैं । I सिद्धान्त की विशिष्टता - स्वार्थवादी नैतिकता का प्रचारक होने के कारण - हॉब्स ने कर्तव्य, बाध्यता, सद्गुण आदि को व्यक्ति के सुख-दुःख से सम्बन्धित माना है । अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए उसने समय से प्रभावित होकर जिस तार्किक और वैज्ञानिक प्रणाली को अपनाया वह स्तुत्य है । उसकी प्रणाली की स्पष्टता, दृढ़ता और विधि ने उसके उठाये हुए प्रश्नों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बना दिया। हॉब्स ने अपने तर्कों को जिस युक्ति से सम्मुख रखा उसने उसके परमार्थ अथवा सामाजिक सुख के प्रश्न को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बना दिया 1 इंगलैण्ड में उसने स्वतन्त्र नैतिक सिद्धान्त को जन्म दिया । शैफ्ट्सबरी, बटलर प्रादि सहजज्ञानवादियों के सिद्धान्त की प्रेरणाशक्ति हॉब्स का परमस्वार्थवाद ही है । परार्थ सुखवाद : उपयोगितावाद सामान्य परिचय - - परार्थ सुखवाद या परसुखवाद सामाजिक सुख में 'विश्वास करता है । सामाजिक सुख को नैतिक ध्येय मानने के कारण परसुखवाद ने सुखवाद को व्यापक, महान् और जनप्रिय बना दिया। प्राचीन सुखवाद के साथ उसने स्वीकार किया कि मनुष्य स्वभावत: सुख की खोज करता है, वह स्वार्थी है । सुखेच्छा ही मनुष्य के कर्मों का वास्तविक और अनिवार्य कारण है । मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति को परसुखवादियों ने जनसामान्य के हित का साधन बनाया और मनोवैज्ञानिक सुखवाद को ही नैतिक सुखवाद एवं परार्थमूलक सुखवाद का आधार माना । उन्होंने कहा कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति सुखेच्छा - नैतिक लक्ष्य को निर्धारित करती हैं। सुख ही नैतिक लक्ष्य है । श्रतः प्रत्येक व्यक्ति को सुख प्राप्त करने का अधिकार है। दूसरे शब्दों में जीवन का ध्येय वैयक्तिक सुख नहीं है किन्तु अधिकतम संख्या का सुख है । मनोवैज्ञानिक सुखवाद के द्वारा उन्होंने सामूहिक सुखवाद की स्थापना की और सुखवाद का मानव कल्याण के साथ समन्वय स्थापित किया । अपने. मानवतावादी रूप में सुखवाद विकसित और गौरवान्वित अवश्य हो गया किन्तु इस रूप में वह प्राचीन सुखवाद से बहुत दूर पहुँच गया । परार्थ सुखवाद के प्रमुख प्रवर्तक - इस सिद्धान्त के प्रमुख प्रतिपादक बेंथम और मिल जड़वादी विचारधारा के माननेवाले समाज सुधारक थे। जड़वादी होने के कारण उन्होंने सांसारिक सुख को ही जीवन का ध्येय माना । सुख के १४० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राध्यात्मिक या धार्मिक पक्ष को समझने का प्रयास उन्होंने नहीं किया। मनुष्य को स्वार्थी मानते हुए उन्होंने कहा कि सामान्य सुख की वृद्धि करना नैतिक जीवन का लक्ष्य है; सामाजिक शुभ के लिए उपयोगी कर्म शुभ हैं। परसुखवाद का मापदण्ड प्राचीन सुखवादी मापदण्ड से भिन्न है। जनहित को अपनाकर वास्तव में वह सुखवाद को छोड़ देता है। परसुखवाद विश्व को जनहित का सक्रिय सन्देश देता है और प्राचीन सुखवाद ने स्थूल इन्द्रियप्रियता का सन्देश दिया है। यहीं व्यावहारिक दृष्टि से दोनों में महान् अन्तर आ जाता है। प्रारम्भिक सुखवादी विशेषकर ऍपिक्यूरस के अनुसार सामाजिक सुख, सामाजिक कल्याण, सामाजिक संस्थानों को उन्नत करने की भावना घृणित है। परसुखवादियों ने यह समझाने का प्रयास किया कि जनहित को ध्यान में रखकर विभिन्न नियमों का प्रतिपादन करना चाहिए, सामाजिक तथा शिक्षा सम्बन्धी संस्थानों की रूपरेखा निर्धारित करनी चाहिए। अपने उस उन्नत रूप में सुखवाद आधुनिक राजनीतिक, सामाजिक, व्यावसायिक, कानूनी और शिक्षा . सम्बन्धी संस्थानों के विकास में सहायक हुमा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। किन्तुः परसुखवादियों के विरुद्ध यह मुख्य आपत्ति है कि वे वैयक्तिक और सामाजिक सुख में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाये। वैसे, जहाँ तक सुखवाद का प्रश्न है, उसके क्षेत्र का अतिक्रमण करके ही उन्हें सफलता मिली। . बैंथम सुख ही एकमात्र वांछनीय ध्येय : नैतिक-मनोवैज्ञानिक सुखवाद का समन्वय-बैंथम के अनुसार "प्रकृति ने मनुष्य को दो प्रमुख शक्तियों-सुख और दुःख–के अनुशासन में रखा है। इन्हीं के द्वारा यह निर्धारित होता है कि हमें क्या करना चाहिए और हम क्या करेंगे।" इस प्रकार वह अपनी पुस्तक का प्रारम्भ नैतिक और मनोवैज्ञानिक सुखवाद के समन्वय से करता है। इन समन्वय के द्वारा वह यह कहता है कि मनुष्य के कर्म सदैव सुख की इच्छा से संचालित होते हैं और सुख ही एकमात्र नैतिक आदर्श है। बैंथम का यह सिद्धान्त उन्हीं कर्मों का अनुमोदन करता है जो कि सुखप्रद हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह इस तथ्य पर प्राधारित है कि मनुष्य वैयक्तिक सुख की खोज 1. Jeremy Bentham 1748-1832. 2. Principles of Morals and Legislation. सुखवाद (परिशेष) | १४१ For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है । अथवा सुख की खोज और दुःख का परित्याग, यही दो प्रेरणाएँ उसके कर्मों को सदैव संचालित करती हैं। प्रत्येक विवेकसम्मत प्राणी के जीवन का ध्येय आत्मसुख है। स्वभाववश स्वार्थी व्यक्ति दूसरों के लिए छोटा-सा त्याग भी प्रात्मसुख की प्राशा से करता है। अपने स्वार्थ के . महत्तम अंश की प्राप्ति ही विचारवान मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है। इस प्रकार बैंथम स्थूल 'स्वार्थवाद को स्वीकार करता है, प्रेरणामों के मूल में प्रात्म-स्वार्थ को देखता है। नैतिक मान्यताएँ, विभिन्न नियम, कर्तव्य, नैतिक बाध्यता, सद्गुण प्रादि उसके सुख-दुःख के सम्बन्ध में ही महत्त्वपूर्ण तथा प्रर्थगभित हैं। स्वार्थ से परमार्थ की प्रोर-बैंथम का नीतिशास्त्र उसके चरित्र से अत्यधिक प्रभावित है । वह स्वभाव से परोपकारी और दयालु था। कानून में उसकी अत्यधिक रुचि थी। वह चाहता था कि जनहित को लक्ष्य मानकर नियम बनाये जायें। जनहित को ध्येय मानने पर भी उसने जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण जड़वादी रखा, मनुष्य की मूल प्रवृत्ति को स्वार्थी माना तथा सांसारिक सुख में जीवन की सार्थकता देखी । उसका ध्यान जीवन के दार्शनिक, सांस्कृतिक, कलात्मक और धार्मिक पक्ष की ओर आकृष्ट नहीं हुआ । एक ओर बैंथम ने अपने चिन्तन और अध्ययन के परिणामस्वरूप स्वार्थसुखवाद को अपनाया और दूसरी ओर उसके स्वभाव ने उसे परार्थ की ओर आकृष्ट किया। उसके परसुखवाद में उसकी जनहिताकांक्षिणी प्रवृत्ति बोलती दीखती है। वह कहता है कि नैतिक जीवन का आदर्श 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख है। मनुष्यमात्र के लिए अधिक-से-अधिक परिमाण में सुख खोजना ही व्यक्ति का ध्येय है। व्यक्ति को प्रात्मसुख खोजने का वहीं तक ,अधिकार है जहाँ तक कि उसका. सुख दूसरों के लिए बाधक अथवा दुःखद नहीं बनता। वास्तव में यहाँ पर बैंथम समाज-सुधारक के रूप में प्रकट होता है। उसने अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को समझने का प्रयास किया। प्रचलित धर्म, अन्धविश्वास, अभ्यास, रीति-रिवाज तथा धर्म के उपदेशकों द्वारा जिस भांति जाने-अनजाने सर्वसामान्य के सुख का शोषण होता है उसे देखकर वह अत्यन्त दुःखी हुआ ।, उसने साधिकार सुख को मनोवैज्ञानिक तथा नैतिक प्राधार देते हुए कहा कि जीवन का ध्येय सुख है और यह सुख वैयक्तिक नहीं किन्तु सामाजिक है। नैतिकता का मापदण्ड 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' है, सामूहिक सुख है। नैतिक दृष्टि से वही कर्म शुभ है जो सर्वकल्याण के लिए उपयोगी है । सर्वकल्याण अथवा जनसम्प्रदाय के सुख में १४२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैयक्तिक सुख खो नहीं जाता। वह समान और निष्पक्ष रूप से उसमें सुरक्षित रहता है। इस प्रकार बेंथम परम स्वार्थवाद के साथ समानता या निष्पक्षता के सिद्धान्त (Principle of equity or impartiality) को स्वीकार करता है। . उपयोगितावाद-किन्तु फिर भी प्रश्न उठता है कि यदि व्यक्ति स्वभावतः स्वार्थी है तो वह जनहितसाधन कैसे कर सकता है ? बैंथम उपयोगितावाद का प्रतिपादन करता है। उसके अनुसार नैतिकता का मूल आधार उपयोगितावाद का सिद्धान्त (Principle of utility) है । "उपयोगितावाद के सिद्धान्त से अभिप्राय उस सिद्धान्त से है जो कि प्रत्येक कर्म को उस प्रवृत्ति के अनुसार स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करता है जो कि उन लोगों के सुख-दुःख का ह्रास अथवा विकास करती प्रतीत होती है जिनका स्वार्थ उससे सम्बद्ध है।" बैंथम के उपयोगितावाद के सिद्धान्त के अनुसार वही कर्म शुभ है जो सर्वसामान्य के सुख के लिए उपयोगी है । 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' अथवा परसुखवाद को समझाने के लिए वह सुखवाद को उपयोगिता के सिद्धान्त के साथ सम्बद्ध कर देता है । उपयोगिता ही नैतिक मापदण्ड को निर्धारित करती, है। वह डेविड ह्य म और ऐडम स्मिथ की आलोचना करता है। ये लोग उपयोगिता के तत्त्व को नैतिकता का मूल आधार नहीं मानते; सजातीय भावना (fellow feeling) या सहानुभूति (sympathy) को नैतिक मान्यताओं का मूलतत्त्व मानते हैं, यद्यपि दोनों में भिन्नता स्पष्ट है। ह्य म अपने सहानुभूति के सिद्धान्त का प्राकृतिक स्पष्टीकरण करता है और ऐडम स्मिथ सहजज्ञानवादी होने के कारण अन्तर्बोध के द्वारा सहानुभूति को समझाता है। बैंथम के अनुसार. सहानुभति को नैतिकता का प्राधार माननेवाले सिद्धान्त बहिर्मुलक नैतिक मापदण्ड नहीं दे सकते । सहानुभूति अन्ध-प्रवृत्ति है । यह वैयक्तिक भावना पर निर्भर है। ह्य म तथा स्मिथ का मापदण्ड प्रात्मगत है। इसी भांति बैंथम वैराग्यवाद, नैतिकबोध, कर्तव्य, ईश्वरेच्छा प्रादि को नैतिकता का आधार माननेवाले सिद्धान्तों के विरुद्ध कहता है कि वे कर्मों की मल प्रेरणा को नहीं समझा पाये। कर्मों की वास्तविक और परमप्रेरक उपयोगिता है। बैंथम उपयोगिता के सिद्धान्त को महत्त्व देता है और कहता है कि वही कर्म करना चाहिए जो उपयोगिता के सिद्धान्त के अनुरूप हो । यही नैतिक कर्तव्य के अर्थ नैतिक प्रादेश द्वारा सामूहिक सुख की प्राप्ति-बैंथम सुखवादी मनोविज्ञान __ सुखवाद (परिशेष) | १४३ For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को स्वीकार करता है । कर्मों को सुख-दुःख की प्रेरणा संचालित करती है, किन्तु फिर भी उसके अनुसार नैतिक प्रादर्श श्रधिकतम संख्या का अधिकतम सुख है । कर्म का नैतिक दृष्टि से मूल्यांकन करने के लिए यह जानना श्रावश्यक है कि वह सामान्य सुख की वृद्धि कितनी करता है । स्वार्थ और परमार्थ के बीच बेंथम जो स्पष्ट रूप से विरोध मान चुका है उसका समाधान कैसे सम्भव है ? स्वार्थी व्यक्ति सामाजिक कर्तव्य करने में अपनी कौन-सी भलाई देखता है ? इन प्रश्नों का समाधान भी आवश्यक है । सुखवादी मनोविज्ञान के आधार पर बेंथम यह स्वीकार कर चुका है कि एकमात्र सुख-दुःख की प्रेरणा मनुष्य को कर्म अथवा सामाजिक कर्तव्य करने के लिए प्रेरित करती है। वैयक्तिक और सामाजिक सुख में वास्तव में कोई सामंजस्य नहीं है । यदि यह मान लें कि व्यक्ति का शुभ उसके सुख में निहित है तो वह दूसरों के सुख को क्यों चाहता है। बेंथम नैतिक श्रादेशों को महत्त्व देता है और कहता है कि प्रदेश व्यक्ति को परोपकारी श्राचरण के लिए बाधित करते हैं । आदेश बाह्य शक्तियों की भाँति हैं । ये व्यक्ति और समाज के बीच एकता स्थापित करते हैं । बेंथम के अनुसार चार प्रकार के प्रदेश हैं- भौतिक ( प्राकृतिक ), राजनीतिक, नैतिक ( प्रचलित) और धार्मिक । यही आदेश व्यक्ति के परोपकारी प्राचरण के आधारस्तम्भ हैं जो उसके सामाजिक आचरण के प्रमुख कारण हैं । वास्तव में मनुष्य की आन्तरिक प्रेरणा स्वार्थी है । किन्तु साथ ही उसका विवेक उसे बतलाता है कि यदि वह प्रदेशों का उल्लंघन करेगा तो परिणामस्वरूप उसे दुःख उठाना पड़ेगा। आदेशों को वैयक्तिक सुख के लिए उपयोगी मानकर ही व्यक्ति • परोपकारी एवं सामाजिक कर्म करता है। श्रादेशों का पालन करके वह 'एक पन्थ दो काज करता है । प्रदेश उसे वैयक्तिक सुख देते हैं और साथ ही सामान्य सुख का उत्पादन करते हैं । किन्तु प्रश्न यह है कि इस तथ्य को कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? बेंथम तर्कसम्मत कारण नहीं दे सका। वह बार-बार यह कहता है कि प्रदेश उपयोगी नियम हैं और व्यक्ति स्वभाववश उपयोगी नियमों का पालन करता है । उसका यह भी दृढ़ विश्वास था कि व्यक्तिगत सुख, सार्वजनिक सामाजिक सुख पर निर्भर है । अतः उसने कहा कि यदि वास्तविक जीवन का अध्ययन करें तो मालूम होगा कि सर्वसामान्य सुख का उत्पादन करनेवाले आचरण और व्यक्तिगत सुख का उत्पादन करनेवाले आचरण में परस्पर समरूपता और अनुरूपता पायी जाती है । इस भाँति वह एक ओर तो परमार्थी प्रवृत्ति को अस्वाभाविक कहता है और दूसरी ओर स्वार्थ और परमार्थ १४४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में संगति मानता है। उस संगति के आधार पर ही वह अधिकतम संख्या के सुख को समझाता है। किन्तु यदि स्वार्थ और परमार्थ विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं, व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध बाह्य है तो विश्वास के आधार पर वैयक्तिक और सामाजिक सुख में सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकता। बैंथम बिना सिद्ध किये ही कह देता है कि सर्वसामान्य सुख वैयक्तिक सुख में सहायक है और समाज-सुधारक के नाते कहता है कि नैतिक आदेश द्वारा स्वार्थी व्यक्ति के आचरण में सुधार कर सकते हैं। प्रेरणा, परिणाम, उद्देश्य-बैंथम के अनुसार व्यक्ति सदैव अपने सुख की प्रेरणा से कर्म करता है। किन्तु साथ ही वह यह भी कहता है कि कर्म का नैतिक मूल्य आँकने के लिए यह जानना आवश्यक है कि वह सामान्य सुख के उत्पादन में कितना सहायक है । कर्मों का नंतिक मूल्यांकन करने के लिए उनका सामाजिक परिणाम जानना महत्त्वपूर्ण है। अथवा यदि आत्म-सुख की प्रेरणा से किये हुए कर्म का परिणाम समाज के लिए-सुखप्रद है तो वह कर्म शुभ है अन्यथा अशुभ । यदि व्यक्ति स्वभाववश स्वार्थी है, वह आत्मसुख की ही खोज करता है तो अधिकतम संख्या के सुख को नैतिक मापदण्ड मानना असम्भव है। इस असम्भव को सम्भव करने के लिए बैंथम परिणाम को महत्त्व देता है। एक मोर तो वह सुखवाद के इस कथन का समर्थन करता है कि व्यक्ति एकमात्र सुख की प्रेरणा से कर्म करता है । सब प्रेरणाएँ समान हैं। उनमें कोई भेद नहीं है । वे अपने-आपमें न तो शुभ हैं और न अशुभ । वे गुणहीन हैं। किन्तु जब वे परिणाम से संयुक्त हो जाती हैं तब इनका मूल्यांकन किया जा सकता है। दूसरी ओर वह प्रेरणा को गुणरहित कहने के पश्चात् यह स्वीकार करता है कि अनुभव और वास्तविकता के आधार पर प्रेरणा को शुभ अथवा अशुभ कहा जा सकता है। वह यह मानता है कि उन प्रेरणाओं को शुभ कह सकते हैं जिनकी प्रकृति सुखप्रद परिणामों की अोर है और इसके विपरीत दुःखप्रद परिणामोंवाली प्रेरणाएँ अशुभ हैं। इस भाँति परिणाम से सम्बन्धित प्रेरणा का मूल्यांकन कर सकते हैं। प्रेरणा और परिणाम के विरोध को बैंथम यह कहकर मिटाता है कि कर्म की नैतिकता प्रेरणा पर निर्भर नहीं है बल्कि वास्तविक अथवा सम्भावित परिणाम पर । बिना परिणाम के प्रेरणा अर्थशून्य है। परिणाम से बैंथम का अभिप्राय कर्म के वास्तविक या सम्भावित फल से है। यह वह फल है जिसके लिए कर्ता पूर्ण रूप से सचेत है। यदि यह फल अथवा परिणाम सुखप्रद हैं तो कर्म शुभ हैं, अन्यथा अशुभ । साथ ही यह स्मरण रखना आवश्यक सुखवाद (परिशेष) / १४५ For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि सुख से बैंथम का अभिप्राय वैयक्तिक सुख से नहीं बल्कि सामाजिक सुख से है। परिणाम से बैंथम का वास्तव में अभिप्राय कर्म के विशिष्ट फल से नहीं है। किन्तु सम्पूर्ण परिस्थिति, उद्देश्य से है । उदाहरणार्थ, यदि कोई मनुष्य अपने मित्र को दारुण दुःख से मुक्त करने के लिए अत्यधिक प्रयास करता है, किन्तु परिस्थितिवश उसे सफलता नहीं मिलती तो बैंथम के अनुसार उसका कर्म शुभ कहलायेगा। सुख की प्रेरणा से प्रेरित होकर व्यक्ति कर्म करता है, अपने मित्र को दुःख से बचाने का प्रयास करता है। उसका उद्देश्य शुभ है, मानव-सुख • की वृद्धि है । परिणाम बुरा होने पर भी कर्म स्तुत्य है। परिमाण : सुखवादी गणना-बैंथम के अनुसार सुख जीवन का ध्येय है । सब सुख समान हैं, शुभ हैं। उनमें कोई जातिभेद नहीं है। किन्तु फिर भी कुछ सुख अधिक वांछनीय हैं और कुछ कम । यह जानना आवश्यक है कि अधिक वांछनीय सुख को कैसे समझा जा सकता है । अन्य सुखवादियों की भांति बैंथम ने भी परिमाण को महत्त्व दिया । उसका कहना था कि जहाँ तक परिमाण का प्रश्न है सुखों में भेद है। उसके अनुपात में ही एक सुख को दूसरे सुख से अधिक वांछनीय माना जाना चाहिए । जहाँ तक गुण (quality) का प्रश्न है वह निरर्थक है । उसी गुण का मूल्य है जो परिमाण में परिणत हो सकता है। यदि दो सुख आपस में परिमाण में समान हैं तो दोनों ही समान रूप से शुभ हैं। समान परिमाण होने पर तुच्छ खेल के और कविता करने के सूख को समान रूप से शुभ कह सकते हैं । बैंथम के ही शब्द हैं-'Quantity of pleasure being equal, push-pin is as good as poetry.'' परिमाण महत्त्वपूर्ण है या नहीं ? इसको कसे मापा जा सकता है ? कानन में रुचि होने के कारण बैंथम ने सुख को नापने के लिए एक वस्तुगत और सार्वभौम मापदण्ड की खोज की। वह दृढ़ और ठोस मापदण्ड चाहता था। ऐसा मापदण्ड चाहता था जो व्यक्तिगत विचार और भावनाओं पर निर्भर न हो । उसने यहाँ पर गणित से प्रेरणा ली। गणित में जो गणना का सिद्धान्त (mathematical calculation) मिलता है उससे वह अत्यधिक प्रभावित हुआ । उसका कहना था कि यह सिद्धान्त निर्विवादिता, स्पष्टता और सुनिश्चितता पर आधारित है। यदि इसी प्रकार की गणना के सिद्धान्त को नीतिशास्त्र के क्षेत्रों में स्वीकार कर लिया जाय तो कर्मों पर निश्चित निर्णय दिया जा सकता. है । सुख को उसी भाँति मापा जा सकता है जिस भाँति कमरे को उसकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई द्वारा नापा जाता है । सुख के वे कौन-से आयाम (dimen १४६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sions) हैं जिनके द्वारा उसकी नाप करते हैं ? बैंथम के पूर्व पैले (Paley): और अन्य सुखवादियों ने सुखों के परिमाण को नापने के लिए दीर्घकालीनता और तीव्रता का भेद माना था । किन्तु बैंथम उनके अतिरिक्त पाँच प्रायाम और मानता है। उसके अनुसार सुख के परिमाण को नापने के लिए सात आयामों को समझना आवश्यक है : तीव्रता (intensity), दीर्घकालीनता (duration), सन्निकटता (nearness), निश्चितता (certainty), विशुद्धता अर्थात् जिस सुख में दुःख का लेशमात्र मिश्रण न हो (purity), उत्पादकता, जो अन्य सुखों का उत्पादन कर सके (fruitfulness) और व्यापकता (extent) । बैंथम के ये मापदण्ड सुखवादी गणना (hedonistic calculus) अथवा नैतिक गणित (moral arithmetic) के नाम से प्रख्यात हैं। उसके अनुसार नैतिक गणित यह बतला सकता है कि कौन सख परिमाण में अधिक है एवं अधिक वांछनीय है। सुख को चुनते समय यदि हम विवेक से काम लें तो अधिक वांछनीय सुख को चन सकते हैं। व्यापकता-बैंथम ने अपने नैतिक गणित में व्यापकता को स्थान दिया। किन्तु व्यापकता को कैसे तोल सकते हैं ? उसके क्या अर्थ हैं ? यदि व्यापकता से अर्थ व्यक्तियों की सुखभोग करनेवाली संख्या से है तो स्वार्थ सुखवाद कैसे 'टिक सकता है ? एक व्यक्ति के सुख की तुलना दूसरे व्यक्ति के सुख से करना सम्भव नहीं है। सुख एक भावना है, उसका स्वरूप व्यक्तिगत है। चरित्र, प्रकृति, अभ्यास, आयु, द्वन्द्व-भावना, मानसिक स्थिति, वातावरण, परिस्थिति, जलवायु आदि के अनुरूप प्रत्येक व्यक्ति की सुख की भावना भिन्न है। अतः वह जो एक के लिए सुखप्रद है, दूसरे के लिए दुःखप्रद हो सकता है। ऐसे भी व्यक्ति हैं जिनके लिए दूसरों का सुख नगण्य है अथवा जिनमें इतनी अधिक ईर्ष्या है कि दूसरे का सुख उनके जीवन को दु:खमय बना देता है। ऐसी स्थिति में किसी एक सुख को मान्य मान लेना या किसी एक सुख को सार्वजनीन रूप देना सम्भव नहीं है । यदि व्यापकता का यह अर्थ है कि हम दूसरों के सुख को अधिक महत्त्व दें अथवा अधिकतम संख्या के सुख को स्वीकार करें तो सुखवाद के मूल . सिद्धान्त को छोड़ना पड़ेगा। त्रुटियाँ : विशेषता-अपने नैतिक सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिए बैंथम इस मनोवैज्ञानिक मान्यता को स्वीकार करता है कि इच्छा का एकमात्र विषय सुख अथवा दुःख से निवृत्ति है । प्रत्येक व्यक्ति इस स्वाभाविक मान्यता के कारण उस आचरण को स्वीकार करता है जिससे उसे अधिकतम सुख की सुखवाद (परिशेष)./ १४७ For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राशा हो । यदि मनोवैज्ञानिक सत्य को भूलकर इस मान्यता को मान लें तो यह कहना व्यर्थ होगा कि व्यक्ति को सुख की इच्छा करनी चाहिए । मनोवैज्ञानिक सुखवाद पर नैतिक सुखवाद आधारित नहीं किया जा सकता । यह व्यर्थ का शब्दजाल और पुनरुक्ति है। बेंथम के सिद्धान्त में आचरण का उचित और सूक्ष्म विश्लेषण नहीं मिलता है । मनोविज्ञान का अध्ययन तथा मनुष्य की इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों का विश्लेषण यह बताता है कि जिस मनोवैज्ञानिक सुखवाद को बेंथम स्वीकार करता है वह दोषयुक्त है । इस दोष से, जैसा कि हम आगे देखेंगे, मिल का सिद्धान्त भी आक्रान्त हो गया है। मनुष्य की सब प्रवृत्तियों के मूल में स्वार्थ देखना, परम स्वार्थवाद को मानना तथा सुख को ही इच्छाओं का विषय मानना मनोविज्ञान का विरोध करना है। बेंथम का कहना था कि मनुष्य को सुख चाहिए और यह महत्त्वहीन है कि सुख किस वस्तु से प्राप्त होता है ( कविता से अथवा तुच्छ खेल से ) । वस्तु से पृथक् सुख का मूल्यांकन किया जा सकता है । मनोवैज्ञानिक सुखवाद को बिना उचित विवेक के स्वीकार करने के कारण बेंथम यह नहीं समझ पाया है कि इच्छा सदैव वस्तु के लिए होती है । इच्छित वस्तु की प्राप्ति से सुख मिलता है । सुखवाद को वह निष्पक्षता या समानता के सिद्धान्त के साथ संयुक्त करता है और इस आवेश में वह भूल जाता है कि सुख प्रात्मगत और वैयक्तिक है । वह कहता है कि सुख का समान रूप से वितरण किया जा सकता है । इसके लिए वह 'नैतिक गणित' का श्राविष्कार करता है । किन्तु जिस आत्म-विश्वास से वह नैतिक गणित के द्वारा अपनी कठिनाई हल करता है वह वैसा ही है जैसा कि उस बच्चे का विश्वास जो सोचता है कि वह कागज़ की नाव से नदी पार कर सकता है। थम का कहना था कि नैतिक गणित के द्वारा दो सुखों के जोड़ को समान अथवा असमान बताया जा सकता है और सुखों की परिमाणात्मक तुलना की जा सकती है । जनसाधारण सामान्य सुख को प्राप्त कर सके, यह उसकी उत्कट अभिलाषा थी । सम्भव है उस अभिलाषा को वास्तविकता देने की तीव्र इच्छा के कारण ही उसने बिना समझे बूझे कह दिया कि सब सुख समान हैं, उनमें गुणात्मक भेद नहीं हैं, उन्हें तोला जा सकता है, एवं समान रूप से उनका वितरण किया जा सकता है । वह यहाँ तक मान लेता है कि समाज व्यक्तियों का समुदायमात्र है और इस समुदाय में कानूनी तौर से प्रत्येक को समान सुख मिल सकता है । वह इस सत्य को भूल जाता है कि मानव समाज एक जीवन्त संगठन है, उसमें प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व होता है और उस व्यक्तित्व १४८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अनुरूप ही उसकी सुख की धारणा होती है। बेंथम ने सुख में गुणात्मक भेद न मानकर स्थूल और इन्द्रियपरक सुखवाद का स्वागत किया । उसके आलोचकों ने इस पर अत्यन्त प्रापत्ति की, उसके दर्शन को शूकर- दर्शन ( pig-philosophy) कहकर उसका तिरस्कार किया । सच तो यह है कि बेंथम उपयोगितावाद को स्पष्ट रूप से नहीं समझा पाया । वह इस तथ्य का दार्शनिक तथा तार्किक रूष से स्पष्टीकरण नहीं कर पाया कि व्यक्ति को क्यों सामाजिक सुख की परवाह करनी चाहिए । वह सामाजिक नैतिकता के आधार को नहीं समझ पाया । इसका मूल कारण यह है कि उसने स्वार्थ और परमार्थ में परम भेद देखा और मनोवैज्ञानिक सुखवाद को पूर्ण रूप से ग्रहण कर लिया । किन्तु फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि बेंथम उपयोगितावाद का प्रवर्तक था । वह प्रथम विचारक था जिसने कि नैतिक क्षेत्र में उपयोगिता के सिद्धान्त को निश्चित रूप दिया, उसके लक्ष्य की रूपरेखा बनायी । मिल 1 उपयोगितावाद के प्रचारक के रूप में— उपयोगितावाद को लोकप्रिय बनाने का श्रेय मिल' को है । उसने बैंथम के आलोचकों एवं उपयोगितावाद को शूकरदर्शन कहनेवालों के विरुद्ध उसकी श्रेष्ठता को समझाकर उपयोगितावाद का प्रसार और प्रचार किया । मिल के सिद्धान्त में हमें उपयोगितावाद के प्रति जो अन्ध-समर्थन तथा तार्किक और दार्शनिक असंगतियाँ मिलती हैं उसका कारण यह है कि मिल का उपयोगितावाद उसके स्वतन्त्र बौद्धिक चिन्तन का अनिवार्य परिणाम नहीं है । उसने इसे पैतृक सम्पत्ति के रूप में अपने पिता (जेम्स मिल ) और उनके मित्र बेंथम से प्राप्त किया । जेम्स मिल और बेंथम ने मिल को बचपन से ही उपयोगितावाद के साँचे में ढाला। मिल ने अपने पिता की तथा बेंथम की मृत्यु के पश्चात् एक ओर तो उपयोगितावादी परम्परा को निभाया और दूसरी ओर वह सत्य के प्रति जागरूक रहा । उसने विरोधी मतों के सुदृढ़ तत्त्वों (सत्य अंशों) को स्वीकार किया और साथ ही वह उपयोगितावाद का परम अभिभावक बना रहा । ऐसा करने के कारण अनजाने में ही उसने अपने सिद्धान्त में अनेक असंगतियों को स्थान दे दिया । और इस कारण वह उपयोगितावाद को दृढ़ सिद्धान्त के रूप में स्थापित करने में असमर्थ रहा । 1 1. John Stuart Mill, 1806-1873. सुखवाद ( परिशेष) / १४६ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मिल का उपयोगितावाद : उसकी विशिष्टता-मिल ने बैंथम के उपयोगितावाद के सिद्धान्त को स्वीकार किया और उसे उपयोगितावाद के नाम से प्रसिद्ध किया । उसने उपयोगितावाद की व्याख्या इस प्रकार की: "उपयोगितावाद वह धारणा है जो नैतिकता को उपयोगिता या अधिकतम सुख के सिद्धान्त पर आधारित मानती है और यह स्वीकार करती है कि कर्म उस अनुपात में उचित या अनुचित हैं जिसमें कि वह सुख की वृद्धि या विनाश करते हैं । सुख का अर्थ इन्द्रिय-उपभोग और दुःख का अभाव है; और दुःख का अर्थ पीड़ा तथा सुख का अभाव है।"१ उपयोगितावाद की व्याख्या में मिल बैथम के सिद्धान्त को प्रायः पूर्ण रूप से ग्रहण कर लेता है। पर मिल के उपयोगितावाद के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्ततः दोनों में महान अन्तर है। बैथम ने मनोवैज्ञानिक मान्यता (प्रत्येक व्यक्ति स्वाभाविक प्रवृत्तिवश सुख की खोज करता है) पर अपने सिद्धान्त को आधारित किया । अर्थात मनुष्य सदैव प्रात्मसुख चाहता है। सब सुख समान होते हैं। उनमें गुणात्मक भेद नहीं होता है । अतः उनकी परिमाणात्मक गणना की जा सकती है । मिल ने अपने सिद्धान्त द्वारा यह बतलाया कि सूखों में गुणात्मक भेद होता है । परिमाणात्मक रूप से समान होते हुए भी वे उच्च और निम्न कोटि के हो सकते हैं। मनुष्य में पशु-प्रवृत्तियों की तुलना में उन्नत प्रवृत्तियाँ भी हैं। 'तृप्त शूकर से अच्छा अतृप्त मानव होना है'; मिल के इस कथन ने बैंथम के उपयोगितावाद की काया-पलट कर दी। उसने उपयोगिता के सिद्धान्त को परिमाणात्मक मापदण्ड से स्वतन्त्र एक नया मापदण्ड दे दिया। वह नीतिज्ञ होने के साथ ही तर्कशास्त्र का प्रकाण्ड पण्डित भी था। उसने तर्कशास्त्र और मनोविज्ञान के आधार पर 'अधिकतम संख्या के सुख' को समझाने का प्रयास किया। - नैतिक ध्येय : सुख, नैतिक-मनोवैज्ञानिक सुखवाद-मिल के अनुसार सुख ही एकमात्र वांछनीय ध्येय है । किन्तु यह सिद्ध करने के लिए उसने तर्क-प्रणाली का आश्रय लिया। प्रकाण्ड तर्कशास्त्री होने पर भी वह अपनी तर्कप्रणाली को भ्रान्ति एवं हेत्वाभास से मुक्त नहीं कर पाया। नैतिक सुखवाद (सुख की ही खोज करनी चाहिए) का प्रतिपादन करने के प्रयत्न में वह वाक्यालंकार के हेत्वाभास (fallacy of figure of speech) को जन्म देता है। मनोविज्ञान के नाम पर वह कहता है कि मानव-स्वभाव कानि मणि इस प्रकार हुअा है कि 1. Utilitarianism, p. 6. (published by J. H. Dent, London, 2nd ed.) १५० / नीतिशास्त्र .. For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह केवल सुख चाहता है। अथवा उसे चाहता है जो या तो सुख का अंश हो, या सुख के लिए साधन हो, या स्वयं सुखप्रद हो। इस प्रकार मनुष्य सदैव किसीन-किसी रूप में सुख की खोज करता है। मनुष्य-स्वभाव के आधार पर ही यह सिद्ध होता है कि सुखप्रद वस्तुएँ वांछनीय हैं। अस्तु, कर्मों का परम ध्येय सुख है और आचरण का शुभ होना इस तथ्य पर निर्भर है कि वह सुख की कितनी वृद्धि करता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सुख ही नैतिकता का मापदण्ड है। सुख की वांछनीयता को सिद्ध करने के लिए मिल यहाँ तक कहता है कि अभ्यस्त आत्मनिरीक्षण और आत्मचेतना के सहारे यदि अन्य व्यक्तियों के निरीक्षण का मिलान करें तो स्पष्ट प्रमाण मिल जाता है कि "किसी वस्तु को चाहना और उसे सुखप्रद कहना तथा किसी वस्तु को न चाहना और उसे दुःखप्रद कहना, ये क्रियाएँ पूर्ण रूप से अभिन्न हैं। यह एक ही मनोवैज्ञानिक सत्य का दो भिन्न प्रकार से नामकरण करना है। किसी वस्तु को वांछनीय मानना::: और उसे सुखप्रद मानना एक ही बात है ।" अतः सुख ही एकमात्र वांछनीय ध्येय है। "किसी वस्तु को दृश्य (visible) सिद्ध करने के लिए एकमात्र प्रमाण यह है कि लोग उसे वास्तव में देखते हैं। इसी भाँति.. किसी वस्तु को वांछनीय (desirable) कहने के लिए इसके अतिरिक्त और कोई प्रमाण नहीं है कि लोग उसे वास्तव में चाहते हैं ।" मिल यहाँ पर दृश्य और वांछनीय को एक ही श्रेणी में रख देता है । दृश्य के अर्थ होते हैं जो दृष्टिगम्य हो अथवा दिखायी देता हो (capable of being seen) । मिल ने दोनों के उपसर्ग (able) के सादृश्य देखा और इस आधार पर उसने वांछनीय का अर्थ लगा लिया-"वह जिसकी इच्छा की जा सकती है।" अर्थात् (capable of being desired) वह अपने सिद्धान्त को सिद्ध करने के आवेश में यह बात भूल गया कि जब 'एबुल' (able) शब्द 'डिज़ायर' (desire) के साथ उपसर्ग के रूप में संयुक्त होता है तब उसके अर्थ बदल जाते हैं। उसके अर्थ हो जाते हैं : इच्छा का उचित और विवेकसम्मत विषय अथवा वह वस्तु जिसकी इच्छा करनी चाहिए। उस वस्तु को वांछनीय नहीं कहते हैं जिसकी सामान्य रूप से अथवा स्वभाववश इच्छा करते हैं । सर्वसामान्य का अनुभव यह बतलाता है कि प्रत्येक वस्तु इच्छा का विषय बन सकती है। मिल 'इच्छा की जा सकने वाली वस्तु को और वांछनीय को एक ही मान लेता है । यही मिल की मूल है, जो वाक्यालंकार की भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति से युक्त होकर वह निश्चयात्मक भाव से कह देता है कि सुख वांछनीय है क्योंकि उसे लोग वास्तव में चाहते हैं । सुखवाद (परिशेष) / १५१ For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ नैतिक मापदण्ड : सामान्य सुख-मिल के अनुसार नैतिक अथवा वांछनीय ध्येय सुख है और यह सुख सर्व-सामान्य का है, व्यक्ति-विशेष का नहीं। मिल कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपना सुख चाहता है.। इससे यह सिद्ध होता है कि 'अधिकतम संख्या का अधिकतम सुख' सर्वश्रेष्ठ तथा वांछनीय ध्येय है । यह सुखं वस्तुगत और सार्वभौम है । जो दूसरों के लिए शुभ या वांछनीय है वही व्यक्ति के लिए भी शुभ है । अतः सामान्य सुख ही नैतिक मापदण्ड है । इसी की वृद्धि और ह्रास के अनुरूप कर्म, प्राचरण, प्रेरणा प्रादि का मूल्यांकन किया जाता है। बैंथम ने भी सर्वसाधारण के सुख को नैतिक मापदण्ड माना था। किन्तु वह यह नहीं समझा पाया था कि स्वभाववश आत्मसुख की खोज करनेवाले व्यक्ति को क्यों अधिकतम संख्या के सुख को अपनाना चाहिए। ताकिक युक्ति द्वारा पुष्टि-मिल ने बैंथम की इस उक्ति को ताकिक आधार देकर पुष्ट करना चाहा । एक दार्शनिक की भांति उसने स्वीकार किया कि कुछ ऐसे विचार हैं जिनको यदि बुद्धि के सम्मुख रखें तो बुद्धि अपनी अनुमति दे देगी। बुद्धि की अनुमति मिल निम्नलिखित विधि से लेता है-"कोई कारण नहीं दिया जा सकता कि सर्वसामान्य का सख क्यों वांछनीय है अतिरिक्त इसके कि प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए सुख चाहता है 'प्रत्येक व्यक्ति का सुख उसके लिए शभ है और इसलिए सर्वसामान्य का सख व्यक्तियों के समुदाय के लिए शुभ है। मिल के द्वारा प्रस्तुत किये हुए विचार बुद्धि का समाधान कहाँ तक करते हैं, यह कहना सरल नहीं है। तर्कशास्त्र के नियम यह बतलाते हैं कि महान् तर्कशास्त्री मिल ने अपने विचारों को प्रस्तुत करने में कई भूलें की हैं । उसकी विधि में जो सबसे स्पष्ट भूल है, वह रचनात्मक हेत्वाभास (fallacy of composition) की है। तर्कशास्त्र का यह स्पष्ट पोर सामान्य नियम है कि ताकिक विधि के उत्तर-पक्ष में कोई ऐसा विचार या शब्द नहीं आना चाहिए जो पूर्व-पक्ष में न हो। मिल पूर्व-पक्ष में यह कहता है कि "प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए सुख चाहता है" और इस तथ्य के आधार पर उत्तर-पक्ष में वह इस परिणाम पर पहुंच जाता है कि "सर्वसामान्य सूख जनसमुदाय के लिए शुभ है।" उपयोगितावाद को ताकिक आधार देने की उत्कट अभिलाषा के कारण वह प्रत्येक व्यक्ति के सुख द्वारा जनसमुदाय के सुख को सिद्ध करने का भ्रान्त, हेत्वाभासपूर्ण प्रयास करता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व है, उसके सुख का 1. Utilitarianism, pp. 32-23. १५२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके लिए विशिष्ट अर्थ है । व्यक्तियों को समुदाय में परिणत नहीं कर सकते हैं । समुदाय व्यक्ति नहीं है । व्यक्तियों को जोड़ नहीं सकते हैं और न उनके सुखों को जोड़ सकते हैं । सुखों को जोड़ना उतना ही हास्यास्पद है जितना यह कहना कि कक्षा में दस विद्यार्थी हैं। प्रत्येक पांच फीट लम्बा है, अतः विद्यार्थियों की लम्बाई पचास फीट है । अथवा तर्क द्वारा व्यक्तिगत सुख से जनसमुदाय के सुख को सिद्ध नहीं किया जा सकता। मनोवैज्ञानिक प्रमाण : स्वार्थ से परमार्थ-मिल मनोविज्ञान की भी शरण लेता है। स्वार्थ और परमार्थ में सामंजस्य स्थापित करके मिल पारमाथिक प्रवृत्तियों, प्राचरण और कर्म को समझाता है । वह मानता है कि मनुष्य स्वभावतः स्वार्थी है। उसका स्वार्थ-आत्मसख की लालसा-उसे सुखप्रद कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए ही वह दूसरों से सहानुभूति रखता है। इस क्रिया को दोहराते रहने से कालक्रम में सहानुभूति उसके स्वभाव का अनिवार्य अंग बन जाती है । सहानुभूति मनुष्य की ज्ञान और अनुभव द्वारा उपाजित विशेषता है। सुसंस्कृत, सहृदय अथवा सहानुभूतिपूर्ण मनुष्य जनसमुदाय के सुख के लिए प्रयास करते हैं। 'विचार साहचर्य का नियम' यह बतलाता है कि प्रयत्नों की पुनरावृत्ति के कारण साधन और साध्य के बीच तादात्म्य स्थापित हो जाता है । वैयक्तिक सुख सामाजिक सुख से युक्त हो जाता है और उसके परिणामस्वरूप मनुष्य की रुचि में परिवर्तन हो जाता है । जिन कर्मों को मनुष्य ने अभी तक अपने सुख के लिए साधन माना था, वे साध्य से बारम्बार युक्त होने के कारण उसी का स्थान प्राप्त कर लेते हैं । इस प्रकार मनुष्य दूसरों के सुख में सुख मानने लगता है एवं • स्वार्थ से परमार्थ की उत्पत्ति होती है । 'मिल यहाँ पर सहानुभूतिमूलक सुखवाद (sympathetic hedonism) को प्रतिपादन करता है। मिल यह भी मानता है कि प्रारम्भ में सदगुण करते समय मनुष्य सुखप्रद परिणाम के बारे में सचेत रहता है। किन्तु बाद में पुनरावृत्ति के कारण सुख सद्गुण के साथ युक्त हो गया। मनुष्य को सद्गुण करने में तत्कालीन सुख मिलने लगा। आन्तरिक प्रादेश : सजातीय भावना-सद्गुण ही साधन से साध्य का रूप प्राप्त कर लेता है । सद्गुण सहानुभूतिपूर्ण मनुष्यों की अभ्यासगत विशेषता है। उसके कारण ही वे अपने आचरण और कर्म द्वारा सामान्य सुख की वृद्धि करते हैं । मिल का परमार्थ स्वार्थ का ही एक रूप है । विचारों के साहचर्य से उत्पन्न हुई परमार्थ की भावना अमौलिक भावना है। मिल अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन सुखवाद (परिशेष) | १५३ For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए केवल इस भावना की शरण लेकर ही सन्तुष्ट नहीं होता। वह उसे स्वाभाविकता का दृढ़ आधार देने का प्रयास कर 'आन्तरिक आदेश' द्वारा मनुष्यों को सामाजिक एकता के सूत्र में बांधता है.। बैंथम ने 'नैतिक आदेशों को अनिवार्य और आवश्यक माना और उन्हीं के द्वारा सामाजिक आचरण को समझाया। मिल बैंथम के 'प्रादेशों' को 'बाह्य प्रादेश' कहता है । मनुष्य दण्डित होने के भय से एवं आत्म-सुख के कारण आदेशों का पालन करता है। मिल कहता है कि आदेशों द्वारा मनुष्य के नैतिक आचरण को भली-भाँति नहीं समझा जा सकता । यह व्यक्ति के सामाजिक आचरण का गौण स्पष्टीकरण मात्र है । मनुष्य की प्रवृत्तियों का अध्ययन बतलाता है कि उसमें सजातीय भावना (fellow feeling) है, जिसे वह स्वाभाविक भावना भी कहता है। मिल का विश्वास है कि मनुष्य के सामाजिक आचरण के मूल में यही भावना है। इस प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति अपने तथा समाज के बीच अभिन्नता देखता है । उसका सुख सामाजिक सामंजस्य पर निर्भर होता है। मिल साथ ही यह भी मानता है कि अत्यन्त स्वार्थी व्यक्तियों के लिए उन्हीं का स्वार्थ सब-कुछ है। उनकी स्वार्थान्धता 'सजातीयता की भावना' को दबाकर नगण्य कर देती है। किन्तु सुसंस्कृत और सविकसित व्यक्ति उसके बारे में पूर्ण रूप से सचेत रहता है। ऐसा व्यक्ति सामाजिक सुख में ही अपने सुख को निहित पाता है और उस भावना का आदेश ही 'आन्तरिक आदेश अथवा नैतिक आदेश' है। उसे मिल अन्तर्बोध (conscience) का आदेश भी कहता है । आन्तरिक आदेश सामाजिक कर्तव्य का मार्ग दिखाता है । वह उपयोगितावादी नैतिकता का मूल आधार है । सामाजिक कर्तव्य न करने पर वह व्यक्ति को प्रात्मग्लानि देता है और सर्वसामान्य के सुख का उत्पादन करने पर ही व्यक्ति को अपना जीवन सुखी और सफल लगता है । मिल का प्रान्तरिक आदेश से अभिप्राय अन्तर्बोध द्वारा प्रारोपित सुख-दुःख से है । अन्तर्बोध के सुख (आत्मसुख) को प्राप्त करने के लिए ही सामाजिक चेतनाशील व्यक्ति नैतिक कर्म करता है । वह शुभ कर्म इसलिए नहीं करता कि वे अपने-आपमें शुभ और नैतिक हैं बल्कि पश्चात्ताप और आत्मग्लानि से बचने के लिए ही वह इनकी ओर प्रेरित होता है। किन्तु जिनमें अन्तर्बोध की प्रेरणा मृतप्राय है वे बाह्य आदेश के कारण ही सर्वसामान्य के सुख की परवाह करते हैं। उपयोगितावाद : उच्च प्रादर्श का पोषक-मिल ने उपयोगितावाद को प्रचलित तथा व्यापक रूप देना चाहा। बैंथम के सिद्धान्त के विरुद्ध जो आपत्तियाँ १५४ / नीतिशास्त्र ... For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थीं उन्हें दूर कर उसने प्रचलित प्रथाओं और नियमों को उपयोगितावादी साँचे में ढालना चाहा । वह कहता है कि उपयोगितावाद का मापदण्ड जनता का सुख है—अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख का समुच्चय--न कि कर्ता का अधिकतम सुख है । उपयोगितावादी व्यक्ति सामाजिक दृष्टिकोण को सम्मुख रखकर ही अपने तथा दूसरों के सुखों का मूल्यांकन करता है। अपने तथा अन्य के सुख के वितरण के बीच वह तटस्थ दर्शक की भाँति है। उसके निर्णय निष्पक्ष होते हैं । “नजारथ के ईसू के स्वर्ण-सिद्धान्त में हमें उपयोगितावादी नैतिकता की पूर्ण आत्मा मिलती है। जैसा व्यवहार तुम दूसरों से चाहते हो, दूसरों के लिए भी वैसा ही करना और अपने पड़ोसियों के प्रति अपनी ही तरह प्रेम रखना, यह उपयोगितावादी सदाचार के आदर्श की पूर्णता है।" उपयोगितावादी प्रात्मत्याग, वैराग्य तथा सत्यशीलता को शुभ मानता है, क्योंकि इनसे सर्वसामान्य के सुख की वृद्धि होती है। मिल ने वास्तव में यहाँ पर स्टोइक और ऍपिक्यूरियन विचारों का मिश्रण कर दिया है। एक ओर वह सुख को महत्त्व देता है और दूसरी ओर आत्मसंयम एवं सुख के प्रति उदासीनता को। स्टोइकों के प्रभाव के वश अथवा उपयोगितावाद को श्रेष्ठ सिद्धान्त सिद्ध करने की महत्त्वाकांक्षा के वश वह यहाँ तक कह देता है कि मनुष्य प्राय: अपने सुख के पूर्ण त्याग द्वारा ही दूसरों के सुख में सहायक होता है और उसकी यह भावना (आत्मचेतना) कि वह बिना सुख के रह सकता है उसे उस सुख की प्राप्ति कराती है जिसे पाना उसके लिए सम्भव है। ___ सुख की क्रमिक व्यवस्था : गुणात्मक भेद-बैंथम का कहना था कि 'सुख को चुनते समय परिमाण को तौल लेना चाहिए और सुख का समान परिमाण होने पर तुच्छ खेल और कविता समान रूप से शुभ हैं ।' बैंथम के विरुद्ध पालो-- चकों ने यह कहा कि उपयोगितावाद को मान्य सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह स्थूल इन्द्रियवाद को जन्म देता है। इस कटु आलोचना से मिल उपयोगितावाद को मुक्त करने का प्रयास करता है। वह कहता है कि सुख की वांछनीयता परिमाण और गुण (quantity and quality) दोनों पर निर्भर है । सुखों में जातिगत या गुणात्मक भेद है। संस्कृत और श्रेष्ठ सुख अधिक वांछनीय है और यह उपयोगितावाद के सिद्धान्त के अनुरूप है कि हम कुछ प्रकार के सुखों को अधिक वांछनीय या मूल्यवान मान लें । बैंथम के अनुसार काव्य द्वारा प्राप्त सुख और निकृष्ट खेल द्वारा प्राप्त सुख परिमाण में समान होने पर समान रूप से वांछनीय हैं । मिल कहता है कि सुख को मापने के लिए एक आयाम सुखवादः(परिशेष) | १५५. For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मानना और आवश्यक है । सुख में गुणात्मक भेद भी होता है । यहाँ पर मिल का सिद्धान्त बैंथम के सिद्धान्त की तुलना में अधिक श्रेष्ठ हो जाता है । किन्तु इस श्रेष्ठता को वह तभी प्राप्त कर पाता है जब वह सुखवाद को छोड़ देता है। मनुष्य निम्न प्राणियों एवं पशुओं की भांति इन्द्रिय-सख का इच्छक नहीं, है। वह उच्च एवं श्रेष्ठ सख चाहता है। श्रेष्ठ सुख के लिए दुःख को स्वीकार करता है। किन्तु प्रश्न यह है कि श्रेष्ठ सख को कैसे निर्धारित किया जाय ? उसका क्या मापदण्ड है ? संख की श्रेष्ठता को समझाने के लिए मिल 'योग्य न्यायाधीशों के निर्णय' तथा 'गौरव की भावना' का उदाहरण देता है। सुखवाद के मूल सिद्धान्त के अनुसार सुख की वांछनीयता उसके परिमाण और तीव्रता पर निर्भर है। किन्तु मिल 'योग्य न्यायाधीशों के निर्णय' को परम निर्णयं अथवा परम मापदण्ड मानता है। उनके निर्णयों के विरुद्ध कुछ कहना सम्भव नहीं है। उन निर्णयों के अनुसार सुख का मूल्य उसकी उत्पादक वस्तु पर निर्भर है। अपने कारण की श्रेष्ठता या निम्नता के अनुरूप ही सुख वांछनीय या अवांछनीय है। 'योग्य न्यायाधीशों' से प्लेटो की भांति मिल का अभिप्राय उन व्यापक अनुभववाले व्यक्तियों से है जो अपनी आत्म-निरीक्षण की तीक्ष्ण शक्ति द्वारा सुखो का तुलनात्मक रूप से मूल्यांकन करते हैं। ऐसा व्यापक एवं सर्वांगीण अनुभववाला व्यक्ति दार्शनिक चिन्तन और साधारणतम कर्म (ताश खेलना आदि) दोनों से प्राप्त सुख का अनुभव कर चुका है । इसके विपरीत उस मनुष्य का अनुभव, जिसने केवल ताश खेलने के सुख को प्राप्त किया है, सीमित है। व्यापक अनुभव से रहित होने के कारण उसका ज्ञान संकीर्ण और एकांगी है। वह दार्शनिक सुख एवं उच्च सुख का अनुभव नहीं कर पाता। अतः जब दोनों प्रकार के सुखों का अनुभव करनेवाला मनुष्य दार्शनिक सुख को चुनता है तब दार्शनिक सुख को ही मान्य मानना चाहिए। मिल ऐसे अनुभवी व्यक्तियों को ही सुख का मूल्य और उसकी वांछनीयता को निर्धारित करने का अधिकार देता है। वह कहता है कि यदि ऐसे योग्य व्यक्तियों की निर्णायक समिति से पूछा जाये तो वह अवश्य ही एकमत होकर श्रेष्ठ सुख को महत्त्व देगी; उस सुख को जो कि उच्च भावनाओं और प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट कर सकता है। मिल का विचार है कि कोई भी विद्वान, अनुभवी तथा प्रात्म-प्रबुद्ध व्यक्ति अपने जीवन को दुःखपूर्ण मानते हुए भी किसी मूर्ख व्यक्ति अथवा पशु के सुखी जीवन से अपने जीवन को बदलना न चाहेगा। यदि मिल के कथन को सत्य मान लें तो उसके सुखवाद का मापदण्ड सुख नहीं बल्कि निर्णायक समिति है । इसी प्रकार मनुष्य १५६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ध्येय तीत्र एवं अधिक परिमाण से सुख का भोग नहीं, श्रेष्ठ है। सुख मिल का 'गुणात्मक भेद' मख को एकमात्र शुभ नहीं मानता । वह उत्पादक के स्वरूप को महत्त्व देता है। सुख की वांछनीयता उसकी श्रेष्ठता पर निर्भर है, उस श्रेष्ठता अथवा गुण को निर्णायक समिति निर्धारित करती है। मिल के विरुद्ध अनायास ही यह प्रश्न उठता है-क्या प्रमाण है कि निर्णायक समिति के सब सदस्यों का निर्णय अभिन्न होगा ? अधिकतर यह देखा गया है कि योग्य और मर्मग्राही आलोचकों का काव्य की श्रेष्ठता के बारे में एकमत नहीं होता है। सुखवाद के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के सुख का मापदण्ड उसके सुख की तीव्रता है। उच्च प्रवृत्ति के मनुष्य के लिए उच्च सुख और निम्न प्रवृत्ति के व्यक्ति के लिए निम्न सुख अधिक तीव्र एवं वांछनीय है। यह कहना असुखवादी है कि उच्च सुख ही वांछनीय है । प्रत्येक मनुष्य की प्रवृत्ति के अनुरूप ही उसके सुख का स्वरूप होता है । निम्न श्रेणी के अर्थात् इन्द्रिय पर व्यक्तियों के सुख के चुनाव को मिल अनुभवहीनता और प्रज्ञान का चुनाव कहकर अपने विरुद्ध आक्षेपों से अपने को मुक्त करने का प्रयास करता है। किन्तु यह तर्क सुखवाद के क्षेत्रों में मान्य नहीं है । मिल के 'योग्य न्यायाधीशों को ही सुख के मूल्यांकन करने का एकमात्र अधिकारी नहीं कहा जा सकता। यदि सुख एकमात्र ध्येय है तो निम्न प्रवृत्ति के व्यक्ति से अधिक तीव्र एवं अधिक परिमाण के सुख का त्याग करके कम तीव्र सख को चनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। उनसे परिमाण का त्याग करके गुण स्वीकार करने को नहीं कहा जा सकता। गुणात्मक भेद को मानने के लिए उसे परिमाण में परिणत करना आवश्यक है। अथवा “यदि सुखवाद के सिद्धान्त के साथ यह भी स्वीकार करें कि भावनाओं में गुणात्मक भेद होता है और उस भेद को परिमाण में परिणत नहीं किया जा सकता तो यह सापेक्षतः सुख की उच्च और निम्न श्रेणियों को स्वीकार करना होगा जिसका कि अधिक या कम सूख की मान्यताओं से कोई सम्बन्ध नहीं है।"१ "गुण सुखवादी मापदण्डं के बाहर है, सुखवादी मापदण्ड केवल परिमाण या राशि है।"२ गुणात्मक भेद को स्वीकार करना सुखवाद का अप्रत्यक्ष रूप से त्यागकर एक नवीन मापदण्ड को मानना है। यह मापदण्ड गुण या श्रेष्ठता का मापदण्ड है, सुख का नहीं । मिल ने इस नवीन मापदण्ड को मानकर सुखवादी परिमाण को, अर्थात् 1. Muirhead. 2. Seth. सुखवाद (परिशेष) | १५७ For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -बेंथम के 'नैतिक गणित' को, व्यर्थ कर दिया । सुखवाद को स्पष्ट रूप से मानते हुए भी उसे बौद्धिक रूप से निकृष्ट कह दिया । 'योग्य न्यायाधीशों के निर्णय' के साथ ही मिल 'गौरव के बोध' (sense of dignity ) की ओर ध्यान आकृष्ट करता है । यह मनुष्य के लिए स्वाभाविक है । यह जिनमें प्रबल होता है उनका सुख मुख्यत: इसी पर निर्भर होता है। गौरव के बोध को सुख की इच्छा के रूप में नहीं समझाया जा सकता । यह वह चेतना है जो मनुष्य को बतलाती है कि वह श्रेष्ठ प्राणी है और उस श्रेष्ठता के अनुरूप उसकी इच्छात्रों और सुख की भावना को संयमित करती है । यह मनुष्य की बौद्धिक आत्मा की पुकार है। बिना इसे सन्तुष्ट किये उसे जीवन में शान्ति श्रौर तृप्ति प्राप्त नहीं हो सकती । मनुष्य उन कर्मों को करना चाहता है जो 'मानव-गौरव' के योग्य और बौद्धिक आत्मा के लिए वांछनीय हैं। वह केवल सुख के लिए सुख नहीं चाहता है । सुख अपने-आपमें उच्च या निम्न नहीं है । वह अपने प्राप में गुणहीन है । मनुष्य की बौद्धिक मांग ही उसके गुण को निर्धारित करती है । बौद्धिक श्रात्मा की तृप्ति की पूर्णता अथवा अपूर्णता के अनुरूप ही वह उच्च और निम्न है । अतः मनुष्यत्व के 'गौरव का बोध' मनुष्य की बौद्धिक श्रेष्ठता का सूचक है, न कि सुख की इच्छा का । बुद्धि इतनी प्रभावशाली और महान् है कि मनुष्य उसका मान रखने के लिए, बौद्धिक शान्ति की प्राप्ति के निमित्त इन्द्रिय-सुखों का त्याग करता है । मनुष्य के जीवन का ऐसा अध्ययन अथवा उसका बौद्धिक मूल्य निरूपण सुखवाद को सह्य नहीं है । यह इन्द्रियपरक सुखवाद को स्खलित कर देता है । मिल की सफलता और असफलता — मिल ने उपयोगितावाद को 'शूकर-दर्शन' के प्रक्षेप से मुक्त करना चाहा । उसने सुख में गुणात्मक भेद माने । 'सुख का गुणात्मक भेद' निःसन्देह मिल के सिद्धान्त को श्रेष्ठता और नवीनता प्रदान करता है और साथ ही उसके सिद्धान्त को बेंथम के सिद्धान्त से भिन्न कर देता है । मिल का गुणात्मक भेद ऍपिक्यूरस के सिद्धान्त की याद दिलाता है । तुलनात्मक दृष्टि से मिल का सिद्धान्त अधिक संयत और श्रेष्ठ है । ऍपिक्यूरस के मानसिक अथवा बौद्धिक सुख का सिद्धान्त अपने-आपमें श्रेष्ठ नहीं है । दीर्घकालीनता और तीव्रता ( अधिक परिमाण) उसकी वांछनीयता के कारण हैं । मिल से पूर्व के सभी सुखवादियों (ऍरिस्टिपस, ऍपिक्यूरस, पैले, आदि) ने सब प्रकार के सुखों को समान कहा है । सुख की वांछनीयता परिमाण पर निर्भर है । मिल परिमाणात्मक भेद के साथ ही गुणात्मक भेद को *२५८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी आवश्यक, न्यायसम्मत तथा सत्य मानता है। उसका गुणात्मक भेद का सिद्धान्त 'गौरव के बोध' पर निर्भर है, वह बौद्धिक मापदण्ड है। सुखवाद के अनुसार हम उसी बौद्धिक मापदण्ड को स्वीकार कर सकते हैं जो सुख को इच्छा के अधीन है। किन्तु मिल का मापदण्ड इन्द्रिय-आत्मा के ऊपर बौद्धिक आत्मा को स्थापित करता है। 'गौरव का बोध' एवं 'गुणात्मक भेद' उस बौद्धिक प्रात्मा की पुकार है जो 'पूर्णतावाद' का आवाहन करती है। मिल का गुणात्मक भेद सुखवाद का पूर्ण खण्डन करता है, पूर्णतावाद का जाने-अनजाने में समर्थन करता है। ____सुखवाद का आदर्श वैयक्तिक सुख है, जो स्वार्थमूलक है। मिल ने उसे सामाजिक रूप दिया, जिस रूप में वह महान् अवश्य है, किन्तु सुखवाद नहीं है। परमार्थ को सामाजिक जीवन के लिए अनिवार्य मानकर मिल उसे आत्म-सुख से सम्बद्ध करता है। वह सामाजिक रचना के विकास और संगठन के लिए वैयक्तिक और सामान्य सख में पूर्ण संगति देखता है। किन्तु प्रश्न यह है कि ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचना कसे सम्भव है ? मिल इस समस्या का समाधान आत्मगत तर्क और विश्वास के आधार पर करता है, जिससे दार्शनिक तथा बौद्धिक सन्तोष नहीं होता। मिल के अनुसार सद्गुण अनिवार्य और आवश्यक हैं । किन्तु उन सद्गुणों को मनुष्य की व्यावसायिक बुद्धि स्वीकार करती है, न कि सम्पूर्ण प्रात्मा। मिल द्वारा स्वीकृत परमार्थ वास्तविक परमार्थवाद नहीं है, वह अहं पर आधारित प्रच्छन्न स्वार्थवाद है । मनुष्य की मूल प्रवृत्ति स्वार्थी है। उसकी व्यावसायिक बुद्धि उससे सामाजिक आचरण, नैतिक आदेश और आत्म-त्याग को स्वीकार करने के लिए कहती है क्योंकि वे उसके स्वार्थसाधन के लिए कल्याणकर हैं । सम्भव है, मिल स्वयं भी यह समझता था कि स्वार्थ और परमार्थ का ऐसा समीकरण, जो विचारों के साहचर्य पर निर्भर है, अस्वाभाविक है और चिरस्थायी नहीं है । इसीलिए शायद मिल ने स्वार्थ और परमार्थ के सम्बन्ध को आन्तरिक एवं अनन्य रूप देने के लिए शैफ्ट्सबरी, हचीसन और ह्य म की भाँति ही कहा कि मनुष्य में 'सामाजिक एकता' की भावना निहित है, उसका स्वभाव पूर्ण रूप से सामाजिक है, वह सदैव अपने को समाज का अंग मानता है और वैयक्तिक तथा सामाजिक सुख में संगति एवं सामंजस्य है। उसके अनुसार सुख का नैतिक मूल्य सामाजिक है और सामाजिक सुख ही नैतिकता का मापदण्ड है । सुख के प्रादर्श को पूर्ण रूप से सामाजिक बना देना ही मिल के सिद्धान्त की विशिष्टता और श्रेष्ठता है । इस विशिष्टता के कारण सुखवाद (परिशेष) | १५६ For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह सुखवाद से दूर तो हट जाता है, साथ ही वह सरलता और स्पष्टतापूर्वक सामान्य सख की धारणा को भी नहीं समझा पाता है। वह सामाजिक अंगांगिगाव (organic relation) की धारणा पर पहुंचने पर भी नहीं पहुंच पाता। परम स्वार्थवाद को अपना लेने के कारण वह साधिकार एवं निश्चयात्मक रूप से यह नहीं कह पाता कि समाज और व्यक्ति का सम्बन्ध अनन्य है। . नैतिक सुखवाद की आलोचना मनोवैज्ञानिक सुखवाद से अधिक व्यापक : दोहरी कठिनाई-मनोवैज्ञानिक सुखवाद ने यह जानना चाहा कि जीवन का ध्येय क्या है ? शुभ क्या है ? इसी प्रश्न को नैतिक सुखवाद ने यह कहकर सम्मुख रखा : व्यक्ति का क्या कर्तव्य है ? दोनों का प्रश्न मूलतः एक ही है। दोनों के उत्तर भी समान हैं और दोनों का लक्ष्य भी एकमात्र सख ही है। किन्तु फिर भी उनके प्रतिपादन के ढंग में, उनकी प्रणाली और कर्तव्य की रूपरेखा में अन्तर है। उनमें प्राचीनता और अर्वाचीनता का भेद स्पष्ट है। नैतिक संखवाद ने आशावाद और सुख के भावात्मक पक्ष को सम्मुख रखा है, उचित ज्ञान के द्वारा सुख की प्राप्ति को सम्भव बतलाया है। उसने अपने क्षेत्र को वैयक्तिक दृष्टिकोण तक ही सीमित महीं रखा है वरन उसे मानवतावादी बनाया है । मनोवैज्ञानिक सखवाद से इस भाँति आगे बढ़ने पर भी नैतिक सुखवाद अपने सिद्धान्त में सफल नहीं हो सका है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद पर अपने सिद्धान्त को आधारित करने के कारण उसने अपने सिर पर विपत्तियों का पहाड़ ले लिया है । मनोवैज्ञानिक सुखवाद की मूलमत भूल-मनोवैज्ञानिक भ्रान्ति के कारण वह उसी की तरह खण्डनीय और माधारहीन तो हो ही जाता है, उस पर वह विरोधी विचारधारानों को मिलाने का भी व्यर्थ प्रयास करता है। इन्द्रियजन्य ध्येय को स्वीकार करने के पश्चात् वह उपयोगितावाद के सहारे व्यक्ति और समाज के प्रश्न को उठाता है; परम स्वार्थ के साथ परार्थ को मिलाना चाहता है; सद्गुण और व्यावसायिक बुद्धि में एकरूपता स्थापित करने की चेष्टा करता है । स्वार्थ और परार्थ का विरोधपूर्ण सामंजस्य–मिल और बैंथम के सिद्धान्त में जो बात अत्यधिक खलती है वह है विचारों की असंगति । इसका कारण यह है कि उन्होंने मनोवैज्ञानिक सुखवाद पर अपने सिद्धान्त को आधारित किया। मनोवैज्ञानिक सूखवाद की भ्रान्तियों से तो उनका सिद्धान्त क्रान्त हो ही जाता है, वह नयी विपत्तियों को भी मोल ले लेते हैं। मनोवैज्ञानिक सखवाद के १६० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार पर 'अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख' को ध्येय नहीं माना जा सकता। सर्वसामान्य के सुख को या तो मूलगत नैतिक नियम के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, या उसे पूर्ण रूप से अर्थहीन सिद्ध किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक सखवाद का अन्त हॉब्स का परम स्वार्थवाद है। परम स्वार्थवाद नैतिक नियमों को आत्मगत मानता है, वस्तुगत नहीं। उपयोगितावादियों ने सहजज्ञानवादियों की भांति नैतिक नियम को वस्तुगत सत्य के रूप में स्वीकार किया और कहा कि सर्वसामान्य का अधिकतम सुख ही परम वांछनीय ध्येय है और यही कर्मों को भी शासित करता है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद के आधार पर उस ध्येय को स्वीकार करने के लिए यह सिद्ध करना आवश्यक है कि वह कर्ता के अधिकतम सुख की वृद्धि करता है। सुखवाद अपने मूल रूप में स्वार्थमूलक और वैयक्तिक है। उपयोगितावादी कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की गणना एक है, प्रत्येक अपने लिए है। इस बात से वे यह प्रमाणित नहीं कर सकते कि प्रत्येक सबके लिए है। उपयोगितावादी परमार्थवाद अथवा सार्वभौमिक सखवाद की स्थापना के लिए जिस निष्पक्षता की आवश्यकता है वह सहजज्ञानवाद द्वारा ही उसे प्राप्त हो सकती है। परमार्थ को भावनाओं पर आधारित नहीं कर सकते। भावनाएँ एक ओर तो आत्मगत और स्वार्थी होती हैं और दूसरी ओर परमार्थी तथा सहानुभूतिमूलक । इन दो विरोधी प्रवृत्तियों में बिना बुद्धि की सहायता के सामंजस्य स्थापित करना असम्भव है । अनुभव यह बतलाता है कि बुद्धि से अनिर्देशित भावनाएं व्यक्ति को सामाजिक बनाने के बदले वैयक्तिक बनाती हैं। मिल स्वार्थ से परमार्थ पर पहुंचने के लिए भावनाओं की सहायता लेता है। ताकिक प्रमाण, एकता की भावना तथा सहानुभूति द्वारा अपने सिद्धान्त को स्थापित करता है। उसके प्रयास यह सिद्ध नहीं कर पाते कि परमार्थ स्वार्थ के लिए हितकर है। भावना द्वारा वह निष्पक्षता भी सम्भव नहीं है जो सुख का वितरण करने के लिए आवश्यक है। उपयोगितावादियों ने अहन्तावादी स्वार्थवाद का प्रतिपादन किया है जो नैतिक दृष्टि से थोथा है। स्वार्थ से परमार्थ की उपजः असम्भव है। मिल गौरव के बोध' की शरण लेता है और अप्रच्छन्न रूप से सहजज्ञानवादियों की कृत्य बुद्धि (practical reason) को मानता है । यह सुखवाद का विरोध करना है। - नैतिक कर्तव्य तथा सद्गुण के लिए स्थान नहीं है-नैतिक सुखवादियों ने 'मनोवैज्ञानिक सुखवाद को मूलगत सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करने के कारण यह माना कि मनुष्य के स्वभाव का नियम सुख की खोज करना है । अतः यह सुखवाद (परिशेष) / १६१ For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक आदेश कि 'तुम्हें सुख खोजना चाहिए' अर्थशून्य हो जाता है। यह वैसा ही है जैसा कि गिरते पत्थर से कहना कि 'तुम्हें गिरना चाहिए'। बैंथम स्पष्ट रूप से कहता है कि सुख-दुःख ही औचित्य और अनौचित्य के मापदण्ड को निर्धारित करते हैं । प्राकृतिक घटनाओं की भाँति मानव-कार्य-कलापों को 'कार्य और कारण' के अन्तर्गत समझ लेने पर मनुष्य भी अपने जीवन में उसी प्रकार अपने निर्दिष्ट ध्येय को प्राप्त कर सकता है जिस प्रकार वनस्पतियाँ, वक्ष, पशुपक्षी आदि अबौद्धिक और निर्जीव प्राणी प्राप्त करते हैं। वे सचेतन रूप से प्रयास नहीं करते, प्राकृतिक नियम उन्हें अपने-आप ध्येय की प्राप्ति करा देते हैं। किन्तु इस विरोध के होने पर भी सुखवादियों ने कर्तव्य के सापेक्ष और व्यावहारिक महत्त्व को समझाने का प्रयास किया। उसकी उत्पत्ति और आवश्यकता को समझाया । बैंथम के अनुसार चार बाह्य आदेश हैं जिनके कारण मनुष्य कर्तव्य करने के लिए बाधित होता है । मिल, स्पेंसर और बेन (Bain) ने आन्तरिक आदेश को प्रमुखता दी। कर्मों की उपयोगिता का अन्तर्बोध ही आदेश देता है, जो उनके अनुसार आन्तरिक आदेश है । स्पेंसर ने उसे यह कहकर समझाया कि विकास के क्रम में मनुष्य उस नियम को अपना लेता है अथवा उसका स्वेच्छा से पालन करता है जो प्रारम्भ में उसे वातावरण, परिस्थिति एवं समाज द्वारा दिया गया था अर्थात् बाह्य नियम कालक्रम में प्रान्तरिक नियम प्रतीत होता है। सुखवाद इस प्रकार कर्तव्य के मूल कारण को नहीं समझ सकता है। उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर वह कर्तव्य को न्यायसम्मत तथा शाश्वत नहीं ठहरा सकता है। कर्तव्य एक व्यावहारिक आवश्यकता की पूर्ति करता है। वह अपने-आपमें मूल्यरहित है। जिस भावना ने कर्तव्य की धारणा को जन्म दिया है वह आत्मगत और परिवर्तनशील है। वह कर्तव्य को उस परम आदेश के रूप में आरोपित नहीं कर सकती जो वस्तुगत और सार्वभौम है। सुखवाद के अनुसार कर्मों का प्रेरक कर्तव्य का विचार नहीं है। यहाँ तक कि यदि किसी अन्य प्रेरणा से प्रेरित होकर कर्म किये जायें और उसका कर्तव्य की भावना से विरोध नहीं है तो वह कर्म उचित है । "वह व्यक्ति, जो दूसरे को डूबने से बचाता है, नैतिक रूप से उचित कर्म करता है। उसका ध्येय कर्तव्य करना है अथवा उस कर्म के लिए पुरस्कृत होना, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है।" सुखवादी सिद्धान्त मानव-चेतना के सम्मुख एक अत्यन्त तुच्छ आदर्श रखता है। वह यह न कहकर कि मनुष्य का क्या कर्तव्य है और वह संस्कृति १६२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और सभ्यता के किस गौरव-शिखर तक पहुंच सकता है, यह बतलाता है कि स्वार्थपूर्ण ध्येय की पूर्ति के लिए व्यावसायिक बुद्धि किस चाणक्य-नीति को अपनाती है। उसके अनुसार कर्तव्य लाभप्रद साधनों का सूचक है। व्यावसायिक बुद्धि का नाम सदगुण है। नैतिकता प्रात्मस्वार्थ का प्रतिनिधित्व करती है। नैतिक चेतना सूख की वह भावना है जो सदैव लाभप्रद और उपयोगी नियमों को चुनती है। शुभ और अशुभ का भेद सापेक्ष है। व्यावसायिक बुद्धि की योग्यता और अयोग्यता ही शुभ-अशुभ को निर्धारित करती है। नैतिकता का तत्त्वार्थ यह है कि शुभ और अशुभ का भेद सिद्धान्त का भेद है। सुखवाद नैतिकता को समझाने के बदले उस प्रश्न से ही कतरा जाता है । वह मनुष्य की स्वस्थ नैतिक चेतना को नहीं समझा पाता। यह सत्य है कि योग्य प्रबुद्ध व्यक्तियों ने उसे सिद्ध करने का प्रयास किया, किन्तु फिर भी यह सिद्धान्त अपने वास्तविक रूप में सरल शुद्ध सद्विचारों को मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाता सुखवादी गणना असम्भव-बैंथम ने 'नैतिक गणित' को स्वीकार करके यह समझाया कि अशुभ कर्म नैतिक गणित की भूल के सूचक हैं । उसका यह विश्वास था कि सुख को तौल सकते हैं। उसका निश्चित और समान रूप से प्रत्येक में वितरण किया जा सकता है । उपयोगितावादियों के अनुसार सुख उस भावनात्मक मुद्रा के समान है जिसकी गणना की जा सकती है और जिसका अंशों एवं भागों में वितरण सम्भव है, अर्थात् उनके अनुसार सुख का मूल्य निरपेक्ष और व्यक्ति की रुचि से स्वतन्त्र है। उनकी यह 'नैतिक गणना' भ्रान्तिपूर्ण है। सख उन रुपयों-पैसों की भाँति नहीं है जिनका कि हिसाब रखा जा सकता है, जिनकी कि निरपेक्ष गणना सम्भव है। सुख भावनामात्र है । यह भावना सापेक्ष और प्रात्मगत है। इसका कोई वस्तुपरक आधार नहीं है। यह विभिन्न मानसिक और भौतिक स्थितियों की सूचक है और परिस्थिति, मनोदशा तथा स्वभाव पर निर्भर है। एक ही वस्तु एक ही व्यक्ति के लिए दो भिन्न परिस्थितियों के अनुरूप सुखप्रद और दुःखप्रद हो सकती है। सुख का अपनी उत्पादक वस्तु से तथा व्यक्ति की रुचि से अनिवार्य सम्बन्ध है। सख को जोड़ नहीं सकते हैं। उसका परिमाणात्मक मूल्य आँकना अव्यावहारिक है। मिल ने गुणात्मक भेद को मानकर एक नयी कठिनाई उत्पन्न कर दी। गुणों की तुलना राशियों से करना तब तक संगत नहीं है जब तक कि किसी भाँति उनको राशियों में परिणत न किया जा सके । मिल गुण और राशि दोनों को ही मानता है, किन्तु सुखवाद (परिशेष) | १६३ For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालू के ढेर की तुलना सोने के कण से करना सम्भव नहीं है । गुण के साथ ही परिमाण या राशि को महत्त्व देना अव्यावहारिक और अवास्तविक है । सर्वोत्तम गुण की इच्छा सुख की इच्छा नहीं है । यह अप्रत्यक्ष रूप से नये मापदण्ड को मानना है । १६४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सुखवाद (परिशेष) सहजज्ञानवादी उपयोगितावाद सिजविक-हेनरी सिजविक' ने सहजज्ञानवादी उपयोगितावाद' का प्रतिपादन किया। उन्होंने सहजविश्वास के आधार पर कुछ भी स्वीकार नहीं किया। प्रत्येक सत्य को स्वीकार करने के पूर्व अपनी गूढ़ और गहन विश्लेषण-शक्ति द्वारा उसके सब पक्षों को समझने का प्रयास किया। यही कारण है कि मिल से प्रभावित होने पर भी उन्होंने उसे पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया वरन् मिल के उपयोगितावाद का सहजज्ञानवाद के साथ समन्वय किया। नैतिक सिद्धान्त का लक्ष्य-सिजविक के अनुसार नैतिक सिद्धान्त उस बौद्धिक प्रणाली को अपनाता है जिसके द्वारा यह निर्धारित किया जाता है कि प्रत्येक मनुष्य को क्या करना चाहिए अथवा वह कौन-सा शुभ है जिसे मनुष्य स्वेच्छाकृत कर्मों द्वारा प्राप्त कर सकता है। नैतिक आदर्श काल्पनिक नहीं, वास्तविक जीवन पर प्राधारित है। नैतिक 'चाहिए' का स्वरूप 'क्या है' पर निर्भर है। उसके लिए जीवन की वास्तविक घटनाओं का अध्ययन आवश्यक है। इसी से ज्ञात हो सकता है कि मनुष्य की सम्भावनाएँ और सीमाएँ क्या हैं; वह किस ध्येय की प्राप्ति करना चाहता है। उसकी प्राप्ति के लिए किस साधन का उपयोग किया जा सकता है; कौन-सा प्राचरण शुभ है, इत्यादि । आचरण के औचित्य और अनौचित्य के बारे में जो नैतिक नियम और बौद्धिक निदेश (precept) मिलते हैं उनकी सत्यता की खोज और जांच करनी चाहिए। संक्षेप में नैतिक आदर्श की स्थापना के लिए मानव-जीवन एवं मानव-स्वभाव का सर्वांगीण ज्ञान अनिवार्य है। उसी ध्येय को 'आदर्श' मान सकते हैं जो 1. Henry Sidgwick, 1838-1900. 2. Intuitional utilitarianism. सुखवाद (परिशेष) | १६५ For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयास द्वारा प्राप्त हो सकता है और उसी नियम को नैतिक कह सकते हैं जो इस दृष्टि (व्यावहारिक) से उपयोगी हो। पालोचनात्मक पक्ष : सहजज्ञानवाद और सुखवाद का समन्वय–सिजविक अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन मिल, काण्ट और बटलरं के सिद्धान्तों की विशेषताओं और दुर्बलताओं को दिखाते हुए करता है। उसकी नैतिक आदर्श की व्याख्या सुखवाद (उपयोगितावाद) और सहजज्ञानवाद में समन्वय की अपेक्षा रखती है। सिजविक उस सिद्धान्त को सहजज्ञानवाद कहता है जिसके अनुसार वह आचरण शुभ है जो कर्तव्य के उन निदेशों के अनुरूप है जिनकी निरपेक्ष अनिवार्यता (unconditionally binding) सहजज्ञान द्वारा सिद्ध होती है। इस सिद्धान्त के आधार पर परमशुभ की धारणा उचित आचरण को निर्धारित करने के लिए अनिवार्य रूप से महत्त्व नहीं रखती। उसकी महत्ता इस पर निर्भर है कि उचित आचरण ही मनुष्य का परमशुभ है। वह चरित्र की पूर्णता है। सिजविक यह मानता है कि सहजज्ञानवाद कर्तव्यरत आचरण (वह कर्म जो कर्तव्य के निदेशों के अनुरूप हो) को महत्त्व देता है, न कि परमशुभ को। वह इस तथ्य को व्यापक रूप देता है कि परमशुभ की पूर्णधारणा अथवा मानव-कल्याण, कर्तव्य और सुख दोनों की भावना का समावेश करता है । कर्म करने के लिए जब व्यक्ति प्रेरित होता है तो केवल उसके सम्मुख नैतिक विचार ही नहीं रहता, किन्तु उसकी इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ भी उसे कर्मरत करती हैं। सिजविक मानव-जीवन के व्यापक अध्ययन की दुहाई देकर स्वार्थ और परमार्थ, सूखवाद और सहजज्ञानवाद में सामंजस्य स्थापित करता है। स्थूल दृष्टि से लगता है कि ये दोनों दो भिन्न दृष्टिकोण हैं, पर वास्तव में परमशुभ की धारणा इन दोनों के बिना अपूर्ण है। "मुझे सहजज्ञानवाद और उपयोगितावाद में कोई विरोध नहीं दीखा मुझे ऐसा लगा कि मिल और बैंथम के उपयोगितावाद को एक प्राधार की आवश्यकता है और यह आधार उसे केवल मूलगत सहजज्ञानवाद से प्राप्त हो सकता है। दूसरी ओर जब मैंने सामान्य बुद्धि-सूलभ नैतिकता (morality of common sense) का यथाशक्ति पूर्ण निरीक्षण किया तो मुझे उन नियमों के अतिरिक्त अन्य कोई स्पष्ट और स्वतःसिद्ध नियम नहीं मिले जिनकी कि उपयोगितावाद के साथ पूर्ण संगति हो ।' सिजविक यह समझाने का प्रयास करता है कि उपयोगितावाद 1. Sidgwick : The Methods of Ethics Preface, pp. XX-XXI. १६६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और सहजज्ञानवाद एक-दूसरे से अलग होकर, अपने-आपमें अपूर्ण हैं। इस अपूर्णता को समझाने एवं दोनों के समन्वय कीर थापना करने के लिए वे मिल, काण्ट और बटलर के सिद्धान्त के प्रांशिक सत्यों को लक्षित करते हैं। उन्होंने यह स्वीकार करते हुए कि सुख ही एकमात्र ध्येय है, सुखवादियों के विरुद्ध घोषित किया कि मनुष्य स्वभाववश सदैव सुख की खोज नहीं करता । मनुष्य को सुख की खोज करनी चाहिए, यह विवेक-सम्मत है। इस प्रकार उन्होंने सुखवाद को मनोवैज्ञानिक आधार के बदले बौद्धिक आधार दिया। अथवा मनोवैज्ञानिक सुखवाद का खण्डन कर नैतिक सुखवाद एवं उपयोगितावाद को स्वीकार किया। मिल ने सैद्धान्तिक रूप से सखवादी मनोविज्ञान को उचित बतलाया; किन्तु जब वह व्यावहारिक पक्ष पर पहुंचा तो उसने सामाजिक आचरण (परार्थ) को महत्त्व दिया। सहानुभूति द्वारा कर्तव्य और आत्म-स्वार्थ में ऐक्य स्थापित किया। सिजविक व्यापक सहानुभूतिपूर्ण कर्मों की महत्ता को स्वीकार करते हैं। किन्तु मिल के विरुद्ध कहते हैं कि विरले ही व्यक्ति ऐसे मिलेंगे जो अपने परिवार और प्रिय जनों के आगे मानव-समाज की चिन्ता करेंगे। मिल सुख की इच्छा का विचार साहचर्य द्वारा 'सद्गुण के प्रति निःस्वार्थ प्रेम' में परिवर्तन मान लेता है। मिल ने जिस प्रकार कर्तव्य और स्वार्थ के विरोध को दूर किया उसे सिजविक दार्शनिक रूप से सन्तोषप्रद नहीं मानता। सिजविक कहता है कि मिल ने मनोवैज्ञानिक सुखवाद (प्रत्येक व्यक्ति अपना सुख खोजता है) और नैतिक सुखवाद (प्रत्येक व्यक्ति को जनसामान्य का सुख खोजना चाहिए) दोनों को ही स्वीकार कर एक आकर्षक किन्तु असंगतिपूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उपर्यक्त दोनों 'वाद' परस्पर-विरोधी हैं। एक प्रात्मसुख का पोषक है तो दूसरा आत्मत्याग का (विशेषकर जिस रूप को मिल ने स्वीकार किया है)। स्वार्थ और परमार्थ के प्रश्न को बैंथम सांसारिक अनुभव के नाम पर सुलझाता है और मिल आत्मत्याग के गुणगान द्वारा अथवा गौरव-बोध और विचार-सहयोग द्वारा । यह समाधान सिजविक के अनुसार अत्यन्त छिछला, अपर्याप्त और महत्त्वहीन है। कर्मों को समझने के लिए केवल अनुभव ही पर्याप्त नहीं है। उसे सामान्यबोध (common sense) से संयुक्त करना भी अनिवार्य है। अकेला अनुभव अथवा प्रयोगज्ञान अक्सर ठीक नहीं होता है। उसे उचित और निश्चित ज्ञान की ओर ले जाने के लिए सामान्य बोध की कसौटी पर कसना होता है। अनुभवमात्र पर आधारित सुखवादी गणना व्यर्थ है। उपयोगितावाद की असंगतियों और सुखवाद (परिशेष) । १६७ For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असामंजस्य को दूर करने के लिए सिजविक उसे नैतिक सहजज्ञान से सम्बद्ध करते हैं। सहजज्ञान की खोज में वे काण्ट के नैतिक दर्शन से प्रभावित होकर उसके मूलगत नीतिवाक्य (उस सिद्धान्त के अनुसार कर्म करो जिसके बारे में तुम यह भी इच्छा कर सको कि वह एक सार्वभौम नियम बन जाये) की सत्यता और महत्त्व को स्वीकार कर लेते हैं। उनके अनुसार यह एक ऐसा नीतिवाक्य है जिसका कि बुद्धि अनुमोदन करती है। प्रश्न यह उठता है कि इसके आधार पर वास्तविक जीवन में जो स्वार्थ और कर्तव्य के बीच द्वन्द्व उत्पन्न हो जाता है उसे कैसे सुलझाया जा सकता है ? इसमें सन्देह नहीं कि विश्व के दृष्टिकोण से अल्प सुख की तुलना में अधिक सुख विवेक-सम्मत है, चाहे अल्प सख व्यक्ति का सख क्यों न हो। किन्तु विवेक यह भी बतलाता है कि व्यक्ति को अपने सुख का वरण करना चाहिए । अर्थात् आत्म-त्याग और आत्म-स्नेह दोनों ही विचारसंगत हैं। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के साथ ही सिजविक बटलर, काण्ट और मिल से दूर पहुंच जाते हैं । अपने उस कथन की पुष्टि करने के अभिप्राय से वे बटलर के सिद्धान्त पर पुनर्विचार कर उस परिणाम पर पहुंचते हैं कि बटलर के अन्तर्बोध में उनका सिद्धान्त ध्वनित होता है। बटलर के अनुसार चिन्तन, मनन एवं अन्तरावलोकन बतलाता है कि अन्तर्बोध का आदेश परम आदेश है। सिजविक अन्तर्बोध के आदेश को बुद्धि का आदेश कहकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि वे अन्तर्बोध, उपयोगितावाद और विचारसंगत बौद्धिक आत्म-प्रेम (rational self-love) में सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं। वे बटलर के सिद्धान्त से उन अंशों को खोजते हैं जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रात्म-प्रेम का अनुमोदन करें। बटलर एक स्थल पर कहते हैं, "स्वार्थ, मेरा अपना सख, स्पष्ट कर्तव्य है।" उसे ही बटलर बौद्धिक आत्मप्रेम कहते हैं। किन्तु वे आत्म-प्रेम तथा अन्तर्बोध में विरोध मानते हैं और कहते हैं कि वह 'शासनकी शक्ति का द्वैत' (dualism of governing faculty) है। सिजविक उसे 'व्यावहारिक बुद्धि का द्वैत' (dualism of the practical reason) कहते हैं। उनके अनुसार वही आदेश मानने योग्य है जो बौद्धिक है। बटलर से प्रभावित होकर वे कहते हैं कि मनुष्य के कर्म 37 farfarei (disinterested) 70 Fret RTFatraft (extra-regarding) प्रवृत्तियों से भी प्रेरित होते हैं जिनका वैयक्तिक सुख से कोई सम्बन्ध नहीं। यहाँ पर वे वास्तव में मिल के सिद्धान्त के मनोवैज्ञानिक आधार को छोड़ देते हैं । वे मनोवैज्ञानिक सुखवाद को दोषपूर्ण बतलाकर यह कहते हैं कि यदि १६८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख के प्रति आवेग अत्यन्त प्रवल है तो वह अपने ध्येय को प्राप्त नहीं कर सकता। उनके अनुसार सुख इच्छा का स्वाभाविक विषय नहीं है, वह उचित विषय है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद और नैतिक सुखवाद प्रापस में विरोधपूर्ण हैं । यदि मनोवैज्ञानिक सुखवाद यह कहता है कि मेरे लिए अपने अधिकतम सुख के अतिरिक्त किसी अन्य विषय को लक्ष्य (जैसे अधिकतम संख्या का सुख) बनाना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से असम्भव है तो उस असम्भव विषय को कर्तव्य बतलाना भ्रान्तिपूर्ण है। वही कर्म नैतिक कर्तव्य के अन्तर्गत आ सकते हैं जिनको करना व्यक्ति के लिए सम्भव है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद वह सिद्धान्त है जो अन्य सब विरोधी नैतिक सिद्धान्तों का खण्डन करता है। अतः उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह कहना कि 'अपने अधिकतम सुख की खोज करना व्यक्ति का कर्तव्य है' तभी युक्तिसंगत हो सकता है जबकि उसके लिए मनोवैज्ञानिक रूप से अन्य विषयों की खोज करना भी सम्भव हो, अन्यथा उपर्युक्त कथन व्यर्थ है। कर्तव्य के स्वरूप को समझाने के लिए यह समझाना आवश्यक है कि एकमात्र सुख की प्रेरणा से व्यक्ति कर्म नहीं करता। प्रेरणाएँ कई हैं। उचित प्रेरणा (कर्तव्य) का अन्य प्रेरणानों से विरोध होने पर भी व्यक्ति उसे चुनता है, उसके अनुकूल कर्म करता है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद नैतिक स्वार्थ-सुखवाद (हॉब्स) की स्थापना तक नहीं कर सकता । यदि प्रत्येक क्षण व्यक्ति अधिक सुख की चिन्ता करे तो वह अपने ही अधिकतम सुख का नाश करेगा। सुख-प्राप्ति की तीव्र इच्छा के कारण वह उस सुख से संयुक्त परिणामों को नहीं समझ पायेगा और शीघ्रता के कारण उस तात्कालिक सुख का वरण कर लेगा जो कि क्षणिक और निकट है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद को त्याज्य घोषित करके तथा नैतिक सुखवाद को मानते हुए सिजविक सहजज्ञानवादी उपयोगितावाद की स्थापना करते हैं। वे इस मनोवैज्ञानिक सत्य को 'मानते हैं कि मनुष्य के कर्म निःस्वार्थ प्रवृत्तियों द्वारा भी प्रेरित होते हैं। उदाहरणार्थ, परोपकार (benevolence) निःस्वार्थ प्रवृत्ति है। मनुष्य में दूसरों के सुख के लिए कर्म करने की इच्छा है । उसको सन्तुष्ट करने के लिए वह अपने स्वार्थ का निराकरण करना अपना कर्तव्य मानता है। मनुष्य में उचित और विवेक-सम्मत कर्म करने की इच्छा होती है। यह इच्छा बटलर के अन्तर्बोध के आदेश अथवा काण्ट के नैतिक नियम के प्रति आदर की धारणा के समान है। इस सत्य का ज्ञान सिजविक के सिद्धान्त को बटलर के सिद्धान्त से युक्त कर देता है । मूलगत नैतिक सहजज्ञान सामान्य सुख की वृद्धि को सर्वोच्च सुखवाद (परिशेष) | १६९ For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादर्श के रूप में समझा सकता है। उसे अनुभव के आधार पर नहीं समझाया जा सकता । हेनरी मूर' और क्लार्क' के सिद्धान्त में सिजविक को यह स्वतःसिद्ध वाक्य मिला कि "बौद्धिक प्राणी सार्वभौम सुख को लक्ष्य मानने के लिए बाध्य है।" किन्तु प्रश्न यह है कि सहजज्ञान के नियमों के विधान को कैसे समझा जा सकता है ? वह कैसे बोधगम्य होता है ? सर्वसामान्य की चेतना द्वारा प्राप्त अन्तर्बोध को स्वीकार करना दार्शनिक दृष्टि में उचित नहीं है। सहजज्ञान के विधान को अन्तर्बोध नहीं समझा जा सकता है। उसको समझने के लिए यह आवश्यक है कि सामान्यबोध की नैतिकता के नियम की तुलना द्वारा तथा बौद्धिक चिन्तन द्वारा संगतिपूर्ण विधान बना लिया जाय । उन नियमों को स्वीकृत कर लिया जाय जो स्पष्ट, संगतिपूर्ण और अधिकांश व्यक्तियों द्वारा स्वीकृत हों। इस प्रकार सामान्यबोध की नैतिकता के निष्पक्ष परीक्षण द्वारा उसे ज्ञात हुआ कि सामान्यबोध की नैतिकता उन नियमों का निर्माण करती है जो सामान्य सख की वृद्धि करते हैं। ऐसे सहज निर्णय अनायास ही यह सिद्ध करते हैं कि मानस में कुछ परम नैतिक सत्य हैं। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उपयोगितावाद और सहजज्ञानवाद में विरोध नहीं है किन्तु स्वार्थ और कर्तव्य में अवश्य विरोध है। उस विरोध को यह मानकर दूर किया जा सकता है कि विश्व का विधान नैतिक है (काण्ट और बटलर) और स्वार्थ तथा परमार्थ दोनों के ही लिए विधान में समान स्थान है। . बौद्धिक उपयोगितावाद : दार्शनिक सहजज्ञानवाद-सुखवादियों ने परमशुभ के स्वरूप को समझाने का प्रयास किया। उसको भावना के रूप में समझाया। उनके अनुसार जीवन का चरम ध्येय बौद्धिक या विवेक-सम्मत नहीं है, वह इन्द्रियशुभ है। वह शुभ चाहे व्यक्ति का हो अथवा समाज का, अपने मूल रूप में वह भावनात्मक है। मिल और बैंथम ने स्वार्थ और परमार्थ में सामंजस्य स्थापित करना चाहा। विकासवादियों ने सहानुभूति और विकास के नियम द्वारा उस कठिनाई को हल करना चाहा। सिजविक यह कहते हैं कि भावना द्वारा उस द्वन्द्व को दूर नहीं किया जा सकता । बुद्धि द्वारा ही उस विरोध की निवृत्ति हो सकती है। वे उपयोगितावाद को बौद्धिक प्राधार देकर स्वार्थ और परमार्थ के विरोध को दूर करते हैं। बुद्धि व्यवस्थापक तत्त्व (regulative: 1. Henry More. 2. Clarke. . १७० । नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ principle) है। वह शुभ का वितरण करती है। पूर्व के उपयोगितावादियों की भाँति सिजविक ने सहानुभूति, विचार-साहचर्य आदि की शरण लेकर मनोवैज्ञानिक प्रमाण नहीं दिये, किन्तु तार्किक प्रमाण दिये। वे प्रमाण कहाँ तक सफल हैं इसे सिजविक के सिद्धान्त का अध्ययन ही बतलायेगा। मिल और बैंथम के सिद्धान्त की तुलना में सिजविक का सिद्धान्त बौद्धिक उपयोगितावाद (rational utilitarianism) का पोषक है। उपयोगितावाद को बौद्धिक आधार देने के प्रयास में उन्होंने उसे सहजज्ञानवाद से संयूक्त किया। सुख ही परमशुभ है-दार्शनिक सहजज्ञानवादी उपयोगितावाद के प्राधार पर सिजविक यह मानता है कि वांछनीय चेतना (desirable conscious-- ness) ही परमशुभ है । वांछनीय चेतना के द्वारा वह सामान्य शुभ या सामान्य सुख को महत्त्व देता है। अपने उस कथन की पुष्टि में वह कहता है कि यदि शान्तिपूर्वक विचार करें तो मालूम होगा कि उन आदर्शों का मूल्य, जिन्हें अधिकांश व्यक्ति महत्त्व देते हैं, सापेक्ष है। उन्हें महत्त्व इसलिए नहीं दिया जाता कि वे अपने-आपमें शुभ हैं वरन् इसलिए कि वे भावजीवी प्राणी (sentiment being) के सख का किसी-न-किसी रूप में उत्पादन करते हैं। अधिकतर यह समझा जाता है कि चेतना की कुछ स्थितियाँ-सत्य का बोध, सौन्दर्य की भावना, स्वतन्त्रता या सदगुण की प्राप्ति का संकल्प-अपने-आपमें वांछनीय हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि ज्ञान, सौन्दर्य, सद्गुण, सत्य, स्वतन्त्रता आदि सुख की प्राप्ति के लिए साधनमात्र है । वह अपने-आपमें वांछनीय नहीं है। सार्वभौम सुख अनन्त भावजीवी प्राणियों की वांछनीय चेतना या भावना को अपनी व्यापकता, महत्ता और स्थिरता के कारण अनायास ही आकृष्ट करता है। अपनी विशालता के कारण वह कल्पना को पूर्ण तृप्त करता है । उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि सार्वभौम सुख वैयक्तिक सुख का निराकरण करता है। बुद्धि बताती है कि व्यक्ति जो विश्व का एक अंग होते हुए भी अपना निजत्व रखता है-का अपना सुख उसका चरम ध्येय है। साथ ही वह अनन्त भावजीवियों के सुख का निराकरण नहीं कर सकता है क्योंकि विश्व में वही एकमात्र भावजीवी नहीं है। अतः उसके लिए वास्तविक रूप से विवेक-सम्मत यह है कि वह अपने सुख का दूसरों के अधिकतम सुख के लिए त्याग करे । जीवन का ध्येय एक ही है और वह सुख है । किन्तु बुद्धि बतलाती है कि उस सुख को वैयक्तिक दृष्टिकोण और समष्टि के दृष्टिकोण से समझना चाहिए। उन दोनों में भेद नहीं है। दोनों ही समान रूप से विवेकसम्मत हैं । अतः सिजविक सुखवाद (परिशेष) | १७१ For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं कि भावजीवियों के परमशुभ की व्यवस्थित संगतिपूर्ण व्याख्या यही कहकर दी जा सकती है कि सार्वभौम सुख ही सामान्य व्येय है। . सुख-वितरण की समस्या : न्याय, प्रात्मप्रेम, परोपकारिता-जीवन का ध्येय भावनात्मक ध्येय एवं सुख है । सुख शुभ है। व्यक्तियों के शुभ का ज्ञान बतलाता है कि वह समष्टि का सार्वभौम शुभ (total or universal) good) है। व्यक्ति और उसके अनुभव उस शुभ के निर्माणात्मक अंग हैं। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह शुभ की परम संख्या तक वृद्धि करे । उसके लिए उन नियमों के पालन करने की आवश्यकता है जो अधिकतम परिमाण में सार्वभौम शभ के उत्पादन में सहायक हों। सिजविक यहाँ पर उन नियमों की अोर से सावधान करते हैं जो कि सर्वसामान्य के बोध का समर्थन पाने के कारण प्रायः नैतिक लगते हैं। स्वतःसिद्ध नैतिक नियमों के विधान को समझने के लिए दार्शनिक सहजज्ञान आवश्यक है। सिजविक कहते हैं कि जब अत्यन्त स्पष्ट और निश्चित सहजलब्ध नैतिक नियमों पर चिन्तन करता हूँ तब मुझे जितने स्पष्ट और निश्चित रेखागणित या गणित के स्वतःसिद्ध वाक्य लगते हैं उतने ही स्पष्ट और निश्चित, निस्सन्देह, यह भी लगता है कि मेरे लिए यह उचित और बौद्धिक है कि मैं दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करूं जैसा कि मैं समान परिस्थिति में सोचता हूं कि मेरे प्रति होना चाहिए, और मुझे वही करना चाहिए जो सार्वभौम शुभ या सुख का उत्पादन करे । यह सिजविक को न्याय या समानता का स्वतःसिद्ध सिद्धान्त (The axiom of Justice or Equality) देता है । न्याय का अर्थ केवल नियम के अनुसार कर्म करना नहीं है । वह उससे भी व्यापक तथा समानता का पोषक है। न्याय अन्ध-समानता में विश्वास नहीं करता। उसकी समानता निष्पक्षता की सूचक है । न्याय का सिद्धान्त बताता है कि व्यक्ति समान हैं और एक ही वर्ग की समग्रता के अंग हैं। व्यक्ति का सम्पूर्ण शुभ उस वर्ग की समग्रता के शुभ को प्रस्तुत करता है। न्याय बताता है कि व्यक्ति अथवा जाति के सम्पूर्ण सुख अथवा अधिकतम सुख को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए तथा जीवन के सब क्षणों को समान महत्त्व देना चाहिए। सिजविक में दूसरा नीतिवाक्य बौद्धिक प्रात्मप्रेम या व्यावहारिक विवेक (rational self-love or prudence) का मिलता है। इसके अनुसार व्यक्ति को अपने शुभ को ध्येय बनाना चाहिए। व्यक्ति को अपने चेतन जीवन में सब अंगों को निष्पक्ष रूप से समान महत्त्व देना चाहिए । आगामी प्रत्येक क्षण को उतना ही महत्त्व देना चाहिए जितना कि वह वर्तमान को देता है। क्षुद्र वर्तमान सुख को १७२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविष्य के अधिक सुख के बदले नहीं चुनना चाहिए और न निश्चित वर्तमान सुख को अनिश्चित भविष्य के सुख के लिए ही छोड़ना चाहिए । सुख को चुनते समय भली-भाँति हित-अहित को समझ लेना चाहिए। अपने जीवन के कार्य-कलापों को निष्पक्ष रूप से समझना, अपना सुख चुनते समय वर्तमान और भविष्य के सुखों को बराबर मूल्यवान् मानना यह बौद्धिक आत्म-प्रेम का सन्देश है। यदि सिरेनैक्स के सिद्धान्त को स्वीकार करें तो भावना वर्तमान जीवन को ही सबकुछ मानती है, किन्तु सिजविक के अनुसार जीवन में बुद्धि के स्थान को नहीं भूलना चाहिए । बुद्धि ही जीवन में सुख का उचित वितरण करती है। व्यक्ति को समस्त जीवन के सुख अथवा पूर्ण शुभ की खोज करनी चाहिए । जब हम व्यक्ति के पूर्ण शुभ के बारे में सोचते हैं तो हमें तीसरा नीतिवाक्य मिलता है । यह बौद्धिक परोपकारिता का स्वतःसिद्ध कथन (The axiom of Rational Benevolence) है । व्यक्तियों के शुभ की तुलना और उनका जोड़ 'सार्वभौम शभ' की धारणा को लाता है। समग्रता और उसके अंशों का सम्बन्ध यह बतलाता है कि विश्व के दृष्टिकोण से किसी एक व्यक्ति का सख वैसा ही है जैसा कि किसी अन्य व्यक्ति का । अन्य व्यक्तियों की तुलना में किसी व्यक्ति के सुख को तभी महत्त्व दे सकते हैं जबकि उससे अधिक सुख प्राप्त होने के असाधारण कारण हो । बुद्धि बतलाती है कि व्यक्ति के जीवन का ध्येय उसका अपना ही सुख नहीं है वरन् सामान्य सुख है। बुद्धि स्वार्थ और परमार्थ को यक्त करती है। मिल की भांति सिजविक उपयोगितावाद का मनोवैज्ञानिक प्रमाण नहीं देते, ताकिक प्रमाण देते हैं । बुद्धि के लिए प्रत्येक व्यक्ति भावजीवी है। प्रत्येक को सुख भोगने का अधिकार है। बुद्धि के सम्मुख 'मेरा-तेरा' का भद नहीं है। प्रत्येक सार्वभौम शुभ का अंग है। उसके सुख का उतना ही महत्त्व है जितना कि किसी दूसरे अंग का। वैयक्तिक और सामाजिक सुख दोनों की समान रूप से वृद्धि की आवश्यकता है। बुद्धि बतलाती है कि व्यक्ति का सुख उसके लिए प्रमुख रूप से शुभ है। इससे यह उपलक्षित होता है कि दूसरों का शुभ भी समान महत्त्व का है। . सहजज्ञानवादी उपयोगिता के साथ सुखवाद की आलोचना सिजविक के सिद्धान्त का मूल्य-सिजविक के सिद्धान्त में नैतिक निष्ठा मिलती है । वे मुक्त हृदय से सच्चे नैतिक नियमों को समझाने के लिए उद्यत सुखवाद (परिशेष) | १७३ For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, जिनके लिए उन्होंने गम्भीर आलोचनात्मक पद्धति को अपनाया है। उत्तरप्रत्युत्तर द्वारा नैतिक प्रश्नों की गहराई और व्यापकता दोनों को ही समझना चाहा है । विभिन्न सिद्धान्तों का परीक्षण करके उन्होंने नैतिक सत्य को समझने की चेष्टा की है। अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करते समय एक ओर तो वे काण्ट के निष्पक्षता (समानता) के सिद्धान्त से प्रभावित हुए हैं, दूसरी ओर बटलर के प्रात्मप्रेम से और तीसरी ओर उपयोगितावाद से । इन तत्त्वों को एकता के साँचे में ढालने के लिए उन्होंने सामान्यबोध को सहजज्ञानवाद की कसौटी ‘पर कसा । महत् दार्शनिक चिन्तन की तूलिका को इस मिश्रित रंग में डुबोकर उन्होंने जिस नतिक सत्य का चित्र बनाया है वह अपनी सर्वग्राही प्रवृत्ति के कारण अपना सन्तुलन खो बैठा है। इसमें सन्देह नहीं कि सिजविक का सिद्धान्त पूर्ववर्ती नैतिक सिद्धान्तों से अधिक व्यवस्थित, व्यापक तथा गढ़ है। 'फिर भी यह मानना पड़ेगा कि जिस गम्भीर सतर्कता के साथ तथा नैतिक पूर्वग्रहों से मुक्त होकर, वे अपने दर्शन का प्रारम्भ करते हैं और उसके विभिन्न विषयों और सूक्ष्मतम पहलुओं को उठाते हैं, अन्त में वे अपने विचारों के 'पारस्परिक विरोधों के कारण पाठकों को उतना ही निराश भी कर देते हैं। ___ स्वार्थ-परमार्थ का अनमेल मिलाप-दार्शनिक सहजज्ञानवाद को मानने के कारण वे यह स्वीकार करते हैं कि नैतिकता का आधार बौद्धिक या अनुभवनिरपेक्ष निर्णय है। जहाँ तक व्यक्ति के नैतिक कर्म की प्रेरणा का सम्बन्ध है, 'सिजविक 'सहजज्ञानवादी' या 'बुद्धिवादी' हैं । वे सुखवादी वहीं तक हैं जहाँ तक कि उनकी परम या सार्वभौम शुभ के स्वरूप की धारणा का प्रश्न है और तदनुसार ही उनके नैतिक मापदण्ड का दृष्टिकोण है। वास्तव में उनका सिद्धान्त बुद्धिवाद और सुखवाद अथवा सहजज्ञानवाद और उपयोगितावाद का असंगतिपूर्ण मेल है। वह इन दोनों के विरोध को दूर नहीं कर पाया । सुखवाद और बुद्धिवाद की तार्किक अनुरूपता को सिद्ध करने के प्रयास में सिजविक असफल रहे। उनके सिद्धान्त की मूल कठिनाई का पता तब चलता है जब कर्तव्य की बौद्धिक 'धारणा (परमार्थ) और मनुष्य के वास्तविक शुभ (स्वार्थ) के सामंजस्य की व्यावहारिक कठिनाई उत्पन्न होती है। 'व्यावहारिक विवेक का द्वैत' स्वार्थ और परमार्थ के वृत्त में घूमता है। सुखवाद को मानने पर परोपकारिता के उच्च आदर्श को प्राप्त करना समतल भूमि में चक्कर लगाकर पर्वतशिखर पर 1. Rashdall-The Theory of Good & Evil, Vol. I, p. 53. २७४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरूढ़ होने के समान असम्भव है। सुख और प्रानन्द-सुखवादियों ने नैतिक ध्येय को सुख (pleasure) और आनन्द (happiness) शब्दों के द्वारा समझाया है। इन्हें वे पर्यायवाची मानते हैं । अरस्तू ने इस पर अच्छी तरह प्रकाश डाला है कि सुख और आनन्द एक नहीं हैं। उसने कहा कि इसमें मतभेद नहीं कि ध्येय आनन्द है; किन्तु आनन्द की परिभाषा में अवश्य मतभेद है। कुछ लोगों ने आनन्द की व्याख्या सुख के अर्थ में की है जो अनुचित है। सुख वह भावना है जो विशिष्ट इच्छाओं, सहजप्रवृत्तियों तथा आवेगों की सन्तुष्टि के साथ रहता है । "आनन्द वह भावना है जो उस बोध के साथ आता है जो कि क्षणिक इन्द्रिय-सुखों की पूर्ति के अतिरिक्त उनको सन्तुष्ट न कर सकने की असफलता अथवा अस्वीकृति के दुःख के साथ होते हुए भी साधारणतः आत्मा की समग्रता की पूर्ति करता है ।'' सब इच्छाओं की सामंजस्यपूर्ण प्राप्ति ही आनन्द है। वह प्रात्म-प्राप्ति (selfrealisation) की स्थिति है। इसे ही ग्रीन आत्म-सन्तोष (self.satisfaction) की स्थिति कहता है। उसे प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अधिकतम परिमाण के सुख के प्रति उदासीन होकर असह्य कष्ट उठाता है । आनन्द अपनेआपमें कल्याण (welfare) का सूचक है। कल्याण भावजीवी का कल्याण नहीं, सम्पूर्ण आत्मा का कल्याण है। सुखवादियों के अनुसार सुख भावनामों और इच्छायों की तृप्ति का सूचक है। इस प्रर्थ में वह क्षणिक और सापेक्ष है। उसका सम्बन्ध विशिष्ट कर्म से है। प्रानन्द समग्र सक्रिय आत्मा (total active self) का कल्याण है। वह नित्य और सार्वभौम है। उसका ध्येय केवल भावनात्मक सुख नहीं, किन्तु बौद्धिक सुख भी है। वह सम्पूर्ण आत्मा एवं उस कर्मरत संकल्प-शक्ति का कल्याण है जो बुद्धि और भावना का योग है। __ जीवन का ध्येय आत्मसन्तोष या आत्मकल्याण है। वह सुखद अवश्य है, किन्तु सुख नहीं है। सिजविक ने अन्य सखवादियों की भांति सखद और सख को एक ही ले लिया। वे मिल की उस भूल से अपने को मुक्त नहीं कर पाये जिसके कारण वह कहता है कि 'शुभ सुखद है इसलिए वह सुख है।' सिजविक अथवा अन्य सुखवादियों के विरुद्ध प्रश्न यह उठता है कि क्या सुख ही एकमात्र वांछनीय ध्येय है ? क्या वस्तुओं का मूल्य इस पर निर्भर है कि वे सुख के उत्पादन में कितनी सहायक हैं ? ' मनुष्य का वास्तविक स्वरूप क्या है ? उस १. म्योरहेड, पृ० १.६. सुखवाद (परिशेष) | १७५ For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ का क्या स्वरूप है जिसे प्राप्त करना उसके लिए उचित है ? प्राचीन सुखवाद ने जीवन के ध्येय को समझना चाहा किन्तु अर्वाचीन सुखवाद ने उस ध्येय को स्वीकार करते हुए कर्तव्य के प्रश्न को भी उठाया । मूलतः दोनों का प्रश्न एक ही है । दोनों ने जानना चाहा कि जीवन में सुख का क्या स्थान है । वास्तव में चरम ध्येय का प्रश्न प्रात्मा का प्रश्न है । उस आत्मा का क्या स्वरूप है जिसकी पूर्णता और कल्याण के लिए प्रयास किया जाता है ? शुभ का क्या स्वरूप हैबौद्धिक या भावनात्मक ? सुखवादियों ने मनुष्य को भावजीवी मानते हुए सुख को शुभ कहा है । उन्होंने विभिन्न नियमों की, कर्मों के औचित्य - अनौचित्य की, कर्तव्य - अधिकार एवं मानव जीवन के सम्पूर्ण कार्यकलापों की व्याख्या इसी आधार पर की है । इसमें सन्देह नहीं कि परम ध्येय की ऐसी स्पष्ट स्वाभाविक व्याख्या प्रथम दृष्टि में श्राकर्षक लगती है । यही कारण है कि कई प्रबुद्ध विचारकों - पैले, बेंथम, मिल, स्पेंसर, सिजविक श्रादि - का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ और उन्होंने सुख को पूर्ण प्राधिपत्य देना चाहा । किन्तु श्रात्मा के भ्रान्तिपूर्ण मनोवैज्ञानिक ज्ञान को अपनाने के कारण एवं उसके गूढ़ दार्शनिक रूप को नहीं समझ सकने के कारण उनका सिद्धान्त खण्डनीय और असिद्ध हो गया । मिल और सिजविक के सिद्धान्त की असंगतियाँ उसका स्पष्ट प्रमाण हैं । सिजविक ने उसे बौद्धिक श्राधार देने का प्रयास किया किन्तु वह असफल रहे । वह उन भूलों से अपने को मुक्त नहीं कर पाये जो मूलगत सुखवाद ने की हैं । आत्मा सुखप्रद अनुभवों का समुदाय नहीं है । स्वार्थ और परमार्थ में व्यापक दृष्टि से कोई विरोध नहीं है । प्रात्मा का ही पूर्ण रूप विश्वात्मा है । आत्मा के सत्य स्वरूप का ज्ञान पूर्णतावाद की स्थापना करता है। वह सुखवाद की संकीर्ण दीवार को तोड़ विश्ववाद में प्रवेश करता है । उसके अनुसार जीवन का ध्येय मात्म- पूर्णता है । आत्म- पूर्णता विश्वात्मा की प्राप्ति है । पूर्णतावादियों ने इस सत्य को माना है । श्रात्मा के सत्य स्वरूप को न समझ सकने के कारण ही सुखवादी व्यक्ति और समाज के अभिन्न सम्बन्ध को नहीं समझ पाये । उन्होंने स्वतः एक काल्पनिक रोग उत्पन्न किया और फिर उसका उपचार खोजना चाहा। सुखवाद के पोषक जितने भी विचारक हैं उन्होंने सबसे भयंकर भूल श्रेय (good) और प्रेय ( pleasure ) के सम्बन्ध में की है । इसमें सन्देह नहीं कि श्रेय प्रेय अवश्य है किन्तु प्रेय श्रेय नहीं है । श्रेय प्रेय होने पर भी प्रेय से ऊँचा है। इन्द्रिय-सुख मात्र प्रेय के अधीन है। श्रेय प्रेय से अधिक उच्च और व्यापक है । वह परमशुभ है । १७६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१३ विकासवादी सुखवाद : सामान्य परिचय विकास की प्राकृतिक और भाववादी व्याख्या-विकासवाद यह मानता है कि विकास उन्नति की एक क्रमिक श्रृंखला है, जिसमें प्रारम्भ, पद्धतिक्रम और अन्त मिलता है। विकसित होती हुई वस्तु का एक विशेष स्थिति से मारम्भ होता है । फिर वह विकास की अनेक जटिल स्थितियों से गुजरती है और इस भांति अपनी अन्तिम स्थिति को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ती है। विकास का प्रारम्भ अतीत के गर्भ में छिपा हुआ है, अन्तिम स्थिति भविष्य में प्रदश्य है, केवल पद्धतिक्रम (मध्य की स्थिति) को ही समझा जा सकता है। जीवन में सर्वत्र विकास मिलता है। वह एक विश्वव्यापी नियम है। नैतिक जीवन में भी विकास का क्रम मिलता है जिसे हम दो प्रकार से समझा सकते हैं; एक प्राकृतिक और दूसरा प्रादर्शवादी । डाविन, स्पेंसर और उसके अनुयायियों ने विकास को प्राकृतिक ढंग से समझाना चाहा, इसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक पद्धति को अपनाया और नीतिशास्त्र को पूर्ण रूप से वैज्ञानिक आधार देने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि नैतिक जीवन को मानव-जाति के प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में ही समझ सकते हैं । नैतिक मान्यताएँ प्राकृतिक घटनाओं की भाँति पूर्व की घटनाओं से कार्य-कारण रूप से सम्बन्धित हैं। इसके विपरीत हीगल, ग्रीन, बेडले, बोसेंके आदि ने कहा कि नैतिक जीवन को ध्येय या नैतिक पादर्श द्वारा समझाया जा सकता है। उन्होंने नीतिशास्त्र को प्रादर्श विधायक विज्ञान माना, उसे यथार्थ विज्ञान का रूप नहीं दिया। . विकासवादी सुखवाद / १७५ For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिशास्त्र को डार्विन की देन-उन्नीसवीं शताब्दी में लमार्क' तथा डाविन ने जीवयोनियों की उत्पत्ति को विकास द्वारा समझाया । डार्विन जड़वादी विचारक था, उसकी जीवशास्त्र में रुचि थी। जैव सिद्धान्तों को समझने के लिए उसने खोज की और उन प्राणिशास्त्रीय अनुसन्धानों को दो पुस्तकों के रूप में संकलित किया । उसने उन पुस्तकों में जैव प्रश्नों की समीक्षात्मक विवेचना की और जानना चाहा कि जीवयोनियों में जो परिवर्तन मिलता है उसे कैसे समझा जा सकता है। उनके जन्म और वृद्धि को कौन नियम नियन्त्रित करते हैं। इन प्रश्नों के समाधान के रूप में ही उसने विकासवाद को वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित किया। डार्विन ने विकास का प्रयोग बढ़ने या वृद्धि के अर्थ में किया। यह वृद्धि नवीन सृष्टि नहीं है, अकारण कुछ भी उत्पन्न नहीं होता । वह उत्पत्ति का ही अनिवार्य परिणाम है। सरल प्राकारों की जटिल आकारों में परिणति ही विकास है । उदाहरणार्थ, अंकुर की वृक्ष के रूप में परिणति विकास है। डार्विन ने यह समझाया कि जीवयोनियों में परिवर्तन होते रहते हैं । वे स्थिर और अपरिवर्तनशील नहीं हैं। बहुत-सारी जीवयोनियां, जो आज भिन्न लगती हैं, वे एक ही मूल से उत्पन्न हुई हैं। उनके पूर्वज एक ही थे । आज जीवन्त जीवयोनियों के तथा वृक्षों, पशु-पक्षियों, मनुष्यों के रूप में जो आकारप्रकार मिलते हैं वे प्रारम्भ के कम विकसित आकारों के जीवों का ही जटिल रूप हैं। क्रम विकास इन्हें एकरूपता (homogeneous) से अनेकरूपता (heterogeneous) की ओर ले जाता है। पहले न तो इतने अधिक वर्ग थे और न उनका रूप ही इतना जटिल था। वर्षों का जैव इतिहास बताता है कि मनुष्य का जनक मनुष्य नहीं है, वह कमशः एक प्रकार के बन्दर से विकसित हमा है। उसकी एक जीवयोनि से दूसरी जीवयोनि में क्रमपरिणति हई है। इतिहास यह भी बतलाता है कि विकास एक विश्वव्यापी नियम है। प्रश्न यह है कि विकास का नियम क्या है ? सरल आकार जटिल प्राकारों में कैसे परि'णत होते हैं ? जीवयोनियों में इस परिवर्तन को कैसे समझाया जा सकता है ? डार्विन ने अपने विकासवाद में भौतिक परिस्थितियों और प्राकृतिक नियमों को महत्त्व दिया। वह जीवशास्त्री था। उसका उत्तर जड़वादी उत्तर था। उसने 1. Lamark. 2. Charles Darwin, 1809-1882. 3. The Descent of Man (1861) The origin of species (1859.) १७८ । नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वदर्शकों अथवा धार्मिक विचारकों की भांति ईश्वर, परमतत्त्व, जीवनी-शक्ति और विश्व-प्रयोजन को महत्त्व नहीं दिया। उसने प्राकृतिक नियमों का निरीक्षण तथा वृक्ष, पशु-पक्षियों के जीवन का अध्ययन करके उसके आधार पर क्रमविकास को समझाया । डार्विन ने विकास के क्रम को 'प्राकृतिक चयन', जीवनसंघर्ष, परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तन, योग्यतम की विजय और प्रानुवंशिकता. द्वारा समझाया । उसका कहना है कि जीवयोनियों में परिवर्तन होते रहते हैं । उसका कारण यह है कि जीवित रहने के लिए उन्हें परिस्थितियों से संघर्ष करना पड़ता है । प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए अपने परिवेश तथा अन्य प्राणियों के साथ संघर्ष करना पड़ता है । इसमें वही जीव बच पाते हैं जो वातावरण के अनुरूप अपने को बदल सकते हैं । 'अनुकूल परिवर्तन वाली जीवयोनियां सुरक्षित रहती हैं और प्रतिकूल वाली नष्ट हो जाती हैं।' अनुकूल परिवर्तन वाली योग्यतम जीवयोनियां जीवन-संघर्ष में जीवित रहती हैं और परिवर्तनों द्वारा नयी जातियों को भी उत्पन्न करती हैं । डार्विन वंशपरम्परा के शरीरशास्त्र-सम्बन्धी सिद्धान्त को मानता है । वह जातियों के गुण, स्वरूप और स्वभाव को निर्धारित करने के लिए आनुवंशिकता की सहायता लेता है। प्रानुवंशिकता के कारण ही पिता के जीवन-रक्षण के लिए उपयोगी अवयव और योग्यताएं बच्चों में स्वतः प्रेषित हो जाती हैं। माता-पिता के मानस में जो बदलाव आते हैं उन्हें सन्तति आनुवंशिकता के रूप में ग्रहण करती है । इस भाँति वह सिद्ध करता है कि जीवन का विकास संघर्ष के रूप में होता है। प्राकृतिक चयन में योग्यतम जीवित रहते हैं और उन्हीं की वृद्धि होती है। वास्तव में देखा जाये तो इस सिद्धान्त का नीतिशास्त्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह प्राकृतिक नियम और घटनामों का विश्लेषण कर उन पर तथ्यमूलक निर्णय देता है और दूसरी पोर नीतिशास्त्र जीवन के उद्देश्य को समझाता है। उसके निर्णय मूल्यपरक होते हैं। नीतिशास्त्र की मान्यताप्रों का भूत से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। उसका प्रत्यक्ष क्षेत्र वर्तमान और भविष्य है। फिर भी यह मानना होगा कि डार्विन के सिद्धान्त ने नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण में भारी परिवर्तन ला दिया। वह परिवर्तन कितने स्थायी मूल्य का है, इसका ज्ञान नैतिक विकासवाद का अध्ययन होगा। विचारकों द्वारा विकासवाद की व्याख्या-डार्विन ने अपने विकासवाद द्वारा मुख्यतः यह बताया कि जीवयोनियों में परिवर्तन होता है। मनुष्य का मूलस्रोत प्रोटोप्लास्म है और विकास के क्रम में जीव प्रोटोप्लाज्म की स्थिति विकासवादी सुखवाद / १७६ For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से मनुष्य की स्थिति तक पहुँच गया है। यह तथ्य महान् उन्नति का सूचक है । मनुष्य की यह श्रेष्ठता यह सिद्ध करती है कि मनुष्य का विकास निम्नस्थिति से उच्चस्थिति की ओर उन्नति के रूप में हुआ है- जैव विकास नैतिक विकास भी रहा है ।" नीतिज्ञ - स्पेंसर, लेस्ली स्टीफेन, एलेजेण्डर प्रादिडार्विन के ऐसे सिद्धान्त से अत्यधिक प्रभावित हुए । उन्होंने विकासवाद का व्यापक प्रयोग करना चाहा और नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, संस्थानों आदि की उत्पत्ति और उन्नति को उसके द्वारा समझाना चाहा । नैतिकता को उन्होंने विकास का परिणाम माना। स्पेंसर तो स्पष्ट रूप से कहता है कि 'मैं इसे नैतिक विज्ञान का कार्य मानता हूँ कि जीवन के नियमों और अस्तित्व की परिस्थितियों से यह निगमन किया जाय कि किस प्रकार के कर्म अनिवार्य रूप से सुख की उत्पत्ति करते हैं और किस प्रकार के कर्म दुःख की । स्पेंसर तथा अन्य विकासवादी सुखवादियों ने अपने सिद्धान्त में जैव नियमों से नैतिक नियमों के निगमन पर इतना अधिक महत्त्व दिया है कि सिजविक ने उनके सिद्धान्तों को निगमनात्मक सुखवाद ( Deductive Hedonism) कह दिया । विकासवादी सुखवादियों का यह विश्वास था कि नैतिक भावनात्रों, निर्णयों, अभ्यासों, मान्यताओं और नियमों के उद्गम तथा उनकी प्रकृति और अभिप्राय को विकासवाद भली-भाँति समझा सकता है । इस विश्वास के आधार पर उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि विकासवाद नीतिशास्त्र को वैज्ञानिक और प्राकृतिक आधार दे सकेगा । विकासवादी सुखवाद 11 विकासवादी नीतिज्ञ : स्पेंसर - स्पेंसर प्रथम विचारक था जिसने कि जैव विकासवाद का व्यवस्थित रूप से नीतिशास्त्र में प्रयोग किया। दर्शन के क्षेत्र में हीगल और कौन्ते ने विकासवाद के लिए स्थान बना दिया था किन्तु नीतिशास्त्र में विकासवाद के लिए स्थान बनाने का श्रेय स्पेंसर को ही है । स्पेंसर से प्रभावित होकर लेस्ली स्टीफेन और एलेग्ज़ैण्डर ने उसके मूलंगत सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए तथा उससे थोड़ी भिन्नता रखते हुए नैतिक सिद्धान्त का 1. Wheelright, pp. 112-114. 2. Evolutionary Hedonism. 3. Herbert Spencer, 1820-1903. १८० / नीतिशास्त्र 1 For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपादन किया। तीनों ही यह मानते हैं कि परम ध्येय सुख है, नैतिक नियमों को समझने के लिए जीवशास्त्र का ज्ञान अनिवार्य है और जैव नियमों द्वारा ही नैतिक नियमों का निगमन किया जा सकता है । अतः इनका सिद्धान्त विकासवादी सखवाद के नाम से विख्यात है। विकास की धारणा का नीति में प्रवेश : नैतिकता विश्व प्रकृति का अंगपूर्व विचारकों के विपरीत स्पेंसर नीतिशास्त्र को सष्टिविज्ञान (Cosmology) . की शाखा मानता है । मानवता विस्तृत वैश्व विधान का अंगमात्र है, वह उन्हीं नियमों से संचालित है जिनसे विश्व संचालित है। मनुष्य का स्वतन्त्र रूप से विकास नहीं हुआ है। उसकी वर्तमान स्थिति विश्व-विकास का ही अनिवार्य परिणाम है । मनुष्य में विवेक के जन्म को एक प्राकस्मिक घटना या संयोग के रूप में नहीं समझना चाहिए। वह विकास की एक आवश्यक स्थिति है। सभ्यता, संस्कृति का विकास, नैतिक चेतना की जागृति आदि प्राकृतिक विकास के ही अंग हैं। यह वैसा ही है जैसा कि फल का प्रस्फुटन या भ्रूण का विकास । मनुष्य में जो नैतिकता की भावना मिलती है वह उसका परिस्थितियों के साथ क्रमशः संयोजित होने का और जीवन के विकास का परिणाम है। असंख्य पीढ़ियों द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव को ही उसने अपने वंशानुगत गुणों के रूप में पाया है । उसके वास्तविक नैतिक स्वभाव को समझने के लिए उसके पूर्वजों के इतिहास का अध्ययन कर उनके और वातावरण के बीच के सम्बन्ध को समझना होगा तथा जानना होगा कि उन्होंने जीवन-संघर्ष के अनुभव से क्या सीखा है। उपयोगितावादियों ने सामाजिक और वैयक्तिक जीवन की विकासहीन स्थिर व्याख्या की है। व्यक्तियों में उन्होंने जो परिवर्तन देखे हैं वें उनके अनुसार शिक्षा, परिस्थिति और जन्म के कारण हैं एवं आकस्मिक और व्यक्तिगत हैं । उन्होंने उनकी उस विश्वव्यापी विकासजन्य परिवर्तन के रूप में नहीं समझा जो किरत रूप से विश्व में हो रहा है। मनुष्य-स्वभाव का जो अनुभव-सापेक्ष ज्ञान मिलता है, उसकी योग्यता के बारे में जितना पता है उसी के आधार पर नैतिक ध्येय (सुख) के स्वरूप और उसकी प्राप्ति तथा वितरण की रूपरेखा बनायी जा सकती है। विकासवादियों ने समझाया कि नैतिक जीवन विकास और उन्नति का जीवन है। नैतिक भावनाएं परिवर्तित होती रहती हैं। नैतिक जीवन विश्व-विकास का ही अंग है। इसका भी आदि. मध्य और अन्त है। जीवन की महत्ता अन्तिम स्थिति की क्रमिक उपलब्धि में है। स्पेंसर का विश्वास था कि मनुष्य का विकास नीची स्थिति से ऊंची स्थिति Ca विकासवादी सुखवाद | १८१ For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की ओर उन्नति के रूप में हुआ है और वह अपने को धीरे-धीरे वातावरण के अनुरूप संयोजित कर रहा है । अन्तिम स्थिति पूर्ण सामंजस्य (Complete adjustment ) की स्थिति होगी। नैतिक विकास के ध्येय को समझाने के साथ ही विकासवादियों ने व्यक्ति समाज, स्वार्थ- परमार्थ एवं सुख कर्तव्य के विरोध को जैव व्याख्या द्वारा दूर करने का प्रयास किया । शुभ-अशुभ और सुख-दुःख के अर्थ – स्पेंसर का विश्वास था कि विकासवाद नैतिक समस्याओं को सुलझा सकता है । नीतिशास्त्र जिस ध्येय (सुख) के लिए प्रयास कर रहा है वह उसका प्रयोजन समझा सकता है । अथवा विकास द्वारा शुभ-अशुभ आचरण का अर्थ निर्धारित किया जा सकता है । स्पेंसर ने आचरण को यह कहकर समझाया कि वह कर्मों का ध्येयों के साथ सामंजस्य है । जीवन संघर्ष के क्रम में जीवयोनियाँ जीवन-संरक्षण के लिए आवश्यक विभिन्न ध्येयों के साथ अपने कर्मों को संयोजित करने का प्रयास करती हैं और यह क्रिया ही आचरण है । बही प्राणी जीवित रह सकता है जिसका कि प्रकृति या वातावरण के अनुकूल आचरण हो । जीवन का सार इस पर निर्भर है कि प्रान्तरिक सम्बन्धों का बाह्य सम्बन्धों से निरन्तर सामंजस्य हो | यह अंगी ( Organism) का वातावरण के साथ संयोजित होने का अनवरत प्रयास है । सभी प्रकार के आचरण का अध्ययन बतलाता है कि आचरण दो प्रकार के हैं - ( १ ) सामंजस्य स्थापित करने में सहायक, (२) उसमें सहायक । सामंजस्य की वृद्धि करनेवाले आचरण शुभ हैं और उसका ह्रास करनेवाले अशुभ | वह प्राचरण, जिसे शुभ के रूप में पुकारते हैं, सापेक्ष रूप से अधिक विकसित श्राचरण है और उस आचरण का नाम प्रशुभ है जो सापेक्ष रूप से कम विकसित है । निरपेक्ष रूप से शुभ श्राचरण वह है जो मंगी और वातावरण के बीच पूर्ण समत्व स्थापित करता है। ऐसा प्राचरण उस सुख को उत्पन्न करेगा जिसमें दुःख का मिश्रण नहीं है । प्राकृतिक विकास का जो प्रादर्श ध्येय है वही नैतिक दृष्टि से आचरण का मापदण्ड है । इससे यह चलता है कि जीवन का विकास और संरक्षण ही आचरण का सार्वभौमः ध्येय है । अर्थात् जो आचरण जीवन के संरक्षण और विकास में सहायक है वह शुभ है । शुभ की ऐसी परिभाषा देकर स्पेंसर ने यह सिद्ध किया कि शुभ-अशुभ परम और शाश्वत नहीं हैं अथवा इनका रूप वस्तुगत और सार्वभौम नहीं है । शुभ ध्येय की पूर्ति के लिए साधन, सहायक और निमित्तमात्र है । ध्येय के सम्बन्ध में जीवशास्त्र से प्रमाण देकर वह कहता है कि पूर्ण सामंजस्य की स्थिति को प्राप्त १८२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना ही ध्येय है। शुभ आचरण अंगी और वातावरण के बीच सामंजस्य स्थापित कर सुख का उत्पादन करता है । पूर्ण रूप से शुभ आचरण पूर्ण समत्व की स्थापना करनेवाला आचरण है, जो विकास की अन्तिम स्थिति का सूचक है। विकासक्रम के सब आचरण लगभग प्रांशिक रूप से शुभ और आंशिक रूप से अशुभ हैं । सापेक्ष रूप से वह आचरण शुभ है जो अन्तत: दु:ख से अधिक सुख देता है । उदाहरणार्थ, शल्यचिकित्सा के दुःख और सुरापान के सुख को यदि उनके परिणाम के सम्बन्ध में देखें तो शल्य-चिकित्सा सुरापान से अधिक शुभ है। इसी प्रकार अच्छा भोजन करना, विवाहित होना, सन्तति का संवर्धन करना अपनी अपूर्णताओं के बावजूद शुभ और लाभप्रद हैं। इस प्रकार सुखवादियों की भांति स्पेंसर भी शुभ कर्म को सुखप्रद परिणाम से युक्त करता है। पूर्ण विकसित समाज में सुख और स्वास्थ्य परस्पर सम्बन्धित हैं । सुख जीवनवृद्धि का सूचक है, दुःख ह्रास का । प्रश्न यह है कि सुख शुभ क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि वह व्यक्तिं और वातावरण के बीच सामंजस्य का सूचक है। सुख प्राणशक्ति की वृद्धि और सबलता का परिणाम है। वह सामंजस्य का सूचक है। दुःख अंगी के वातावरण के साथ असामंजस्य का सूचक है। इसमें अंगी को जीवन-धारण की आशा कम होती है। जीवशास्त्र और अनुभव बतलाता है कि सुखप्रद जीवन शुभ है। यह जीवन-संरक्षण में सहायक है। सुख के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की इच्छा करना अपने विनाश की इच्छा करना है। . सन्निकट ध्येय और परम ध्येय : नैतिक मापदण्ड-स्पेंसर ने सुखवादियों के साथ यह स्वीकार किया कि नैतिक ध्येय सुख है। किन्तु जीवशास्त्री होने के नाते यह भी मानता है कि प्राकृतिक ध्येय शारीरिक स्वास्थ्य है । ये दोनों ही विरोधी कथन हैं । इस विरोध को दूर करने के लिए वह अपने सिद्धान्त को सन्निकट ध्येय और परम ध्येय की धारणा से युक्त करता है। वह कहता है, परम ध्येय सुख है; किन्तु सन्निकट अथवा तात्कालिक ध्येय शारीरिक स्वास्थ्य है। परम ध्येय की प्राप्ति भली-भांति तभी सम्भव है जब उसे भूले रहें और अपना. सम्पूर्ण ध्यान उन परिस्थितियों पर केन्द्रित करें जिनसे वह प्राप्त होता है। इस आधार पर स्पेंसर सख को परम ध्येय मानते हए शारीरिक स्वास्थ्य को महत्त्व देता है । जीवशास्त्र बतला सकता है कि कौन-से कर्म सुख का उत्पादन करते हैं और कौन-से कर्म दुःख का । जीवशास्त्र के आधार पर आचरण के उन नियमों का प्रतिपादन कर लेना चाहिए जिनका सुख-दुःख से प्रत्यक्ष रूप से कोई विकासवादी सुखवाद | १८३ For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्ध नहीं है । स्पेंसर बैंथम के साथ स्वीकार करता है कि नैतिक मान्यताओं का मूल्यांकन करने के लिए वस्तुगत मापदण्ड की खोज करनी चाहिए । किन्तु वह उसके विरोध में कहता है कि सुख को मापदण्ड नहीं माना जा सकता क्योंकि वह भावनामात्र एवं प्रात्मगत है। वह वस्तुगत नहीं, उसे तौल नहीं सकते । नैतिक मान्यताओं की आधारशिला शारीरिक जीवन (Physical life) है । जीवशास्त्री होने के कारण स्पेंसर को शारीरिक स्वास्थ्य की चिन्ता थी। अतः उसने शारीरिक जीवन को नैतिक मापदण्ड माना। बैंथम के विरुद्ध वह कहता है कि व्यक्ति का कर्तव्य 'अधिकतम संख्या का अधिकतम सुख' नहीं हैं, किन्तु मानव-समाज के जीवन की रक्षा करना है । शुभं आचरण वह नहीं जो केवल वैयक्तिक जीवन को ही महत्त्व देता है बल्कि वह जो समाज के सम्पूर्ण जीवन को ध्यान में रखता है। स्पेंसर के सिद्धान्त में परमस्वार्थवाद के लिए स्थान नहीं है। विकासवाद बताता है कि प्रात्मत्याग और आत्मसंरक्षण दोनों ही प्राचीन हैं । शुभ आचरण वह है जो अपने और दूसरों के जीवन की उन्नति में समान रूप से सहायक है। प्रश्न उठता है कि जीवन को कैसे नाप सकते हैं ? स्पेसर कहता है. कि जीवन को उसकी लम्बाई और चौड़ाई से नाप सकते हैं। जीवन की लम्बाई से उसका अभिप्राय दीर्घ-स्थायी जीवन से है, जो अधिकतम संख्या के दीर्घायु का सूचक है । चौड़ाई से अभिप्राय उन विभिन्न व्यापारों से है जिन्हें सम्पादित करने की उच्च (अधिक विकसित) पशु योग्यता रखता है। मानव-जीवन की जटिलता तथा विस्तार का अध्ययन करने से पता चलता है कि व्यक्ति की अभिरुचियों तथा इच्छात्रों की विकासजन्य वृद्धि के कारण समाजगत सामंजस्य दुरूह होता जा रहा है । किन्तु इस दुरूहता के साथ उसकी सफलतापूर्वक संयोजित होने की योग्यता और शक्तियाँ क्रमश: बढ़ती जा रही है। जब यह योग्यता अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेगी, तब व्यक्ति और वातावरण के बीच पूर्ण समत्व स्थापित हो जायेगा। इस वृद्धि को प्राप्त होती हुई सामंजस्य की शक्ति को ही स्पेंसर चौड़ाई कहता है। उसके अनुसार कर्म और आचरण के औचित्य-अनौचित्य को निर्धारित करने के लिए यह जानना आवश्यक नहीं कि उनका परिणाम सुखप्रद है या दुःखप्रद; किन्तु उसके लिए यह जानना आवश्यक है कि वे जीवन के परिमाण की वृद्धि में कितने सहायक हैं.। स्पेंसर के अनुसार जीवन के परिमाण की लम्बाई-चौड़ाई को प्राप्त करना ही ध्येय है। वह कहता है कि वही आचरण एकमात्र शुभ है जो जीवन के संरक्षण में सहायक है । उसके अनुसार नैतिक उद्देश्य के लिए यह मान लेना अनिवार्य है कि जो १८४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कर्म जीवन-परिमाण के अधिक-से-अधिक संरक्षण में सहायक होते हैं और जो अधिक-से-अधिक परिमाण में अनुकूल या आनन्दकर भावनाओं को देते हैं उनका आपस में सामंजस्य है। . स्वार्थ और परमार्थ-मिल ने वैयक्तिक और सामाजिक रुचियों की एकता को सिद्ध करने का प्रयास किया किन्तु उसका प्रयास स्वप्न बनकर रह गया। स्पेंसर ने यह समझाने की चेष्टा की कि प्राकृतिक नियमों तथा वैश्व विकास द्वारा उस पूर्णता की स्थिति की क्रमशः स्थापना हो जायेगी जिसमें कि रुचियों की एकता अपने-आप प्राप्त हो सकेगी। यह अवश्य है कि इस दूरस्थ आदर्श को प्राप्त करने के लिए अविराम उद्यम करने की आवश्यकता है। इसे मानवता को अपना ध्येय बनाना होगा। वैसे, चाहे व्यक्ति चाहें अथवा न.चाहें, चाहे वे प्रयास करें या न करें, ऐसे श्रेष्ठ एवं शुभ समाज की स्थापना प्राकृतिक नियम और क्रमविकास का अनिवार्य परिणाम है । ऐसे पूर्ण विकसित समाज.में स्वार्थपरमार्थ का विरोध,मिट जायेगा.। नैतिक कर्तव्य करने में जो बाध्यता अनुभव होती है वह नहीं रहेगी। स्वार्थ और परमार्थ का विरोध परम और चिरस्थायी नहीं है। जहां तक अपूर्ण तथा अर्ध-विकसित समाज का प्रश्न है, स्वार्थ और परमार्थ दोनों का ही मूल्य है । जब हम विकसित होते हुए मानव-जीवन का अध्ययन करते हैं. तब मालूम पड़ता है. कि प्रात्मत्याग आत्मसंरक्षण के समान ही मौलिक है । सर्वत्र स्वार्थ के साथ परमार्थ का विकास हुआ है। जीवन के अभ्युदय के समय से स्वार्थ और परमार्थ. एक-दूसरे पर निर्भर रहे हैं.। स्वार्थ और परमार्थ को यदि एक-दूसरे से अलग करके देखें तो मालूम होगा कि स्वार्थ प्रकृति का प्रथम नियम है। प्रात्मसंरक्षण प्रथम कर्तव्य है और, प्रात्मप्रेम सर्वश्रेष्ठ गुण है। यदि आत्मसंरक्षण की प्रवृत्ति नहीं होती तो परमार्थ अर्थशून्य हो जाता । बिना आत्मसंरक्षण की प्रवृत्ति के कोई भी नहीं बचता । नैतिक और जैव दृष्टि से स्वार्थ परमार्थ के पहले है, क्योंकि व्यक्ति ही सुख का परम आधार है। जहाँ तक उसकी विशिष्ट योग्यताओं और शक्तियों के प्रयोग का प्रश्न है वे केवल व्यक्ति के सुख का ही उत्पादन नहीं करतीं बल्कि उसके चारों ओर के वातावरण का भी निर्माण करती हैं । सामाजिक परिस्थितियों द्वारा मान्य सीमाओं के अन्दर यदि व्यक्ति अपने सुख को खोजता है तो वह अधिकतम सामान्य संख की प्राप्ति की प्रथम आवश्यकता है। यदि माँ-बाप सन्तति को अपनी मूल्यवान् देन देना चाहते हैं (उन्हें दृढ़ अंगोंवाला, स्वास्थ्य और प्रसन्न प्रकृतिवाला बनाना चाहते हैं) तो उनके लिए अपने सुख और विकासवादी सुखवाद | १८५ For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्य की चिन्ता करना आवश्यक है। यह भी सत्य है कि अच्छे स्वास्थ्य और प्रसन्नचित्तवाला व्यक्ति उन लोगों पर भी सुखप्रद प्रभाव डालता है जिनके. सम्पर्क में वह आता है। स्वार्थ परमार्थ का विरोधी नहीं, सहायक है । परम परमार्थ हानिप्रद है । यदि परमार्थ द्वारा केवल दूसरों के स्वार्थ की वृद्धि हो तो ऐसे परम परमार्थी व्यक्ति की जीवन-शक्ति का ह्रास हो जायेगा। प्राकृतिक चयन में उसका विनाश अवश्यम्भावी है । जो प्रवृत्तियाँ प्रात्मसंरक्षण में सहायक नहीं होतीं वे विकास के क्रम में नष्ट हो जाती हैं । इस भांति स्वार्थ, परमार्थ, दोनों ही विशिष्ट सीमा तक जीवयोनियों के संरक्षण के लिए आवश्यक हैं। प्रतः शुद्ध स्वार्थ और शुद्ध परमार्थ दोनों ही नीतिविरुद्ध और मिथ्या हैं । अथवा 'प्रात्मा के लिए जियो' और 'दूसरों के लिए जियो', दोनों ही सूत्र-वाक्य हानिप्रद और अनुचित हैं। दोनों ही समान रूप से प्रात्मघातक हैं। व्यक्ति को अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख की खोज नहीं करनी चाहिए बल्कि इन दोनों के बीच पूर्ण समझौता स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। विकास, का क्रम बतलाता है कि ऐसा समझौता धीरे-धीरे स्थापित हो रहा है । प्राकृतिक विकास प्रांशिक रूप से सहानुभूति की वृद्धि और आंशिक रूप से सामाजिक परिस्थितियों के एकीकरण द्वारा अनवरत रूप से स्वार्थ और परमार्थ की मांगों में अधिकाधिक अनुकूलता ला रहा है। प्राकृतिक चयन और विश्व-विकास वैयक्तिक और सार्वभौम अभिरुचि में पूर्ण तादात्म्य स्थापित करेगा। इस भांति प्राकृतिक नीतिशास्त्र नैतिकता और कर्तव्य में सामंजस्य स्थापित करता है और कहता है कि यद्यपि मनुष्य को ऐसी नैतिक प्रादर्श स्थिति की स्थापना के लिए प्रयास करना चाहिए तथापि वह वास्तव में प्राकृतिक नियमों द्वारा ही स्थापित होगी। ऐसी विकसित स्थिति में व्यक्तियों को पात्मत्याग और परमार्थ का सहज प्रानन्द आकर्षित करेगा। प्रत्येक व्यक्ति आत्मसुख को भूलकर आत्मत्याग के लिए तत्पर हो जायेगा। उसके परमार्थी कर्म उतने ही स्वाभाविक और अनायास रूप से सम्पन्न होंगे जितने कि सहजप्रेरित, संवेदन-जनित कर्म होते हैं। प्रात्मत्याग में व्यक्ति को प्रसन्नता मिलेगी। दूसरों के सुख-दुःख के साथ वह. अपने सुख-दुःख को युक्त कर लेगा। परमार्थ द्वारा वह स्वार्थ-सुख का आनन्द उठायेगा। नैतिक चेतना की उत्पत्ति-स्पेंसर नैतिक चेतना के मूलगत लक्षण को किसी एक या बहुभावनाओं द्वारा किन्हीं अन्य भावनाओं के नियन्त्रण में देखता है। विकसित और परिवर्तित होता हुआ पाचरण यह बतलाता है कि जीवन के उत्तम १८६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संरक्षण के लिए प्रादिम, सरल और प्रस्तुत (presentative) करनेवाली भावनाओं का, बाद में, विकसित जटिल (संयुक्त) प्रतिनिधि (representative) भावनाओं द्वारा नियन्त्रण आवश्यक है । स्पेंसर यह मानता है कि चेतना के परमतत्त्व भावनाएँ और संवेदनाएं हैं। भावनाएं या तो वर्तमान से अथवा तात्कालिक संवेदनाओं से सम्बन्धित हो सकती हैं, या वे आदर्श (प्रतिनिधि) भावनाएं हो सकती हैं जिनका कि भविष्य से सम्बन्ध है, जैसे-आशा, भयं प्रादि । विकास-क्रम में तात्कालिक सरल संवेदनाएँ (वर्तमान से सम्बन्धित भावनाएँ) जटिल विचारों या भविष्य से सम्बन्धित प्रतिनिधि भावनाओं पर प्राधृत बन जाती हैं। ये विकसित जटिल भावनाएँ प्रधानता प्राप्त कर भविष्य के बारे में बोध देती हैं। विकास बताता है कि भविष्य (दूरस्थ शुभ) के बारे में सोचने की शक्ति जीवन के संरक्षण में सहायक होती है। इस प्रकार मनो-- वैज्ञानिक और जैव दृष्टिकोणों में परस्पर संगति मिलती है। ये जटिल और विकसित भावनाएं ही प्राचरण और उसके बीच सामंजस्य स्थापित करने में सहायक होती हैं। सरल भावनामों को जटिल भावनाओं द्वारा नियन्त्रित करने के लिए स्पेंसर तीन प्रकार के नियन्त्रणों की चर्चा करता है-राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक । ये नैतिक नियम के जन्म के लिए प्रारम्भिक भूमि प्रस्तुत करते हैं । इन नियन्त्रणों के ही भीतर नैतिक नियन्त्रण विकसित होता है और इन्हीं के द्वारा नैतिक कर्तव्य या बाध्यता के स्थायी भाव (sentiment) की उत्पत्ति होती है। राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक नियन्त्रणों से पैदा होने के कारण कर्तव्य की भावना में प्रादेश और बाध्यता के तत्त्व वर्तमान रहते हैं। किन्तु वे चिरस्थायी नहीं हैं। इसका कारण यह है कि व्यक्ति और समाज के बीच अपूर्ण सामंजस्य है। व्यक्ति और समाज के अधिकाधिक सामंजस्य के साथ तथा नैतिक चिन्तन की उन्नति के साथ नैतिक बाध्यता की भावना लुप्त हो जायेगी। उचित कर्म को व्यक्ति सरल प्रात्मसन्तोष की भावना के साथ करेंगे, नैतिक कर्म अभ्यासजन्य कर्म हो जायेंगे। जिस प्रकार अब संवेदनाएँ मनुष्य को परिचालित करती हैं उसी प्रकार नैतिक स्थायी भाव भी पर्याप्त और सहज रूप से मानव-कर्मों का संचालन करेंगे। वास्तव में बाध्यता और कर्तव्य की भावना के मूल में समाज और व्यक्ति की विरोधी रुचियां हैं। विकास बतलाता है कि यह विरोध परम नहीं है । विकास की अन्तिम स्थिति में इनके बीच पूर्ण समत्व स्थापित हो जायेगा। ऐसी पूर्ण समत्व की स्थिति में अपने-आप ही बाध्यता की भावना दूर हो जायेगी। नैतिक आचरण' प्राकृतिक प्राचरण है ।। विकासवादी सुखवाद | १८७ For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास व्यक्तियों को उस स्थिति में पहुंचा देगा जहां उन्हें प्रात्म-त्याग में प्रानन्द मिलेगा।........ .... ..... . . . ... नैतिक नियम अनुभव-निरपेक्ष नहीं हैं-उपयोगितावादियों के विरुद्ध स्पेंसर कहता है कि नैतिक नियम सुख दुःख के अनुभवों पर आधारित अनुमानों का सामान्यीकरण मात्र नहीं हैं। इन परमार्थी प्रवृत्तियों को 'विचार-सहयोग' द्वारा नहीं, 'प्राकृतिक चयन' और विश्व-विकास द्वारा ही समझाया जा सकता है; अथवा नैतिक नियम अपने मूल रूप में उद्भूत सत्य है । इनका जैव और समाजशास्त्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप निर्माण हुआ है। उचित नैतिक नियमों का प्रतिपादन करने के लिए भी जीवशास्त्र और समाजशास्त्र से सहायता लेनी चाहिए। उनके नियमों से नैतिक नियमों का निगमन करना चाहिए। नैतिक नियमों की उत्पत्ति बतलाती है कि वे अनुभव-सापेक्ष नियम हैं। धीरे-धीरे 'विकास-क्रम में ये अनुभव-सापेक्ष नियम ही,मनुभव-निरपेक्ष नियमों का रूप ग्रहण कर लेते हैं। विगत जीवन का इतिहास. बतलाता है कि विकास-क्रम में सरल और निम्न प्रादर्श की भावनाएं अधिक जटिल उच्चादों की भावनाओं द्वारा नियन्त्रित होती जा रही हैं । बर्बर सभ्यता के युग में मनुष्य की प्रवृत्तियाँ भौतिक नावश्यकताओं तथा भय (जीवन-संरक्षण की प्रवृत्ति) से नियन्त्रित हई। धीरेधीरे झुण्ड, समाज, जाति, धर्म, राजनीति आदि के नियमों ने इन्हें शासित किया । जीवन-संघर्ष में नये गुणों का प्रादुर्भाव हुआ। व्यक्ति तथा जाति के जीवन के संरक्षण के लिए उपयोगी और सहायक गुण ही नैतिक मान्यताओं, उच्च भावनाओं, सहानुभूति, प्रात्मत्याग प्रादि के रूप में मिलते हैं । जीव-रचना अंग्री) को वातावरण के साथ संयोजित करनेवाला प्राचरण जिन व्यक्तियों का अभ्यास बन जाता है वही प्राकृतिक चयन में जीवित रहते हैं। पिता जिन गुणों को अभ्यासगत विशेषताओं के रूप में पाता है उन गुणों को उसकी.सन्तति स्वाभाविक प्रवृत्ति के रूप में पाती है । वंशानुगत होने के कारण वे गुण स्वाभा"विक, सहजप्रेरित एवं सहजात विचारों. (अनुभव-निरपेक्ष) का रूप प्राप्त कर लेते हैं। अपने मूलगत रूप में वे अनुभव-सापेक्ष तथा असंख्य पीढ़ियों द्वारा अजित अनुभवों के परिणाम हैं । जो कुछ भी नाज व्यक्ति है, उसका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, कलात्मक, नैतिक व्यक्तित्व उसे दाय रूप में प्राप्त हमा है। पैतृक सम्पत्ति के रूप में पाने के कारण उसके विचार अनुभव-निरपेक्ष लगते हैं । पूर्वजों के अनुभवों ने जिन गुणों को उपयोगी और अनिवार्य (व्यक्ति अथवा जाति के जीवन के लिए) पाया उन्हीं को उनकी आगामी पीढ़ी ने मौलिक नैतिक १८८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्गुणों के रूप में पाया । नैतिक सहज ज्ञान वंशानुगत गुण है । उपयोगितावादियों के विरुद्ध स्पेंसर कहता है कि नैतिक प्रदेश, उदाहरणार्थ 'चोरी नहीं करना चाहिए', 'झूठ नहीं बोलना चाहिए' प्रादि, इसलिए उचित नहीं हैं कि वे सुखप्रद हैं किन्तु इसलिए कि वे सामाजिक जीव- रचना के जीवन का संरक्षण करते हैं । स्पेंसर जब विशिष्ट व्यावहारिक नियमों की व्याख्या पर पहुँचता है तब वह अपने समय के लगभग सभी प्रचलित नियमों को स्वीकार कर लेता है— यथा, सच बोलना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, चोरी नहीं करना चाहिए, अश्लील पुस्तकें नहीं पढ़नी चाहिए श्रादि । इसका कारण यह है कि वह कट्टरपन्थी स्वभाव का था । समाज की व्याख्या-1 - विकासवादियों से पूर्व के विचारकों ने व्यक्ति प्रौर समाज के सम्बन्ध को समझना चाहा । इस सम्बन्ध को बाह्य मान लेने के कारण अथवा स्वार्थ और परमार्थ में विरोध मान लेने के कारण वे नैतिक धारणाओं के आदि कारण को नहीं समझा सके । हॉब्स ने कहा कि व्यक्ति के स्वार्थ और उसकी आवश्यकताओं ने उसे सामाजिक जीवन बिताने के लिए बाध्य किया । सामाजिक आचरण के मूल में स्वार्थ है। ह्य में और ऐडम स्मिथ ने कहा कि सहानुभूति या परस्पर की भावना ने ही नैतिकता की धारणा को जन्म दिया. है । वह सामान्य भावना है। नैतिकता का उद्गम हृदय की सामान्य भावना है । नैतिक गुण वह गुण है जो समाज के लिए हितकर है। मिल और बेंथम ने 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' को नैतिक ध्येय बतलाया । एक बार यह स्वीकार कर लेने पर कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से भिन्न हैं, सामाजिक आचरण को समझाना असम्भव हो जाता है। उपयोगितावादियों ने समाज को व्यक्तियों के उस समुदाय के रूप में देखा जिसमें वैसी ही यान्त्रिक संगति है जैसी कि प्रणु-परमाणुभ्रों से संगठित जड़ पदार्थ में । किन्तु जब यह प्रश्न उठाया जाता हैं कि समाज के श्रात्म चेतन श्रणुत्रों ने अपने को एक-दूसरे से कैसे युक्त किया तो उपयोगितावादियों का स्पष्टीकरण काल्पनिक स्पष्टीकरण- मात्र रह जाता है । इस अणुवादी धारणा के बदले नृतत्वशास्त्र ने जीव - रचना एवं अंगी (organism) की धारणा दी है। उसने यह समझाया हैं कि मनुष्य और समाज का सम्बन्ध अनन्य है। यह जीव-रचना का सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध बाह्य नहीं है । सामाजिक जीव-रचना का विकास हो रहा है । यह विकासे एकता और विभिन्नता से सम्बद्ध एक अविभाजित पद्धतिक्रम है जहाँ कि समाज का विधान अथवा उसकी बनावट अधिक जटिल होती जा रही है और व्यक्ति विकासवादी सुखवाद / १८९ For Personal & Private Use Only RA Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक-दूसरे पर अधिकाधिक निर्भर होते जा रहे है। मनुष्य की इच्छानों और आकांक्षाओं की वृद्धि के साथ सामंजस्य भत्यन्त कठिन और दुरूह होता जा रहा है । इस दुरूहता के साथ ही वह युगपत् रूप से, दिन-प्रतिदिन, वातावरण पर अधिकाधिक निर्भर होता जा रहा है। विकास यह भी बतलाता है कि उसका 'पद्धतिक्रम अपूर्ण सामंजस्य से पूर्ण सामंजस्य की ओर है । सीधी, सरल भावनाओं से क्रम-विकास द्वारा अत्यन्त जटिल भावनाओं तक पहुंचना अर्थात् पूर्ण विकसित नैतिक भावनाओं का विकास ही इसका ध्येय है। भावनाओं की पूर्ण विकसित स्थिति में बाध्यता की भावना, कर्तव्य की चेतना सहज-प्रवृत्ति का रूप ग्रहण कर लेती है। यह नैतिक पूर्णता (moral perfection) की स्थिति है। नैतिकता का विकास मनुष्य और वातावरण के बीच पूर्ण सामंजस्य स्थापित कर देगा। नैतिकता 'वह रूप है जिसे सार्वभौम आचरण अपने विकास की अन्तिम स्थितियों में प्राप्त करता है।' नैतिक पूर्णता की स्थिति में व्यक्ति और वातावरण के बीच पूर्ण सामंजस्य स्थापित हो जायेमा तथा जीवन-संरक्षण के लिए व्यापक और स्वस्थ वातावरण उपस्थित हो जायेगा। . सापेक्ष और निरपेक्ष नीतिशास्त्र-स्पेंसर ने पूर्ण सामंजस्य और अपूर्ण सामंजस्य की स्थितियों के आधार पर दो प्रकार के नीतिशास्त्रों को माना है। विकास के पद्धतिक्रम में मध्य की स्थिति अपूर्ण सामंजस्य की स्थिति है। इसमें दुःखरहित सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस स्थिति के लिए आचरण के नियमों का प्रतिपादन सापेक्ष नीतिशास्त्र (relative ethics) करता है । वास्तव में यह स्थूल और अनुभवात्मक रूप से निर्धारित करता है कि निरपेक्ष नीतिशास्त्र (absolute ethics) के नियमों को मानव-प्राणियों की वर्तमान स्थिति से कैसे सम्बद्ध किया जा सकता है। जहां तक निरपेक्ष नीतिशास्त्र प्रश्न है, उसके नियम उस पूर्ण विकसित समाज के लिए हैं जो कि स्थायी सन्तुलन (stable equilibrium) प्राप्त कर चुका है । इस समाज का मानवपूर्ण रूप से संयोजित मानव है। यहाँ न तो दुःख के लिए स्थान है और न किसी प्रकार के विरोध के लिए । ऐसा पाचरण, जिसका परिणाम अमिश्रित एवं शुद्ध सुख है, पूर्ण रूप से उचित है। उचित पाचरणवाला व्यक्ति सहानुभूतिमूलक कर्मों और नैतिक कर्तव्य को स्वाभाविक तथा अनायास रूप से करेगा। वह सद्गुणों को प्रात्मसात् कर लेगा। २६० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेस्ली स्टीफेन लैस्ली स्टीफेन' ने स्पेंसर के विकासात्मक सुखवाद को अपनी विशेषताएँ रखते हुए अपनाया। इनकी सबसे प्रमुख विशेषता अथवा स्पेंसर के सिद्धान्त को महत्त्वपूर्ण देन समाज की जीव-रचना एवं अंगी (organism) की धारणा है । इसमें सन्देह नहीं कि स्पेंसर ने इस विचारधारा की नींव डाली, किन्तु उसकी नींव कच्ची और खोखली है। उसे इस धारणा का संस्थापक कहना उचित नहीं होगा । 'जीव - रचना' के प्रयोग द्वारा वह व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध का व्यापक और यथार्थ चित्र नहीं खींचता, किन्तु उसे अधिकतर रुचिकर सादृश्य या रूपक के रूप में लेता है । स्टीफेन उसे निश्चित रूप से मुख्य नैतिक तत्त्व मानता है । उसका कहना है कि सत्य का पूर्ण दर्शन यह बतलाता है कि समाज समुदाय मात्र नहीं है, जीव-रचना का विकास है । व्यक्ति और जाति का अध्ययन यह बतलाता है कि व्यक्ति एकाकी अणु की भाँति नहीं रह सकता । वह उसी भाँति समाज पर निर्भर है जैसे कि अवयव देह पर हैं । व्यक्ति को सदैव समाज के ही सम्बन्ध में समझ सकते हैं । उसकी इच्छात्रों, आकांक्षाओं की तृप्ति समाज में ही सम्भव है । जो कुछ भी वह है, समाज के कारण है । समाज की पूर्व स्थिति से प्रानुवंशिकता के रूप में उसने अपनी मौलिक प्रवृत्तियों और स्वाभाविक प्रकृति को पाया है । उसका बौद्धिक और मानसिक व्यक्तित्व उसे समाज की देन है । उसके व्यक्तित्व का निर्माण सामाजिक संस्थानों, भाषा, शिक्षा एवं वातावरण पर निर्भर है । अथवा समाज एक जीव- रचना की भाँति है जिस पर उसके व्यक्तिरूपी अवयव परस्पर निर्भर हैं; बिना समाज के वे नहीं रह सकते । ये समाज से संयोजित होने का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं सामाजिक तन्तु (social tissue) का क्रमशः अनेक प्रकार से सुधार हो रहा है ताकि उसके अवयव अधिक पूर्णता से संयोजित होकर जीव-रचना के विभिन्न व्यापारों को समष्टि रूप से परिपूर्ण कर सकें । सामाजिक रचना की गति का ध्येय सामाजिक ‘प्रकार' (social 'type') का विकास है । प्रथवा उस प्रकार के समाज को उत्पन्न करना है जो कि सामाजिक जीवन में दिये हुए साधन और साध्य की अधिकतम कार्यक्षमता ( efficiency) का प्रतिनिधि हो सके । नैतिक ध्येय : स्वास्थ्य — समाज के स्वरूप को जैव रूप से समझने के पश्चात् लेस्ली स्टीफेन कहता है कि जीवन के ध्येय का वैज्ञानिक मानदण्ड 1. Leslie Stephen. विकासवादी सुखवाद / १९१ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्य है, सुख नहीं । स्पेंसर का कहना था कि जब वैयक्तिक जीवन लम्बाई और चौड़ाई में अधिकतम हो जाता है तब विकास अपनी सीमा को प्राप्त कर लेता है। किन्तु लैस्ली स्टीफेन, स्पेंसर तथा बैंथम और मिल एवं उपयोगितावादियों के विरुद्ध कहता है कि नैतिक ध्येय जीव-रचना अथवा सामाजिक तन्तु का स्वास्थ्य या कार्यक्षमता है। अतः सामाजिक विकास-क्रम की अन्तिम स्थिति को वह 'अभिवृद्धि', 'उन्नति', जीवन की 'अधिकतम परिपूर्णता' प्रादि विभिन्न शब्दों द्वारा समझाता है। उसके अनुसार सुख और स्वास्थ्य भिन्न नहीं हैं। वे एक-दूसरे के अनुरूप हैं। किन्तु फिर भी कर्मों के बाह्य (सुखप्रद अथवा दुःखप्रद) परिणाम से उनके औचित्य को नहीं आंका जा सकता । वही कर्म शुभ हैं जो सामाजिक स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं। सामाजिक जीवन जीव-रचना का विकास है । कर्म के परिणाम का तभी भली-भांति गुणगान किया जा सकता है जबकि वह उसकी मूलगत बनावट का उन्नयन और सुधार करे, न कि जब वह उसकी क्षणिक स्थिति को प्रभावित करे । सामान्यत: हानिकारक कर्म दुःखप्रद होते हैं और लाभकारक कर्म सुखप्रद । नैतिक नियम सामाजिक तन्तु के गुणों की व्याख्या है। वे सामाजिक कल्याण एवं स्वास्थ्य की स्थिति का वर्णन करते हैं । जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप ये नियम बदलते रहते हैं । नैतिक नियम वे नियम हैं जो जीवन की आवश्यकताओं को व्यक्त करते हैं। वही नियम शुभ है जो सामाजिक स्वास्थ्य के संरक्षण में सहायक है । विकास के साथ ही नैतिक नियम अधिक स्पष्ट होते जायेंगे और सामाजिक प्रकार अधिक व्यापक होता जायेगा । लस्ली स्टीफेन यह समझाने का प्रयास करता है कि नैतिक नियम निरपेक्ष नहीं हैं। इनकी उत्पत्ति विकास के क्रम में हुई है। उसके अनुसार मानसिक दबाव ही नैतिकता को उत्पन्न करता है और उसकी रक्षा एवं पालन करता है। मनुष्य की चेतना में वही नैतिकता का प्रतिनिधि है । वह यह भी मानता है कि विकास के क्रम में एक प्रकार का आचरण ही नहीं बल्कि एक प्रकार का चरित्र भी विकसित होगा। विकास के क्रम में मनुष्य नैतिकता के बाह्य रूप 'यह करो' से उसके प्रान्तरिक रूप 'यह बनो' में पहुंच जायेगा, अर्थात् नैतिक विकास के क्रम में बाह्य कर्तव्य बुद्धि से कार्य करने से वह अन्ततः कर्तव्यपूर्ण बन जायेगा। १६२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलेग्जेण्डर सामाजिक सन्तुलन–अलेग्जेण्डर' वस्तुतः लस्ली स्टीफेन के सिद्धान्त को मानता है। वह अपने सिद्धान्त को सामाजिक जीव-रचना या सामाजिक विधान की धारणा द्वारा समझाता है। उसके अनुसार शुभ और कुछ नहीं, वह केवल सन्तुलित समष्टि में संयोजन है। उसके अनुसार आचरण के औचित्य-अनौचित्य को एक विशिष्ट मानदण्ड द्वारा निर्धारित किया जाता है । इस मानदण्ड का ही नाम नैतिक आदर्श है। नैतिक आदर्श आचरण का सन्तुलन विधान है। यह विरोधी प्रवृत्तियों पर आधारित है और उनके बीच सन्तुलन स्थापित करता है। अत: परम शुभ आचरण का पूर्ण रूप से संयोजित शुभ एवं सामाजिक जीव-रचना का सन्तुलन है। नैतिकता के क्षेत्र में प्राकृतिक चयन-अलेग्जेण्डर ने नैतिक मान्यतामों और पश-जीवन के विकास और उन्नति में प्राकृतिक चयन का सादृश्य पाया। उसने कहा कि नैतिक जीवन में प्राकृतिक चयन का क्रम मिलता है । लेस्ली स्टीफेन के साथ उसने स्वीकार किया कि प्राकृतिक चयन के कारण विकास के क्रम में प्राचरण का वह प्रकार सुरक्षित रह जाता है जो अधिकतम योग्य और पूर्ण रूप से सन्तुलित है। प्राकृतिक चयन वह पद्धतिक्रम है जिसके कारण विभिन्न जीवयोनियाँ प्रभुत्व के लिए संघर्ष करती हैं और जो विजयी होती हैं वे सापेक्षतः स्थायी हो जाती हैं । पशु-जीवन और नैतिक जीवन में प्रमुख भेद यह है कि नैतिकता का क्षेत्र मानस का क्षेत्र है, न कि पशुता का । पशु-जीवन में सबल और सशक्त का संघर्ष दुर्बल और निःशक्त के साथ होता है और नैतिक जीवन में आदर्शों या जीवन-प्रणालियों का संघर्ष मिलता है । प्राकृतिक चयन में वे प्रणालियाँ जीवित रहती हैं जो सामाजिक कल्याण की वाहक हैं । यदि कोई समर्थ बुद्धिमान् व्यक्ति समाज के लिए कल्याणकारी विचारों का प्रतिपादन करता है—दास प्रथा, निर्दयता, अविनय, असमानता आदि के विरुद्ध आवाज उठाता है तो अन्य व्यक्ति उसकी. कटु आलोचना करते हैं। फिर भी ऐसे व्यक्ति के विचार तथा जीवन-प्रणाली अपनी उच्चता के कारण अन्त में विजयी होती है। पालोचना नैतिकता का प्राकृतिक विज्ञान-विकासवादी सुखवादियों ने नैतिक 1. Samuel Alexander. . . विकासवादी सुखवाद | १९३ For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्यताओं के उद्गम और विकास को समझना चाहा । नैतिकता को वैज्ञानिक प्राधार देने के प्रयास में उन्होंने उसे जीवशास्त्र से सम्बद्ध किया । नैतिक विकास को विश्व - विकास का अंग मानकर नैतिकता को समझने के लिए विकास के पद्धति क्रम को समझना आवश्यक बतलाया । उनका सिद्धान्त वास्तव में प्रकृतिवाद है । नैतिक मान्यताओं के उचित मूल्य को समझाने के बदले वे केवल यह समझाने का प्रयास करते हैं कि नैतिक मान्यताओं की उत्पत्ति कैसे हुई और मानव जाति के जीवन की वृद्धि या ह्रास में वे कहाँ तक सहायक हुई हैं। जहाँ तक प्राकृतिक घटनाओं का प्रश्न है, वे ध्येय (आदर्श) की ओर उदासीन 'हैं। नीतिशास्त्र आदर्शों को निर्धारित करता है । यह पता लगाता है कि प्रदर्श आचरण को कैसे प्रभावित कर सकते हैं । प्राकृतिक घटनाओं का सम्बन्ध 'क्या है' ( वास्तविकता ) से है और नीतिशास्त्र का सम्बन्ध 'क्या होना चाहिए' (आदर्श) से है । नीतिशास्त्र की ऐसी वैज्ञानिक व्याख्या ऐतिहासिक जिज्ञासा की तृप्ति है, न कि नैतिक जिज्ञासा की । नैतिक जिज्ञासा का समाधान तभी सम्भव है जबकि आचरण के औचित्य और अनौचित्य पर प्रकाश डाला जाय; यह बतलाया जाय कि क्यों किसी विशेष प्रकार के आचरण को शुभ कहते हैं । अलेग्ज़ैण्डर का सिद्धान्त इस ओर थोड़ा अग्रसर हुआ है । वह कहता है कि जीवन की वह प्रणाली अच्छी है जो समाज में सन्तुलन स्थापित करती है । जीवशास्त्र से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण वह इस प्रश्न के महत्तर पहलू को छोड़ देता है । वह यह नहीं बतलाता कि यह सन्तुलन महत्त्वपूर्ण क्यों है । नैतिक आदर्श के स्वरूप को समझाने के बदले विकासवादी कहते हैं कि विकासक्रम में वे नियम रहते हैं जो जीवन के संरक्षण में सहायक हैं । ये नियम उचित क्यों हैं, मनुष्य का क्या कर्तव्य है, श्रात्म चेतन प्राणी किस प्रादर्श को प्राप्त करना चाहता है, उसे आत्म-सन्तोष कैसे प्राप्त हो सकता है, इन सब प्रश्नों से विकासवादी उतने ही दूर हैं जितनी कि निम्न जीवयोनियाँ हैं । उन्होंने नैतिकता की ऐतिहासिक और वैज्ञानिक व्याख्या की । मनुष्य के बौद्धिक, श्राध्यात्मिक स्वभाव को भूलकर उसे जीवन का तटस्थ दर्शकमात्र मान लिया। उनके सिद्धान्त को प्राकृतिक सिद्धान्त कहना उचित होगा । नैतिकता की धारणा मूल्यपरक है, न कि वस्तुपरक । नीतिशास्त्र अनुभवात्मक और यथार्थ विज्ञान नहीं. इसका भूतकालीन घटनाओं अथवा नैतिकता के इतिहास से प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । इसे सुखवाद कहना भ्रान्तिपूर्ण है – स्पेंसर सुख को परम ध्येय मानता है १९४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु साथ ही स्पष्ट रूप से कहता है कि सुख अपने-आपमें मानदण्ड नहीं है। नैतिक दृष्टि से कर्मों के औचित्य-अनौचित्य का मानदण्ड शारीरिक स्वास्थ्य है । शारीरिक स्वास्थ्य एवं जाति का जीवन ही सन्निकट ध्येय है । ऐसी स्थिति में स्पेंसर के सिद्धान्त को सुखवाद कहना भ्रान्तिपूर्ण है। सन्निकट ध्येय और 'परम ध्येय के बीच स्पेंसर यह कहकर सामंजस्य स्थापित करता है कि नैतिक उद्देश्य के लिए यह मान लेना चाहिए कि अधिकतम परिमाण के जीवन का और अधिकतम परिमाण के सुख का उत्पादन करनेवाले कर्मों में सामंजस्य है । उसकी उपर्युक्त मान्यता क्या अपने को सिद्ध करती है ? उसका यह कथन, सम्भव है, इस विश्वास पर आधारित है कि आदर्श समाज (पूर्ण सामंजस्य की स्थिति) का निरपेक्ष नीतिशास्त्र उन आचरण के नियमों का प्रतिपादन करता है जो कि दुःखरहित पूर्ण सुख का उत्पादन करते हैं। ऐसे आशापूर्ण भविष्य से सम्बन्धित नियम वर्तमान स्थितियों का समाधान नहीं कर सकते, वे वास्तविक जगत् के लिए व्यावहारिक नियम नहीं दे सकते हैं । वे सुखप्रद और स्वास्थ्यप्रद कर्मों में एकत्व स्थापित नहीं कर सकते । सच तो यह है कि सुख और दुःख की मानसिक-कायिक खोज यह व्यावहारिक ज्ञान नहीं दे सकती कि किस परिस्थिति में सुख-विशेषकर उच्च सुख प्राप्त हो सकता है । यह कहना कि वस्तु कब और किसे सुख दे सकती है, यह परिस्थिति-मानसिक और भौतिक-के व्यापक ज्ञान की अपेक्षा रखती है। अनावश्यक प्राशावाद-स्पेंसर का विश्वास है कि विकास अपनी अन्तिम स्थिति में एक ऐसे आदर्श समाज को स्थापित कर देगा जहाँ कि दुःखरहित सुख होगा। उसके अनुसार जीवन-संरक्षण के लिए अनिवार्य नियम ही नैतिक नियम हैं और वे सखप्रद भी हैं। पद्धतिक्रम की स्थिति अपूर्ण सामंजस्य की स्थिति है, इसमें पूर्ण सुख प्राप्त नहीं हो सकता । किन्तु पूर्ण सामंजस्य अवश्य ही पूर्ण सुख देगा । इस स्थिति में निरपेक्ष नीतिशास्त्र के नियम व्यावहारिक हो जायेंगे। मनुष्य उन परम नैतिक कर्मों को करने लगेंगे जो दुःखरहित सुख का उत्पादन करेंगे। किन्तु इस तथ्य को कैसे सिद्ध किया जा सकता है ? स्पेंसर का यह कहना था कि विश्व का इतिहास बतलाता है कि विकास का क्रम अनिश्चित, असंगत, एकरूपता से निश्चित, वैचित्र्यपूर्ण संगतिमय अनेकरूपता की उन्नति का क्रम है । जहाँ तक मानव-समाज का प्रश्न है ऐसे विकास की अन्तिम स्थिति दुःखरहित पूर्ण सामंजस्य की सूचक है । विकासवादियों के इस कथन के समान ही महत्त्वपूर्ण निराशावादियों का कथन भी मिलता है । वास्तविक अनुभव यह नहीं विकासवादी सुखवाद | १६५ For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह सकता कि उनके कथन की अवहेलना करना सम्भव है। अथवा इन कथनों में कि 'अज्ञान सुखप्रद है' और 'ज्ञान की वृद्धि, दुःख की वृद्धि है जो आंशिक सत्य मिलता है, उससे मुंह मोड़ लेना सम्भव नहीं। स्पेंसर का विश्वास था कि जीवन की वृद्धि सुख की वृद्धि है। किन्तु क्या अधिक विकसित राष्ट्र और व्यक्ति अधिक सुखी हैं ? इसमें सन्देह नहीं कि उनकी विभिन्न शक्तियाँ और योग्यताएँ बढ़ गयी हैं। किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि उनकी सुख भोगने की शक्ति भी बढ़ गयी है । बल्कि इसके विपरीत यह देखा जाता है कि वे बौद्धिक और मानसिक अशान्ति से ग्रस्त हैं। वर्तमान जीवन इसका ज्वलन्त उदाहरण है। ___ सामंजस्य–स्पेंसर ने कहा कि मानव-जाति अपूर्ण सामंजस्य से पूर्ण सामंजस्य की ओर अग्रसर हो रही है। विकास की अन्तिम स्थिति पूर्ण सामंजस्य एवं स्थायी सन्तुलन की स्थिति होगी। क्या विकास स्थायी सन्तुलन को स्वीकार कर सकता है ? क्या पूर्ण संयोजित व्यक्ति सम्भव है ? विकास और पूर्ण सन्तुलन, ये दो विरोधी धारणाएँ हैं। विकास एक बहती हुई नदी के समान है जो अनेक नये कगारों रूपी इच्छानों और भावनाओं को उत्पन्न करती रहती है। यदि स्थायी सन्तुलन रूपी सेतु की स्थापना कर भी दी जाय तो वह पुनः नवीन शक्तियों द्वारा विच्छिन्न हो जायेगा । विकास परिवर्तनशील जीवन का सूचक है, स्थायी सन्तुलन स्थिर जीवन का तथा स्थिर जीवन मत्यू का ही दूसरा नाम है। ऐसा पूर्ण सुख अथवा परम शान्ति मरघट में ही सम्भव है। मनुष्य में संयोजन उस अनिवार्य प्राकृतिक सम्बन्ध के रूप में प्रकट नहीं होता है जिसके लिए वह सचेत न रहे। मनुष्य में संयोजन प्राकृतिक स्थिति मात्र का सूचक नहीं है, वह अर्थगभित है। संयोजन को अर्थ मनुष्य का मानस देता है। उसके मानस में कुछ अप्राप्य ध्येय अथवा आदर्श हैं और उनकी प्राप्ति के लिए वह परिस्थिति के साथ विशिष्ट प्रकार से संयोजित होना चाहता है। वैज्ञानिक, दार्शनिक और चिन्तक अपने आदर्श के अनुरूप ही जगत् को देखना चाहते हैं । वे जगत को अपने प्रादर्श से संयोजित करना चाहते हैं। आत्मचेतन प्राणी वातावरण और परिवेश में कमियाँ पाता है। वह उसे अपने मानसिक आदर्श के अनुरूप नहीं पाता है। कमियों को निर्धारित करनेवाला मानदण्ड उसे वातावरण नहीं देता बल्कि उसका मानस देता है। मनुष्य के लिए सामंजस्य कोरा शब्द मात्र नहीं है। यह उसके आदर्श से संयुक्त होकर अर्थभित हो जाता है । ऐसे सामंजस्य को समझने के लिए ध्येय या अन्त को समझना चाहिए, १६६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कि उद्गम को। मनुष्य बौद्धिक और चिन्तनशील है। उसका अप्राप्य ध्येय उसके वास्तविक स्वभाव का प्रतिबिम्ब है। मानव-समाज का अध्ययन बतलाता है कि विकास व्यक्ति और वातावरण के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं कर रहा है बल्कि प्रात्मचेतन स्वतन्त्र व्यक्ति अपने आदर्श के अनुरूप वातावरण को संयोजित कर रहे हैं । दृढ़ संकल्प और नेतिक अन्तर्ज्ञानवाले व्यक्तियों-ईसा, बुद्ध, गांधी-ने अपने व्यक्तित्व में अपने आदर्शों को मूर्तिमान् किया और वातावरण को भी अपने आदर्शों के अनुरूप ढाला । नैतिकता यह जानना चाहती है कि समाज की कौन-सी स्थिति आदर्श स्थिति है । वह जीवशास्त्र की भाँति सामाजिक विकास के तथ्यात्मक वर्णन को ही सब-कुछ नहीं मान सकती। विकासवादी यह भूल गये कि नैतिकता अचेतन सामंजस्य से ऊपर है। वह उस सामंजस्य को समझना चाहती है जो कि समझ-बूझकर उच्चतम भविष्य के लिए स्वीकार किया जाता है। ऐसा सामंजस्य यान्त्रिक नहीं है, न वह प्राकृतिक विकास का अनिवार्य अंग ही है। इस सामंजस्य के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य चाहे अथवा न चाहे, प्राकृतिक विकासपूर्ण सामंजस्य की स्थिति को अपने-अाप स्थापित कर देगा। विकासवादियों ने वातावरण को स्थिर स्थितियों का विधान मात्र माना है जिससे जीव-रचना अपने जीवनसंरक्षण के लिए संयोजित होती है। वे यह भूल गये कि मनुष्य तो मनुष्य ही है, निम्न प्राणियों और उनके वातावरण तक में यह पाया जाता है और वे दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं। व्यक्ति ही समाज पर पूर्णतया निर्भर नहीं है, समाज भी व्यक्तियों पर निर्भर है। वास्तव में वही समाज जीवित रह सकता है जिसे व्यक्तियों का सक्रिय सहयोग प्राप्त है। जिस समाज के सदस्य समझ-बूझकर स्वेच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं वही उन्नत और जीवित समाज है । मनुष्य और पशु के आचरण में यही प्रमुख भेद है कि पशु के कर्म बौद्धिक आत्मा द्वारा संचालित नहीं होते। मनुष्य समाज एवं प्रकृति के हाथ का खिलौना नहीं है। प्रकृति उसे कठपुतली की तरह नहीं नचा सकती। उसका प्रकृति के साथ अन्ध-सामंजस्य नहीं है। जब से उसमें ध्येय-निहित बुद्धि (Purposive intelligence) का प्रादुर्भाव हुआ और पारस्परिक सहयोग की भावना एवं मानवता की भावना मे जन्म लिया तब से उसके सामंजस्य के दृष्टिकोण के क्षितिज में महान अन्तर आ गया है। वह अब बाह्य जगत् को अपने आन्तरिक जगत्-प्रादर्शों और मान्यताओं के अनुरूप बनाना चाहता है। यदि यह मान लें कि ध्येय-निहित बुद्धि को प्रकृति ने जन्म दिया है तो यह भी विकासवादी सुखवाद / १६७ For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट है कि प्रकृति का यह शिशु अब उसका स्वामी बन गया है । समाज केवल भौतिक सामंजस्य का सूचक नहीं है । वह आत्मचेतन प्राणी के लिए वह स्थान है जहाँ उसे उच्च गुणों के उपार्जन के लिए सुविधा मिल सकती है। विकासवादी भूल जाते हैं कि मनुष्य स्वतन्त्र नैतिक प्राणी है। वह अपने वातावरण को स्वयं बना सकता है। जैव क्षेत्र के संवेदनशील जीव और नैतिक क्षेत्र के बुद्धिजीवी में अन्तर है। इस अन्तर के कारण मनुष्य-जीवन में शक्त और अशक्त का विरोध अल्प एवं नगण्य है। यहाँ निर्बल के ऊपर सबल की विजय नहीं है । मनुष्य की सब आवश्यकताओं को भौतिक एवं जैव नहीं कह सकते। जातियों के संघर्ष को कायिक समुदायों का संघर्ष मात्र नहीं कह सकते। यह, जैसा कि अलेग्जेण्डर ने माना है, उच्च और निम्न तथा नैतिक और सामाजिक विचारों का संघर्ष है। - सामाजिक जीव-रचना का रूपक सन्देहजनक है-विकासवादियों ने समाज और जीव-रचना में सादृश्य दिखलाकर यह बतलाया कि उनके पूर्व के सिद्धान्त नैतिक दृष्टि के साथ ही जैव दृष्टि से भी निर्बल और त्याज्य हैं । जिस आत्मा की तृप्ति के लिए उन्होंने प्रयास किया वह समाज से असम्बद्ध नहीं है। उसका और समाज का अनिवार्य और अनन्य सम्बन्ध है । सुखवाद के विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन यह बतला चुका है कि वे व्यक्ति और समाज के अनन्य सम्बन्ध को समझाने में असमर्थ रहे। इसी भाँति बुद्धिपरतावादियों (सिनिक्स, स्टोइक्स, काण्ट) का सिद्धान्त इस सम्बन्ध को नहीं समझ पाया। उन्होंने भी समाज को विरोधी शक्तियों की बाह्य-एकता के रूप में देखा। विकासवादियों ने यह समझाया कि व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध संयोग मात्र नहीं है । वे आकस्मिक रूप से सम्बन्धित नहीं, अनन्य रूप से सम्बद्ध हैं। समाज को जीव-रचना (अंगी) कहकर उन्होंने यह समझाया कि व्यक्ति समाज पर निर्भर है। किन्तु इस वाक्य-खण्ड-जीव-रचना--की व्याख्या सन्देहजनक है। विकासवादियों ने स्वयं माना है कि समाज और जीव-रचना में समानता के साथ ही स्पष्ट भेद भी है। अत: जीव-रचना के रूपक को परम रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता। उसे सादृश्य के रूप में ही स्वीकार करना होगा । जीव-रचना के अवयव स्वतन्त्र, आत्मनिर्भर जीवन नहीं बिता सकते। समाज में व्यक्ति का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व है। उसके सुख-दुःख व्यक्तिगत और सापेक्ष हैं। सिजविक ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि सुख-दुःख का अनुभव व्यक्ति करता है, न कि सामाजिक जीव-रचना । जैव जीव-रचना के १६८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव का केन्द्र एक ही होता है किन्तु समाज प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा चिन्तन तथा अनुभव करता है। उनकी बौद्धिक या सामाजिक प्रात्मा के रूप में ही उसका अस्तित्व है। व्यक्ति पारस्परिक रूप से एक-दूसरे पर निर्भर अवश्य हैं, किन्तु प्रत्येक का अपना निजत्व है। जीव-विधान या रचनाशास्त्र के अनुसार समान होने पर भी उनके कर्तव्य, कर्म एवं व्यापारों में भिन्नता है। जैव जीव-रचना और सामाजिक जीव-रचना में यहाँ पर स्पष्ट भेद है। जीवरचना के निर्माणात्मक अंग अथवा जीवाण जीव-रचनाशास्त्रानुसार न तो एकरूप (समान) हैं और न उनके व्यापार ही समान हैं। जीवाणु जीव-रचना पर निर्मर हैं। उनका जीवन प्रात्मनिर्भर और स्वतन्त्र नहीं है। किन्तु व्यक्ति समाज पर निर्भर होते हुए भी स्वतन्त्र है। समाज उन प्रात्मप्रबुद्ध आत्माओं का संगठन है जिनके कर्म स्वेच्छाकृत हैं। वह वैयक्तिक अणुओं का यान्त्रिक समुदाय मात्र नहीं है। अतः जीव-रचना का रूपक समुचित सादृश्य नहीं है। इसे दूर तक नहीं ले जा सकते । जीव-रचना के रूपक को पूर्ण रूप से मान लेने पर व्यक्ति का निराकरण हो जाता है। इस अर्थ में शुभ एकमात्र सामाजिक है। किन्तु नीतिशास्त्र वैयक्तिक शुभ को भी मानता है। सुखवादी दृष्टिकोण से व्यक्ति समाज में खो नहीं जाता। उसका अपना व्यक्तित्व है, वह प्रात्मसुख की खोज करता है। वास्तव में नैतिक जीवन में स्वार्थ और परमार्थ दोनों के ही लिए समुचित स्थान है। वे एक-दूसरे को विलीन नहीं कर देते बल्कि एक महत्तर सत्य का अंग बन जाते हैं । वही उचित परमार्थ है जो स्वार्थ का समावेश करता है और वही उचित स्वार्थ है जो परमार्थ का समावेश करता है। प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति एक प्रहन्ता भी है । प्रहन्ता को नष्ट करना नैतिक जीवन को निर्मूल करना है। नैतिक जीवन का केन्द्र-बिन्दु प्रहन्ता के भीतर है । प्रहन्ता का ज्ञान ही परस्वार्थ का ज्ञान देता है। फिर भी विकासवादियों के 'जीव-रचना' के रूपक का महत्त्व है । यह समाज और व्यक्ति की वास्तविक पारस्परिक निर्भरता को बतलाता है। सहजज्ञानवाद का विरोध : नैतिकता की उत्पत्ति-सहजज्ञानवादियों के. अनुसार नैतिक प्रत्यय सहज, परम और निरपेक्ष होते हैं। विकासवादियों ने अन्तर्बोध को ऐतिहासिक पद्धति से समझाकर सहजज्ञानवादियों की आलोचना की। उन्होंने यह बतलाया कि अन्तर्बोध के निर्णय सहजात और अनुपाजित महीं होते हैं। वे सामाजिक जीव-रचना से सापेक्ष रूप से सम्बन्धित हैं और अपने समय के समाज की. विकसित स्थिति को अभिव्यक्ति करते हैं । वे विकासवादी सुखवाद | १६६ For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति-विशेष से सक्रिय रूप से सम्बद्ध हैं। नैतिक नियम सार्वभौम और अनिवार्य नहीं हैं । वे देश और काल की भिन्नता के अनुरूप भिन्न हैं। वास्तव में ज्ञान अनुभव-सापेक्ष है । जीवन-संघर्ष के क्रम में मनुष्य विभिन्न प्रभावों को प्राप्त करते हैं। मानव-जाति के लिए जो अनुभवजन्य ज्ञान है वही व्यक्ति के लिए अनुभव-निरपेक्ष हो जाता है । आनुवंशिकता द्वारा प्राप्त ज्ञान ही सहजात लगता है । आचरण के औचित्य और अनौचित्य का ज्ञान अनुभवजात ज्ञान है । सत्य बोलना, चोरी न करना, जाति के कल्याण की भावना प्रादि सहजात इस अर्थ में हैं कि मानव-जाति ने अनुभव से सीखा है कि ये जाति और व्यक्ति के संरक्षण में सहायक होते हैं। स्वयं-सिद्ध नैतिक सत्य अनुभव द्वारा अजित सत्य है। ये सापेक्ष और परिवर्तनशील हैं। कर्तव्य की भावना; स्वार्थ-परमार्थ का प्रश्न-स्वार्थ और परमार्थ के प्रश्न को उपयोगितावादियों ने उठाया था और उन्होंने भावना द्वारा उन दोनों में सामंजस्य स्थापित करने का असम्भव प्रयत्न किया था। इस प्रश्न को विकासवादियों ने फिर से उठाया। स्पेंसर ने इनके विरोध के मूल में अपूर्ण सामंजस्य देखा । लेस्ली स्टीफेन स्पष्ट रूप से मानता है कि कर्तव्य और सुख में पूर्ण संगति नहीं है । कुछ पारमार्थिक कर्म दुःखप्रद भी हैं। पर साथ ही वह कहता है कि व्यक्ति का अपना सुख ही परम ध्येय नहीं है। उसके लिए यह अनिवार्य है कि जीवन की सामान्य परिस्थितियों के योग्य होने के लिए वह पारमार्थिक प्रवृत्तियों को अजित करे । सामाजिक जीव-रचना का सदस्य होने के कारण व्यक्ति समाज के सूख और कल्याण के लिए अपने सुख को भूल जाता है। स्वेसर का सिद्धान्त लेस्ली स्टीफेन और अलेग्जेण्डर की तुलना में अधिक व्यक्तिवादी है। वह कहता है कि प्रत्यक्ष ध्येय प्रात्मसंरक्षण है और अप्रत्यक्ष ध्येय जाति-संरक्षण । किन्तु लस्ली स्टीफेन और अलेग्जेण्डर सामाजिक स्वास्थ्य अथवा सामाजिक विधान की साम्यावस्था को ही परम शुभ मानते हैं । ऐसी स्थिति में सुखवाद (वैयक्तिक सुख) के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता । वास्तव में विकासवादियों ने भी सुखवादियों की भाँति सुख-कर्तव्य, स्वार्थ-परमार्थ एवं शुभ और सद्गुण में विरोध मान लिया। सुखवादियों ने भावना द्वारा उनमें संगति स्थापित करनी चाही और विकासवादियों ने जैव विकास द्वारा इस कठिनाई को दूर करना चाहा। अपने इस प्रयास में उन्होंने नैतिक विकास को प्राकृतिक चयन द्वारा समझाया जिसके अनुसार योग्यतम की विजय ही विभिन्न नैतिक नियमों की जन्मदात्री बन जाती है एवं नैतिकता २०० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नितिकता से उत्पन्न होती है । वे यह भूल गये कि जैव और नैतिक नियमों में अनुरूपता नहीं है। जंव नियम योग्यतम की विजय एवं दुर्बल के दमन के 'सिद्धान्त के पोषक हैं। वे समर्थ तथा शक्तिशाली व्यक्तित्व की वृद्धि करते हैं, प्रभुत्वभाव तथा निर्मम आत्मभाव का समर्थन करते हैं। नैतिक विकास दुर्बल को आश्रय देता है। यह विकास, जैसा कि अलेग्जेण्डर ने अंगीकार किया, क्षद्र विचारों के ऊपर उच्च विचारों की विजय है। अलेग्जेण्डर का यह कथन यह स्वीकार करने के समान है कि जैव धारणा नैतिक मूल्यों को नहीं समझा सकती। इसमें सन्देह नहीं कि नतिक विकास प्रांशिक रूप से वातावरण और परिवेश पर निर्भर है। किन्तु प्रमुख रूप से वह शुभ संस्थाओं, शिक्षा, भाषा, स्वतन्त्र संकल्प और नैतिक अन्तर्ज्ञान पर निर्भर है। नैतिक माचरण सम्यक ज्ञान की क्रमिक वृद्धि का सूचक है। वह प्राकृतिक चयन द्वारा निर्देशित न होकर विवेकसम्मत और स्वेच्छाकृत है। प्रकृति की अनुकूलता देखकर आचरण करनेवाला व्यक्ति अवसरवादी है, न कि नैतिक । नैतिक मनुष्य सत्य के लिए अडिग होकर आचरण करता है । यही उसके लिए शोभन है । परिस्थिति के अनुकूल प्राचरण उच्च आचरण नहीं है, वह पशु-धरातल का सूचक है । ऐसा आचरण मनुष्य और राष्ट्र को उन्नत नहीं बना सकता। नैतिक कठिनाई-विकासवाद एवं नैतिक मान्यताओं का प्राकृतिक इतिहास विभिन्न जीवयोनियों के जीवन के बारे में बोध देता है। वह बतलाता है कि जीवन-संघर्ष ने आचरण के किन रूपों को जन्म दिया है । नैतिक मान्यताओं, 'नियमों और प्रत्ययों के मूल में कौनसी भौतिक परिस्थितियाँ हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ऐसी ऐतिहासिक पद्धति का कुछ सीमा तक निराकरण नहीं किया जा सकता, किन्तु साथ ही इस सत्य को भी नहीं भुलाया जा सकता कि वह ज्ञान को तथ्यात्मक जगत् तक सीमित कर देता है । अतः पूर्ण रूप से उस पद्धति को अपनाना, मूल्य को भूलकर तथ्य को महत्त्व देना है। नैतिकता सामाजिक विकास के तथ्यात्मक वर्णन को महत्त्व नहीं देती । वह जानना चाहती है कि समाज की कौन-सी स्थिति आदर्श स्थिति है। नैतिक जीवन आदर्श से शासित है, न कि भूतकालीन घटनाओं और तथ्यों से । वह साभिप्राय जीवन है और हेतुवाद द्वारा समझाया जा सकता है । वह ध्येय एवं आदर्श द्वारा निर्देशित है। विकासवादियों ने उसे वैज्ञानिक रूप देने की आकांक्षा से जीवशास्त्र पर आधारित कर दिया और इस भाँति वास्तविकता से आदर्श की उत्पत्ति तथा नितिकता से नैतिकता के विकास को समझाना चाहा। विकास-क्रम का विकासवादी सुखवाद | २०१ For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धानुकरण करने में व्यक्ति के जीवन की सार्थकता नहीं है । व्यक्ति अथवा समाज की नैतिक प्रगति वैश्व क्रम का अनुकरण करने में नहीं है और न उससे मुंह मोड़ लेने में ही है; किन्तु उससे संघर्ष करने में है। विकासवाद यह नहीं समझा पाता कि जीवन का क्या अर्थ है। वह केवल यह कहता है कि जीवनसंरक्षण अनिवार्य है, जिसके लिए प्राकृतिक नियमों का अनुकरण भी अनिवार्य है। इसमें सन्देह नहीं कि कोई भी नीतिज्ञ उन नियमों की अवहेलना नहीं करेगा। जो सामाजिक संरक्षण के लिए आवश्यक हैं। सच तो यह है कि बिना समाज के नैतिक नियम व्यर्थ हैं । किन्तु मुख्य प्रश्न यह है कि क्या एकमात्र ध्येय संरक्षण ही है ? क्या मानवता की स्थापनामात्र से सन्तोष प्राप्त हो सकता है ? क्या उसके अस्तित्व एवं जीवन को अधिक वांछनीय बनाना ध्येय नहीं है ? क्या जीवन की लम्बाई और चौड़ाई की वृद्धि से प्रात्म-सन्तोष मिल सकता है ? नैतिक दृष्टि से ऐसा जीवन अपने-आप में वांछनीय नहीं है। बौद्धिक प्राणी अजगर का-सा जीवन नहीं बिता सकता। नैतिक ध्येय गुणविहीन ध्येय नहीं है। नैतिक मान्यताएँ गुणात्मक भेद की अपेक्षा रखती हैं । कर्तव्य की भावना को विकासवादियों ने भौतिक नियमों के आधार पर समझाया। मनुष्य चाहे अथवा न चाहे, प्रकृति उसके आचरण को एक विशिष्ट रूप दे देगी, उसकी प्रकृति को एक विशिष्ट प्रकार का बना देगी । ऐसी स्थिति में मनुष्य के लिए नैतिक ध्येय की प्राप्ति का प्रयास करना मुख्य वस्तु नहीं है । स्वार्थ का परमार्थ में अनायास ही रूपान्तर हो जाता है और प्राकृतिक चयन कर्तव्य की भावना का प्रादुर्भाव कर देता है; ऐसे सिद्धान्तों को अपनाकर मनुष्य जीवन के प्रति, नैतिक एवं बौद्धिक मान्यताओं के प्रति वैसी ही भावना हो जायेगी जैसी कि अन्य प्राकृतिक प्राणियों- पशु, वृक्ष, अचेतन वस्तुओंकी होती है। विकासवादी भूल गये कि मनुष्य और पशु में भेद है । मनुष्य उस ध्येय को देख और समझ सकता है जिसकी ओर प्रकृतिरूपी गाड़ी बढ़ रही है । दृढ़ संकल्प और प्रबल व्यक्तित्ववाला मनुष्य प्राकृतिक दिशा के विमुख भी जासकता है। विकासवादियों का सिद्धान्त विचित्र है। वे नैतिक प्रत्ययों को प्राकृतिक चयन एवं जीवन-संघर्ष द्वारा समझाते हैं। उनके न्याय का सिद्धान्त तथा कर्तव्य की भावना इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। उन्होंने नैतिक सुखवाद के साथ उपयोगितावाद को संयुक्त करना चाहा एवं प्रकृतिवाद और सहजज्ञानवाद को एक मान लिया और नैतिक शुभ और प्राकृतिक शुभ तथा जैव शुभ में तादात्म्य देखा । उन्होंने स्वार्थ-परमार्थ, कर्तव्य और सुख विरोध मानकर २०२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसे दूर करना चाहा । प्रदर्शविधायक विज्ञान और यथार्थ - विज्ञान को समा रूप से समझना चाहा तथा स्वतन्त्र नैतिक प्राणी और अप्रबुद्धप्राणियों को एक ही स्तर पर मान लिया । विकासवादी सुखवाद / २०३ For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ बुद्धिपरतावाद सामान्य परिचय-बुद्धिपरतावाद वह सिद्धान्त है जो यह मानता है कि मनुष्य का मौलिक स्वरूप बौद्धिक है, भावनात्मक नहीं। इसका सुखवाद से प्रत्यक्ष विरोध है। यह उसके बिल्कुल ही विपरीत है। इसके अनुसार जीवन का ध्येय बौद्धिक है, वह भावना से स्वतन्त्र है । सुख का निराकरण करते हुए बुद्धिपरतावाद कहता है कि सुख की प्रेरणा से किया हुआ कर्म अनैतिक है । बुद्धिपरतावाद ने इन्द्रियों के हनन को अनिवार्य बतलाते हुए बुद्धि की प्रधानता सिद्ध की है । यदि सुखवाद ने 'सुख सुख के लिए कहा तो बुद्धिपरतावाद ने 'कर्तव्य कर्तव्य के लिए' कहा। सुखवादियों ने सुख, व्यावसायिक बुद्धि और लाभप्रद साधन को महत्त्व दिया और बुद्धिपरतावादियों ने कर्तव्य, सद्गुण और नियमोचित कर्म को । एक ने नैतिकता का सम्बन्ध कर्म के परिणाम (सुख-दुःख) से जोड़ा तो दूसरे ने प्रेरणा की पवित्रता से । यदि पूछा जाये कि उचित कर्म की क्या पहचान है, अथवा नैतिक नियम को कैसे समझा जा सकता है, तो बुद्धिपरतावादी कहेंगे कि उचित कर्म और नैतिक नियम को बुद्धि की सहायता से समझ सकते हैं। वास्तव में आचरण के लिए नियम बुद्धि देती है। बौद्धिक नियम के अनुसार कर्म करना ही नैतिक तथा उचित है। उचित को उचित के लिए ही करना चाहिए । सभी बुद्धिवादियों-हिरेक्लिटस से लेकर काण्ट तक – ने नैतिकता का परम मानदण्ड नियम को माना है । यह नियम बौद्धिक है । बुद्धि ही नैतिकता के परम मानदण्ड के रूप में नियम, विधि या आदेश देती है । उसके अनुरूप कर्म करना ही उचित है। __दो रूप-सुखवाद की भांति बुद्धिपरतावाद का भी नीतिज्ञों ने भिन्न-भिन्न २०४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय में प्रतिपादन किया । उसके दो रूप मिलते हैं : उग्र और नम्र । उसके उग्र रूप के समर्थक हैं सिनिक्स, स्टोइक्स और काण्ट । सहजज्ञानवादी एवं कडवर्थ, क्लार्क, शैफ्ट्बरी, हचीसन और बटलर उसके नम्र रूप को अपनाते हैं । उग्र विचारकों का कहना है कि शुद्ध बुद्धिमय जीवन बिताना चाहिए । इन्द्रियों का पूर्ण रूप से उन्मूलन कर देना चाहिए। नम्र विचारक यह कहते हैं कि इन्द्रियाँ जीवन का अंग हैं पर जीवन मूल रूप में बौद्धिक हैं । अतः बुद्धि द्वारा निर्देशित जीवन व्यतीत करना चाहिए । बुद्धिपरतावाद के दोनों ही पक्षों का अध्ययन बतलाता है कि सभी विचारकों ने बुद्धि को अत्यधिक महत्त्व दिया । बुद्धिपरतावाद निर्मम अनुशासनवादी ( rigoristic ) है । उसके अनुसार इन्द्रियों पर बुद्धि का कठोर नियन्त्रण होना चाहिए । बुद्धि ही एकच्छत्र साम्राज्ञी है । उसके राज्य में इन्द्रियों का यो तो निष्कासन कर दिया जाता है, या उन्हें निष्क्रिय समर्पण की स्थिति में डाल दिया जाता है । कालक्रम के अनुसार यदि बुद्धि परतावाद का विभाजन किया जाये तो प्राचीन काल में सिनिक्स और स्टोइक्स मिलते हैं और अर्वाचीन काल में काण्ट तथा सहजज्ञानवादी | प्राचीन उग्र बुद्धिपरतावाद : सिनिक्स और स्टोइक्स सिनिक्स : विद्वेषवाद - सुकरात की मृत्यु के पश्चात् एण्टिस्थीनीज़' ने एथेन्स की एक व्यायामशाला में एक पाठशाला खोली । यह पाठशाला सिनोसर्जेस' के नाम से प्रसिद्ध थी, जिसके कारण एण्टिस्थीनीज़ और उसके अनुयायियों को सिनिक्स' के नाम से पुकारा गया । सिनिक शब्द यूनानी भाषा के उस विशेषण से मिलता है जिसका अर्थ 'कुत्ते के समान' होता है । अतः सिनिक शब्द में श्लेष है । एण्टिस्थीनीज़ और विशेषकर उसके शिष्य डायोजिनिस के प्रशिष्ट और उद्दण्ड स्वभाव के कारण व्यंग्य में लोगों ने उसके पन्थ के अनुयायियों को सिनिक अथवा कुत्ता कहा । सिनिक ने बौद्धिक स्वतन्त्रता के नाम पर कठोर वैराग्यवाद को अपनाया, सामाजिक मान्यताओं के प्रति विद्वेषात्मक भाव रखा, सामान्य सामाजिक मर्यादाओं की उपेक्षा की। अपनी इन विलक्षणताओं के 1. Antisthenes जन्म, २३६ ई० पू० । 2. Cynosarges. 3. Cynics. 4. Diogenes. For Personal & Private Use Only बुद्धिपरतावाद / २०५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण वह सिद्धान्त अत्यन्त अनाकर्षक और अप्रिय बन गया एवं निर्लज्जता और विद्वेष (सामाजिक सदाचार का तिरस्कार) के अर्थ में 'सिनिक' शब्द प्रचलित हो गया। ____ध्येय : सद्गुण-मनुष्य बौद्धिक है । जीवन का परम ध्येयं सद्गुण है। वह अपने-आपमें परिपूर्ण है । सद्गुणी व्यक्ति को किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। अपने में सम्पूर्ण होना और आवश्यकताओं से ऊपर उठना ईश्वरीय गुण है । ऐसा व्यक्ति अपने चारों ओर के वातावरण और विभिन्न नियमों-सामाजिक, राजनीतिक आदि-से स्वतन्त्र है। वह आत्मनिर्भर है। उसका कल्याण उसी पर निर्भर है। सद्गुणयुक्त जीवन व्यतीत करने के लिए ज्ञान अनिवार्य है। सुखवाद का खण्डन-सिनिक्स सुकरात के जीवन के उस पक्ष से प्रभावित हुए जो आत्मनिर्भरता और इच्छाओं से स्वतन्त्रता का सूचक है। इसी को उन्होंने अपने सिद्धान्त का मूल आधार माना। सुकरात का जीवन आत्मसंयम का जीवन था । वह परिस्थितियों से स्वतन्त्रता, पूर्ण आत्म-निर्भरता और प्रात्मपर्याप्तता के आदर्शों का मूर्त रूप था। इन आदर्शों को सिनिक्स ने अपनाया और उन्हें अपनाने में वैराग्यवाद को स्वीकार कर लिया। उन्होंने सुखवाद की तीव्र आलोचना की । सुखवाद की असत्यता, अज्ञान एवं मूर्खता को समझाने के लिए इसके संस्थापक, एण्टिस्थीनीज़ ने यहाँ तक कहा कि 'सुख के वश में होने से अच्छा पागल हो जाना है।' उसके कथनानुसार मनुष्य को भावनाओं और इच्छात्रों के अधीन नहीं रहना चाहिए। उसे इन्द्रियजित् या आत्मविजेता होना चाहिए। सुख पाप है, वह जीवन का ध्येय नहीं है। बुद्धि से शासित व्यक्ति को पाप, दोष, बुराई, दुर्गण आदि छ भी नहीं सकते हैं। वह सद्गुणी है। - सिनिक जीवन-विद्वेषपूर्ण विवेक (Cynic wisdom) बौद्धिक आत्मा के स्वामित्व के उच्च स्वाभिमान का सूचक है । वह मानव-चेतना की परिस्थितियों के ऊपर पूर्ण विजय का ज्ञापक है। वह आत्म-आरोपित नियम के अतिरिक्त किसी अन्य नियम को नहीं मानता। ऐसा विवेकयुक्त व्यक्ति इच्छानों की दासता के विश्व का राजा है । इस तथ्य को आधार मानते हुए जिन आचरण के नियमों को सिनिक्स ने स्वीकार किया वे अत्यन्त प्रभावात्मक और अव्यावहारिक हैं । आत्मा की पूर्णता प्रात्मवर्जन (Self-denial) में है । इच्छात्रों को न्यूनतम कर देना चाहिए । प्रकृति के अनुरूप सरल और स्पष्ट जीवन बिताना चाहिए । प्राकृतिक आचरण के नाम पर उन्होंने लोकमत का तिरस्कार किया, २०६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सजातियों के प्रति घृणा प्रदर्शित की और रीति-रिवाज को उपेक्षा से देखा। एण्टिस्थीनीज़ का शिष्य डायोजिनिस अपने विचित्र आचरण, झक्कीपन और बेवकूफी के लिए विख्यात है। डायोजिनिस जब बहुत बूढ़ा हो चुका था और यूनान-भर में जब उसकी ख्याति फैल चुकी थी तब अलेग्जेण्डर ने उसके बारे में सुना और वह उससे मिलने गया। वहाँ पहुँचकर उसने डायोजिनिस से पूछा कि क्या मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूँ? डायोजिनिस, जो कि टब में बैठकर सूर्य-स्नान कर रहा था, बोला कि आप केवल धूप के सामने से हट जायें। डायोजिनिस के जीवन के ऐसे उदाहरण नैतिक और सामाजिक जीवन की व्यर्थता के सूचक हैं । नीतिवाक्यों को व्यावहारिक रूप देने के लिए सिनिक्स ने निर्लज्जता, अशिष्टता और भद्देपन को स्वीकार किया। पायरो' के आचरण में एक विचित्र व्यक्तित्व मिलता है। उसे तर्कशास्त्र और विज्ञान से घृणा थी क्योंकि उसके अनुसार वे प्रात्मोन्नति में सहायक नहीं हैं। उसकी नैतिक धारणाएँ सन्देहवाद की पोषक हैं। उसके अनुसार सन्देह सद्गुण की प्राप्ति में सहायक है। यदि किसी प्रकार यह विश्वास हो जाये कि न शुभ है और न अशुभ तो वस्तुओं के प्रति स्वतः ही विरक्ति उत्पन्न हो जायेगी। पायरो मानता है कि विरक्ति ही इच्छाओं और वासनाओं से मुक्त करती है। यही विवेक है। आलोचनात्मक परीक्षण : सुकरात से थोथा साम्य-सिनिक सिद्धान्त अपने प्रारम्भिक रूप में वैराग्यवादी था। इसका सारवाक्य था : सुख पाप है और दु:ख शुभ है । इसके अनुगामियों ने अपने आचरण द्वारा इसे निर्लज्जता का बाना पहना दिया। इसके संस्थापक का कहना था कि वह सुकरात का अनुगामी है। पर एण्टिस्थीनीज़ को सुकरात का सच्चा शिष्य नहीं मान सकते । सुकरात के सिद्धान्त की महत्ता एण्टिस्थीनीज़ के हाथ में आते ही हीन और तुच्छ हो जाती है। दोनों के प्रमुख ध्येय में भेद है। सुकरात के मानव-कल्याण की धारणा एण्टिस्थीनीज़ द्वारा प्रहन्तावाद और वैराग्यवाद में परिणत हो जाती है । उनकी आत्मनिर्भरता अपने सजातीयों के अपमान का साधनमात्र है। कला-सौन्दर्य-प्रेमी, सांसारिक सुख और ऐश्वर्य में लीन यूनानियों को सिनिक्स ने कठोर परिश्रम और कष्ट का सन्देश दिया। किन्तु वे इस सन्देश को स्वीकार नहीं कर पाये और उससे प्रभावित नहीं हो सके। अतः यह सिद्धान्त प्रचलित और लोकप्रिय नहीं हो सका। 1. Pyrrho. बुद्धिपरतावाद | २०७ For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विश्वनागरिकतावाद स्वार्थवाद है--सिनिक्स ने विश्वनागरिकतावाद (Cosmopolitanism) की नींव डाली । उनके अनुसार नियम ही नैतिकता का मानदण्ड है, यह नियम बुद्धि देती है और यह बौद्धिक नियम सार्वभौम है। सिनिक साधु केवल विवेकजन्य नियमों को अनिवार्य मानता है और उन्हीं के अनुरूप कर्म करता है । विवेकजन्य नियम सब बौद्धिक प्राणियों के लिए समान रूप से अनिवार्य हैं । यदि सब व्यक्ति विवेकी हो जायें तो राजनीतिक नियमों और राष्ट्रीय भेदों का कोई मूल्य नहीं रह जायेगा । स्वामी-सेवक, स्त्री-पुरुष, एक राष्ट्र और दूसरे राष्ट्र आदि के भेद टूटकर विश्वराष्ट्र की स्थापना हो जायेगी और सब एक ही सार्वभौम नियम (विवेकदृष्टि द्वारा दिये हुए) का पालन करेंगे। ऐसे नियम का पालन करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र एवं आत्मनिर्भर है। किन्तु सिनिक्स का विश्वनागरिकतावाद व्यवहार में इस सिद्धान्त से बहुत दूर है । वह शुद्ध स्वार्थवाद को मानता है। विश्व का नागरिक' अपने आचरण में अपने सामाजिक सम्बन्ध को भूल जाता है। व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता को अत्यधिक महत्त्व देने के कारण वे विश्ववाद को नहीं समझा पाये। वह व्यक्ति, जो कि अपने सजातीयों से घृणा करता है, विश्व-ऐक्य अथवा विश्व-प्रेम के गीत कैसे गा सकता है ? प्रभावात्मक पक्ष प्रमुख है-सिनिक सिद्धान्त के दो रूप हैं : भावात्मक और अभावात्मक । इस सिद्धान्त के प्रारम्भिक विचारकों ने अपने समय की भावात्मक (यथार्थ) नैतिकता को स्वीकार किया। प्रचलित व्यावहारिक सद्गुणों-न्याय, संयम आदि-को अपने-आपमें शुभ माना। सिनिक्स के अभावात्मक रूप की प्रचण्डता ने उनके सिद्धान्त के भावात्मक पक्ष को अप्रमुख बना दिया। फलत: जनता के सम्मुख उनके सिद्धान्त का प्रस्फुटन प्रभावात्मक रूप में हुआ। नैतिकता को स्पष्ट रूप से समझाने के बदले, नैतिक नियमों को पुष्ट अथवा दोषमुक्त करने के बदले वह विद्वेषी, प्रहन्तावादी और असामाजिक हो गया । सिनिक्स का आत्मसंयम का सिद्धान्त कठोर वैराग्यवाद पर आधारित है । सद्गुण को जीवन का ध्येय बतलाते हुए सिनिक्स ने जीवन के अभावात्मक पक्ष को महत्त्व दिया। उनके अनुसार बौद्धिक व्यक्ति सुख-दुःख की भावना से अछूता है। उसे जीवन-भर शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाने चाहिए। अकीर्ति, दरिद्रता और कठोर परिश्रम नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होते हैं। अनुराग, आसक्ति, भावना या तीव्र भावना पाप हैं, वे बीमारी के सदृश हैं, उनका दमन अनिवार्य होना चाहिए। सद्गुणी व्यक्ति २०८/नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनिर्भर व्यक्ति है। वैयक्तिक स्वतन्त्रता को ही सब-कुछ माननेवाला यह सिद्धान्त सामाजिक कल्याण को भूलकर परम स्वार्थवाद को अपना लेता है। अनेक दुर्बलताओं से युक्त : वैराग्यवाद की प्रथम अभिव्यक्ति-सिनिक सिद्धान्त प्रमुख रूप से प्रभावात्मक और विधिवत् (Formal) है। विधिपालन को अथवा नियमानुवर्तिता को उसने विशेष महत्त्व दिया है। नियम का पालन करना उचित है, पर साथ ही यह जानना भी आवश्यक है कि नियम का अन्तर्तथ्य (Content) क्या है ? नियम का क्या अर्थ और सार है तथा विवेक, सदगुण और कल्याण से क्या अभिप्राय है ? सिनिक्स ने जीवन के अन्तर्तथ्य को समझाये बिना ही वैयक्तिक और सामाजिक शुभ की अभावात्मक और विधिवत् व्याख्या की है। ऐसी व्याख्या का व्यावहारिक और वास्तविक मूल्य सामाजिक दृष्टि से घृणित और हेय है । उनके सिद्धान्त ने जिस रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की है वह अनाकर्षक है । सिनिक सिद्धान्त के नाम के साथ प्रकृति के प्रति आकर्षण, लोकमत की उपेक्षा, वैयक्तिक प्रतिष्ठा की कमी तथा सजातीयों के प्रति घृणा प्रसिद्ध हो गये हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जिन उच्च मान्यताओं को लेकर वे प्रारम्भ में चले, अन्त में उनका उतना ही कुत्सित रूप उन्होंने सम्मुख रखा। व्यवहार में सिनिक्स अत्यन्त असामाजिक और अव्यावहारिक हो गये। उन्होंने कलाशून्यता, रूढ़ि-विरोध, अहन्ता, विद्वेषभाव और कुत्सित व्यवहार को अपना लिया। किन्तु फिर भी उनके सिद्धान्त की नैतिक दर्शन को एक देन है । उसने सर्वप्रथम यूनानियों में उस प्रवृत्ति को दार्शनिक अभिव्यक्ति दी जो बुद्धिमय जीवन को ही बौद्धिक प्राणी के योग्य मानती है और इन्द्रियों को आत्मा के फंसाने के लिए फन्दा मानती है। सिनिक सिद्धान्त वैराग्यवाद का प्रथम और अत्यधिक उग्र रूप है। स्टोइक्स स्टोइक सिद्धान्त के प्रचारक जीनो' ने अपना भाषण देने के लिए एथेन्स में एक पाठशाला खोली। इसके लिए उसने जिस बरसाती को किराये पर लिया वह रंगीन बरसाती के नाम से पुकारी गयी । स्टोइक (Stoic) शब्द स्टोए (Stoa) शब्द से उद्भूत किया गया। जीनो के शिष्य 'स्टोए के लोग' अथवा स्टोइक्स कहलाये । इस सिद्धान्त का प्रचार कर इसको प्रसिद्धि क्रिसिपस ने दी। क्रिसिपस जीनों का शिष्य था। 1. Zeno.३४०-२६५ ई० पू०। । 2. Stoa Poikile. 3. Stoics. 4. Chrysippus २८०-२०६ ई० पू० । बुद्धिपरतावाद / २०६ For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्टोइक्स ने सिनिक सिद्धान्त 'सद्गुण ही परम शुभ है' को संवर्धित और विकसित किया । वास्तव में सिनिक सिद्धान्त दो दिशाओं में विकसित हुना। उसकी एक शाखा परम स्वार्थवाद की ओर बढ़ी और दूसरी स्टोइसिज्म की ओर । स्टोइक्स ने आत्मनिर्भरता का अर्थ अविचल रूप से उन कर्तव्यों का पालन माना जो स्वभावतः व्यक्ति की सामाजिक और विश्वजनित स्थिति से उत्पन्न होते हैं। इन दोनों सिद्धान्तों के मूल में आत्मा के सन्दिग्ध अर्थ हैं। स्वार्थवादियों ने प्रात्मा को असम्बद्ध इकाई माना और स्टोइक्स ने उसकी सामाजिक एकता को महत्त्व दिया। सद्गुण-सिनिक्स की भाँति स्टोइक्स ने भी सद्गुण को परम शुभ कहा है। सिनिक्स ने इस कथन के अभावात्मक पक्ष को ही समझाया। सद्गुण का अर्थ उन्होंने प्रचलित नियमों और लोकरीतियों को न मानना लिया। स्टोइक्स ने इसकी भावात्मक व्याख्या करते हुए कहा कि वह अपने-आपमें संगतिपूर्ण तथा प्रकृति के अनुरूप जीवन है। सिनिक्स के अनुसार विवेकी व्यक्ति के लिए कुछ भी असामान्य नहीं है। उसे लोकरीतियों की परवाह नहीं करनी चाहिए और भौतिक आवश्यकताओं को न्यूनतम कर देना चाहिए। स्टोइक्स ने सिनिक्स के ऐसे दष्टिकोण को दार्शनिक जीवन और सामाजिक जीवन के विभाजन द्वारा समझाया। उन्होंने यह बतलाया कि सिनिक्स का कथन दार्शनिक ध्येय और सामान्य एवं निम्न इच्छाओं के विरोध को समझाता है। आचरण की ऐसी रीति अनिवार्य रीति नहीं है, किन्तु वह यह इंगित करती है कि वैरागी साधु विशिष्ट परिस्थितियों में इस रीति को अपना सकता है। सिनिक्स का लोकरीतियों के प्रति विद्वेषात्मक भाव था। स्टोइक्स ने इसको कर्तव्य के यथार्थ नियमों में परिवर्तित कर दिया। उनका कहना था कि विश्व जीवन्त बौद्धिक पूर्णता (living rational whole) है और मानव-आचरण उसका सूक्ष्म दर्शन है। विवेक का अर्थ प्रकृति की अगाध चेतना के साथ संगति है। 'जो कुछ भी प्राकृतिक है वह शुभ है', मनुष्य को केवल प्रकृति के अनुरूप रहना चाहिए। स्टोइक्स दो प्रकार के जीवन मानते हैं-प्रकृति के अनुसार और बुद्धि के अनुसार । दोनों ही परस्पर निर्भर हैं। दोनों एक-दूसरे के अनुकूल हैं । प्रकृति के अनुसार जीवन इन्द्रियपरक जीवन है। वह मनुष्य और पशु का सामान्य जीवन है । उसमें व्यवस्था और नियम है। उसके कर्म अनायास और सहज प्रेरित हैं । वह अपने-आपमें न शुभ है, न अशुभ । किन्तु यदि यह पूछा जाये कि आचरण पर नैतिक निर्णय कैसे देते हैं, अथवा जीवन में नैतिकता २१० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को कैसे आरोपित किया जा सकता है तो स्टोइक्स कहते हैं कि जब प्राकृतिक जीवन का निर्देशन स्वतन्त्र संकल्प शक्ति और बुद्धि करती है तब उनके द्वारा संचालित आचरण शुभ कहलाता है । अथवा स्टोइक्स के अनुसार प्रकृति के अनुरूप जीवन अन्धप्रवृत्तियों और ग्रावेगों का सूचक नहीं है बल्कि वह स्वतन्त्र संकल्प र बुद्धि के अनुरूप जीवन है । भावहीनता (एपेथी ) या सुख-दुःख के प्रति विरक्ति को आदर्श मानकर स्टोक्स ने कहा कि साधु एक विकारशून्य वैरागी ( Impassive sage ) है । उसका विवेक निम्न प्रवृत्तियों की ओर से उदासीन है। वास्तव में, सभी जीवित प्राणियों की मूल प्रवृत्ति सुख की ओर नहीं, आत्मसंरक्षण की प्रोर होती है । विवेकी व्यक्ति यह जानता है कि तीव्र वासना और भावना अस्वाभाविक और बौद्धिक है । वे मानस की बौद्धिक और अस्वाभाविक विकृति हैं। शुभ के स्वरूप का अज्ञान ही वासना को उत्पन्न करता है । वासना श्रात्मा का रोग है । मनुष्य को वासनाओं के प्रति विरक्ति का भाव रखना चाहिए । उसे विवेक द्वारा भावनाओं पर नियन्त्रण रखना चाहिए । व्यावहारिक नैतिकता : ज्ञान, सद्गुण, शुभं प्रशुभ - सुकरात के अनुसार सद्गुण एक ही है और वह ज्ञान है । इस कथन की व्याख्या करते हुए स्टोक्स ने कहा कि ज्ञान सद्गुण है । वह शुभ और सक्रिय है और वह व्यावहारिक चेतना देता है । ज्ञानी अवश्य ही शुभ कर्म करता है । मनुष्य की आत्मा आत्मचेतन सक्रिय विवेक है इसलिए वह विवेक द्वारा सद्गुणों को समझकर उन्हीं के अनुरूप कर्म करता है । जहाँ तक सद्गुणों का प्रश्न है उनमें ऐक्य है । वे प्रपृथक् हैं । इसका कारण यह है कि वे एक ही बुद्धि के परिणाम हैं जो कि कर्मों द्वारा अभिव्यक्ति पा रही है । वे वास्तव में ज्ञान की व्यावहारिक 'चेतना के प्रकार हैं । व्यावहारिक विवेक बतलाता है कि कौन कर्म शुभ हैं, कौन शुभ हैं और कौन उदासीन हैं (न शुभ और न अशुभ) जहाँ तक शुभअशुभ का प्रश्न है, या तो वस्तुएँ शुभ ही होती हैं और या अशुभ ही उनमें मात्राओं का भेद नहीं है । मूर्खता, अन्याय, कायरता, असंयम अशुभ हैं । वे स्वभावतः हानिप्रद हैं, अपने-आपमें अवांछनीय हैं । व्यावहारिक विवेक, संयम, पराक्रम और न्याय शुभ हैं । ये सद्गुण हैं । स्टोइक्स के अनुसार मनुष्य विश्व का नागरिक है । उसका मानवता के लिए कर्तव्य है । स्टोइक्स का यह विश्वास था कि विवेकी व्यक्ति सद्गुणों के अनुसार कर्म कर सकता है और जो व्यक्ति एक सद्गुण का ज्ञान प्राप्त कर लेता है वह सभी सद्गुणों का ज्ञान प्राप्त बुद्धिपरतावाद / २११ For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर लेगा । अतः जिसके पास एक शुभ गुण है उसके पास सभी शुभ गुण होते हैं । विवेक द्वारा कर्मों को संचालित करने वाला व्यक्ति दुर्गुणों से मुक्त होता है । भावहीनता की स्थिति - स्टोइक्स के अनुसार भावहीनता की स्थिति को साधु ही प्राप्त कर सकता है । वास्तव में यह स्थिति साधु के स्वभाव को प्रकट करती है । स्टोक्स का कहना है कि भावशून्य साधु प्रकृति के अनुसार कार्य करता है । उसके जीवन और जनसाधारण के जीवन में महान् अन्तर है । उसका जीवन आध्यात्मिक और कल्याणप्रद है । बिना अन्य साधुत्रों का भला किये साधु अपनी उँगली तक नहीं उठा सकता । वह स्वतन्त्र होने पर भी भावनाओं और वासनाओं के वश में नहीं है । वह विकारशून्य वैरागी है । किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि साधु को जनसाधारण की भाँति शारीरिक और मानसिक कष्ट नहीं होता । वह भूख-प्यास, रोग आदि के प्रति सचेत होते हुए भी उनकी ओर से विरक्त है । उसे मालूम है कि जीवन का ध्येय सद्गुण है । वह वास्तविक शुभ की प्राप्ति करना चाहता है । आत्मा के आनन्द का अनुभव करना चाहता है । श्रात्मा का श्रानन्द प्राप्त करनेवाला साधु सचमुच ही भावनारहित नहीं है । अतः 'भावशून्य' के यथाशब्द अर्थ नहीं लेने चाहिए | साधु केवल उन वासनाओं से पराङ्मुख है जो सामान्य मानस को प्रभावित करती है । उसके कर्म उसकी वास्तविक एवं बौद्धिक आत्मा द्वारा संचालित होते हैं । विश्वनागरिकतावाद - सिनिक सिद्धान्त ने बौद्धिक श्रेष्ठता के गुणगान करने में अपने सिद्धान्त को दुरात्मवादी बना दिया । उन्होंने सुकरात के कथन "ज्ञान सद्गुण है' की व्याख्या करने के क्रम में प्रचलित रीति-रिवाजों की निन्दा की, समाज के प्रति विद्वेषात्मक भाव रखा । फलस्वरूप सिनिक्स का बाह्य रूप अत्यन्त कुटिल और निषेधात्मक हो गया । विश्वनागरिकतावाद मानने पर भी वे उसकी स्थापना नहीं कर पाये । उनके इस अधूरे प्रयास को स्टोइक्स ने पूरा किया । सिनिक्स का व्यक्तिवाद उनके सिद्धान्त में महान् नागरिकतावाद - विश्व नागरिकतावाद - में परिणत हो जाता है । उन्होंने लोकरीतियों, रूढ़ियों, रीति-रिवाजों, प्रचलित मान्यताओं में सत्य की खोज की और कहा कि न्याय, मित्रता, सहानुभूति की भावना आदि श्रेष्ठ हैं । बौद्धिक होने के नाते व्यक्ति विश्व का नागरिक है । उसका कर्तव्य मानवता के नियमों का पालन करना है । २१२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालोचना व्यक्तिवाद-स्टोइक्स यह मानते हैं कि ज्ञान सद्गुण या शुभ के स्वरूप को समझाता है । वह बताता है, 'प्रकृति के अनुसार कर्म करो', 'विकारशून्य वैरागी बनो', 'विश्वप्रेमवाद को अपनायो', साथ ही स्टोइक्स ने अपने समय की भावात्मक नैतिकता को स्वीकार करके कर्तव्य को महत्त्व दिया है। इसमें सन्देह नहीं कि कर्तव्य को महत्त्व देकर उन्होंने अपने सिद्धान्त को सिनिक्स के वैयक्तिक और प्रभावात्मक नियम-निष्टता से मुक्त कर लिया। पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि अपने इस प्रयास में वे पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाये। इसका कारण यह है कि उन्होंने सिनिक्स के उस आदर्श की पूनःस्थापना करनी चाही जिसके अनुसार प्रात्म-निर्भरता और आत्म-पर्याप्तता का जीवन ही आदर्श जीवन है। ___जीवन की सारहीनता-स्टोइक्स ने सद्गुण को जीवन का ध्येय माना है । सद्गुण ही कल्याण है और वह प्रकृति के अनुरूप रहने से प्राप्त होता है । प्रकृति के अनुरूप रहवा शुद्ध बुद्धिमय जीवन व्यतीत करना है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ सरल, स्वाभाविक धारणाएँ होती हैं । ये धारणाएं सब मनुष्यों में समान रूप से वर्तमान हैं । जब मनुष्य इन्हें समझकर इनके अनुरूप कर्म करता है तो वास्तव में वह अपने स्वाभाविक यथार्थ रूप का अनुसरण करता है । वस्तुओं का अान्तरिक स्वभाव बौद्धिक है। बौद्धिक विधान के अनुरूप कर्म करना ही उचित है। सार्वभौम लोग'स (बुद्धि) विश्व में तथा व्यक्तियों में, जो कि विश्व के अंग हैं, अभिव्यक्त होता है। बौद्धिक मनुष्य सार्वभौम बुद्धि का. सहभागी है। उसे बुद्धि द्वारा निर्देशित जीवन बिताना चाहिए। स्टोइक्स के ऐसे सिद्धान्त में स्वाभाविक इन्द्रिय जीवन के लिए कोई स्थान नहीं है । बौद्धिक और अबौद्धिक तत्त्वों की संगति असम्भव है । भावना आत्मा की शत्रु है । ग्रह उसे बाह्य जगत से बांधती है। बुद्धि प्रात्सा को उससे मुक्त करती है जो अनात्मा है, जो छायामात्र, भ्रमपूर्ण और असत्य है। यदि आत्मा को जीवित रखना है तो भावना को रत्ती भर भी स्थान नहीं देना चाहिए। ऐसे सिद्धान्त की व्यावहारिक उपयोगिता है, इसमें सन्देह नहीं है। दु:ख के असह्य क्षणों में विरक्ति का भाव एक सबल सम्बल की भाँति है। वह व्यक्ति की मानसिक स्थिति को अपसामान्य होने से बचाता है, उसकी सहनशक्ति को सुदृढ़ बनाता है। किन्तु फिर भी यह कहना अनुचित न होगा कि भावनाहीन जीवन नीरस और निष्प्राण है । यह उस कर्तव्य की प्रभुता को भी छीन लेता है जो कि बुद्धिपरतावाद / २१३ For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्टोइक सिद्धान्त का प्राण है। बिना शासन और प्रजा के राजा व्यर्थ है । बिना भावना के बुद्धि मरघट के उस प्रदीप के समान है जिसका प्रकाश मृतकों के लिए है। भावनाशून्य जीवन में बुद्धि पंगु है। भावनाओं के विनाश के साथ ही वह निष्क्रिय हो जाती है । भावनाओं को कर्तव्य के मार्ग पर प्रारूढ़ करना बुद्धि का काम है। ___ कर्तव्य का सम्प्रदाय-स्टोइक्स ने, सिनिक सिद्धान्त के प्रतिकूल, विश्व में कर्तव्य का एक संगतिपूर्ण विधान देखा। कर्तव्य से उनका अभिप्राय उन कर्मों से नहीं है जिन्हें करने के लिए परिस्थितियाँ बाधित करती हैं बल्कि वे, जो विवेकसम्मत हैं। नैतिक और सांसारिक दृष्टि में भेद है। नैतिक दष्टि से व्यावहारिक शुभ परम शुभ है। विवेकशील व्यक्ति विश्व-प्रेमी होता है । वह सर्वत्र सार्वभौम विवेक की अभिव्यक्ति देखता है । वह पर-कल्याण को समझता है। न्याय, विश्व-प्रेम और मित्रता की भावना प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को मूल्यता प्रदान करती है। स्टोइक्स वास्तव में कर्तव्य के सम्प्रदाय के प्रवर्तक हैं। कर्तव्यनिष्ठ होना ही धार्मिक होना है। मनुष्य को न्यायप्रिय होना चाहिए। उसे अन्याय से विमुख करने के लिए भगवान का भय दिखाना उचित नहीं है। उसमें अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं। स्टोइक्स का धर्म नैतिक विश्वास पर आधारित है। उन्होंने प्रचलित नैतिकता तथा नैतिक सिद्धान्तों को प्रभावित किया। सर्वप्रथम उन्होंने कर्तव्य के अधिकार और प्रभुत्व की धारणा को व्यवस्थित रूप दिया। बाद में काण्ट ने इस धारणा को भली-भाँति समझाया और अपने सिद्धान्त को इस पर आधारित किया। ___ सुख का स्थान-ऍपिक्यूरस के सिद्धान्त के विरुद्ध स्टोइक्स ने यह सिद्ध किया कि सब इच्छाएँ सुख के लिए नहीं होती हैं। इस सत्य को समझने पर भी उन्होंने एक अन्य मुल की। इस मनोवैज्ञानिक सत्य पर अपने नैतिक सिद्धान्त को आधारित कर उन्होंने कहा कि सुख शुभ नहीं है, उसको आचरण का ध्येय नहीं मानना चाहिए। किन्तु यह कहना उचित नहीं है। सुख कल्याण का अनिवार्य अंग है क्योंकि वह ध्येय की इच्छा में निहित है। ____महानता-स्टोइसिज्म के प्रादुर्भाव के समय यूनान के राष्ट्रीय जीवन का पतन हो चुका था। उस समय के नागरिक और राजनीतिक जीवन में स्वतन्त्रता और मानव-गौरव के बोध के लिए कोई स्थान नहीं रह गया था। लोगों का ध्यान जीवन के आन्तरिक सत्य की ओर आकर्षित हया। उन्होंने सर्वत्र सार्वभौम बुद्धि की अभिव्यक्ति ही देखी। बुद्धि ही मनुष्य को मनुष्य से युक्त २१४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करती है, सबको एकता के सूत्र में बाँधती है; साथ ही वह प्रत्येक व्यक्ति को मनुष्य का गौरव देती है । इस भाँति उन्होंने यह समझाया कि सब मनुष्य समान हैं। उन्होंने दास और स्वतन्त्र नागरिक को समानता के सूत्र में बाँध दिया । समानता की धारणा ने विश्व नागरिकतावाद अथवा विश्वबन्धुत्व को जन्म दिया तथा पारस्परिक निर्भरता और कर्तव्य की पारमार्थिक भावनाओं को उत्पन्न किया । कुछ लोगों के अनुसार यह श्रेय ईसाई धर्म को मिलना चाहिए | किन्तु ईसाई धर्म की उक्तियाँ भावुक और रहस्यात्मक हैं । प्रारम्भिक ईसाइयों ने तो दास प्रथा का मानव संस्था के रूप में विरोध तक नहीं किया । स्टोइसिज़्म ने चिन्तन - प्रधान और व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपनाकर अपने सिद्धान्त को प्रभावोत्पादक और सक्रिय बनाया । मनुष्य के स्वतन्त्र व्यक्तित्व को महत्त्व देकर स्टोइसिज़्म ने पहली बार कानूनी अधिकारों के सिद्धान्त को एक सुरक्षित आधार दिया। आगे चलकर अधिकार और कर्तव्य के व्यापक तथा व्यवस्थित नियम बने जिन्होंने रोमन कानून के नाम से प्रसिद्धि पायी । सच तो यह है कि स्टोइसिज्म यूनानी जगत् को प्रभावित नहीं कर पाया । उसका प्रभाव रोमन और ईसाई जगत् पर पड़ा और आधुनिक जगत् को उसने ईसाई धर्म के माध्यम से प्रभावित किया । बुद्धिपरतावाद / २१५ For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ बुद्धिपरतावाद (परिशेष) ... अर्वाचीन उग्र बुद्धिपरतावाद-काण्ट जीवन में नियमनिष्ठता का प्राधान्य-इमैनुअल काण्ट' के दर्शन में बुद्धिपरतावाद का चरम उत्कर्ष मिलता है । यह जर्मन दार्शनिक थे। इनका लगभग सम्पूर्ण जीवन कीनिंग्सबर्ग में व्यतीत हा । प्रारम्भ में वह अपने नगर के विद्यार्थी थे और फिर बाद में शिक्षक, लेखक तथा दार्शनिक बने। धार्मिक वातावरण में पलने के कारण काण्ट ने शान्त, नियमनिष्ठ तथा कर्तव्यपरायण जीवन को अनायास ही अपना लिया। अपने प्रदेश के तात्कालिक राष्ट्रीय और सामाजिक परिवेश के प्रभाववश भी उन्होंने नियमनिष्ठ और आत्मनिर्भर जीवन को स्वीकार किया। उनका जीवन नियमानुवर्तिता का जीवन था और उनका चरित्र नियमनिष्ठ का चरित्र । उनका नैतिक दर्शन कर्तव्य नियम का दर्शन है। वास्तव में वह नियमितता के प्रेमी थे; आयु की वृद्धि के साथ उनमें नियमितता की भी वृद्धि होती गयी । दार्शनिक काण्ट के बाह्य जीवन का रूप यान्त्रिक था, सब-कुछ निश्चित और निर्धारित था। सेबेरे उठने से लेकर रात को सोने तक उनके प्रत्येक कर्म-कॉफ़ी पीना, लिखना, भाषण देना, खाना-पीना, घूमना आदि-विधिवत् होते थे। उनके बारे में यह प्रसिद्ध है कि ठीक साढ़े चार बजे-चाहे कैसा ही मौसम हो-जब वह घूमने के लिए निकलते थे तब लोग उनका प्रसन्नवदन अभिवादन करते हुए अपनी घड़ियां मिलाते थे। 1. Immanuel Kant 1724-1804. 2. Prussia, Konigsberg. २१६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक अनुभव - काण्ट की नैतिकता में दृढ़ श्रद्धा थी । उन्होंने नैतिकता को अपने तत्त्वदर्शन से संयुक्त किया। उनका विश्वास था कि नैतिक अनुभव के द्वारा ही मनुष्य अनुभवात्मक आत्मा (Empirical self) से ऊपर उठकर परात्पर आत्मा (Trascendental self) को प्राप्त कर सकता है और दृदयमान् जगत् से परे परमार्थ के साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकता है । इच्छाओं और भावनाओं के जगत् में रमनेवाली आत्मा अनुभवात्मक श्रात्मा है । वह वस्तुजगत् का सदस्य है । परात्पर आत्मा परमार्थ सत्ता की सदस्य है । काण्ट के सम्मुख मनुष्य के दो रूप हैं— नैतिक प्रदर्शस्वरूप व्यक्ति और अनुभवात्मक व्यक्तित्व का अभिलाषी व्यक्ति । पहला व्यक्ति ही दूसरे व्यक्ति का प्रदर्श तथा मूल रूप है । अत: अनुभवात्मकव् यक्ति को आदर्श व्यक्ति का आदर करना चाहिए । मनुष्य स्वशासित है— काण्ट का कहना था कि मनुष्य स्वशासित (Autonomous) है। उसके कर्म श्रात्म-नियमित हो सकते हैं । श्रात्म-नियन्त्रित होना मनुष्य की स्वभावगत विशेषता तथा विशिष्ट अधिकार है। पशु एवं निम्न प्राणियों और मनुष्य में मुख्य भेद यही है । पशु परतन्त्र है । वह बाह्य संवेदनों से शासित है । मनुष्य दो धरातलों का प्राणी है । एक ओर तो वह संवेदनशील प्राणी ( Sentient being ) तथा सजीव सृष्टि का साझेदार है और जीवन के प्रति संवेदनशील है जिसके कर्मों को सुख और दुःख की भावनाएँ परिचालित करती हैं और इच्छाओं की तृप्ति एवं सुख ही जिसके कर्मों का स्वाभाविक प्रेरक है; दूसरी ओर वह बौद्धिक प्राणी है और अपने बौद्धिक संकल्प ( Rational will ) द्वारा वह सार्वभौम बुद्धि का पालन करता है । यही उसमें तथा निम्न प्राणियों में मुख्य अन्तर हैं । प्रकृति में प्रत्येक वस्तु नियमों के अनुरूप.. कर्म करती है । मनुष्य में इतनी शक्ति है कि वह नियम की धारणाओं एवं सिद्धान्तों को समझकर उनके अनुरूप कर्म कर सकता है । उसमें संकल्प है और यही वह शक्ति है जो आदेश देती है । नैतिक कर्तव्य की चेतना स्वतन्त्रता की चेतना के साथ अविच्छिन्न रूप से मिली हुई है । संकल्प करनेवाली श्रात्मा स्वतन्त्र है, वह परात्पर श्रात्मा है । नैतिक चेतना मनुष्य को यह दृढ़ विश्वास, दिलाती है कि वह स्वतन्त्र है । उसे इस सत्य का बोध कराती है कि उसे वही करना चाहिए जो कि उचित है अथवा उसे इच्छा के मार्ग में नहीं चलना चाहिए । नैतिक चेतना बतलाती है कि यदि व्यक्ति किसी कर्म को उचित : समझता है तो वह उस कर्म को करने की शक्ति भी रखता है । बौद्धिक प्राणी बुद्धिपरतावाद ( परिशेष) / २१७ For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जब नैतिक नियम का पालन करता है तब कहा जाता है कि वह आन्तरिक नियम का पालन कर रहा है; अपने बौद्धिक और सत्य स्वरूप के अनुरूप कर्म कर रहा है । बौद्धिक प्राणियों के कर्म सुख-दुःख की भावनाओं, बाह्य शक्तियों एवं अबौद्धिक आत्मा द्वारा यान्त्रिक रूप से निर्धारित नहीं होते। उन्हें बौद्धिक या सत्य आत्मा का सिद्धान्त निर्धारित करता है । इस अर्थ में मनुष्य की स्वतन्त्रता आत्म-प्रारोपित नियम का पालन करने पर निर्भर है। बुद्धि के आदेश की अवज्ञा करना मनुष्य के लिए उचित नहीं है । यह अपने स्वरूप का - अपनी बौद्धिक आत्मा का निराकरण करना है । अपनी इस श्रेष्ठता के कारण वह - बुद्धि के उच्च नियमों से शासित है, न कि इन्द्रियपरक जीवन के नियमों से । यदि वह शुद्ध बुद्धि होता तो उसका जीवन संघर्षहीन होता । दो भिन्न धरातलों से संयुक्त होने के कारण उसमें आन्तरिक द्वन्द्व होता है । भावनाएँ उसे अपनी र खींचती हैं और संकल्प अपने निरपेक्ष आदेश को आरोपित करता है । बौद्धिक होने के कारण उसे चाहिए कि केवल बौद्धिक प्रदेश का पालन करे । बौद्धिक प्रदेश का पालन करना ही आत्म- आरोपित नियम का पालन करना है । यही मनुष्य की स्वतन्त्रता है । स्वशासित जीवन में भावना के लिए स्थान नहीं है; सुखवाद अनैतिक हैकाण्ट उन सभी सिद्धान्तों को सुखवाद के अन्तर्गत मान लेता है जो इच्छाओं की तृप्ति को कर्म का प्रेरक मानते हैं । इन सिद्धान्तों ने बुद्धि के साध्य रूप को नहीं समझा है और बाह्य शक्तियों से शासित जीवन को स्वीकार कर बुद्धि को इच्छात्रों में ध्येयों की प्राप्ति के लिए साधनमात्र माना है । बुद्धि अपने-प्राप में सक्रिय है, इस तथ्य से सुखवाद अनभिज्ञ है। उसने सुख को श्रादर्श मानकर इच्छाओं की तृप्ति को ध्येय मान लिया है और क्षणिक इच्छात्रों और आवश्यकताओं की पूर्ति का आदेश दिया है । काण्ट के अनुसार विशिष्ट इच्छात्रों की पूर्ति द्वारा सुख प्राप्त करने के लिए वैधानिक आदेशों (Technical imperatives) का प्रतिपादन किया जा सकता है । ये निश्चित और निरपेक्ष श्रादेश ( definite and categorical imperative ) नहीं हैं। इसका कारण यह है कि सुख का विषय परिवर्तनशील है तथा इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ प्रात्मगत और वैयक्तिक हैं । बौद्धिक जीवन ही मनुष्य के लिए आदर्श जीवन है । जीवन का ध्येय सुख नहीं, सद्गुण है। कर्म को सुख की समस्त धारणाओं से मुक्त कर देना चाहिए । बौद्धिक नियम ही नैतिक 1 नियम है। नैतिक नियम उस सिद्धान्त को २१८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापित करता है जिसमें कि अपवाद के लिए कोई स्थान नहीं है । वह आदेश देता है, न कि सम्मति । उसका आदेश निरपेक्ष है और आदेश का निरपेक्ष रूप बतलाता है कि कर्म के परिणाम पर ध्यान नहीं देना चाहिए। नैतिकता का यथार्थतः परिणाम से कोई सम्बन्ध नहीं है । कर्मों का परिणाम उन्हें नैतिक मूल्य नहीं देता है । सिद्धान्त के अनुरूप किया हुआ कर्म ही उचित है । सच्चे रूप में मानवीय अथवा शुभ होने के लिए कर्म की उत्पत्ति आदेश के प्रति श्रद्धा से ही होनी चाहिए। यदि कर्म किसी निम्न प्रेरणा से लेशमात्र भी युक्त हो गया तो वह अनैतिक हो जायेगा। कर्म का शुभत्व उसके आन्तरिक बौद्धिक रूप पर निर्भर है। नैतिक आदेश-निरपेक्ष प्रादेश-काण्ट की नैतिकता में दृढ़ श्रद्धा थी। वह तर्क द्वारा उसे सिद्ध नहीं करता है और न वह यही मानता है कि अनुभव उसके सिद्धान्त को समझा सकता है । वह एक दार्शनिक स्तर पर सदाचार के नियमों का प्रतिपादन करता है। उसका कहना है कि कर्तव्य का आधार मनुष्य की संवेदनशील प्रकृति नहीं है, परात्पर प्रात्मा ही नैतिक अनुभूति के मूल में है। जब व्यक्ति नतिक संकल्प के अनुरूप कर्म करता है तब वह अपना सम्बन्ध परमार्थ सत्ता के साथ स्थापित कर लेता है। दृश्यमान् जगत् की वस्तुओं के विश्लेषण द्वारा नैतिक कर्तव्य के स्वरूप को नहीं समझा सकते हैं। विश्व की विभिन्न परिस्थितियाँ, परिवेश, वातावरण, समाज आदि का ज्ञान, नैतिकता के मूल सिद्धान्त को नहीं समझा सकता । जिस प्रकार बुद्धि की धारणाओं को इन्द्रियजन्य विषयों में नहीं ढूंढ़ सकते हैं उसी प्रकार कर्तव्य का स्वरूप इस पर निर्भर नहीं है कि मनुष्य विशिष्ट वस्तु की इच्छा करता है अथवा उसमें किसी विशिष्ट कर्म करने की प्रवृत्ति है। मनुष्य का मानसिक व्यक्तित्व (psychological personality) कर्तव्य को नहीं समझा सकता। कर्तव्य का सम्बन्ध अनुभवात्मक आत्मा से भिन्न परात्पर आत्मा से है । नैतिकता व्यावहारिक बुद्धि की उपज है । वह अनुभव निरपेक्ष है । शुद्ध नैतिकता मनोविज्ञान पर आधारित नहीं है यद्यपि उसका प्रयोग मनोविज्ञान में कर सकते हैं। नैतिक नियमों को आरोपित करने के लिए मानव-स्वभाव का ज्ञान और विश्व का अनुभव-सापेक्ष ज्ञान आवश्यक है। किन्तु जहाँ तक केवल नैतिक ज्ञान का प्रश्न है, यह अनुभवनिरपेक्ष है । नैतिक बुद्धि ही मनुष्य को उसके निरपेक्ष एवं एकान्तिक कर्तव्य (unconditional duty) का ज्ञान देती है। उसके नियम अनभव-निरपेक्ष हैं। उसका आदेश परम आदेश (categorical imperative) है । इस आदेश बुद्धिपरतावाद (परिशेष) / २१६ For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की व्युत्पत्ति व्यक्ति के संकल्प से बाहर अन्य किसी ध्येय के विचार से सम्भव नहीं है । बाह्य ध्येय अनुभव पर निर्भर है। अतः वह केवल सांकेतिक आदेश • (hypothetical imperative) दे सकता है। वह स्थिति-विशेष के अधीन है। उस आदेश के अनुसार यदि कर्ता किसी विशिष्ट ध्येय की प्राप्ति करना चाहता है तो उसे एक विशिष्ट प्रकार से कर्म करना होगा। कर्तव्य का आदेश निरपेक्ष है। उसका किसी ऐसे बाह्य ध्येय से सम्बन्ध नहीं है जिसकी ओर संकल्प प्रेरित हो बल्कि वह स्वतः संकल्प के उचित प्रयोग से ही सम्बद्ध है। नैतिक आदेश परिस्थिति-विशेष की चिन्ता नहीं करता। उसके अनुसार चाहे कुछ भी हो जाये, व्यक्ति को उसके अनुरूप आचरण करना चाहिए। यह कारण-सापेक्ष आदेश नहीं है, निरपेक्ष-आदेश है । कारण-सापेक्ष आदेश प्रतिदिन के क्रियाकलाप, इच्छा, भावना, परिवेश, जगत् की प्रकृति आदि पर निर्भर है। वह सार्वभौम और अनिवार्य नहीं है। किन्तु कर्तव्य की बाध्यता अनिवार्य है। कर्तव्य की चेतना अथवा 'करना चाहिए' की चेतना अनिवार्यता की सूचक है । कर्तव्य, कर्तव्य के लिए करना ही धर्म है। कर्तव्य का आदेश नैतिक बुद्धि या शुभ संकल्प का आदेश है । बुद्धि का आत्मारोपित नियम अपने परम और निश्चल आदेश द्वारा एकान्तिक निष्ठा की अपेक्षा रखता है । वह मनुष्य के अन्दर परम और पूर्ण आदेश के रूप में व्यक्त होता है। ... - शुभ संकल्प-परम आदेश का उदगम क्या है ? वह कहाँ से आता है ? काण्ट का कहना है कि वह परिस्थितियों पर निर्भर नहीं है । परिस्थितिजन्य आदेश कारण-सापेक्ष आदेश हैं। परम आदेश का उत्पत्ति-स्थल कर्ता का सत्य स्वरूप है। उसका स्रोत नैतिक मनुष्य का स्वभाव है। कर्ता कर्म करते समय. संकल्प के रूप में उसे व्यक्त करता है और संकल्प का स्वरूप ही कर्म के नैतिक मूल्य को निर्धारित करता है। शुभ संकल्प ही तत्त्वतः शुभ है। वही नैतिक . एवं शुभ कर्म के मूल में है। शुभ संकल्प की क्या पहचान है ? वही संकल्प शुभ है जो बौद्धिक है। बौद्धिक संकल्प को कैसे समझ सकते हैं ? संकल्प के चयन का विश्लेषण बतलाता है कि उसके दो अंग हैं-बौद्धिक और अबौद्धिक । वह भावनात्रों, आवेगों आदि पर बौद्धिक नियन्त्रण रखता है। बौद्धिक योजना के अनुरूप उन्हें निर्देशित करता है । यह बतलाता है कि संकल्प का सत्य रूप बौद्धिक है । इसके बौद्धिक रूप को यह कहकर समझाया जा सकता है कि प्रत्येक अंगी स्वाभाविक प्रकृतिबश अपने संरक्षण और सुख के लिए प्रयास करता है। अंगी के संरक्षण एवं शारीरिक संरक्षण के दृष्टिकोण से बुद्धि व्यर्थ है। अतः २२० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि मनुष्य को इसलिए प्राप्त नहीं हुई है कि वह अंगी के लिए उपयोगी सिद्ध हो । बुद्धि के कर्म का क्षेत्र भिन्न है । उसका उचित क्षेत्र संकल्प का क्षेत्र है । अपने सिद्धान्त के अनुरूप संकल्प को निर्देशित करना तथा बौद्धिक संकल्प को उत्पन्न करना बुद्धि का काम है । संकल्प का शुभत्व उसके बौद्धिक होने पर निर्भर है । वही संकल्प शुभ है जो बौद्धिक है । काण्ट का यह कहना था कि शुभ संकल्प के अतिरिक्त विश्व में अथवा विश्व से परे ऐसा कुछ भी नहीं दीखता है जिसे कि बिना किसी विशेषण के शुभ कह दें । अथवा शुभ संकल्प ही एकमात्र वह वस्तु है जिसे कि बिना किसी सीमा के शुभ कह सकते हैं । उसका स्वरूप उसके ही प्रान्तरिक सिद्धान्त पर निर्भर है । वह विश्व की कार्यकारण-श्रृंखला से स्वतन्त्र है । उसका शुभत्व परिस्थिति विशेष द्वारा निर्धारित नहीं होता है । वह अपने-आपमें शुभ है, न कि बाह्य तथ्यों और ध्येयों के सम्बन्ध में । उसका शुभत्व न तो उस ध्येय पर निर्भर है जिसे वह खोजता है. और न उसकी उपयोगिता पर ही निर्भर है । उसे न तो उस स्वाभाविक प्रवृत्ति ( चाहे वह शुभ प्रवृत्ति ही हो) के सम्बन्ध में शुभ कह सकते हैं जो कि उसे निर्धारित करती है और न किसी अन्य वस्तु से सम्बन्धित होकर ही वह शुभ होता है । वह सबसे स्वतन्त्र तथा अपने-आपमें शुभ और स्वप्रकाश है । वह अपनी ज्योति से उसी प्रकार ज्योतित है जिस प्रकार कि बहुमूल्य मणि अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होती है । अतः काण्ट इस परिणाम पर पहुँचता है कि बौद्धिक संकल्प या शुभ संकल्प ही एकमात्र शुभ है और शुभ संकल्प कर्तव्य के लिए कर्म करता है । काण्ट का यह कथन उसके सिद्धान्त के उस पक्ष की ओर ले जाता है जो कर्तव्य और स्वाभाविक प्रवृत्तियों, नैतिक प्रेरणा, परिणाम तथा सामान्य प्रेरणाओं के बीच स्पष्ट विरोध का स्थापक है । कर्तव्य और प्रवृत्ति — काण्ट के सिद्धान्त में कर्तव्य की धारणा का प्रथम बार स्पष्ट रूप मिलता है । वास्तव में उसने कर्तव्य की धारणा से ही शुभ की धारणा का निगमन किया। उसका कहना था कि बौद्धिक प्राणी होने के कारण मनुष्य अपने को बुद्धि के उस उच्चतर नियम से शासित करता है जो कि इन्द्रिय-परता की उपेक्षा करता है । शुभ संकल्प के अनुरूप कर्म करना उचित है। शुभ संकल्प का विशिष्ट गुण यह है कि वह अपने-आपमें शुभ है । वह सिद्धान्त के अनुरूप कर्म करता है । वौद्धिक प्राणी होने के कारण मनुष्य अपने में एक ऐसा जीवन चाहता है जो बुद्धि की सृष्टि है । बौद्धिक प्राणी अपने-आपमें साध्य है । • उसे किसी अन्य साध्य के लिए अपने को साघन नहीं बनाना चाहिए । बौद्धिक बुद्धिपरतावाद ( परिशेष) / २२१ For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणी अबौद्धिक या संवेदनशील व्यक्ति को परम आदेश देता है कि 'कर्तव्य का पालन करो।' यह आदेश अनिवार्य है। बुद्धि को साध्य माननेवाला अथवा कर्तव्य की प्रेरणा से कर्म करनेवाला अबौद्धिक कर्मों को नहीं करेगा। कोई कर्म, चाहे वह कितना ही प्रशंसनीय क्यों न हो, यदि उसकी उपज स्वाभाविक प्रवृत्ति से हुई हो, यहाँ तक कि सहानुभूति और दया से भी हुई हो तो वह नैतिक दृष्टि से शुभ नहीं है। ऐसे कर्मों को प्रोत्साहित करना वांछनीय तो है पर ऐसे कर्मों को शुभ नहीं कह सकते । इच्छाओं और भावनाओं से युक्त कर्म अनैतिक हैं। प्रवृत्ति से किया हुआ कर्म कर्तव्य के अनुरूप हो सकता है किन्तु वह सदैव नैतिक मूल्य से रहित रहेगा। यदि कर्ता किसी को इस कारण सहायता देता है कि वह सहानुभूति से द्रवित हो गया है अथवा उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति ने उसे प्रेरित किया है तो ऐसा कर्म अनैतिक है और यदि वह बिना दूसरे के दु:ख से दुखी हए कर्तव्यवश उसे सहायता देता है तो वह कर्म शुभ है । कर्म तभी शुभ है जब वह बौद्धिक संकल्प से किया गया हो अथवा जब वह कर्तव्य के लिए किया गया हो । कर्तव्य कर्तव्य के लिए करना चाहिए। कर्तव्य से किया हुआ कर्म ही नैतिक कर्म है। कर्तव्य की चेतना ही संचालिका चेतना होना चाहिए । कर्तव्य की प्रेरणा से कर्म करने चाहिए। अन्य प्रेरणाएँ नैतिक मल्यहीन हैं। कर्तव्य की प्रेरणा के सिवाय अन्य प्रेरणाएँ प्रवृत्तियों का ही रूप हैं । वे विभिन्न प्रवृत्तियों, आवेगों एवं सुख की इच्छाओं को व्यक्त करती हैं । इस प्रकार काण्ट ने प्रेरणाओं को दो वर्गों में बाँट दिया है-कर्तव्य की प्रेरणा और प्रवृत्तियों को व्यक्त करनेवाली प्रेरणाएँ। उसने प्रेरणा और परिणाम तथा बुद्धि और प्रवृत्तियों में भी पूर्ण विरोध पाया है । बुद्धि का आदेश परम आदेश है। वह कर्तव्य का आदेश है । काण्ट कहता है, 'अपना कर्तव्य करो, चाहे परिणाम कुछ भी हो।' बौद्धिक आदेश मनुष्य पर अपने को पारोपित करता है और बिना परिणाम को महत्त्व दिये संकल्प को कर्म में परिणत करता है। वह आदेश प्रत्यक्ष सिद्ध है। सद्गुण और प्रानन्द-काण्ट के पूर्व के नीतिज्ञों ने नैतिकता को परम शुभ की धारणा पर प्राधारित किया है। परम शुभ सदगुण और आनन्द दोनों का अपने में समावेश करता है । काण्ट मानता है कि उच्चतम शुभ में ये दोनों ही हैं। किन्तु वह परम शुभ और नैतिक शुभ को एक ही नहीं मानता; दोनों में भेद देखता है। नैतिकता पूर्ण तटस्थता की अपेक्षा रखती है, वह भावना को आकर्षित नहीं करती। वह अपने को संकल्प पर आरोपित करती है । अतः ,२२२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द से उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है। परम शुभ अभीष्ट वस्तु है। किन्तु वह इस जीवन में अलभ्य है। जहाँ तक नैतिक जीवन का प्रश्न है मनुष्य को कर्तव्य के लिए कर्म करना चाहिए । कर्तव्य को सुख के लिए साधन मानकर नहीं करना चाहिए। कर्तव्य के लिए कर्म को महत्त्व देने के साथ ही वह यह स्वीकार करता है कि बौद्धिक रूप से तब तक भली प्रकार से कर्तव्य नहीं किया जा सकता जब तक यह आशा न हो कि आनन्द मिलेगा। यहाँ पर वह परम शुभ की धारणा पर आ जाता है और कहता है कि व्यक्ति के लिए अपने निजी सुख का ध्यान रखना विवेकसम्मत है । पर उचित बौद्धिक प्रात्म-प्रेम केवल सामान्य सुख की ही खोज नहीं करता, बल्कि वह उस सुख की खोज करता है जिसका नैतिक मूल्य है । व्यक्ति के लिए परम शुभ न तो केवल सद्गुण है और न केवल प्रानन्द, वह वह नैतिक राज्य है जहाँ सुख और सदगुण परस्पर सन्तुलित हैं । बिना ऐसे राज्य को स्वीकार किये नैतिकता के उच्च और महान् विचार प्रशंसा और श्रद्धा के विषय भले ही हो सकते हों किन्तु उनकी वास्तविक देन कुछ नहीं हो सकती । वे कर्मों और उद्देश्यों के वास्तविक प्रेरणा-स्रोत नहीं बन सकते । बौद्धिक रूप से मनुष्य नैतिक कर्मों को तब तक नहीं अपना सकेगा जब तक उसे यह आशा न हो जाये कि उसे आनन्द मिलेगा। नैतिक शुभ का लक्ष्य परम शुभ है और परम शुभ प्रानन्द और सद्गुण का ऐक्य है। नैतिक नियम रूपात्मक है-शुभ संकल्प ही एकमात्र शुभ है। इसका सिद्धान्त इसी में है। यह कथन बतलाता है कि नैतिक नियम कोई विशिष्ट विषय (Content) नहीं हो सकता। वह विशिष्ट वस्तुओं के बारे में नहीं बताता है । वह इस काम को करो और इस काम को मत करो, नहीं कहता। नैतिक नियम अनिवार्य और सार्वभौम है। विशिष्ट वस्तुएँ अनुभव-सापेक्ष और अनिश्चित हैं; अतः नैतिक नियम का सम्बन्ध किसी वस्तु से नहीं हो सकता। वह नहीं बतलाता कि कर्म का क्या वस्तुतत्त्व (matter) होना चाहिए। वह केवल उनके रूप (form.) के बारे में बतला सकता है। नैतिक नियम बुद्धि से प्राप्त होता है, न कि भावना से । अतः यह विषयात्मक (material) नहीं । हो सकता । यदि इसे विषयात्मक मान लें तो नैतिक सिद्धान्त ध्येय या परिणाम से युक्त हो जायेगा जो कि अनुचित है। नैतिक सिद्धान्त अपने-आपमें शुभ है । वह रूपात्मक तथा अनुभव-निरपेक्ष है और व्यावहारिक बुद्धि की देन है। काण्ट के पूर्व के विचारकों ने नियम की धारणा को शुभ की धारणा के अधीन माना है। काण्ट ने नैतिकता के सिद्धान्त को केवल रूपात्मक माना है । यह बुद्धिपरतावाद (परिशेष) / २२३ For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक है कि संकल्प विषयवस्तु से तटस्थता की विशिष्ट स्थिति में हो किन्तु फिर भी वह नैतिक विश्व से असम्बद्ध नहीं है । नैतिक सिद्धान्त प्रत्येक बौद्धिक व्यक्ति के लिए समान है । वह उस समाज से सम्बन्ध रखता है जहाँ कि प्रत्येक प्राणी समान रूप से स्वशासित है। प्राचरण-विधियाँ - यदि नैतिकता का सिद्धान्त रूपात्मक है और उसका कोई विशिष्ट विषय नहीं है तो आचरण के नियमों का प्रतिपादन कैसे किया जा सकता है ? क्या वह व्यावहारिक नियम दे सकता है ? काण्ट का कहना है कि कर्तव्य के सब नियम 'कर्तव्य कर्तव्य के लिए करना चाहिए' को अभिव्यक्त करते हैं । कर्तव्य के सिद्धान्त अथवा परम आदेश के प्राधार पर व्यावहारिक नैतिक नियमों को प्राप्त किया जा सकता है । बौद्धिक अन्तर्दष्टि अथवा नैतिक अन्तर्ज्ञानवाले व्यक्ति के लिए ये नियम उतने ही स्पष्ट, सुगम और सरल हैं जितना यह कथन कि दो और दो का जोड़ चार होता है। बुद्धि के आदेश परम और सार्वभौम हैं । वे प्रत्येक बौद्धिक प्राणी पर अपने को आरोपित करते हैं। वे प्रत्यक्ष और स्पष्ट हैं। बुद्धि बतलाती है कि कर्मों में आत्म-संगति (Self-consistency) होनी चाहिए। आत्म-संगति का नियम अथवा बाधनियम (Law of contradiction) कहता है कि एक ही कर्म उचित और अनुचित दोनों ही नहीं हो सकता। यदि कर्म एक परिस्थिति में उचित है तो वह सभी परिस्थितियों में उचित रहेगा। यदि कर्ता की प्रेरणा बौद्धिक है तो किसी कर्म को किसी एक परिस्थिति में वह तब तक नहीं कर सकता जब तक कि वह यह भी न चाहे कि वह कर्म सार्वभौम रूप ग्रहण कर सके। जिन सिद्धान्तों पर बौद्धिक प्राणी कर्म करते हैं वे ऐसे होने चाहिए जिन्हें वे अपने जीवन-भर अपना सकें और साथ ही दूसरों पर भी आरोपित कर सकें। उदाहरणार्थ, "तुम दूसरों के लिए वैसा ही करो जैसा कि तुम दूसरों से अपने प्रति किये जाने की आशा करते हो।" अतः काण्ट ने कहा कि "उस सिद्धान्त के अनुसार कर्म करो जिसके बारे में तुम यह भी इच्छा कर सको कि वह एक सार्वभौम नियम बन जाये।" काण्ट का विश्वास था कि यह नीतिवाक्य विशिष्ट कर्तव्यों को निर्धारित करने के लिए पर्याप्त मानदण्ड है। इस नीतिवाक्य के व्यावहारिक रूप को समझाने के लिए वह शपथ तोड़ने का उदाहरण देता है। वह कहता है कि यदि इसे सार्वभौम रूप दे दिया जाये--प्रत्येक शपथ तोड़ने लगे तो शपथ लेने का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा । मनुष्य के कर्मों में संगति और समानता होनी चाहिए । प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तित्व (Personality) २२४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धिक स्वरूप-स्वतः मूल्यवान् है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि जब वह किसी नियम को बनाता है अथवा किसी आचरण को अपनाता है तो उसे केवल अपने ही लाभ का ध्यान नहीं रखना चाहिए । अपने ही समान उसे दूसरों को भी किसी अन्य ध्येय के लिए साधन नहीं मानना चाहिए। अथवा इस प्रकार कर्म करना चाहिए कि "समस्त मानवता को, चाहे वह अपने व्यक्तित्व के रूप में हो या किसी दूसरे व्यक्ति के रूप में,-तुम प्रत्येक अवस्था में साध्य समझ सको, न कि साधन ।" बौद्धिक संकल्प अपना नियम स्वयं बनाता है और स्वयं उसका पालन करता है। प्रात्म-पारोपित नियम का पालन करना अनिवार्य है। उसकी बाध्यता आन्तरिक है, न कि बाह्य । मात्मआरोपित होने के कारण ही वह परम आदेश के रूप में व्यक्त होता है । मनुष्य उस नियम के अधीन है और उसके अधीन होना ही मनुष्य की स्वतन्त्रता है । "इस प्रकार कार्य करो कि तुम पूर्णता के सार्वजनिक राज्य (Universal Kingdom of Ends) में अपने सिद्धान्तों द्वारा नियमों के विधायक बन सको।" काण्ट उस पूर्णता के राज्य की कल्पना करता है जहाँ कि बौद्धिक प्राणियों का समुदाय वास करता है । इस समुदाय का प्रत्येक व्यक्ति अपने आन्तरिक नियम का पालन करता है और वह स्वशासित है। आन्तरिक नियम एवं बौद्धिक नियम सार्वभौम नियम भी है। आत्म-आरोपित नियमों का पालन करनेवाले प्राणियों के राज्य में संगति और सामंजस्य है । नैतिक राज्य विरोधी इकाइयों तथा स्वार्थी प्रवृत्तियों का अस्वाभाविक संगठन नहीं है। वह बौद्धिक संकल्पों की आन्तरिक एकता को व्यक्त करता है । नैतिकता स्वार्थी प्रवृत्तियों के विरोध को मिटा देती है। मालोचना - नीतिवाक्य असन्तोषप्रद हैं—यदि आचरण को सुनिर्देशित करने के लिए काण्ट के नीतिवाक्यों का अध्ययन किया जाये तो उन्हें केवल रूपात्मक पायेंगे। उनके आधार पर विशिष्ट कर्तव्यों की रूपरेखा निर्धारित नहीं की जा सकती और न यही कहा जा सकता है कि क्या करना चाहिए। क्या काण्ट के नीतिवाक्य: व्यावहारिक दृष्टि से मूल्यहीन हैं ? काण्ट ने वास्तव में परम आदेश को पाँच नीतिवाक्यों द्वारा व्यक्त किया है। किन्तु उन पाँचों को उपर्युक्त तीन वाक्यों के अन्तर्गत समझाया जा सकता है । काण्ट के ये नीतिवाक्य बतलाते हैं कि कर्म का सार्वभौम होना, विरोधरहित होना ही उसकी नैतिकता का चिह्न है। बुद्धिपरतावाद (पस्शेिष) / २२५. For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाघ-नियम की सीमाएं-यदि हम आचरण के नियम को सार्वभौम भी मान लें तो हम देखते हैं कि सब कर्म वैयक्तिक और विशिष्ट होते हैं। नियम के लिए यह सुझाव देना आवश्यक है कि विशिष्ट कर्तव्यों का स्वरूप कैसा होना चाहिए । कर्तव्य की चेतना से यह कैसे समझ सकते हैं कि सत्य बोलना उचित है अथवा चोरी करना अनुचित है। यह कैसे मालूम होता है कि वर्तमान परिस्थिति में क्या करना उचित है। काण्ट ने बौद्धिक संगति के नियम अथवा बाघ-नियम को दिया है, किन्तु बाध-नियम को मनुष्य के पौचित्य और अनौचित्य को समझाने के लिए स्वीकार नहीं किया जा सकता। बाध-नियम भाववाचक है। यह बतलाता है कि एक ही काम उचित और अनुचित दोनों नहीं हो सकता । यह कथन तार्किक रूप से उचित होने पर भी वास्तविक एवं व्यावहारिक दृष्टि से अनुचित है । उदाहरणार्थ, बाध-नियम के अनुसार चोरी करना उचित और अनुचित दोनों ही नहीं हो सकता। किन्तु जीवन के तथ्य बतलाते हैं कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में चोरी करना उचित है और कुछ में अनुचित । ताकिक दृष्टि से जो संगति आवश्यक है वह तथ्य की दृष्टि से भ्रान्तिपूर्ण है। जहाँ तक वास्तविकता एवं तथ्यों का प्रश्न है, कुछ अपवाद मानने पड़ेंगे। शब्दों के व्यावहारिक अर्थ बदलते रहते हैं। काण्ट चिन्तन के बाध-नियम को अपनाने में इतना लीन रहा कि उसने अपने नीतिवाक्यों को प्रत्यक्ष व्यावहारिक जगत् से दूर कर दिया । काण्ट की आचरण विधि का सार्वभौम रूप अव्यावहारिक है। उसमें अंपवाद के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता । अपनी दृढ़ता के कारण वह हानिप्रद कर्म करा सकता है। मानव-जाति के संरक्षण के लिए विवाह करना उचित है, पर यदि कोई व्यक्ति किसी असाध्य रोग से पीड़ित हो जाता है तो मानव-जाति के हित के लिए उसे विवाह के बन्धन में नहीं पड़ना चाहिए। काण्ट का सिद्धान्त ऐसी स्थिति में सहायक नहीं है। नैतिक सिद्धान्त को रूपात्मक और विषयहीन कहकर उसने बड़ी भारी भूल की। यही उसके नीतिवाक्यों को अमूर्त और अव्यावहारिक बना देता है। उसका कर्तव्य का सिद्धान्त अपने-आपमें अपूर्ण हो जाता है। बिना कर्तव्य के स्वरूप को निर्धारित किये अथवा बिना ध्येय की परिभाषा दिये आचरण के व्यावहारिक नियमों को समझना कठिन है। प्रत्येक कर्म और घटना का अपना मूल्य है । उसे समझने के लिए प्रेरणा और परिणाम एवं सम्पूर्ण परिस्थिति को समझना अनिवार्य है। काण्ट कर्मों का मूल्यांकन केवल प्रेरणा द्वारा करता है और परिणाम को नैतिक दृष्टि से मूल्यहीन कह देता है । २२६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना का नैतिक मूल्य - बिना भावनाओं को स्वीकार किये काण्ट का पूर्णता का राज्य ( सबसे अधिक व्यापक नीतिवाक्य) भी अवास्तविक हो जाता है । एकता की भावना ही व्यक्तियों को एक-दूसरे से युक्त कर सकती है । बुद्धि सार्वभौम होने पर भी उस पारस्परिक आकर्षण एवं एकता, सहृदयता और आत्मीयता को नहीं ला सकती जो दूसरों के साथ सम्बन्धित करने के लिए आवश्यक है । प्रेम, स्नेह, सहानुभूति श्रादि ही ऐसी सक्रिय शक्तियाँ हैं जिनके कारण व्यक्ति अपने को दूसरों में देखता है। उनके सुख को अपना सुख समझता है । यही कारण है कि बुद्धिपरतावादियों का सिद्धान्त सार्वभौम बुद्धि को मानने पर भी वैयक्तिक रहा है, उनके मतावलम्बियों का जीवन आत्म-निमग्न रहा है । " भ्रान्तिपूर्ण मनोविज्ञान — काण्ट बुद्धि और इन्द्रियों के परम द्वैत को स्वीकार करता है । बुद्धि के कारण ही मनुष्य पशु से भिन्न एवं श्रेष्ठ है । अतः उसे बौद्धिक जीवन बिताना चाहिए। उसके जीवन में इन्द्रियपरता के लिए कोई स्थान नहीं है । कर्तव्य करते समय इच्छात्रों, भावनाओं एवं प्रवृत्तियों की ओर से विमुख हो जाना चाहिए। नैतिक व्यक्ति को कर्तव्य के सिद्धान्त अथवा आत्म- आरोपित नियम को समझना चाहिए। उसे उन उच्छृंखल प्रवृत्तियों के प्रति जागरूक रहना चाहिए जो कर्तव्य की विरोधी हैं । उसे सदैव कर्तव्य के लिए कर्म करना चाहिए । देश, काल, स्थान, परिस्थिति आदि नैतिकता को निर्धारित नहीं करते हैं । कर्तव्य के आदेश के निरपेक्ष और सर्वोच्च रूप को समझाने के लिए वह नीतिज्ञों के विपरीत यह तक कह देता है कि यदि कर्म की उत्पत्ति कर्तव्य के प्रति श्रद्धा से नहीं है तो वह नैतिक नहीं है । दयालु भावनाओं, परमार्थी प्रवृत्तियों, सहानुभूति, स्नेह, दया आदि से प्रेरित कर्म शुभ नहीं हैं । कर्तव्य की प्रेरणा ही एकमात्र शुभ प्रेरणा है । इसमें सन्देह नहीं कि काण्ट का ऐसा दर्शन प्रत्यन्त कठोर और निःस्पृह हो गया है। आलोचकों का यह कहना है कि काण्ट ने अपने सिद्धान्त में भावनाओं, स्थायीभाव आदि को पर्याप्त स्थान नहीं दिया है । स्थान देना तो दूर रहा, वह मानव-स्वभाव का अवास्तविक विश्लेषण करता है, जो भ्रान्तिपूर्ण मनोविज्ञान पर आधारित है । उसने सब स्वाभाविक प्रेरणाओं को स्वार्थी और सुखवादी कहा है। ऐसे उम्र मत को अपनाकर उसने अपने सिद्धान्त को अमान्य बना दिया है । मानव-कर्म मौर सद्गुण न तो भावना शून्य हैं और न भावना उनका अप्रमुख गुण है । वह उनके मूलगत स्वरूप का अंग है । काण्ट की रचनाओं में निर्ममता की प्रवृत्ति मिलती है । बुद्धिपरतावाद (परिशेष) / २२७ For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त में अस्पष्टता : भावनाएं प्रात्म-सन्तोष का अंग-अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करते समय काण्ट ने कई स्थलों में प्रत्यन्त संक्षिप्त तर्क प्रस्तुत किये हैं। एक प्रमाण से दूसरे प्रमाण में आने में शीघ्रता दिखलायी है। ऐसी शैली पाठक को दुविधा में डाल देती है। उसे असंगतियाँ दिखलायी पड़ती हैं। शुद्ध व्यावहारिक बुद्धि का वर्णन करते समय वह कहता है कि इसका आदेश कर्ता से कहता है कि जब कर्तव्य का प्रश्न उठता है तो इच्छाओं की ओर से विमुख हो जाना चाहिए। जब इसका कर्तव्य से विरोध नहीं होता है तब इसके अधिकार बुद्धि नहीं छीनती है। ऐसी स्थिति में कर्ता सुख खोज सकता है । पर जब कर्तव्य और प्रवृत्तियों के प्रश्न को वह उठाता है तो वह यह मान लेता है कि बौद्धिक व्यक्ति प्रवृत्तियों से पूर्ण रूप से मुक्त होना चाहेगा । किन्तु इन्द्रियों का समूल नाश करके व्यक्ति नैतिकता को प्राप्त नहीं कर सकता। इच्छात्रों का हनन करके आत्म-सन्तोष नहीं मिलता। वास्तव में बुद्धि और भावना एक-दूसरे की पूरक हैं, विरोधी नहीं । इच्छाओं को उचित मार्ग दिखलाना बुद्धि का काम है । गुणवान् या नैतिक व्यक्ति वह है जो इच्छाओं को सन्मार्गी बनाता है, उनका उन्नयन करता है। इच्छात्रों का दमन करना सदगुण नहीं है । सद्गुणी व्यक्ति इच्छाओं से स्वतन्त्र नहीं है। ऐसी स्वतन्त्रता मरघट में ही प्राप्त हो सकती है। इच्छाओं द्वारा विरोध होने पर भी उचित मार्ग को ढंढ लेना नैतिक गुण है। बिना भावनाओं के नैतिकता विषय-शून्य है। भावनाओं के निराकरण को अनावश्यक महत्त्व देकर काण्ट ने अपने नीतिशास्त्र को रूपात्मक बना दिया। नैतिकता के रूप और विषय में भेद कर दिया। भावनाहीन जीवन को जीवन कहना उतना ही विचित्र है जितना आम से उसकी मिठास को निकालकर उसे प्राम कहना । बुद्धि और भावना का संयुक्त जीवन ही जीवन है। नैतिक दृष्टि से भी भावनाहीन जीवन को नैतिक नहीं मान सकते। यह बौद्धिक या चिन्तनप्रधान जीवन है। लतिकता के उपादान इन्द्रियों से आते हैं। बुद्धि और भावनाओं का द्वैत नैतिक समस्या को उत्पन्न करता है । भावनाओं का निराकरण करना इस समस्या का निराकरण करना है। इच्छाओं का दमन करके वैराग्यवाद स्वयं अपने ध्येय में हार जाता है । वह अपने आदर्श को प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि बिना भावनाओं के कर्म सम्भव नहीं है । ये जीवन की संचालक शक्ति हैं। सम्पूर्ण इन्द्रियबोध जीवन को अवास्तविक कहकर त्याग नहीं सकते हैं। नैतिक कर्तव्य सब इच्छाओं और प्रवृत्तियों के हनन का आदेश नहीं देता। वह केवल उन इच्छाओं की ओर से २२८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदासीन होने के लिए कहता है जो श्रेष्ठ इच्छात्रों की तृप्ति में एवं आत्मसन्तोष के मार्ग में बाधक हैं । वास्तव में आत्म-सन्तोष तभी प्राप्त होता है जब आत्मा अपने पूर्ण रूप में-बुद्धि और भावना-सन्तुष्ट होती है। नैतिक जीवन में कर्तव्य के अर्थ-काण्ट ने अपने नैतिक दर्शन में व्यावहारिक बुद्धि के निरपेक्ष आदेश अथवा नैतिक सिद्धान्त की चरमता को सिद्ध करना चाहा। अत: उसने कर्तव्य के सिद्धान्त को महत्त्व दिया और यह कहा कि कर्तव्य ही परम नैतिक निरपेक्ष आदेश है। उसने अपने कर्तव्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते समय इच्छाओं और भावनाओं का निराकरण करके, उन्हें अनात्म्य–बाह्य शक्तियाँ-कहकर भारी भूल की । इस भूल को दूर करने के लिए ही उसने नैतिक भावना की उत्पत्ति बुद्धि से की है। उसका यह प्रयास उतना ही असफल है जितना कि पेड़ की डाल को काटकर उसे पूनः गोंद से जोड़ने का प्रयास होता है। उसने जीवन को अत्यन्त नीरस और अनाकर्षक बना दिया। पुष्पविटप की सार्थकता उसके सुचारु रूप से पुष्पित होने में है। वही जीवन सार्थक और वांछनीय है जिसमें भावनाओं और बद्धि का समवेत गान है, जिसमें भावनाएँ बद्धि का सम्पर्क पाकर विकसित होती हैं और बद्धि भावनाओं के साहचर्य से सुगन्ध को प्राप्त होती है । कर्तव्य के रूपात्मक सिद्धान्त ने जीवन को अवांछनीय, अरुचिकर और अनाकर्षक बना दिया है। यह सत्य है कि वैयक्तिक लाभ और यश की प्रच्छन्न आशा से किया हमा कर्म अनैतिक है। किन्तु क्या इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि स्नेह, दया, दान आदि से अनायास किये कर्म भी अनैतिक हैं ? क्या वही कर्म उचित है जिसे करने के पहले कर्ता उसे कर्तव्य की 'तुला के प्रौचित्य और अनौचित्य के बाटों में तोल लेता है और यह स्मरण रखता है कि 'मैं कर्तव्य कर रहा हूँ ?' यदि कोई दानी व्यक्ति दान देते समय यह ध्यान में रखे कि 'मैं दान दे रहा हैं और इसके विपरीत. दूसरा व्यक्ति सहज-दयावश दान दे तो क्या दूसरे व्यक्ति के कर्म को अनैतिक कहना. विवेकसम्मत होगा ? कर्तव्य के सिद्धान्त को बिल्कुल ही विषयहीन मानकर काण्ट ने 'कर्तव्य' की ऐसी अमूर्त धारणा को अपना लिया है जो अर्थशून्य है। 'कर्तव्य का बोध इच्छाओं और भावनाओं से पूर्ण सामान्य व्यक्ति के हृदय में ही उत्पन्न हो सकता है, देवता या दानव के हृदय में नहीं।' अथवा कर्तव्य का बोध तभी उत्पन्न होता है जब इच्छाओं में द्वन्द्व होता है। जब व्यक्ति को अपने विचारों-प्रादर्शों के अनुरूप कर्म करने के लिए दृढ़ अभ्यासों को छोड़ना पड़ता है, सहज प्रवृत्तियों पर संयम रखना पड़ता है तथा बुद्धिपरतावाद (परिशेष) / २२६ For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छाओं, भावनाओं आदि का उन्नयन करना पड़ता है अथवा उनके प्रति तटस्थ होना पड़ता है तब उसमें कर्तव्य का ज्ञान जाग्रत होता है । कर्तव्य शब्दमात्र नहीं है । यह शुभ इच्छाओं का सूचक है । काण्ट ने इच्छाओं से इसका वियोग कराकर इसे अर्थशून्य और अव्यावहारिक कर दिया है । काण्ट का सिद्धान्त अपनी रुक्षता के कारण मनुष्य को श्रेष्ठतर बनने के लिए पर्याप्त प्रेरणा प्रदान नहीं करता । कर्तव्य अथवा बुद्धि के नियम का सम्बन्ध मनुष्य की भावनानों से है; उसके वैयक्तिक और सामाजिक जगत् से है । अपने -प्रापमें- इन सम्बन्धों से अलग — 'कर्तव्य' कुछ नहीं है । - वैराग्यवाद अपने-आपमें अपूर्ण - मनुष्य का नैतिक जीवन बौद्धिक और भावुक आत्मा का जीवन है, अथवा उसका सम्पूर्ण जीवन है । नैतिकता जीवन के किसी एक अंग के त्याग की अपेक्षा नहीं रखती । उसी अंग का त्याग क्षम्य है जो कि सम्पूर्ण की उन्नति और पूर्णता में बाधक है । वैराग्यवादी प्रदर्श पूर्ण भ्रान्तिपूर्ण और एकांगी है। यह जीवन्त श्रादर्श नहीं है । सक्रियता के बदले वह निष्क्रियता को अपनाता है । विकारशून्यता, भावहीनता, तटस्थता, राग-रस-हीनता आदि मानवोचित गुण नहीं हैं । संसार के क्रिया-कलापों के प्रति दर्शकमात्र होना, जीवन में अभिरुचि न लेना मनुष्यत्व का चिह्न नहीं है । ऐसे मरुभूमि के आदर्श के मूल में यह धारणा है कि देह आत्मा का बन्दीगृह है । इन्द्रियपरक जीवन को अपनाना बहेलिये के जाल में फँसना है । ऐसी धारणा भ्रान्तिपूर्ण होने के साथ ही मृत्युसूचक है । जिस जगत् में हम रहते हैं, कर्म करते हैं अथवा जिसका प्रत्येक क्षण अनुभव करते हैं, उसे स्वप्नमात्र नहीं कह सकते। जीवन को क्षणिक और स्वप्नतुल्य माननेवाला बौद्धिक श्रादर्शवाद स्तुत्य नहीं है । वही बुद्धिपरतावाद मान्य है जो इन्द्रियपरता का अपने में समावेश करके उसे संगठित करता है । इन्द्रिय जीवन की अनेकता के लिए बुद्धि की संगठन की शक्ति की आवश्यकता है । बुद्धि के नियम को केवल अनुभवनिरपेक्ष कहकर बुद्धि परतावादियों ने रूपात्मक सिद्धान्त को महत्त्व दिया । वे यह भूल गये कि उसका विषय भावना से प्राप्त होता है। बिना विषय के वह अस्थिपंजर मात्र और रिक्त है। भावना भी बिना बुद्धि के अन्धी है, उसका मार्ग-निर्देशन बुद्धि करती है । परिपूर्ण नैतिक जीवन के लिए बुद्धि और भावना दोनों ही आवश्यक हैं । सुखवादी भूल -- काण्ट का मनोविज्ञान भ्रान्तियों से मुक्त नहीं है । नैतिक आत्मा कर्तव्य को समझती है । वह कर्तव्य करने के लिए बाधित हैं। नैतिक २३० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का संकल्प वतलाता है कि क्या करना चाहिए। इच्छाओं से युक्त अात्मा सुख की खोज करती है। किन्तु नैतिक आत्मा इच्छाओं का विरोध करती है अथवा कर्तव्य का मार्ग अनिच्छा का मार्ग है । मनोविज्ञान बतलाता है कि यह भ्रामक है। कर्तव्य के मार्ग का स्वेच्छा से पालन किया जाता है। संवेदनशील प्रात्मा इस मार्ग को देती है। काण्ट का कहना था कि इच्छाएँ सुख के लिए होती हैं और उनकी तृप्ति मनुष्य को प्रात्म-सुख देती है। किन्तु सब प्रवृत्तियाँ सुख के लिए नहीं होती। इच्छाओं को स्वार्थी मानकर वह अनुभवात्मक वस्तुवाद से दूर हो गया है। इच्छाओं के सम्मुख एक ध्येय होता है और जब उसकी प्राप्ति हो जाती है तो व्यक्ति को यह सोचकर सन्तोष प्राप्त होता है कि 'मेरी इच्छा तृप्त हुई। उसकी इच्छा का ध्येय कुछ भी हो सकता है, आत्म-कल्याण अथवा पर-कल्याण दोनों ही हो सकते हैं । काण्ट ने नैतिक प्रेरणा के अतिरिक्त अन्य प्रेरणाओं को स्वार्थी कहकर उन्हें अनैतिक कह दिया । यहाँ पर उसने सुखवादियों के दृष्टिकोण को अपनाया है। उन्हीं के समान यह माना है कि इच्छा का एकमात्र विषय सुख है। __एकमात्र प्रेरणा को महत्त्व देना अनुचित है-काण्ट के अनुसार वही कर्म नैतिक है जो शुभ प्रेरणा से किया गया है। परिणाम से नैतिकता का कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका कहना है कि घोखा देना पाप है। यदि किसी का जीवन उसके होनेवाले हत्यारे को धोखा देकर बच सकता हो तो भी धोखा नहीं देना चाहिए । काण्ट की ऐसी विशुद्ध नैतिकता (Moral Purism) कहाँ तक मान्य है, कहना कठिन है। उसने सम्पूर्ण परिस्थिति को नैतिक दृष्टि से महत्त्व नहीं दिया, यह उसकी भूल है। यह सम्भव हो सकता है कि हत्यारे को पाप करने से रोकने पर उसमें कोई महान् परिवर्तन आ जाये और वह नैतिक आचरण को अपना ले। प्रात्म-प्रबुद्ध व्यक्ति जब कर्म करता है तो वह सम्पूर्ण परिस्थिति के बारे में सचेत रहता है। वह अपने कर्म के परिणाम को भरसक समझने की कोशिश करता है। वह जानता है कि उसका प्रभाव दूसरों पर तथा स्वयं उस पर क्या पड़ेगा। प्रेरणा से किया हुआ कर्म साभिप्राय है। प्रेरणा को समझने के लिए परिणाम को समझना अनिवार्य है । डाक्टर के लिए यह आवश्यक है कि जब रोगी को वह दवाई देता है तो यह समझ ले कि वह रोगी के लिए कैसी होगी। कर्म अपने-आपमें नैतिक नहीं होता। वह प्रेरणा और परिणाम के सम्बन्ध में ही शुभ अथवा अशुभ है। काण्ट के कठोरतावाद का व्यावहारिक मूल्य-काण्ट यह भली-भाँति बुद्धिपरतावाद (परिशेष) | २३१ For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझता था कि भावना का दलदल भयंकर है, यदि व्यक्ति इसमें फँस गया तो उसकी मुक्ति दुर्लभ हो जायेगी । किन्तु बुद्धि को आवश्यकता से अधिक अपनाने में यह भय नहीं है । अतः उसने प्रवृत्तियों, अभ्यासों और यहाँ तक कि नैतिक भावावेशों से किए हुए कर्तव्य के अनुरूप कर्मों को शुभ नहीं कहा है । नैतिकता स्वस्थ और शान्त चिन्तन की अपेक्षा रखता है । नैतिक भावावेश में व्यक्ति कर्तव्यच्युत हो जाता है । वह भ्रम में पड़कर अपने ही अहम्, मित्याभिमान, आत्म-सन्तोष आदि को अभिव्यक्ति देता है । भावुकता, दयार्द्रता तथा सहानुभूति से प्रेरित कर्म श्लाघनीय हो सकते हैं किन्तु नैतिक नहीं । स्वाभाविक सहृदयता भी अनुचित कर्मों को जन्म देती है । माँ बच्चे को स्नेह हृदयता के कारण बिगाड़ देती है । मानव - दुर्बलताओं को समझने के कारण ही काण्ट ने यह कहा कि कर्तव्य की प्रेरणा से किया हुआ कर्म उचित है । परिणाम, प्रवृत्ति, तत्कालीन प्रावेश, श्रात्मस्वार्थ से किये हुए कर्म नैतिक नहीं हैं । वे कर्तव्य के अनुरूप हो सकते हैं किन्तु वे कर्तव्य के लिए नहीं किये गये हैं । पूर्ण रूप से पवित्र संकल्प केवल कर्तव्य के लिए ही कर्म नहीं करता बल्कि वह शुभ के प्रेम से स्वभावत: कर्म करता है । प्रसन्न हृदय से किया हुआ कर्तव्य चरित्र के शुभत्व को प्रतिबिम्बित करता है । पवित्र संकल्प पूर्ण रूप से शुभ है और यही परम नैतिक ध्येय है । काण्ट के लिए यह कहना अनुचित है कि उसने परमार्थिक और उदार प्रवृत्तियों को पूर्ण रूप से पाशविक प्रवृत्तियों की श्रेणी में रखा । वह ऐसी उच्च प्रेरणाओं से प्रेरित कर्मों को प्रोत्साहन, प्रशंसा स्नेह के योग्य मानता है किन्तु नैतिक मूल्य से युक्त नहीं करता । ऐसा करके उसने सचमुच अपने मानव स्वभाव के गूढ़ ज्ञान का परिचय दिया । मनुष्य का स्वभाव इतना जटिल है कि वह स्वयं अपने को समझने में भ्रम में पड़ जाता है । जिन कर्मों को वह निःस्वार्थ समझता है वे केवल निःस्वार्थता का आवरण पहने होते हैं । ऐसी स्थिति में कर्तव्य का सिद्धान्त उसका मार्गदर्शक बन जाता है और उसे उस कर्म की ओर ले जाता है जो वास्तव में उचित और बुद्धि को मान्य है । निरपेक्ष नैतिक प्रदेश का महत्त्व - सुखवाद के अनुसार नैतिक प्रदेश सुख की प्राप्ति के लिए उपयोगी साधन हैं । ऐसे लाभप्रद नियमों का पालन करनेवाला व्यक्ति व्यावसायिक बुद्धि से काम लेता । वह चतुर और दूरदर्शी है । सुखवाद ने ऐसे नियमों के पालन करने को उचित कहा है । उचित नियम वह है जो सुखप्रद है । बुद्धिपरतावाद श्रौचित्य के सिद्धान्त को स्वार्थी २३२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छाओं से पूर्ण रूप से मुक्त करता है। वही कर्म उचित है जो परम आदेश के अनुरूप है। इस आदेश का ध्येय सार्वभौम है। प्रत्येक बौद्धिक प्राणी को इसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। सुखवादियों के अनुसार नैतिक आदेश 'चोरी नहीं करना चाहिए' आदि का व्यक्तिगत मूल्य है। अधिकतम सुख को ध्येय माननेवाला व्यक्ति उसी आदेश को मानेगा जो उसे सुख देता है। उसके लिए नैतिक आदेश अनिवार्य या निरपेक्ष रूप ग्रहण नहीं करते । काण्ट का औचित्य का नियम सार्वभौम मानदण्ड को देता है। ऐसे वस्तुगत मानदण्ड को देता है जो वैयक्तिक इच्छाओं और विशिष्ट ध्येयों से स्वतन्त्र है। इतिहास को बुद्धिपरतावाद की देन-काण्ट ने मुख्यत: यह समझाने का प्रयास किया कि बुद्धि ही मनुष्य का सारतत्व है। मनुष्य का संकल्प स्वतन्त्र है। वह बौद्धिक एवं प्रात्म-पारोपित नियम का पालन कर सकता है। यह नियम अनिवार्य और सार्वभौम है। मनुष्य में व्यक्तित्व (बौद्धिकता) है । मानवता अपने-आपमें साध्य है। काण्ट का ऐसा सिद्धान्त अत्यन्त निःस्पृह हो गया है, इसमें सन्देह नहीं। ऐसे सिद्धान्त की बुराइयों को देखते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि इसने उस तत्त्व को महत्त्व दिया जो मानव-जाति का सामान्य गुण है । प्रत्येक व्यक्ति बौद्धिक है और समान है । जहाँ तक उसकी योग्यताओं, भावनाओं, इच्छाओं का प्रश्न है वे उसकी अपनी निजी और वैयक्तिक हैं। बुद्धि का सार्वभौम रूप मानव-बन्धुत्व की धारणा को जन्म देता है। वह बतलाता है कि नागरिकों का परस्पर सम्बन्ध बाह्य अथवा सहकारितामात्र नहीं है; वह आन्तरिक है। बुद्धि ही प्रत्येक व्यक्ति का प्रान्तरिक सत्य है। वह बतलाती है कि स्वतन्त्र नागरिक और दास में कोई भेद नहीं है। बुद्धिपरतावादियों के लिए जब हम यह कहते हैं कि उन्होंने विश्वबन्धुत्व की धारणा को दिया तो हमारा ध्यान ईसाई धर्म की और जाता है। किन्तु बुद्धिपरतावादियों ने ईसाई विचारकों के पूर्व ही विश्वबन्धुत्व की धारणा को सक्रिय रूप में स्वीकार करके दास प्रथा के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठायी। बुद्धि के वास्तव में दो कर्म हैं। एक ओर तो वह व्यक्तियों को एक-दूसरे से युक्त करती और मिलती है और दूसरी ओर प्रत्येक को उसका स्वतन्त्र व्यक्तित्व प्रदान करती है। 'प्रत्येक व्यक्ति अपने-आपमें साध्य है', इस तथ्य ने कानूनी अधिकारों के लिए उचित तर्क दिये । इंगलैण्ड में जो उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कानूनी और राजनीतिक सुधार हुए उसमें उपयोगितावाद का हाथ तो था ही, साथ ही वे काण्ट के सिद्धान्त से प्रभावित थे। यह कहना अनुचित बुद्धिपरतावाद (परिशेष) / २३३ For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न होगा कि 'प्रत्येक व्यक्ति की गणना एक है' और 'प्रत्येक व्यक्ति में मनुष्यत्व की पवित्रता है, इन दोनों कथनों ने समान रूप से आधुनिक तथा विगत शताब्दी के समाजशास्त्रियों, सुधारकों, राजनीतिज्ञों और कानून- विशेषज्ञों को प्रभावित किया । इस व्यावहारिक देन के अतिरिक्त बुद्विपरतावादियों ने इस जीवन्त सत्य की ओर भी संकेत किया कि अभ्यास और प्रवृत्तियाँ कर्तव्य के मार्ग में रोड़ा अटकाती हैं । उनका यह कथन सत्य - विहीन नहीं है । इसमें निहित सत्यांश की पुष्टि के लिए इतिहास की ओर देखना पड़ेगा । इतिहास बतलाता है कि वैयक्तिक और जातीय जीवन में एक ऐसी स्थिति अवश्य प्राती है जब कि नकारात्मक और विरागात्मक तत्त्व प्रमुखता पाते हैं । नैतिक विकास उच्च प्रेरणाओं के प्रति निम्न प्रेरणाओं की अधीनता पर आधारित है । कभी ऐसी विशेष परिस्थिति भी आती है जब कि निम्न प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करना उच्च प्रेरणाओं को महत्त्व देने से अधिक आवश्यक हो जाता है | अतः केवल उच्च प्रेरणाओं को महत्त्व देना पर्याप्त नहीं है । ये तथ्य बतलाते हैं। कि नैतिकता आत्म-संयम और आत्म-वर्जन से प्रारम्भ होती है । नैतिक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों का अध्ययन यह बतलाता है कि बिना त्याग और आत्म-वर्जन की नकारात्मक प्रवृत्तियों के नैतिक जीवन सम्भव नहीं है । जीवन के नकारात्मक पक्ष से पूर्ण रूप से स्वतन्त्र परिस्थिति की कल्पना करना असत्य है | चाहे हम सुखवादियों के साथ यह भी स्वीकार कर लें कि मनुष्य में 'सुख की इच्छा है, किन्तु यह एक अकाट्य सत्य है कि कष्टसहिष्णुता के लिए तत्पर रहने की क्षमता सद्गुणों की प्राप्ति का एक अनिवार्य अंग है । २३४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सहजज्ञानवाद सहजज्ञानवाद और अन्तर्बोध प्रवेश - नैतिक निर्णय का आधार क्या है ? कर्म के औचित्य अनौचित्य को मापने के लिए हम किस मानदण्ड को स्वीकार करते हैं ? कर्तव्य को कैसे समझते हैं ? ··· आदि प्रश्नों का उत्तर विभिन्न प्रकार से दिया जा सकता है । एक वर्ग उन लोगों का है जो रूढ़िग्रस्त तथा प्राचीन परिपाटी के उपासक हैं । उन लोगों के अनुसार नैतिकता बाह्य नियमों का अनुवर्तनमात्र है । दूसरे वर्गों में वे हैं जो उपयोगितावाद के आधार पर कर्मों का मूल्यांकन करते हैं । उपयोगिता, साध्य और परिणाम की तुलना में ही कर्म को उचित अथवा अनुचित कहते हैं । पुनः तीसरे वर्ग के अन्तर्गत वे लोग आते हैं जो कर्म को अपने आप में शुभ अथवा अशुभ मानते हैं । इस भाँति यदि हम विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन करते जायें तो हमें कर्मों का मूल्यांकन करने के लिए अनेक दृष्टिकोण मिलेंगे । वास्तव में उन दृष्टिकोणों के मूल में नैतिकता की दो प्रकार की धारणाएँ हैं : नैतिकता शाश्वत, अद्वितीय तथा निरपेक्ष है और नैतिकता सापेक्ष, परिवर्तनशील तथा परिस्थितिजन्य है । पूर्वपक्षवालों ने नैतिक नियमों और विचारों को अनुद्भूत और प्रकृत्रिम कहा है । और उत्तर-पक्ष वालों ने उद्भूत तथा कृत्रिम कहा है । उन पक्षों के मूल में हमें दो भिन्न वाद एवं सिद्धान्त मिलते हैं: सहजज्ञानवाद और प्रकृतिवाद । सहजज्ञानवाद का व्यापक अर्थ - नैतिकता को निरपेक्ष और शाश्वत कहने वालों ने ही सहजज्ञानवाद ( Intuitionism ) को जन्म दिया । इन्ट्युशनिज़्म व्युत्पत्ति लेटिन शब्द इनंट्योर ( Intuer ), जिसका अर्थ 'देखना ' अथवा सहजज्ञानवाद / २३५. For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'साक्षात्कार करना' है, से हुई है । नीतिशास्त्र के क्षेत्र में सहजज्ञानवाद का प्रयोग उन सिद्धान्तों के लिए किया जाता है जो यह मानते हैं कि मनुष्य को उचित और अनुचित के स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान है अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हो सकता है । कर्मों को उन्हीं के प्राभ्यन्तरिक गुणों के कारण शुभ या अशुभ कहते हैं, न कि उनके ध्येय या परिणाम के कारण । कर्म इसलिए शुभ नहीं हैं कि उनकी सामाजिक उपयोगिता है अथवा वे सुखद हैं । कर्मों का शुभ-अशुभ होना न तो कर्ता पर निर्भर है और न दर्शकों एवं निर्णायकों पर, बल्कि उन्हीं के प्राभ्यन्तरिक गुणों पर । इस तथ्य को समझाने के लिए कला और साहित्य का उदाहरण ले सकते हैं । किसी कविता को श्रेष्ठ इसलिए नहीं कह सकते कि वह किसी व्यक्ति विशेष को पढ़ने में रुचिकर प्रतीत हुई, उसका रचयिता उसे अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति मानता है अथवा रचयिता विश्व-विख्यात कवि है; वस्तुगत मानदण्ड के आधार पर ही कविता अच्छी या बुरी है । सहजज्ञानवाद यह मानता है कि कर्मों के अभ्यन्तरिक रूप को परखने तथा उनके औचित्यअनौचित्य का तात्कालिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य के पास नैतिक शक्ति अथवा अन्तर्बोध है। नैतिक शक्ति आन्तरिक शक्ति है । कर्मों की अच्छाई और बुराई परखने के लिए मनुष्य बाह्य नियमों की सहायता नहीं लेता है । नैतिक शक्ति उसे कर्मों का तात्कालिक ज्ञान देती है । इस शक्ति के स्वरूप को सहजज्ञानवादियों ने विभिन्न शब्दों के प्रयोग द्वारा समझाया है : नैतिक बोध, अनिर्वचनीय शक्ति, नैतिक इन्द्रिय, अलौकिक शक्ति, बोधगम्य शक्ति, व्यावहारिक शक्ति प्रादि । ये विभिन्न शब्द यह बतलाते हैं कि सहजज्ञानवाद को माननेवाले सब विचारक एकमत होकर यह स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में प्रत्यक्ष और सहजज्ञान प्राप्त करने की शक्ति है । इस अर्थ में सहजज्ञानवाद वह सिद्धान्त है जो यह कहता है कि ग्राचरण पर नैतिक गुणज्ञ (moral connoisseur ) का निर्णय ही मान्य निर्णय है । किन्तु जहाँ तक नैतिक शक्ति के स्वरूप का प्रश्न है, उनमें पारस्परिक मतभेद है । 1 प्रकृतिवाद तथा सहजज्ञानवाद का ऐतिहासिक विवाद – सोफिस्ट्स के पश्चात् हमें नैतिकता के मानदण्ड के बारे में दो स्पष्ट वर्ग मिलते हैं । एक ओर सुकरात, सिनिक्स, प्लेटो, अरस्तू, स्टोइक्स हैं । उन लोगों के अनुसार न्याय, - संयम, कर्तव्य आदि सद्गुणों का अस्तित्व प्राकृतिक एवं शाश्वत है । ये मनुष्य द्वारा निर्मित और निर्धारित नहीं हैं । ये श्राभ्यन्तरिक तथा वस्तुगत रूप से शुभ हैं। इन लोगों को, वास्तव में, सहजज्ञानवादियों का पूर्वज कह सकते हैं । २३६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके साथ ही समान्तर रूप से वह विचारधारा मिलती है (सिरेनैक्स और ऍपिक्यूरियन्स) जो कि प्रकृतिवाद की जन्मदात्री है। प्रकृतिवाद और सहजज्ञानवाद, दोनों के विवाद का केन्द्र प्रकृति (Nature) है । 'प्रकृति' शब्द एकार्थी नहीं है । नीतिज्ञों ने इसका प्रयोग अपने-अपने ढंग से किया है। ऐसा अनिश्चित और सन्दिग्ध प्रयोग कठिनाई उत्पन्न कर देता है। उदाहरणार्थ, कुछ ने उसे प्राकृतिक कहा है जो कि अलौकिक और दैवी प्रकाश की तुलना में अनुभवग्राह्य है; वह भी प्राकृतिक है जो अनिवार्य प्राकृतिक नियमों का परिणाम है; वह भी प्राकृतिक है जो विकास के क्रम में उत्पन्न हुआ है और वह भी प्राकृतिक है जो गणित के सत्यों की भाँति शाश्वत है तथा वह नैतिक नियम और बाध्यताएँ भी प्राकृतिक हैं जो कि मनुष्य के ज्ञात स्वरूप का परिणाम हैं। ऐसे नियम अकृत्रिम, शाश्वत एवं प्राकृतिक हैं। वे मनुष्य द्वारा निर्मित नहीं हैं। प्रकृतिवाद ने नैतिक नियमों और नैतिक निर्णयों को अनिवार्य प्राकृतिक नियमों से उत्पन्न माना है। ऐसे नियम अपनेआपमें न तो नैतिक ही हैं और न अनैतिक ही। सहजज्ञानवादियों ने इन्हें शाश्वत माना है । सद्गुणों के कृत्रिम अथवा अकृत्रिम रूप को समझाने के लिए सहजज्ञानवादियों तथा प्रकृतिवादियों के पूर्वजों ने यह प्रश्न उठाया : क्या न्याय स्वाभाविक है अथवा रीति-रिवाज के कारण है ? ऍपिक्यूरियन्स और सिरेनक्स ने न्याय को रीति-रिवाज पर आधारित कहा और प्लेटो तथा उसके अनुयायियों ने शाश्वत एवं प्राकृतिक । ___सहजज्ञानवाद और प्रकृतिवाद ने सदैव एक-दूसरे का विरोध किया है। प्रकृतिवाद के अनुसार नैतिक विचार की उत्पत्ति हुई है। यह उद्भूत विचार हैं, नैसर्गिक नहीं। वह उन इच्छाओं और भावनाओं का परिणाम है जो निर्नैतिक हैं। उदाहरणार्थ, हॉब्स का कहना है कि आत्म-स्वार्थ और आत्मसंरक्षण की इच्छा ने नैतिक मान्यताओं को जन्म दिया और ह्य म का कहना है कि सुख, आत्म-स्वार्थ, रीति-रिवाज तथा सहानुभूति का ही मिश्रित परिणाम नैतिक विश्वास है । अथवा नैतिकता अनेक प्रकार की भावनाओं का परिणाम है। स्पेंसर के अनुसार नैतिक विचार और नैतिक कर्तव्य की धारणा वंशानुगत सहजप्रवृत्तियों का परिणाम है। नैतिक विचारों के पक्ष में केवल इतना ही कह सकते हैं कि जिन जातियों में यह गुण नहीं है वह जीवित नहीं रह पातीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकृतिवाद के अनुसार नैतिक विचार उद्भूत हैं । ये उन नि तिक भावनाप्रों, इच्छानों और सहजप्रवृत्तियों के परिणाम हैं जो सहजज्ञानवाद / २३,७. For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने प्रारम्भिक रूप में नैतिक विशेषणों से युक्त नहीं थीं । धीरे-धीरे प्रकृति के मानसिक अथवा भौतिक अनिवार्य नियमों ने उन्हें जन्म दे दिया । सहजज्ञानवादियों ने प्रकृतिवाद (विशेषकर हॉब्स और ह्य ूम ) के विपरीत यह समझाना चाहा कि नैतिक विचार और नैतिक सत्य मूलगत हैं। उनके रूप को प्रकृतिवादियों की भाँति सरल करके अथवा भावनाओं का विभाजन करके ( विभिन्न भावनाओं का मिश्रित परिणाम ) नहीं समझा सकते । मूलगत नैतिक सत्यों का ज्ञान उन अन्ध प्राकृतिक नियम अथवा ग्रनिवार्य नियमों द्वारा प्राप्त करना असम्भव है जो कि विवेक से संचालित नहीं हैं, बल्कि मात्र यान्त्रिक हैं । नैतिक सत्यों को प्रकृतिवादियों की भाँति ऐतिहासिक पद्धति को अपनाकर नहीं समझाया जा सकता बल्कि उनका हमें सहजज्ञान होता है । प्रत्येक व्यक्ति में सहजज्ञान की शक्ति है । इसी के द्वारा वह कर्मों के औचित्य अनौचित्य को समझता है । यह सम्भव हो सकता है कि कुछ लोगों में वह पर्याप्त मात्रा में विकसित न हो और उनको उचित रूप से निर्देशित न कर सकती हो। ऐसी स्थिति में इस शक्ति को शिक्षा और साधना द्वारा योग्य बना लेना चाहिए । प्रकृतिवाद और सहजज्ञानवाद का संकल्प-स्वातन्त्र्य के बारे में भी मतभेद है । प्रकृतिवादी मनुष्य को प्रकृति का ही अंग मानते हैं और कहते हैं कि मनुष्य बाह्य जगत् एवं प्रकृति के अनिवार्य नियमों के अधीन हैं । कर्तव्य की धारणा को उन्होंने कोई विशिष्ट स्थान नहीं दिया है । उनके लिए नैतिक कर्तव्य का अर्थ कर्म करने का एक आवेगमात्र है । यह प्रावेग अपनी शक्ति के अनुरूप दूसरे आवेगों की ही श्रेणी में आता है । सहजज्ञानवादी मनुष्य को मुख्य रूप से नैतिक प्राणी मानते हैं और उसकी नैतिकता पर महत्त्व देते हुए कहते हैं कि अपने नैतिक विचारों के कारण वह कुछ हद तक प्रकृति तथा अपने कर्मों पर नियन्त्रण रख सकता है । नैतिक कर्म करना ही मनुष्य का धर्म है । कर्तव्य की बौद्धिक एवं नैतिक चेतना ही उससे शुभ कर्म करवाती है, न कि प्रकृति के अन्ध नियम । अथवा जैसा कि काण्ट कहता है कि 'नैतिक चाहिए' का अर्थ यही है कि मनुष्य का संकल्प स्वतन्त्र है । वह शुभ कर्मों को उनके औचित्य के कारण कर सकता है । संक्षेप में, सहजज्ञानवाद ने यह समझाया कि मनुष्य शुभ की धारणा के अनुरूप कर्म कर सकता है और प्रकृतिवाद ने यह समझाया कि कर्मों का भावी रूप उनके भूतकालीन रूप पर निर्भर है और भावी प्रदर्श शुभ की पूर्व- कल्पना हमारे कर्मों को वहीं तक निर्धारित कर सकती है जहाँ तक कि वह स्वयं अपने से पूर्व की घटनाओं से निर्धारित है । २३८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिवाद और सहजज्ञानवाद दोनों का ही भेद, वास्तव में, यथार्थ विज्ञान और प्रादर्श विधायक विज्ञान का भेद है। प्रकृतिवादी की प्रणाली वर्णनात्मक है। वह किसी नैतिक आदर्श को सम्मुख नहीं रखता । वह केवल यह समझाने का प्रयास करता है कि मनुष्य का स्वभाव क्या है ? हमारी शुभ अथवा नैतिकता के बारे में क्या धारणाएँ हैं ? स्वीकृत नैतिक मान्यताओं के उद्गम को हम कैसे समझा सकते हैं ? सहजज्ञानवादी यह समझाने का प्रयास करते हैं कि क्या होना चाहिए, शुभ क्या है ? वे नैतिक प्रश्नों और समस्याओं को उठाते हैं तथा नैतिक आदर्श को समझाने का प्रयास करते हैं। अन्तर्बोध का व्यापक प्रयोग अन्तर्बोध : उसका अर्थ-सहजज्ञानवादियों ने जिस मानदण्ड से कर्मों को मापा है वह अन्तर्बोध का मानदण्ड है। अन्तर्बोध उस नैतिक शक्ति का नाम है जो तत्काल ही कर्मों के औचित्य-अनौचित्य पर निर्णय दे देती है। अन्तर्बोध का क्या रूप है, उसकी परिभाषा क्या है, यह निश्चित रूप से बताना कठिन है। प्रत्येक सहजज्ञानवादी ने अपने ढंग से उसके रूप को समझाया है । स्थूल रूप से प्रत्येक सहजज्ञानवादी यह मानता है कि कर्म अपने-आपमें शुभ अथवा अशुभ हैं और मनुष्य के पास कर्मों के इस प्राभ्यन्तरिक रूप को समझने के लिए एक विशिष्ट शक्ति है । इस शक्ति को ही नैतिक शक्ति अथवा अन्तर्बोध कहते हैं। शब्द-व्युत्पत्ति के आधार पर कॉन्शेन्स (conscience) लेटिन शब्द कॉन्सायर (conscire) से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है, बोध होना (अनुचित का) अथवा किसी वस्तु को समग्र रूप से जानना या स्थिति का सम्यक् ज्ञान । अन्तर्बोध सत्य का तात्कालिक ज्ञान देता है। ऐसे ज्ञान को कल्पना, चिन्तन अथवा तर्क द्वारा नहीं प्राप्त कर सकते हैं। अन्तर्बोध शब्द का प्रयोग सहजज्ञानवादियों के अतिरिक्त अन्य नीतिज्ञों एवं विचारकों ने भी किया है। अतः इसका सहजज्ञानी अर्थ समझने के लिए हमारे लिए यह आवश्यक हो जाता है कि विभिन्न सन्दर्भो में भी इसका अर्थ समझ लें। कानन-कानून के अनुसार अन्तर्बोध कोई विशिष्ट शक्ति नहीं है । यदि इसका कोई अर्थ है तो यही कि सामान्य अनुभव तथा बुद्धि की सहायता से उस स्थिति की व्यापक कल्पना कर लेना, जिसे कि कर्ता अपनाना चाहता है ताकि उसे यह पता चल जाये कि कानूनी दण्ड का कोई भय नहीं है। वास्तव में यह वैधिक नियम को जानना तथा उसकी धाराओं और उपधारामों को समझना सहजज्ञानवाद / २३६ For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । वैधिक नियम के अर्थ को समझने और उसके अनुसार विभिन्न नियमों का मूल्यांकन करने की शक्ति ही अन्तर्बोध है । यह वह शक्ति है जो व्यक्ति को इतनी सूझ तथा दूरदर्शिता दे देती है कि वह बाह्य रूप से अपने आचरण को इस भाँति नियमित कर लेता है कि वह कानून के अनुकूल हो जाता है । किन्तु ऐसी शक्ति एवं अन्तर्बोध नैतिक मूल्यरहित है। यह बाह्य आरोपित नियम का पालन दण्ड के भय एवं पुरस्कार के लालच से करवाता है । यह व्यक्ति की सदसत् बुद्धि को दण्ड का भय दिखलाकर चुप कर देता है। धर्म-धार्मिक विचारकों ने अन्तर्बोध को अधिकतर दिव्यवाणी या अन्तरआत्मा की ध्वनि कहा है । वे इसे भगवत्-प्रेरणा के रूप में स्वीकार करते हैं, भगवत्-प्रेरणा अथवा अन्तःप्रेरणा से उचित-अनुचित के परम निर्णय प्राप्त होते हैं। धर्म यह भी मानता है कि ईश्वर न्यायशील है। उसके निमित विश्व में श्रेय के नियमों का एक विधान है। उसने प्रत्येक व्यक्ति को इस विधान को समझने की शक्ति या अन्तःप्रेरणा दी है । अथवा धर्म के अनुसार विश्व में सार्वभौम नियमों का एक विधान है । आन्तर्बोध द्वारा व्यक्ति इस विधान के नियमों को समझ सकता है । वही व्यक्ति श्रेष्ठ है जिसमें इन नियमों का पालन करने के लिए पवित्र एवं सत्य प्रेरणा होती है । यदि व्यक्ति इन नियमों को समझने अथवा पालन करने में कठिनाई अनुभव करता है और उसके आधार पर विशिष्ट कर्तव्यों को निर्धारित नहीं कर पाता तो उसे चाहिए कि वह धर्मशास्त्रियों, पण्डितों, श्रुतिमर्मज्ञों, देवज्ञान अथवा प्रतिष्ठित धार्मिक पुस्तकों की सहायता ले । धर्म के नियम निश्चित नियम हैं । ऐसे निश्चित नियमों का बुद्धि आविष्कार नहीं करती वरन् दिव्य आदेश उसके कर्मों को निर्धारित करता है । दिव्य आदेश को हम आन्तरिक आदेश नहीं कह सकते हैं । यह आदेश बाह्य आदेश है और जिसे दिव्य वाणी अथवा अन्तरात्मा की ध्वनि कहते हैं वह व्यक्ति -महापुरुषों का अपवाद मानकर-के धार्मिक संस्कार हैं । जिस पवित्र प्रेरणा से वह कर्म करता है वह आगामी अधिक सुखी जीवन अथवा पुनर्जन्म में स्वर्ग की आकांक्षा है । जनसामान्य के सदाचार के मूल में यह भय है कि न्यायशील सृष्टिकर्ता अन्यायी को दण्ड देगा। सुखवाद-स्वार्थसुखवादियों के अनुसार व्यावसायिक बुद्धि का ही नाम अन्तर्बोध है । वे यह नहीं मानते कि मनुष्य में उचित-अनुचित को समझने की कोई आन्तरिक शक्ति है । उनका यह कहना है कि जीवन का ध्येय आत्मसुख है । उसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य को व्यावसायिक बुद्धि एवं दूरदर्शिता से काम २४० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेना चाहिए। कर्मों के भावी परिणामों को समझने के लिए अथवा सुखप्रद कर्मों को अपनाने के लिए सामान्य बोध, कल्पना और अनुमान की आवश्यकता है । अनुभव के आधार पर उन कर्मों की गणना और अनुमान कर लेना चाहिए जो कि सुखप्रद और सम्पूर्ण जीवन के सुख की प्राप्ति में सहायक हैं । परार्थसुखवाद ने 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' को सदाचार का मानदण्ड एवं नैतिक मानदण्ड माना है। सहानुभूति तथा अन्य उपाजित परार्थ भावनाएं परार्थ कर्म के लिए मनुष्य को प्रेरित करती हैं अथवा विचार-साहचर्य तथा रुचि-परिवर्तन के नियमों के कारण व्यक्ति परार्थ भावनाओं को अपने में पाता है। जब बोध, कल्पना तथा अनुमान से संयुक्त होकर सहानुभूति ज्ञान प्राप्त करती है तो वही अन्तर्बोध का काम करती है । अथवा प्रत्येक व्यक्ति का अन्तर्बोध उसके जीवन के अनुभवों और परिस्थितियों की उपज है । इसी के कारण व्यक्ति कर्तव्य करने के लिए प्रेरित होता है। विकासवादियों ने अन्तर्बोध को वंशानुगत गुण के रूप में समझा है । उनका कहना है कि अन्तर्बोध एक सामाजिक सहजप्रवृत्ति या पूर्वजों का संचित अनुभव है जिसे हम वंशानुगत गुण के रूप में प्राप्त करते हैं । अत: व्यक्ति में यह सहजात है यद्यपि पूर्वजों ने इसे अनुभव से उपाजित किया है। प्रचलित अर्थ-प्रचलित अर्थ में अन्तर्बोध नैतिक निर्णय की वह शक्ति है जो यह बतलाती है कि कौन-से कर्म तथा कौन-सी प्रेरणाएँ शुभ हैं। इस अन्तर्बोध का न तो सामान्य नियमों से ही प्रत्यक्ष सम्बन्ध है और न उन निष्कर्षों से जिनका कि सामान्य नियमों से निगमन करते हैं । 'अपने अन्तर्बोध पर विश्वास रखो', 'अपने अन्तर्बोध के अनुरूप कर्म करो', 'अपने अन्तर्बोध को समझो,' प्रादि वाक्य इस बात के प्रमाण हैं कि व्यक्ति का अन्तर्बोध अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। वह उसके कर्मों को निर्धारित करता है। विशिष्ट कर्तव्यों को करने का आदेश देता है। अन्तर्बोध की ऐसी धारणा सरल, प्रत्यक्ष सहजज्ञान को महत्त्व देती है और साथ ही वह इस विश्वास पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति का अन्तर्बोध उसे उचित मार्ग की ओर ले जाता है । इसलिए व्यक्ति को अन्तर्बोध के अनुसार कर्म करने चाहिए और नियमों के फेर में नहीं पड़ना चाहिए। नियमों का जाल नैतिक विकास में अवरोधक सिद्ध हो सकता है। तर्क और चिन्तन भी व्यर्थ हैं। इनके द्वारा किसी विशिष्ट परिणाम पर पहुंचकर उसे अपनाना अनुचित है क्योंकि यह सहजज्ञान का तिरस्कार करना है । यह दृष्टिकोणं अति सहजज्ञानवादी है । ऐसी स्थिति में न तो सामान्य नियमों सहजज्ञानवाद. २४१ For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की आवश्यकता है और न नैतिक विज्ञान की। अन्तर्बोध की उपर्युक्त परिभाषानों की सीमाएं-अन्तर्बोध की उपर्युक्त सभी परिभाषानों का अध्ययन यह बतलाता है कि उसे हम नैतिक शक्ति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। कानून के क्षेत्र में अन्तर्बोध अथवा उसके समानार्थी शब्द का कोई स्थान नहीं है । व्यापक काननी ज्ञान को ही अन्तर्बोध कह दिया गया है। धर्मशास्त्रियों ने अन्तर्बोध को जिस रूप में स्वीकार किया है वह भी नैतिक दृष्टि से मान्य नहीं है। नैतिक नियम अान्तरिक है किन्तु दिव्यवाणी का आदेश बाह्य है। उसकी बुद्धि स्वतन्त्र रूप से इस तथ्य पर चिन्तन नहीं करती कि उसके लिए क्या करना वांछनीय है । व्यक्ति उस सेवक की भाँति है जो स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य करना ही कर्तध्य मानता है । सदाचार के नियमों का पालन करने की सद्प्रेरणा रखनेवाला व्यक्ति अथवा सदविवेकी जब जटिल परिस्थितियों में पड़ जाता है और सदाचार के नियमों को समझने में असमर्थ हो जाता है तब उसे पण्डितों और धार्मिक पुस्तकों की सहायता लेनी पड़ती है । इस सहायता को प्राप्त करने में असमर्थ होने पर वह जन-सामान्य द्वारा स्वीकृत सिद्धान्तों का आश्रय लेता है । किन्तु सामान्य ज्ञान को प्राप्त करना सहजज्ञान प्राप्त करना नहीं है। मनुष्यों के सामान्यबोध के अनुरूप चलना अथवा आचरण के बारे में सामान्य अनुमति प्राप्त करना और सहजज्ञान द्वारा कर्मों के औचित्य-अनौचित्य को निर्धारित करना दो भिन्न सत्य हैं। स्वार्थ सुखवाद ने जिस व्यावसायिक बुद्धि को महत्त्व दिया है उसे हम नैतिक शक्ति नहीं कह सकते हैं। नैतिक शक्ति सदसत् बुद्धि है। वह कर्मों को उनके सुखद परिणामों के कारण शुभ नहीं कहती बल्कि उनके आभ्यन्तरिक गुणों के कारण । इसी भाँति परार्थ सुखवादी तथा विकासवादी सुखवादी भी नैतिक दृष्टि से अन्तर्बोध का मूल्यांकन नहीं कर पाये । अन्तर्बोध आन्तरिक शक्ति है। उसे उपाजित भावना अथवा वंशानुगत गुण के रूप में नहीं समझाया जा सकता । सामान्य रूप से अन्तर्बोध का जिस अर्थ में प्रयोग किया जाता है, उसे स्वीकार करने में भी अनेक कठिनाइयाँ हैं। यह एक अनुभवात्मक सत्य है कि सभी नैतिकता के प्रतिनिधियों को एक प्रकार का सहजज्ञान होता है और वह उनके मानस के नैतिक अनुभव का एक विशाल भाग होता है। चिन्तनशील व्यक्ति जब अपने ही सहजज्ञान पर चिन्तन करते हैं तो वे उसे अकाट्य और असन्दिग्ध नहीं मान पाते । जब वे अपने से स्वयं पूछते हैं तो उन्हें तुरन्त उस २४२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक समस्या का स्पष्ट समाधान प्राप्त नहीं होता । एक ही व्यक्ति के अन्तर्बोध की विभिन्न ध्वनियों में समानता नहीं मिल पाती है । जब वह समान परिस्थितियों के विभिन्न कालों के अपने अन्तर्बोध को समझने का प्रयास करता है तो उसे उसमें संगति नहीं मिलती है । दो समान योग्यतावाले नैतिक प्राणियों के अन्तर्बोध में भी विरोध दीखता है । जिस कर्म की एक सराहना करता है उसे दूसरा हेय कह देता है । ये विरोध, ये असंगतियाँ तथा असमानताएँ यह बतलाती हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में जो नैतिक निर्णय की वैयक्तिक एवं विशिष्ट शक्ति मिलती है उसे हम प्रामाणिक नहीं कह सकते हैं । उनका अन्तर्बोध अधिकतर वैयक्तिक सीमाओं, संकीर्ण स्वार्थी तथा पूर्वग्रहों से दूषित हो जाता है । जिसे हम सहजबोध एवं अन्तर्बोध कहते हैं वह वास्तव में व्यक्ति का अपना स्वार्थ, परम्परागत विचार अथवा अन्धविश्वास हो सकता है । अन्तar को प्रामाणिकता देने के लिए और सन्देह से मुक्त करने के लिए सामान्य नियमों का प्रश्रय लेना उचित है तथा सुव्यवस्थित चिन्तन द्वारा सर्वमान्य परिणामों पर पहुँचना अनिवार्य है । अन्तर्बोध के नाम पर किसी भी व्यक्ति के नैतिक बोध को स्वीकार करना अनुचित है । ऐसे अन्तर्बोध को महत्त्व देना उस वैयक्तिक चेतना को महत्त्व देना है जो व्यक्ति की औचित्य की धारणा अथवा वैयक्तिक सदाचार के मानदण्ड के अनुरूप कर्म को उचित और प्रतिकूल कर्म को अनुचित कहती है । इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि यदि व्यक्ति की प्रचित्य की धारणा भ्रान्तिपूर्ण है तो उसके अन्तर्बोध के निर्णय भी भ्रान्तिपूर्ण होंगे अथवा उसका अन्तर्बोध गधे और सुकरात, साधु और असाधु, चोर और सन्त दोनों में से किसी का भी हो सकता है । अधिकांश व्यक्तियों के आचरण का मानदण्ड वैयक्तिक, आत्मगत और संकीर्ण होता है । उनका चिन्तन उस निष्पक्षता, तटस्थता, एकरूपता और व्यापकता को नहीं अपना पाता जो उन्हें वस्तुगत तथा सार्वभौम मानदण्ड का दिग्दर्शन करा सके । यही कारण है कि अनेक व्यक्ति अन्तर्बोध के प्रति सचेत होने पर भी अपने त्रुटिपूर्ण सदाचार के मानदण्ड के कारण अनैतिक आचरण को दृढ़तापूर्वक अपना लेते हैं । वास्तव में ऐसे ही व्यक्ति उन्मत्त आचरण करते हैं । सहजज्ञानवाद की प्रणालियों ने इस दोष से प्रन्तर्बोध को मुक्त करने का प्रयास किया । उन्होंने अन्तर्बोध के सार्वभौम रूप को समझाने का प्रयास किया । सहजज्ञानवाद के अनुसार अन्तर्बोध का अर्थ – सहजज्ञानवाद के अनुसार अन्तर्बोध ही नैतिक शक्ति है । वह कर्मों के प्रौचित्य अनौचित्य का प्रत्यक्ष ज्ञान सहजज्ञानवाद / २४३ For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देती है। जसा कि प्रारम्भ में कह चुके हैं, सहजज्ञानवाद के अनुसार कुछ वस्तुएँ अपने-आप में शुभ हैं और कुछ अशुभ । व्यक्ति के चाहने पर न तो उनका मूल्य बढ़ता है और न, न चाहने पर, घटता ही है। वस्तुओं के प्राभ्यन्तरिक गुण का ज्ञान व्यक्ति को अन्तर्बोध द्वारा मिलता है। सहजज्ञानवाद यह भी मानता है कि अन्तर्बोध एवं नैतिक निर्णय की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में सदैव वर्तमान रहती है। अत: वह समस्त सरल-जटिल परिस्थितियों में यह बतला सकती है कि व्यक्ति को क्या करना चाहिए। वह सदैव व्यक्ति के कर्म के स्वरूप को निर्धारित कर सकती है और तत्काल आदेश दे सकती है कि यह करो और यह न करो। उसके आदेश तात्कालिक होने के साथ ही अद्वितीय भी हैं; तर्क अथवा युक्ति द्वारा उसके निर्णयों को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। उसके निर्णय परम हैं; जो उचित है वह सदैव ही उचित रहेगा और जो अनुचित है वह सदैव अनुचित रहेगा। उसके निर्णय निरपेक्ष हैं; उन्हें किसी अन्य निर्णय के आधार पर अथवा किसी अन्य वस्तु के सम्बन्ध में सिद्ध नहीं कर सकते। उसके आदेश अपनी विशिष्टता रखते हैं; सत्यता, पराक्रम तथा आत्म-संयम का वह बिना कोई कारण दिये हुए अनुमोदन करता है। संक्षेप में अन्तर्बोध के निर्णय प्रत्यक्ष, अद्वितीय, निरपेक्ष, अविश्लेषणीय और सहज होते हैं। अन्तर्बोध को एक सर्वसामान्य शक्ति के रूप में मानने के साथ ही सहजज्ञानवादी यह मानते हैं कि वह सब व्यक्तियों में समान रूप से विकसित नहीं है। सुशिक्षित, चरित्रवान् तथा बौद्धिक रूप से विकसित व्यक्ति के निर्णय कम शिक्षित तथा विवेकहीन व्यक्तित्व के निर्णय से अधिक मान्य और विश्वसनीय होते हैं । इस भेद को स्वीकार करने के साथ ही वे यह मानते हैं कि दोनों के ही निर्णय परम और निरपेक्ष हैं। अन्तर्बोध के निर्णयों के उक्त स्वरूपों का यह अर्थ नहीं है कि वे बोधगम्य नहीं हैं। अंकगणित के स्वयंसिद्ध मूल सूत्रों की तरह अन्तर्बोध के निर्णयों का ज्ञान बुद्धिग्राह्य और सहज है। साथ ही यह सच है कि उन निर्णयों को शब्दों अथवा तर्क द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता एवं बौद्धिक प्रमाण नहीं दिया जा सकता और न सामान्य बोध की दुहाई देकर ही सिद्ध किया जा सकता है। उसके विरुद्ध किसी प्रकार का भी कथन सम्भव नहीं है। - कुछ सहजज्ञानवादी अन्तर्बोध को एक प्रकार की छठी इन्द्रिय मानते हैं। जिस भाँति हम नेत्रेन्द्रिय से यह स्पष्ट और प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि किसी वस्तु २४४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का रंग क्या है, उदाहरणार्थ, आँख बतला सकती है कि दृश्य वस्तु लाल है अथवा पीली, उसी भांति इस छठी इन्द्रिय से नैतिक मान्यताओं का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हो सकता है। वह कर्मों के सदसत् का ज्ञान देती है। पुनः जिस भाँति नेन्द्रिय जन्मजात एवं सहजात और सार्वभौमिक है उसी प्रकार नैतिक इन्द्रिय भी जन्मजात और सार्वभौमिक है। वह स्वतःजात और नैसर्गिक है। अन्तर्बोध सार्वभौमिक एवं सार्वजनीन है । वह सब व्यक्तियों में है। अन्तर्बोध को सार्वभौमिक कहने के साथ ही सहजज्ञानवादियों ने कुछ अपवाद स्वीकार किये हैं। उनका कहना है कि ये अपवाद अन्तर्बोध की सार्वभौमिकता का निराकरण नहीं कर सकते हैं । समान रूप से नेत्रेन्द्रिय होने पर भी कुछ लोग रंग-अन्ध होते हैं। उसी प्रकार कुछ व्यक्तियों का अन्तर्बोध भ्रान्तिपूर्ण होता है। रंगान्धता यह सिद्ध नहीं करती है कि जनसामान्य को नेत्रों द्वारा रंग की पहचान नहीं हो सकती और कुछ लोगों का भ्रान्तिपूर्ण अन्तर्बोध यह सिद्ध नहीं करता कि लोगों में सहजज्ञान की शक्ति नहीं है । ऐसी स्थिति में अन्तर्बोध को शिक्षित और माजित किया जा सकता है। अन्तर्बोध सदसत् को पहचानने की वह शक्ति है जो तत्काल बतला देती है कि वांछनीय और उचित क्या है, अपने-आप में शुभ क्या है ? जिस भाँति घ्राणेन्द्रिय के लिए यह नहीं कह सकते कि जिस गन्ध को वह बुरा कहती है वह गन्ध क्यों बुरी है, उसी भाँति अन्तर्बोध किसी कर्म को शुभ या वांछनीय क्यों कहता है, यह नहीं कहा जा सकता। अन्तर्बोध के पक्ष अथवा विपक्ष में कोई बौद्धिक प्रमाण नहीं दे सकते हैं । अन्तर्बोध का निर्णय सब कालों, सब देशों और सब अवस्थाओं में समान रूप से सत्य है । अतः अन्तर्बोध द्वारा व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में अपने कर्तव्य को निर्धारित कर सकता है। उसे उसी कर्तव्य और नियम को स्वीकार करना चाहिए जिसे कि अन्तर्बोध का पूर्ण समर्थन प्राप्त हो । अन्तर्बोध ही नैतिकता का मानदण्ड और प्रमाण है। सहजज्ञानवाद का सिद्धान्त कहाँ तक नैतिकता के मानदण्ड को दे सका है, कर्मों के औचित्य को निर्धारित करने के लिए कितनी सम्यक् तुला दे सका है, यह सहजज्ञानवाद के विभिन्न सिद्धातों का अध्ययन ही बतायेगा। सहजज्ञानवाद | २४५ For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ सहजज्ञानवाद (परिशेष) कुछ महत्त्वपूर्ण सहजज्ञानवादी बुद्धिवादी सहजज्ञानवाद : परिचय-कम्बरलैण्ड और केम्ब्रिज के सहजज्ञानवादियों ने, जो प्लेटो के मूलगत सिद्धान्त को स्वीकार करने के कारण केम्ब्रिज प्लेटोनिस्ट्स'' कहलाये, नैतिक विचारों की नित्यता और स्थिरता को सिद्ध करने का प्रयास किया और साथ ही उन्होंने मनुष्य की बौद्धिक और सामाजिक प्रकृति को भी समझाया । इन विचारकों ने ही बुद्धिवादी सहजज्ञानवाद' को जन्म दिया। बाद को इसी विचारधारा का विकास 'नैतिक बोधवाद' के नाम से हमा। कम्बरलैण्ड और केम्ब्रिज के सहजज्ञानवादियों ने हॉब्स के विरुद्ध यह कहा कि नैतिक निर्णय शाश्वत और निरपेक्ष हैं, रूढ़िगत और कृत्रिम नहीं। वे बद्धि की अभिव्यक्ति हैं न कि संकल्प की, चाहे वह संकल्प मनुष्य का हो या ईश्वर का। हॉब्स ने नैतिक विभक्तियों को सामाजिक समझौते के द्वारा समझाया और ईश्वरनिष्ठ विचारकों ने उन्हें भगवत् संकल्प की अभिव्यक्ति कहा । पर बुद्धिवादी सहजज्ञानवादियों का कहना है कि नैतिक विभक्तियों का अस्तित्व लोकमत और सामाजिक समझौते से स्वतन्त्र है, इसलिए नैतिक विभक्तियाँ न तो मनुष्य के और न भगवान के ही स्वतन्त्र संकल्प या शक्ति द्वारा निर्धारित हो सकती हैं । 1. Cambridge Platonists. २. कडवर्थ, कम्बरलण्ड, क्लार्क, वलेस्टन आदि । 3. Rational Intuitionism. २४६ / नीतिशास्त्र : For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिवादी सहजज्ञानवाद : कडवर्थ नैतिक विभक्तियाँ शाश्वत हैं — कडवर्थ,' जो कि केम्ब्रिज प्लेटोनिस्ट्स का नेता था, इस वर्ग का सबसे प्रसिद्ध विचारक हुआ । उसने हॉब्स के परम स्वार्थवाद और प्रकृतिवाद के विपरीत यह बतलाने का प्रयत्न किया कि नैतिक मान्यताओं एवं नैतिक विभक्तियों का, वैयक्तिक एवं सामाजिक विचार, लोकमत, सिद्धान्त अथवा सामाजिक समझौते से स्वतन्त्र, अपना निश्चित और निरपेक्ष अस्तित्व है । ईश्वरविद्या को माननेवाले धर्मनिष्ठों के विरुद्ध वह कहता है कि भगवान् अपने कर्म नैतिकता के शाश्वत और अनिवार्य प्रत्ययों के अनुरूप निर्धारित करते हैं । अत: मात्र संकल्प शुभ को अशुभ या अशुभ को शुभ नहीं बना सकता है । शुभ और अशुभ की धारणाएँ शाश्वत हैं, वे संकल्प की उपज नहीं हैं । नैतिक विभक्तियाँ वस्तुओं के प्राभ्यन्तरिक गुणों की सूचक हैं, उनका वस्तुगत अस्तित्व है । I प्लेटो का प्रभाव - प्लेटो से प्रभावित होकर कडवर्थ हॉब्स के संवेदनवादी अनुभववाद की आलोचना करते हुए कहता है कि संवेदनाएं स्थायी सत्ता का ज्ञान नहीं दे सकती हैं । ज्ञान के वास्तविक विषय सार्वभौम प्रत्यय हैं और वे बोधगम्य हैं । उनका ज्ञान अनुभव-निरपेक्ष है, संवेदनजन्य नहीं । नैतिक प्रत्ययों, उदाहरणार्थ, कर्तव्य, न्याय आदि का हम अनुभव नहीं कर सकते । स्पर्शेन्द्रिय, नेत्रेन्द्रिय, रसेन्द्रिय द्वारा हम उनका स्पर्श, दर्शन और आस्वादन नहीं कर सकते हैं । वे प्रत्यय सार्वभौम, नित्य और शाश्वत हैं, प्रत्युत्पन्न, प्रकृत्रिम और स्वार्थजन्य नहीं । नैतिक नियम वस्तुओं के सार में निहित हैं, अथवा शुभ वस्तुगत और स्वाभाविक है । नैतिक प्रत्यय वे प्रत्यय हैं जो कि बुद्धिसम्मत हैं । अतः गणित के सत्यों की भाँति नैतिकता के सत्यों का सम्बन्ध विशिष्ट संवेदनों से नहीं किन्तु वस्तुनों के बोधगम्य और सार्वभौम तत्त्व से है । वे उतने ही चिरन्तन हैं जितना कि वह शाश्वत मानस जिसकी सत्ता इनसे अभिन्न है । वैज्ञानिक और नैतिक सत्यों का सादृश्य — कडवर्थ यह मानता है कि भगवान् मूल मानस हैं । उनके मानस में विज्ञान और नैतिकता के शाश्वत विचारों का मूल प्रतिरूप है । विज्ञान और नैतिकता के सत्यों के ज्ञान का मूल स्रोत एक ही है । कृतिबुद्धि और विचारबुद्धि एक ही हैं। नैतिकता के विचार 1. Ralph Cudworth 1617-1688. सहजज्ञानवाद ( परिशेष) / २४७ For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतने ही वस्तुगत और नित्य हैं जितने कि विज्ञान के विचार । शुभ और अशुभ की विभक्तियों की वस्तुगत सत्ता को बुद्धि द्वारा उसी भाँति समझाया जा सकता है जिस प्रकार देश और संख्या के सम्बन्धों को । नैतिक प्रत्ययों के स्वरूप और वस्तुगत श्रेष्ठता को केवल बुद्धि से ही समझ सकते हैं यद्यपि यह सच है कि नैतिक विभक्तियों का ज्ञान मनुष्य के मानस में दिव्य मानस से आता अन्तर्बोध और शुभ का आचरण-कडवर्थ का यह भी कहना है कि आचरण को निर्देशित करने के लिए हमें किसी बाह्य शक्ति की सहायता नहीं लेनी होती है। मनुष्य का बोध सहज रूप से उन नैतिक सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है जो शाश्वत, नित्य और अनिवार्य हैं; जो सार्वभौम और स्वतःसिद्ध हैं। नैतिक सिद्धान्त या प्रमेय बौद्धिक प्राणियों के आचरण को निर्देशित करने के लिए उतनी ही अपरिवर्तनशील प्रामाणिकता रखते हैं जितनी कि रेखागणित के सत्य । कडवर्थ का कहना है कि मनुष्य के पास एक विशिष्ट गुण अथवा नैतिक शक्ति एवं अन्तर्बोध है जिसका स्वरूप बौद्धिक है। इसके निर्णय प्रत्यक्ष और परम होते हैं। व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह इस शक्ति को विकसित करने के लिए प्रयास करे। इस शक्ति के विकास पर ही नैतिक प्रगति निर्भर है। उचित आचरण उचित निर्णय पर निर्भर है और उचित निर्णय के लिए नैतिक सिद्धान्तों के सम्यक् ज्ञान की पूर्व सत्ता आवश्यक है। अज्ञान के कारण ही हम अनैतिक आचरण को अपनाते हैं। यदि हम नैतिक सिद्धान्त का उचित ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ हैं तो हमें चाहिए कि शुभ चरित्र के बौद्धिक व्यक्तित्व के लोगों के ज्ञान से लाभ उठायें। बुद्धिवादी सहजज्ञानवाद का पालोचनात्मक मूल्यांकन हॉब्स के स्वार्थवाद पर असफल प्राघात-बुद्धिवादी सहजज्ञानवादियों ने हॉन्स के विरुद्ध यह समझाने का प्रयास किया कि उचित-अनुचित की धारणाएँ शाश्वत हैं। हॉब्स ने एक ओर तो यह माना कि प्रकृति के नियम नित्य और शाश्वत हैं और दूसरी ओर मानव-स्वभाव की स्वार्थ-मूलक व्याख्या करते हुए यह कहा कि स्वार्थ की सिद्धि के लिए अत्युत्तम साधन यह है कि व्यक्ति समझौते के नियमों का पालन करे। हॉब्स के इस कथन में जो सत्य है हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते । किन्तु बुद्धिवादियों ने अपनी आलोचना के आवेश में यह कह दिया कि हॉब्स के अनुसार शुभ और अशुभ के भेद को मनुष्य २४८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मित समझौते द्वारा निर्धारित किया गया है । वास्तव में बुद्धिवादियों की आलोचना का केन्द्र हॉब्स की राजनीतिक निरंकुशता है जिससे यह ध्वनि निकलती है कि उचित, अनुचित की धारणाएँ सामाजिक समझौते द्वारा निर्मित हैं और धार्मिक कर्तव्य से हमारा अभिप्राय उस शक्तिशाली की स्वतन्त्र इच्छाश्नों का भयवश पालन करने से है जो दण्ड और पुरस्कार द्वारा हम पर आरोपित की जाती हैं। हॉब्स के सिद्धान्त की रिक्तता को सिद्ध करने के लिए बुद्धिवादियों ने स्वार्थ और परमार्थ के प्रश्न को हल करने का प्रयास किया किन्तु वे असमर्थ रहे । हॉब्स के मनोवैज्ञानिक स्वार्थवाद को पराजित किये बिना बौद्धिक नैतिकता का सिद्धान्त सफलतापूर्वक स्थापित नहीं हो सकता । जब तक कि ग्रात्म- प्रेम और सामाजिक कर्तव्य में सन्तुलन स्थापित नहीं किया जायेगा तब तक सामाजिक कर्तव्य के औचित्य की अधिक-से-अधिक बौद्धिक अभिव्यक्ति बुद्धि और आत्म- प्रेम (जो मनुष्य के रागात्मक स्वभाव का स्वाभाविक अंग है ) में विरोध बढ़ाती जायेगी । यही कारण है कि बुद्धिवादी परोपकार और आत्म-प्रेम में समन्वय स्थापित नहीं कर पाये । शुभ का स्वरूप : अमूर्त - प्लेटो और अरस्तू के शुभ की धारणा को स्वीकार करते हुए बुद्धिवादियों ने समझाया कि सत्य सार्वभौम और वस्तुगत है; उसका स्वरूप बौद्धिक है । गणित और विज्ञान के स्वतः सिद्ध मूल सूत्रों की भाँति नैतिक सत्य भी सहज और बुद्धि ग्राह्य है । शुभ-अशुभ की धारणाएँ समझौते या स्वेच्छाचारी संकल्प का परिणाम नहीं हैं । नैतिक सत्य सार्वभौम है । नैतिक सत्य के सार्वभौम स्वरूप को ही काण्ट ने अपने सिद्धान्त में अत्यधिक महत्त्व दिया । कडवर्थ और क्लार्क एवं बुद्धिवादी सहजज्ञानवादी शुभ के मूर्त स्वरूप को समझाने में असफल रहे । जब हम यह पूछते हैं कि शुभ कर्म से क्या अभिप्राय है; उचित कर्म का क्या रूप है; तो हमें उचित अथवा शुभ की स्पष्ट व्याख्या नहीं मिलती वरन् विभिन्न शब्दों की भूलभुलैया में भटकना पड़ता है । बुद्धिवादियों का यह कहना कि उचित कर्म विवेकसम्मत, बुद्धिग्राह्य या स्वाभाविक है, पर्याप्त नहीं है । यह शुभ के स्वरूप का स्पष्टीकरण करना नहीं है, एक ही बात को घुमा-फिराकर कहना है । हॉब्सवाद से मुख्य भेद - निष्पक्षता का सिद्धान्त - वास्तव में हॉब्सवाद और प्लेटोवाद का मुख्य भेद यह है कि जहाँ पर हॉब्स ने आत्मस्वार्थ के लिए नैतिक आदेशों का पालन करने एवं दूरदर्शिता से काम करने के लिए कहा वहाँ प्लेटो के अनुयायियों ने नैतिक व्यक्ति को सजातीयों के लिए त्याग का सहजज्ञानवाद ( परिशेष ) / २४६ For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त समझाया । दूसरों के प्रति हमारा वैसा ही आचरण होना चाहिए जैसा कि हम दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं । निष्पक्षता या समानता का ऐसा सिद्धान्त हॉब्स के परम स्वार्थवाद की असत्यता सिद्ध करता है। क्लार्क ने समानता को बहुत महत्त्व दिया है और उस आधार पर समझाया है कि सत्य सार्वभौम और वस्तुगत है, इसका अस्तित्व किसी के भी स्वतन्त्र संकल्प पर निर्भर नहीं है। काण्ट ने 'प्रत्येक को साध्य मानो' कहकर समानता की धारणा को ही पूर्ण और स्पष्ट रूप से व्यक्त किया। जैसा कि हम देख चके हैं, उपयोगितावादियों ने अपना समानता का यह सिद्धान्त कि 'प्रत्येक व्यक्ति की गणना एक है' सहजज्ञानवादियों से ही लिया। व्यावहारिक और चिन्तनबुद्धि का क्षेत्र–बाह्य जगत् से रूपक लेने के कारण बुद्धिवादी, सहजज्ञानवादी विशेषकर कडवर्थ और क्लार्क, एक भूल और करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि नैतिक जगत में व्यावहारिक बुद्धि और चिन्तबुद्धि भिन्न हैं। वे इन दोनों को एक ही मान लेते हैं । न्याय, संयम आदि नैतिक आदर्शों को और कार्य-कारण, परिमाण आदि बाह्य जगत् की धारणाओं को समान रूप से बुद्धि का विषय मान लेते हैं। काण्ट ने सहजज्ञानवादियों की इस भूल को दूर किया । कडवर्थ और क्लार्क के साथ यह स्वीकार करते हुए कि कर्मों का औचित्य वस्तुगत है और इसलिए नैतिक नियम बुद्धि के विषय हैं न कि भावना के, जो कि आत्मगत और वैयक्तिक है, वह उनके सिद्धान्त को अधिक विकसित करता है। जहाँ तक बुद्धि के दोनों रूपों (व्यावहारिक और चिन्तन-सम्बन्धी) का प्रश्न है वे सीमाओं से घिरे हुए व्यक्ति के लिए भिन्न हैं, यद्यपि पूर्ण ज्ञान इनमें ऐक्य स्थापित करेगा । अतः मानव-जीवन की व्याख्या करते हुए काण्ट कहता है कि चिन्तनबुद्धि के द्वारा उन सत्यों-ईश्वर, आत्मा और संकल्प-स्वातन्त्र्य-को सिद्ध नहीं किया जा सकता, जो व्यावहारिक बुद्धि की आवश्यक मान्यताएँ हैं। गणित और पदार्थविज्ञान के रूप की सीमाएँ—गणित और पदार्थविज्ञान के रूप को क्लार्क पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेता है और इस कारण विकासवादी सूखवादियों की भाँति यह भूल जाता है कि नीतिशास्त्र आदर्श विधायक सिद्धान्त है । वह यह जानना चाहता है कि हमें क्या करना चाहिए। भौतिक नियम हमें केवल तथ्य का ज्ञान देते हैं और क्या है' के स्वरूप को समझाते हैं । क्लार्क के अनुसार भौतिक नियम जगत् की प्रत्येक वस्तु को नियमों के अधीन बतलाते हैं। कर्म के औचित्य-अनौचित्य को भी हम नियम के प्राधार २५० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर समझ सकते हैं। भगवान् ने ही प्राकृतिक नियम दिये हैं। भगवान् ने ही कुछ कर्मों को पर्याप्तता दी है । नैतिक और प्राकृतिक नियम शाश्वत और नित्य हैं । नैतिक बोध द्वारा कर्मों की पर्याप्तता और अपर्याप्तता को समझकर हमें पर्याप्त कर्मों को स्वीकार करना चाहिए। किन्तु क्लार्क भी क्या है' और 'क्या होना चाहिए' के भेद को भूल जाता है। यही कारण है कि प्रयास करने पर भी वह प्रात्मप्रेम और सद्गुण के बीच संगति स्थापित करने में असमर्थ रहा । व्यावहारिक बुद्धि के सहजज्ञानों के विरोध को गणित के सहजज्ञान द्वारा समझाना यथार्थ और आदर्श विज्ञान के भेद को भूलना है । क्लार्क के अनुयायी, वलेस्टन ने नीतिशास्त्र और तर्कशास्त्र में पूर्ण ऐक्य मानकर नीतिशास्त्र को तर्कशास्त्र पर आधारित करके अपने सिद्धान्त को अत्यधिक आलोचना का विषय बना दिया। नैतिक बोधवाद सामान्य परिचय-नैतिक बोधवादियों एवं सौन्दर्यवादियों ने अपने नैतिक बोध (moral sense) के आधार पर समझाया कि सुन्दर-असुन्दर का भेद विषयक जो नन्दतिक बोध होता है उसी की भाँति शुभ और अशुभ सहजबोध होता है। जिस भाँति सौन्दर्य का बोध वस्तुओं की सुन्दरता और असुन्दरता से प्रभावित होता है। उसी भाँति नैतिक बोध भी कर्मों के नैतिक या अनैतिक गुण से प्रभावित होता है । अथवा नैतिक बोध नन्दतिक बोध की भाँति है। हम ऐसे सहजबोध की व्याख्या कर सकते हैं। हमारी बुद्धि इन बोधों को समझ सकती है । सौन्दर्यवादियों का यह भी कहना है कि नैतिक बोध मनुष्य को उसकी सामाजिक प्रकृति की देन है। जो समाज के लिए लाभदायक है वह स्वभावतः शुभ है और जो हानिप्रद है उसे हम सहज ही अशुभ कह देते हैं। सहजज्ञानवाद की विभिन्न शाखाओं का अध्ययन बतलाता है कि सौन्दर्यवादियों का यह दृष्टिकोण एक जलाशय के समान है जिससे अनेक नैतिक धाराएँ प्रवाहित होती हैं। ____ हॉब्स की आलोचना-हॉब्स ने कहा कि व्यक्ति केवल अपनी ही इच्छाओं की तृप्ति करता है। इससे उसका अभिप्राय यह था कि व्यक्ति केवल अपने सुख और जीवन के संरक्षण की चिन्ता करता है। सौन्दर्यवाद का प्रतिनिधित्व करनेवाले विचारकों, हचिसन और शैफ्टसबरी ने मुख्य रूप से हॉस के इस कथन की आलोचना की। उन्होंने बुद्धिवादियों के साथ हॉब्स के विरुद्ध एक सहजज्ञानवाद (परिशेष) /२५१ For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर तो यह स्वीकार किया कि नैतिक विभक्तियाँ शाश्वत हैं और दूसरी ओर यह कहा कि (विशेषकर शैफ्ट्सबरी ने) आत्म-स्वार्थ द्वारा किये हुए कर्म और सद्गुण द्वारा किये हुए कर्म में संगति है। उनका कहना है कि वैयक्तिक शुभ और सामाजिक शुभ एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं क्योंकि समाज, एक आवयविक समग्रता (organic whole) है। बुद्धिवादी सहजज्ञानवादियों से भेद-बुद्धिवादी सहजज्ञानवादी सामाजिक आचरण या कर्तव्य के लिए कोई ठोस मनोवैज्ञानिक आधार नहीं दे पाये। उन्होंने सामाजिक आचरण को केवल अमूर्त बुद्धि के सिद्धान्त द्वारा समझाया। ऐसी स्थिति में जब बुद्धि और स्वाभाविक आत्म-प्रेम में विरोध उठता है तो व्यक्ति कठिनाई में पड़ जाता है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए ही क्लार्क ने सार्वभौम परोपकारिता को बुद्धिसम्मत कहा और कम्बरलण्ड ने उन प्रवृत्तियों को स्वीकार किया जो मनुष्य को सजातीयों की सेवा करने के लिए प्रेरित करती हैं। सौन्दर्यवादियों ने नैतिक बोध को मनुष्य की सामाजिक प्रकृति की देन कहकर स्वाभाविक भावनाओं द्वारा व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बाँध दिया । शैफ्टसबरी से पूर्व किसी भी नीतिज्ञ ने इस तथ्य को पूर्ण महत्त्व देते हुए नहीं कहा कि सामाजिक आचरण के मूल में रागात्मक आवेग हैं। शैफ्ट सबरी ने अनुभव का विश्लेषण करते हुए यह समझाया कि मनुष्य की स्वार्थ और निःस्वार्थ की प्रवृत्तियों में संगति है । नैतिक बोधवाद की आलोचना नैतिक बोध का हठपूर्वक समर्थन-नैतिक बोधवादियों ने अपने सिद्धान्त द्वारा विशेषकर इस पर बल दिया कि हमें नैतिक बोध के सिद्धान्त पर चिन्तनमनन करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह स्वभावतः प्रत्येक संस्कृत रुचि में समाहित है । अत: यह वह सिद्धान्त है जो केवल नैतिक बोध के अस्तित्व को समझाता है और उसकी प्रामाणिकता को सिद्ध करने का प्रयास नहीं करता। ऐसा सिद्धान्त हमारी जिज्ञासा को पर्याप्त सन्तुष्ट नहीं करता। महत्त्वपूर्ण देन-नैतिक बोधवादियों को हम बुद्धिवादी सहजज्ञानवादियों की प्रतिक्रिया के रूप में समझ सकते हैं। यद्यपि वे बुद्धिवादियों के साथ स्वीकार करते हैं कि हॉब्सवाद विपज्जनकवाद है, तथापि उन्होंने उनकी अमूर्त बौद्धिक धारणा की आलोचना की। अतः नैतिक बोधवाद अमूर्त बुद्धिवाद और परमस्वार्थवाद का मध्यवर्ती दृष्टिकोण है। उपर्युक्त दुर्बलताओं के होते हुए २५२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 भी शैफ्ट्सबरी और हचिसन का सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण सत्य से अछूता नहीं है प्रत्येक निर्णय में एक सहज या अपरोक्ष तत्त्व रहता है, इसमें सन्देह नहीं है । यदि हम सामान्य सिद्धान्तों के आधार पर भी विशिष्ट ध्येयों का मूल्यांकन करें तो भी हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हम उपर्युक्त सत्य का निराकरण नहीं कर सकते हैं । सर्वोच्च सार्वभौम सिद्धान्त का ज्ञान सहज रूप से ही होता है. क्योंकि सर्वोच्च होने के कारण उसका सरलीकरण नहीं किया जा सकता । किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि ऐसे अनिवार्य सहज निर्णय अधिकतर अविश्वसनीय हैं जो कि व्यावहारिक जीवन की उन स्थितियों के लिए आवश्यक हैं जहाँ सतर्क चिन्तन असम्भव है । शैफ्ट्सबरी और हचिसन ने यह समझाया कि शुभ केवल उस अमूर्त सार्वभौम सत्य को नहीं कहते जो विशिष्ट वैयक्तिक अनुभवों द्वारा दुर्गम है। उन्होंने कहा कि विशिष्ट शुभ का प्रत्यक्ष बोध या भोग, चाहे वह सुख हो या मानसिक क्रिया या कोई अन्य विषय, एक सहज क्रिया है । शुभ का ऐसा स्वरूप यह बतलाता है कि उसका सम्बन्ध व्यक्तिगत चेतना से है । शुभ अपने में ही सन्तोष देता है और उसका बोध इस रूप में मिल सकता है कि उससे एक या अनेक व्यक्तियों को तत्काल सुख प्राप्त होता है । बटलर श्रान्तरिक और बाह्य निरीक्षण अन्तर्बोध के सर्वोच्च अधिकार की स्थापना करता है—बटलर' अट्ठारहवीं शताब्दी के अंग्रेज़ सहजज्ञानवादियों में व्यावहारिक दृष्टि से सर्वाधिक गम्भीर विचारक है । उसने क्लार्क की अनुभवनिरपेक्ष बौद्धिक प्रणाली की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हुए स्वयं आगमनात्मक प्रणाली को अपनाया । उसने नीतिशास्त्र को मानव स्वभाव के अनुभूत तत्त्वों पर आधारित किया । उसके अनुसार निरीक्षण द्वारा हम यह बतला सकते हैं कि मानव जीवन का उद्देश्य क्या है । इस उद्देश्य के लिए कर्म करने में ही मनुष्य को वास्तविक श्रानन्द प्राप्त होता है । अन्तर्मुखी निरीक्षण बतलाता है कि मनुष्य का स्वभाव उस प्राणी की भाँति नहीं है जो सामान्य रूप से कुछ नियमों के अनुसार कर्म करता है किन्तु वह उसकी भाँति है जिसे कि कुछ आदर्श सिद्धान्तों के अनुसार कर्म करना चाहिए; चाहे, वास्तव में, वह उन आदर्शों के अनुरूप कर्म 1. Joseph Butler, 1692-1752. सहजज्ञानवाद ( परिशेष ) / २५.३ For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे या न करे । निरीक्षण तथा अन्तर्निरीक्षण द्वारा बटलर इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि नैतिक बाध्यता की चेतना मानव स्वभाव का एक सत्य है और यह चेतना इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि नैतिक बाध्यता एक वस्तुगत सत्य है । अत: नैतिक कर्तव्य को बाध्यता आन्तरिक है, बाह्य नहीं । इस प्रान्तरिक शक्ति के कारण मनुष्य अपना नियम स्वयं है । बटलर अन्तर्बोध के आदेश अथवा अधिकार को सर्वोच्च मानता है श्रौर कहता है कि इस सर्वोच्चता को समझाने के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अन्तर्बोध अपने इस अधिकार को अपने साथ रखता है कि वह हमारा प्रकृतिदत्त निर्देशक है और वह निर्देशक हमें हमारी प्रकृति के स्रष्टा द्वारा दिया गया है । धार्मिक मनोवृत्ति - हचिसन और शैफ्ट्सबरी अन्तर्बोध के सर्वोच्च प्रदेश को समझाने में असमर्थ रहे । बटलर नैतिक बोध के बदले अन्तर्बोध का प्रयोग करके तथा उसके आदेश को सर्वोच्च कहकर नैतिक बोधवाद की इस कमी को दूर करने का प्रयास करता है । बटलर के ऐसे सिद्धान्त के मूल में हमें उसके पादरी के व्यक्तित्व की झलक मिलती है । पादरी होने के कारण ही, सम्भव है, बिना व्यवस्थित दर्शन का प्रतिपादन किये वह कहता है कि प्रकृति का स्रष्टा बुद्धिमान है, वह परोपकारी है, वह मनुष्य को उन कर्मों के बारे में शिक्षा देता है जिन्हें करना उसका उद्देश्य है । और जब मनुष्य उन कर्मों को करता है तो उससे स्रष्टा को आनन्द देता है । समाज का श्रावयविक रूपक - जहाँ तक मानव समाज की श्रावयविक समग्रता के रूप का प्रश्न है, बटलर शैफ्ट्सबरी का पर्याप्त ऋणी है । बटलर के अनुसार समाज एक विधान की भाँति है जिसके अंश स्वतन्त्र रूप से कर्म नहीं कर सकते हैं । समाज को स्वभावतः श्रावयविक समग्रता मानकर वह हॉब्स के विरुद्ध यह समझाता है कि समाज स्वार्थी इकाइयों के समझौते का अस्वाभाविक परिणाम नहीं है । मनुष्य का स्वभाव इतना अधिक सामाजिक है कि यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने सत्य स्वभाव के अनुरूप कर्म करने लगे तो समाज एक पूर्ण श्रावयविक विधान बन जायेगा जिसके अंग समग्र के हित के लिए क्रियाशील होंगे । बटलर के अनुसार हमें मानव स्वभाव से जितना स्पष्ट आभास इस बात का मिलता है कि हम मानव समाज के लिए बनाये गये हैं और अपने सजातीयों के आनन्द और कल्याण की वृद्धि करने के लिए हैं, उतना ही स्पष्ट श्राभास इस बात का भी मिलता है कि हम अपने जीवन, तथा व्यक्तिगत शुभ की चिन्ता करने के लिए बनाये गये हैं । स्वास्थ्य २५४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य का स्वभाव : सामाजिक - मनुष्य और समाज के प्रान्तरिक सम्बन्ध को वह मनुष्य-स्वभाव के सामाजिक पक्ष की दुहाई देकर समझाता है । वह कहता है कि मनुष्य के स्वभाव तथा उसकी प्रवृत्तियों के अध्ययन द्वारा हम सिद्ध कर सकते हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है । इन सामाजिक प्रवृत्तियों को समझाने के लिए वह तीन तर्क प्रस्तुत करता है । (१) मनुष्य में परोपकार का स्वाभाविक सिद्धान्त मिलता है । परोपकार के कारण ही मनुष्य दूसरों के शुभ को प्रत्यक्ष रूप से खोजता है और दूसरों के कल्याण में सन्तोष प्राप्त करता है । उसके अनुसार मनुष्य की सत्र प्रवृत्तियाँ स्वार्थी नहीं हैं । दया, मित्रता, पितृस्नेह, अपत्यप्रम आदि प्रवृत्तियाँ स्वार्थ निरपेक्ष हैं । इन प्रवृत्तियों - के कारण मनुष्य उसी प्रकार दूसरों के सुख की चिन्ता करता है जिस प्रकार आत्मप्रेम के कारण निजी सुख की । ( २ ) लोक प्रवृत्तियाँ वे प्रवृत्तियाँ हैं जिनको न तो हम परोपकार के वर्ग में रख सकते हैं और न श्रात्म-प्रेम के । वे इन दोनों से भिन्न हैं, क्योंकि वे केवल वैयक्तिक और लोक-हित की ही उन्नति नहीं करतीं बल्कि समान रूप से दोनों की वृद्धि करती हैं । व्यक्त रूप से वे कुछ विशिष्ट ध्येयों -- सामाजिक प्रेम, दूसरों का प्रदर, आत्म-सम्मान की इच्छा, कुकर्मों के प्रति घृणा आदि - की प्राप्ति के लिए प्रयास करती हैं किन्तु अव्यक्त रूप से वे सामान्य सुख की वृद्धि करती हैं । इस प्रकार वे सामाजिक एकता को स्थापित करने में क्रियाशील रहती हैं । ( ३ ) अन्तर्बोध या चिन्तन का सिद्धान्त : इसके द्वारा व्यक्ति अपने हृदय, स्वभाव और कर्मों का समर्थन या असमर्थन करता है । अन्तर्बोध नैतिक समर्थन और समर्थन की शक्ति है । मनुष्य-स्वभाव में जो दो विरोधी प्रवृत्तियाँ, स्वार्थमूलक और परार्थमूलक अथवा आत्मप्रेम और परोपकार की मिलती हैं उन प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखने के लिए ही अन्तर्बोध या चिन्तन का सिद्धान्त है । अन्तर्बोध-विरोधी प्रवृत्तियों को सुनिर्देशित करता है अतः वह उन दोनों से श्रेष्ठ है । अन्तर्बोध मनुष्य को आत्महित के समान ही लोकहित के लिए कार्य करने को प्रेरित करता है । यही कारण है कि यदि किसी व्यक्ति में परोपकार की प्रवृत्ति क्षीण होती है तो अन्तर्बोध उस कमी को दूर कर देता है । 1 मानव स्वभाव भी एक विधान है - मनुष्य-स्वभाव की प्रवृत्तियों के विश्लेषण द्वारा बटलर ने यह समझाया कि मनुष्य का मानस प्रवयविक समग्रता या संयोजित पूर्णता है । वह विरोधी तत्त्वों का समुदायमात्र नहीं है । मानवजाति भी केवल व्यक्तियों का समूह नहीं है प्रत्युत वह एक सुव्यवस्थित अंगी या सहजज्ञानवाद ( परिशेष) / २५५ For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधान है। इसलिए किसी के लिए भी यह सम्भव नहीं है कि वह अपने हित और सामाजिक हित में स्पष्ट भेद देखे । यह अवश्य है कि कुछ में स्वाभाविक सामाजिक प्रवत्तियों का अभाव है। पर इसके विपरीत यह कह सकते हैं कि कुछ में अपने हित की समझ भी नहीं है । जहाँ तक मनुष्य के सामान्य स्वभाव का प्रश्न है उसे हम इन अपवादों के आधार पर नहीं समझ सकते हैं । प्लेटो की भाँति बटलर मानव-प्रात्मा की तुलना राज्य-विधान से करता है । ऐसे विधान की धारण यह इंगित करती है कि राज्य के प्रत्येक भाग अथवा प्रत्येक नागरिक का अपना विशिष्ट कर्मक्षेत्र होता है और सब नागरिक अधिकारतः केन्द्रीय सरकार के अधीन होते हैं। जब हम विधान की धारणा का प्रयोग मनुष्य के स्वभाव पर करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्तर्बोध के परम आदेश की सीमा के अन्दर ही सब प्रवृत्तियाँ और आवेग उचित रूप से अपनी तुष्टि कर सकते हैं। अन्तर्बोध वह नियामक तत्त्व है जिसे कि हमारे स्वभाव के मूर्त सक्रिय अंगों के बीच संगति स्थापित करनी होती है । संगति से क्या अभिप्राय है ? इसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? संगति को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे स्वभाव के विभिन्न तत्त्वों का उपयोग निर्दिष्ट ध्येय की उन्नति करने के लिए हो, न कि उसका विरोध करने के लिए। विधान की धारणा : सत्रिय प्रवृत्तियों का विधान-विधान की धारणा का स्पष्टीकरण करने के लिए बटलर कहता है कि मानव-स्वभाव में अनेक प्रवृत्तियाँ हैं । इनके पारस्परिक सम्बन्ध को समझाने के लिए ही वह प्लेटो की भाँति आत्मा की तुलना राज्य-विधान से करता है । मानव-स्वभाव अनेक तत्त्वों की आवयविक समग्रता है । इन आवयविक समग्रता में अनेक सक्रिय प्रवृत्तियाँ, राग और रुचियाँ हैं। कुछ कर्म की प्रेरणाएँ अन्य कर्म की प्रेरणानों पर शासन करती हैं और कुछ शासित होती हैं। मानव-स्वभाव के मुख्यत: चार तत्त्व(१) विशिष्ट आवेग, राग और प्रवृत्तियाँ, (२) परोपकार, (३) आत्मप्रेम तथा (४) अन्तर्बोध । विशिष्ट आवेग, राग और प्रवृत्तियाँ विशिष्ट विषयों की खोज करती हैं । उदाहरणार्थ, भूख का विषय भोजन है और दया का आर्त के दुःख को दूर करना । प्रात्म-प्रेम वैयक्तिक हित और परोपकार लोक-हित की चिन्ता करता है । अन्तर्बोध सर्वोच्च तत्त्व है । अथवा मनुष्य का स्वभाव अन्तबर्बोध के शासन एवं सर्वोच्च अधिकारों में एक विधान या राज्य की भाँति है। इस विधान के विभिन्न तत्वों के विशिष्ट व्यापार हैं। राज्य के सदस्य होने के कारण प्रत्येक तत्त्व का अपना वैयक्तिक अधिकार और कर्तव्य है। अतः इस '२५६ / नीतिशास्त्र.... For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधान का कोई भी तत्त्व एवं प्रेरणा अपने-आपमें बुरी नहीं है । किन्तु जब कोई प्रेरणा अपनी सीमाओं का उल्लंघन करने लगती है एवं अपने क्षेत्र के बाहर कर्म करने लगती है तो वह बुरी हो जाती है । उदाहरणार्थ, वह उसी भाँति बुरी है जिस भाँति कि वह राज्य जो दूसरे राज्य के व्यापारों पर बलपूर्वक अधिकार कर लेता है । विधान की धारणा बतलाती है कि विशिष्ट आवेग, राग और प्रवृत्तियाँ सहज रूप से एक ओर तो आत्मप्रेम के अधीन हैं और दूसरी ओर परोपकार के । परोपकार को महत्त्व देते हुए बटलर कहता है कि यह हमारे लिए स्वाभाविक और नैसर्गिक है कि हम दूसरों के शुभ के अनुरूप अपनी प्रवृत्तियों को निर्देशित और नियन्त्रित करें | आत्म- प्रेम के लिए वह कहता है कि यह कर्म का सुचिन्तित और नियामक सिद्धान्त है जो आत्मा के स्थायी आनन्द की खोज करता है । श्रात्मा के सुख की खोज करने पर भी वह उन विशिष्ट प्रवृत्तियों गौर रागों की भाँति नहीं है जो विशिष्ट विषयों की खोज - भूख, दर्द से छुटकारा प्रादि- में लीन रहते हैं, बल्कि वह उस सामान्य सुख की खोज करता है जो सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त है | वह विशिष्ट प्रवृत्तियों से श्रेष्ठ है । सक्रिय प्रवृत्तियों का प्रयोग वह अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए करता है । अतः यहाँ पर उसे हम समन्वयात्मक और सामंजस्यात्मक सिद्धान्त के रूप में देखते हैं जो कि बौद्धिक है और इस कारण अन्य सक्रिय प्रवृत्तियों से श्रेष्ठ अधिकार रखता है । बटलर यह भी मानता है कि यदि आत्म-प्रेम बौद्धिक है तो वह अपने ही ध्येय का विरोध करता है । उदाहरणार्थ, जबकि वह विशिष्ट आवेगों को उस सामान्य संगति को भंग करने देता है जो स्थायी प्रानन्द के लिए अनिवार्य है । 1 अन्तर्बोध तथा अन्य प्रवृत्तियाँ - परोपकार और आत्म- प्रेम से श्रेष्ठ चिन्तन का सिद्धान्त या अन्तर्बोध है । यही औचित्य का नियम है। आत्म-प्रेम की भाँति यह भी कर्म का सुविन्तित और नियामक सिद्धान्त है, पर साथ ही यह वह शक्ति है जिसका प्रभुत्व परम है । यह अपना अधिकार बौद्धिक आत्म- प्रेम को प्रदान करता है और विशिष्ट सामाजिक कर्तव्यों का भी उपभोग करता है । अन्तर्बोध अन्य प्रवृत्तियों पर परम अधिकार रखता है, किन्तु साथ ही यह उन पर निर्भर भी है क्योंकि मनुष्य में बुद्धि या अन्तर्बोध अपने-आपमें सद्गुण उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त प्रेरक नहीं है । वह केवल निर्देशक है और अपने प्रदेश के अनुपात में शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता है । इस कारण उसे प्रवृत्तियों के साथ मैत्री करनी पड़ती है और उनकी वृद्धि को एक उचित मात्रा तक प्रोत्साहित सहजज्ञानवाद ( परिशेष ) / २५७ For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना होता है । वास्तव में वह प्रवृत्तियों को सन्तुलित करके उन्हें अपने अनुकूल बनाता है । अन्तर्बोध - अन्तर्बोध आत्म-प्रेम और परोपकार से श्रेष्ठ है । मानव-विधान अन्तर्बोध का विशिष्ट स्थान होने के कारण इसका सिद्धान्त परम सिद्धान्त है । कर्म और चरित्र का समर्थन और समर्थन करनेवाला यह सिद्धान्त सामान्य राग और प्रवृत्तियों की भाँति केवल हमें प्रभावित ही नहीं करता बल्कि वह स्वभावतः उनसे श्रेष्ठ भी है । यदि उसमें अपने औचित्य के अनुरूप क्षमता भी होती और अधिकार के साथ ही शक्ति भी होती तो आज समस्त विश्व उससे अनुशासित होता । अन्तर्बोध या चिन्तन का सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति में है । वह प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के प्रान्तरिक सिद्धान्तों तथा उसके बाह्य कर्मों के भेदों को समझता है और अपने आप पर तथा उन पर निर्णय देता है । इस प्रकार अन्तर्बोध कर्मों के शुभ और अशुभ को निर्धारित करता है तथा कर्ता के बिना पूछे ही उसके कर्मों के औचित्य - अनौचित्य पर राजकीय गरिमा के साथ अपना निर्णय देता है । अन्तर्बोध स्वभावतः श्रेष्ठ है; यह श्रेष्ठता शक्ति की नहीं किन्तु प्रादेश की है। उसके प्रदेशानुसार कर्म अत्यन्त उच्च और श्रेष्ठ अर्थ में स्वाभाविक है । अतः अन्तर्बोध हमें औचित्य का नियम देता है और प्रत्यक्ष रूप से हमें उस नियम को पालन करने के लिए बाधित करता है । अन्तर्बोध और स्वाभाविक - 'स्वाभाविक' शब्द के विभिन्न अर्थों का परीक्षण कर बटलर इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि मनुष्य के स्वभाव से अभिप्राय उसके अन्तर के उस सिद्धान्त से है जिसका आदेश सर्वोच्च है, यद्यपि यह प्रदेश सदैव प्रभावशील नहीं होता । यही अन्तर्बोध का सिद्धान्त है । अन्तर्बोध का सिद्धान्त ताता है कि कर्म के प्रौचित्य - अनौचित्य को प्राँकने के लिए उसे सम्पूर्ण विधान की दृष्टि से समझना होगा । विधान के स्वभाव के अनुरूप कर्म शुभ और स्वाभाविक है और उसके विपरीत प्रशुभ और अस्वाभाविक । कर्म के औचित्य - चित्य को वैयक्तिक रुचि या अरुचि के सन्दर्भ में नहीं समझना चाहिए । सबसे श्रेष्ठ कर्म है जो स्वभाव या सम्यक् स्वभाव के अनुरूप है । सम्यक् स्वभाव अथवा आदर्श विधान के रूप से कर्म की श्रेष्ठता को कैसे निर्धारित कर सकते हैं ? जिस भाँति घड़ी का मूल्यांकन करने के लिए एक पूर्ण घड़ी की कल्पना कर लेते हैं और उसी के आधार पर घड़ी को अच्छी या बुरी कहते हैं, उसी भाँति सम्यक् या पूर्ण स्वभाव की कल्पना कर लेते हैं । वैसे सम्यक् स्वभाव वह है जिसमें विशिष्ट प्रवृत्तियाँ, दूरदर्शिता और परोपकार की सामान्य प्रवृत्तियों के २५८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधीन हैं और ये दोनों अन्तर्बोध के सर्वोच्च सिद्धान्त के अधीन हैं। यहाँ पर यदि यह प्रश्न उठायें कि विशिष्ट प्रवृत्तियों को सम्यक् स्वभाव में किस सीमा तक तप्त कर सकते हैं अथवा यदि परोपकार और आत्म-प्रेम में विरोध हो तो उस विरोध को कैसे दूर कर सकते हैं तो बटलर की ओर से हमें कोई निश्चित उत्तर नहीं मिलता। वास्तव में यहाँ पर हम अन्तर्बोध के ज्ञानात्मक रूप को स्वीकार कर लेते हैं। कर्म और चरित्र का नैतिक मूल्यांकन करने के लिए चिन्तन और तुलनात्मक दृष्टि की आवश्यकता है। कर्म और चरित्र को सम्पूर्ण के सन्दर्भ में समझना होगा और सम्पूर्ण अथवा स्वभाव के अनुरूप कर्म करना सद्गुण है और विपरीत दुर्गुण है। नैतिक बोध और अन्तर्बोध-शैफ्टसबरी के अन्तर्बोध और बटलर के अन्तबर्बोध में अन्तर है। बटलर नैतिक बाध्यता को अधिक महत्त्व देता है और उसे प्रात्म-प्रेम से श्रेष्ठ अधिकार देता है । नैतिक नियम अान्तरिक है। मनुष्य अपना नियम स्वयं है। अन्तर्बोध का अान्तरिक नियम अनिवार्य अवश्य है किन्तु वह सामान्यतः आत्म-प्रेम के अनरूप है क्योंकि दोनों के लिए ही आवश्यक है कि हम उग्र आवेगों को परोपकारी तथा अन्य प्रवृत्तियों के अधीन रखें । बटलर का ऐसा कथन यह बतलाता है कि सद्गुण, कर्तव्य और आत्मस्वार्थ में संगति है। शंस्टसबरी का कहना है कि वर्तमान जीवन में हम इस संगति को पाते हैं। सद्गुण और आत्म-स्वार्थ को इस जीवन में अनुरूप मानते हुए बटलर इस तथ्य पर महत्त्व देता है कि यह अनुरूपता एवं संगति तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक कि हम भविष्य के जीवन पर भी विश्वास न रखें। इस संगति को मानने पर भी वह अन्तर्बोध के सर्वोच्च अधिकार को नहीं भूलता और कहता है कि वर्तमान जीवन में नैतिक बाध्यता प्रात्म-स्वार्थ से ऊपर है। यही शैफ्ट्सबरी और उसमें प्रमुख भेद है । हचिसन के सिद्धान्त से भी बटलर के सिद्धान्त की भिन्नता सिद्ध की जा सकती है। हचिसन के अनुसार नैतिक बोध एक विशिष्ट शक्ति है जिसके द्वारा हम बाह्य जगत् का ज्ञान उसी भाँति प्राप्त करते हैं जिस भाँति कि हम सौन्दर्य इन्द्रियों से वस्तुओं के सौन्दर्य का ज्ञान प्राप्त करते हैं । बटलर अन्तर्बोध की 'शक्ति' के नाम से अवश्य सम्बोधित करता है किन्तु वास्तव में इससे उसका अभिप्राय उस मनुष्य से है जो कि नैतिक कर्ता माना जाता है। यह मनुष्य की वास्तविक प्रात्मा है और यहाँ पर वह अरस्तू के समीप आ जाता है। अन्तर्बोध वास्तविक आत्मा एवं बुद्धि है। सहजज्ञानवाद(परिशेष) | २५६ For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालोचना विधान की धारणा वैराग्यवाद की विरोधी-बटलर ने मानव-स्वभाव को प्लेटो की भाँति राज्यविधान के आधार पर समझाया और इस प्रकार मानवस्वभाव की स्पष्ट और मूर्त व्याख्या की। मानव-स्वभाव अनेक तत्त्वों की आवयविक पूर्णता है। सभी तत्त्व औचित्य के नियम के अधीन हैं। औचित्य का नियम या अन्तर्बोध ही सर्वोच्च नियामक सिद्धान्त है। इसके कारण ही मानव-स्वभाव में संगति और सामंजस्य है । औचित्य का नियम यह भी बतलाता है कि विभिन्न प्रवत्तियों की तप्ति के लिए नैतिक जीवन में स्थान है। अत: बटलर का अन्तर्बोध वैराग्यवाद का पोषक नहीं है। आत्म-प्रेम और अन्तर्बोध में अधिकतर ऐक्य मिलता है । आत्म-प्रेम बतलाता है कि इच्छानों की सामान्य तप्ति में ही आनन्द निर्भर है और अन्तर्बोध के अनुसार इच्छाओं की सामान्य तृप्ति उचित है। - समन्वयात्मक सिद्धान्त : धर्म का प्राधान्य--बटलर का नैतिक दर्शन उसकी समन्वयात्मक दृष्टि का परिणाम है । प्लेटो, अरस्तू और शैफ्ट्सबरी के सिद्धान्त के साथ उसने ईसाई ईश्वरज्ञान, विशुद्ध नैतिकता, स्टोइकवाद, सुखवाद, प्रचलित नैतिकता आदि का सम्मिश्रण किया। बाद में काण्ट ने विशुद्ध नैतिकता को अपनाकर यह समझाया कि विशुद्ध नैतिकता में अन्य किसी निरोध के लिए स्थान नहीं है। बटलर के सिद्धान्त में जो असंगतियाँ मिलती हैं उनका कारण उसकी समन्वयात्मक दृष्टि है। किन्तु इस समन्वयात्मक प्रयास से भी अधिक स्पष्ट जो हमें मूलतः उसके दर्शन में मिलता है वह उसके पादरी के व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब है। उसके दर्शन का गूढ़ और व्यापक अध्ययन हमको प्रकृतिगत और प्रेरणा द्वारा अजित धर्म की ओर ले जाता है। वह हमें ईसाई धर्म के ईश्वरज्ञान के क्षेत्र में पहुंचा देता है। ऐसी स्थिति में हमें अन्तर्बोध को एक दूसरे अर्थ में समझना पड़ेगा। अन्तर्बोध उस निर्देशक की भाँति है जो सर्वसाधारण के सुख की ओर ले जाता है, जिस सुख में दयालु परमात्मा ने हमारे सुख को भी सम्मिलित किया है । सद्गुण और आनन्द के बाह्य विरोध को दूर करने के लिए वह अन्य अठारहवीं शताब्दी के सहजज्ञानवादियों की भाँति ईश्वरज्ञान सम्बन्धी तर्क देता है। वह यह मानता है कि वर्तमान जीवन भविष्य जीवन के लिए एक साधनमात्र है और इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम इस जीवन में भावी संरक्षण और सुख के लिए एक आवश्यक गुण के रूप में सद्गुण और धर्मनिष्ठ बुद्धि की उन्नति करें। २६० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बटलर के समय में लोगों की नैतिक और धार्मिक प्रवत्ति शिथिल हो चकी थी। ईसाई धर्म की सुप्तावस्था के ज्ञान ने उसे दुःखी कर दिया और उसने अनायास ही ऐसे तर्क प्रस्तुत किये जो ईसाई धर्म के समर्थक हैं । अपने समय के अंग्रेज पादरियों के अनुरूप बटलर में एक मधुर विवेचन-बुद्धि तथा ठोस सामान्यबोध है। काण्ट के और उसके सिद्धान्त में सादृश्य मिलता है किन्तु साथ ही भेद भी है। काण्ट का नैतिक दर्शन एक महान तत्त्वज्ञानी, तर्कप्रिय तथा कट्टर नीतिवादी का दर्शन है और बटलर का एक पादरी का । उपर्युक्त भेद होने पर भी बटलर का नैतिक दर्शन स्पष्टता और सन्तुलन से अछूता नहीं है। उसने उन तथ्यों और प्रवृत्तियों का वर्णन स्पष्ट और बोधगम्य भाषा में किया है जिनसे हम सभी परिचित हैं। परम स्वार्थवाद का मनोवैज्ञानिक खण्डन-मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति को नि:तिक और अनियन्त्रित मानकर हॉब्स ने यह समझाया कि मनुष्य के सुख, शान्ति, जीवन-संरक्षण एवं उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नैतिक नियम साधन हैं और इस अर्थ में वे अनिवार्य हैं ! नैतिक नियम के उदगम का इतिहास बतलाता है कि वे बौद्धिक प्राणिमों के लिए आवश्यक अवश्य हैं पर साथ ही वे परम्परागत होने से समझौते पर निर्भर हैं। बटलर के समय में इस बात का निराकरण करना एक चलन-सा हो गया था कि निःस्वार्थ कर्म सम्भव नहीं हैं । बटलर ने ऐसी धारणा एवं हॉब्स के परम स्वार्थवाद के मनोवैज्ञानिक आधार पर सन्देह किया। उसने एक मनोवैज्ञानिक नीतिज्ञ की भाँति उन सब धारणाओं और सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला जिनके अनुरूप सम्भ्रान्त लोग अनुभव, कर्म और निर्णय करते हैं और यह समझाया कि स्वार्थवादी धारणाओं के मूल में मनोवैज्ञानिक अज्ञान है। अन्य सहजज्ञानवादियों ने भी मानव-स्वभाव तथा मानव-समाज का विश्लेषण करके हॉब्स के परम स्वार्थवाद को अस्वाभाविक कहा । उनके अनुसार हमें अन्तर्बोध के आदेश का पालन करना चाहिए क्योंकि उसका अधिकार स्वाभाविक है। किन्तु अन्तर्बोध के स्वाभाविक अधिकार को वे बटलर की भाँति प्रभावोत्पादक तथा सूक्ष्म युक्तियाँ देकर नहीं समझाते हैं। स्वार्थमूलक सुखवाद की आलोचना करते हुए वह समझाता है कि मानव-स्वभाव व्यवस्थित पद्धति या आवयविक समग्रता है। इस समग्रता में अनेक प्रवृत्तियाँ हैं, जिनके आधार पर वह मूलगत सुखवादी धारणा के विपरीत कहता है कि मनुष्य-स्वभाव में सामाजिक और वैयक्तिक दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ मिलती हैं और आत्महित के लिए प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखना अनिवार्य है । यहाँ पर सहजज्ञानवाद (परिशेष) / २६१ For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम कह सकते हैं कि बटलर के दर्शन में अनियन्त्रित स्वार्थवाद के लिए स्थान नहीं है। सुखवादियों और शैफ्ट सबरी की आत्म-प्रवत्ति की धारणा की भी बटलर ने आलोचना की है। वह कहता है कि किसी भी प्रवत्ति का प्रमुख लक्ष्य सुख नहीं है। जब प्रवृत्ति अपने स्वाभाविक ध्येय को प्राप्त करती है तब सुख मिलता है । अतः सुख परिणाम है, प्रमुख लक्ष्य नहीं। बटलर ने प्रवृत्तियों की विस्तृत व्याख्या द्वारा बतलाया कि मनुष्य की मूलगत प्रवृत्तियों को पूर्ण रूप से स्वार्थमूलक नहीं कह सकते हैं। अन्तर्बोध का अनिश्चित प्रयोग-नैतिक बोधवादियों, विशेषकर शैफ्ट्सबरी के नैतिक बोध की धारणा से असन्तुष्ट होकर बटलर ने अन्तर्बोध शब्द का प्रयोग किया । अन्तर्बोध और नैतिक बोध में स्पष्ट भेद है। बटलर ने सौन्दर्य इन्द्रिय एवं विशिष्ट इन्द्रिय के रूप में अन्तर्बोध को नहीं समझा है किन्तु मानवस्वभाव को आवयविक समग्रता के रूप में स्वीकार करके अन्तर्बोध की सर्वोच्चता को स्थापित किया है। जब हम उस सिद्धान्त के स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं जो कि सर्वोच्च है तो विफलता मिलती है क्योंकि उसने अन्तर्बोध का अनिश्चित प्रयोग किया है । अन्तर्बोध से या तो उसका अभिप्राय उस अबोधगम्य शक्ति से है जिसे हम अपने अन्तर में पाते हैं और जो नियमों को बनाती है और या उस बोधगम्य शक्ति से है जिसके आदेश हम बौद्धिक चिन्तन द्वारा समझ सकते हैं। किन्तु यह अवश्य सत्य है कि उसके अनुयायियों ने अन्तर्बोध के दोनों अर्थों में स्पष्ट भेद देखा। . अन्तर्बोध और प्रात्मप्रेम के सम्बन्ध को समझाने में असफल-मानवस्वभाव-जो राज्य के विधान-सा है-की व्यवस्था और संगति को समझाने के लिए जब बटलर प्रात्मप्रेम और अन्तर्बोध के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण करता है तो वह एक स्थायी दृष्टिकोण को अपनाने के बदले अनेक रीतियों और भिन्न तर्कों की सहायता लेता है। एक ओर वह अन्तर्वोध के अधिकार को सर्वोच्च कहकर यह मानता है कि अन्तर्बोध उसी आचरण का अनुमोदन करता है जिसका ध्येय सम्पूर्ण समाज का आनन्द है। मानव-जाति एक सम्प्रदाय है और हम एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं । जनता एवं जाति के हित की वृद्धि करना प्रत्येक का कर्तव्य है । क्या हम अन्तर्बोध के परम आदेश को मान लें? - इसका उत्तर पाने के लिए हमें प्रात्मप्रेम की धारणा को समझना होगा। यह धारणा बतलाती है कि आत्मा के राज्य में दो स्वतन्त्र तत्त्व हैं : बौद्धिक आत्मप्रेम और अन्तर्बोध । इनके पारस्परिक सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए वह कहता है कि २६२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दोनों परस्पर संयोजित हैं । दूसरी ओर उसकी पुस्तक में कुछ ऐसे वाक्य मिलते हैं जो आत्मप्रेम को अधिक महत्त्व देते हैं । दोनों की असंगति को असम्भव मानने के पश्चात् वह कहता है कि यदि इन दोनों में असंगति हो जाय तो अन्तर्बोध को अपना स्वाभाविक अधिकार छोड़ना होगा। आगे वह यह भी मान लेता है कि जब शान्त क्षण में हम सोचने बैठते हैं तो हम किसी भी प्रवृत्ति को तब तक उचित या न्यासम्मत नहीं समझ पाते हैं जब तक कि हमें यह विश्वास नहीं हो जाता कि वह हमारे सुख के लिए है अथवा हमारे सुख की विरोधी नहीं है । वैसे बौद्धिक या विवेकशील प्राणी के लिए आत्मप्रेम और अन्तर्बोध का विशेष विरोध नहीं है । अपने सतर्क आशावाद के आधार पर वह कहता है कि यह स्वीकार करना बुद्धिसम्मत है कि जिन दो आन्तरिक अधिकारियों के अधीन स्वभाव एवं प्रकृति ने हमें रखा है उनमें संगति है । इस संगति का एक कारण यह भी है कि इनके विरोध को हम प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं कर सकते हैं । स्वार्थ के आधार पर ही इन्हें विरोधी सिद्ध कर सकते हैं पर स्वार्थवादी गणना अनिश्चित और सम्भाव्य है । यदि स्थूल दृष्टि से यह विरोध दीख ही जाये तो हमें अन्तर्बोध के आदेश का उसके सरल और स्पष्ट होने के कारण पालन करना चाहिए । पुन: एक स्थल पर वह यह कहता है कि अन्तर्बोध और आत्मप्रेम दोनों ही मानव स्वभाव के प्रमुख और श्रेष्ठ तत्त्व हैं, इसलिए यदि किसी कर्म में इनमें से किसी का भी निराकरण हो जाये तो वह मानव-स्वभाव के अनुरूप नहीं होगा । यदि दोनों ही मानव स्वभाव के दो तत्त्व हैं तो नीतिज्ञ दोनों की सापेक्ष स्थिति को समझना चाहेगा । बटलर का उत्तर द्विविधापूर्ण है । बटलर एक ओर तो यह कहकर छुटकारा पाना चाहता है कि व्यावहारिक दृष्टि से सापेक्ष स्थिति का प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं है और दूसरी ओर वह कहता है कि अपने परम स्वार्थ को समझना अत्यन्त कठिन है । बटलर के ऐसे कथन के विरुद्ध दो प्रश्न हमारे मानस में आते हैं; हम कैसे सिद्ध कर सकते हैं कि अन्तर्बोध के आदेश अधिक स्पष्ट हैं ? इसका क्या प्रमाण है कि हमारे स्वार्थ के लिए अन्तर्बोध के आदेश श्रात्मस्वार्थ के आदेश से अधिक श्रेष्ठ पथनिर्देशक हैं ? व्यक्तिवाद और उत्तरदायित्व - श्रात्मप्रेम और ग्रन्तर्बोध का विरोध सुख और सद्गुण की समस्या को खड़ा करता है । बटलर सुख और सद्गुण के विरोध को बौद्धिक तर्क द्वारा नहीं बल्कि ईश्वरज्ञान द्वारा दूर करने का प्रयास करता है । सुखात्मा की आन्तरिक स्थिति का सूचक नहीं है । इसके द्वारा सृष्टिकर्ता उन्हें पुरस्कृत करता है जो अपनी प्रवृत्तियों को उनके निर्दिष्ट ध्येय के लिए साधन सहजज्ञानवाद ( परिशेष) / २६३ For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाते हैं । ऐसा कथन मुख और अन्तर्बोध के विरोध को रहने देता है। प्रात्मप्रेम और अन्तर्बोध दोनों को ही मानकर बटलर ने नैतिक उत्तरदायित्व और व्यक्तिवाद की महत्त्वपूर्ण समस्या को उठाया । व्यक्ति स्वतन्त्रतापूर्वक अपने कर्मों को निर्धारित कर सकता है और उन पर निर्णय दे सकता है । वह अपने परम कल्याण की प्राप्ति कर सकता है। ऐसा वैयक्तिक अधिकार उसे कर्तव्य की ओर ले जाता है क्योंकि व्यक्ति समाज का अनन्य अंग है । कर्तव्य और अधिकार के सापेक्ष सम्बन्ध को समझाने में वह असमर्थ रहा । व्यक्तिवाद और नैतिक उत्तरदायित्व के समानाधिकार के संरक्षक सिद्धान्त के रूप में वह अपने सिद्धान्त की स्पष्ट और व्यवस्थित व्याख्या नहीं कर पाया। इसका अव्यक्त कारण यह है कि व्यक्तिवाद और नैतिक उत्तरदायित्व के नाम पर वह सुखवाद और नैतिक विशद्धतावाद के चक्कर में फंस जाता है । बटलर आत्मकल्याण का नैतिक अर्थ समझने में असमर्थ है और सुख को स्वीकार कर वह उस असंगति को अपने सिद्धान्त में स्थान देता है जो क्षम्य नहीं है । सुख को मान्यता देकर उसने भूल की । सुख नैतिकता के किसी भी व्यवस्थित, प्रामाणिक और ग्रहणीय सिद्धान्त का आधार नहीं हो सकता। अाधुनिक विचारधारा पर प्रभाव-प्रात्मप्रेम और अन्तर्बोध के सम्बन्ध को समझाने के लिए बटलर अनेक तर्क-वितर्कों से काम लेता है पर प्रयास करने पर भी वह मानव-स्वभाव के नियामक सिद्धान्त की द्वैतवादी व्याख्या पर पहुँचता है। उसकी इस दुर्बलता ने नैतिक चिन्तन को एक नयी दिशा दखलायी । मानव-स्वभाव को आवेगों का व्यवस्थित राज्य मानकर वह प्लेटोवाद का अभिनन्दन करता है और स्वभाव एवं प्रकृति के अनुरूप रहना चाहिए कहकर वह स्टोइकवाद का समर्थन करता है। किन्तु प्लेटोवाद और स्टोइकवाद दोनों ही बुद्धि को एकमात्र नियामक शक्ति या शासक मानते हैं । उनके सिद्धान्तों में नियामक शक्ति के द्वैत के लिए स्थान नहीं है । बटलर के नियामक सिद्धान्त के द्वैत ने आधुनिक विचारधारा को दो तत्त्व दिये : सार्वभौम बुद्धि और स्वार्थमूलक बुद्धि या अन्तर्बोध और आत्मप्रेम । ये द्वैत क्लार्क और शैपट्सबरी के सिद्धान्त में अस्पष्ट रूप से वर्तमान अवश्य हैं किन्तु बटलर के कारण ही उन्हें स्पष्ट रूप से आधुनिक विचारधारा ने अपनाया है। सिजविक ने इस समस्या को अपने दर्शन में उठाया है । ___उपयोगितावाद—अन्य सहजज्ञानवादियों के साथ बटलर भी मानता है कि कर्म अपने-आप में शुभ और अशुभ हैं। उनका नैतिक मूल्यांकन उनके २६४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम के आधार पर नहीं कर सकते । अतः नैतिक दृष्टि से कर्म इस तथ्य से स्वतन्त्र है कि वह अपने परिणाम द्वारा सामान्य सुख के लिए उपयोगी है अथवा नहीं । किन्तु जब बटलर पड़ोसी के प्रति स्नेह की धारणा को समझाने लगता है तब वह अपने पादरी के व्यक्तित्व के अनुरूप उपयोगितावाद को अपनाने लगता है । ईश्वर के स्वभाव सम्बन्धी धारणा को वह उपयोगितावादी दृष्टिकोण से समझाता है । विश्व के सम्पूर्ण परिमाण के सुख को अधिकतम करना भगवान् का परम ध्येय है । पर साथ ही अन्तर्बोध को परम प्राधान्य देते हुए वह कहता है कि हमें अन्तर्बोध के अनुसार कर्म करना चाहिए चाहे सामान्य सुख की वृद्धि करे या न करे । बटलर के ऐसे असंगत प्रसंग उलझन में डाल देते हैं और सदाचार के मार्ग को द्विविधायुक्त कर देते हैं । अन्तर्बोध के प्रदेश की प्रामाणिकता - बटलर के नैतिक दर्शन को नीतिशास्त्र पर एक पूर्ण निबन्ध के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है । उसकी समन्वयात्मक दृष्टि ने असंगतियों और विरोधों का समावेश कर लिया है । विरोधपूर्ण कथन मार्ग को सुनिर्देशित नहीं कर सकते हैं । बटलर ने कई कठिनाइयों को नहीं उठाया है । उचित कर्म का सार्वभौम मानदण्ड क्या है ? जब अन्तर्बोध भिन्न परिस्थितियों में भिन्न प्रादेश देता है तब हम किस आदेश को मान्य मानें ? भिन्न व्यक्तियों के अन्तर्बोध भिन्न आदेश देते हैं । इस भिन्नता को दूर करने एवं संगति की स्थापना के लिए क्या अन्तर्बोध के मानदण्ड के अतिरिक्त किसी अन्य मानदण्ड की सहायता लेनी होगी ? इसका क्या प्रमाण है कि किसी व्यक्ति विशेष का प्रन्तर्बोध उचित है ? हम कृत्रिम और अकृत्रिम अन्तर्बोध के भेद को कैसे जान सकते हैं ? बटलर का सिद्धान्त अपूर्ण होने पर भी किसी भी अनुभवात्मक तथ्य से सम्बन्धित नैतिक सिद्धान्त के लिए प्रस्तावना का कार्य कर सकता है क्योंकि वह एक मनोवैज्ञानिक नीतिज्ञ का सिद्धान्त है । सहजज्ञानवाद ( परिशेष ) / २६५ For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पूर्णतावाद' आत्मा का स्वरूप-नैतिक सिद्धान्तों का अध्ययन बतलाता है कि नीतिज्ञों ने उस आदर्श को समझना चाहा जो आत्म-सन्तोष, आत्म-साक्षात्कार अथवा आत्म-पूर्णता प्रदान करता है। प्रत्येक नीतिज्ञ ने जानना चाहा कि मनुष्य के लिए उच्चतम शुभ अथवा परम ध्येय क्या है ? उसने उस ध्येय एवं आदर्श की अपने सिद्धान्त के अनुरूप व्याख्या की। मानवोचित ध्येय के स्वरूप को समझने के पूर्व एक बार पुनः यह समझ लेना अनिवार्य है कि मनुष्य एवं उस आत्मा का क्या स्वरूप है जो कि अपनी पूर्णता अथवा सन्तोष के लिए प्रयास करती है ? हम किस आत्मा को सन्तुष्ट करना चाहते हैं; आत्मा का सारतत्त्व बुद्धि है या भावना अथवा बुद्धि और भावना दोनों ही। आत्मा की परिभाषा देने में सुखवाद और बुद्धिवाद ने दो स्पष्ट विरोधी आदर्शों को हमारे सम्मुख रखा । किन्तु दोनों में निहित सत्यांशों को मानते हुए भी उनकी जाज्वल्यमान दुर्बलताओं के कारण उन्हें पूर्णत: स्वीकार नहीं किया जा सकता। बुद्धि-भावना का योग-पूर्णतावादियों ने उस दृष्टिकोण को अंगीकार किया जो मध्यवर्ती है। उन्होंने मनुष्य के मूर्त व्यक्तित्व के आधार पर बुद्धि और भावना के समुचित मूल्य को निर्धारित किया। मनुष्य का स्वभाव भावना और बुद्धिमय है । साथ ही यह भी सत्य और सर्वमान्य है कि वही जीवन सफल तथा स्तुत्य है जो बुद्धि से संचालित है । नैतिक उन्नति और विकास के लिए 1. Perfectionism. 2. Self-realization. २६६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना का बुद्धि के साथ संघर्ष आवश्यक है । यह संघर्ष बुद्धि के आधिपत्य को अधिक गौरवान्वित करता है। वही बुद्धि श्रेष्ठ है जो सुचारु रूप से भावनाओं को उस मार्ग की ओर ले जाती है जो नैतिक नियम के अनुरूप है। मनुष्य का स्वभाव अनेक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और भावनाओं का जन्मस्थल है। इस स्वभाव में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पूर्ण रूप से बुरा अतएव त्याज्य हो । अतः प्रवृत्तियाँ अपने-आपमें बुरी नहीं हैं, किन्तु जब वे अपनी सीमा का उल्लंघन करने लगती हैं तब वे बुरी कहलाती हैं। भावनाओं का हनन करना बुद्धि का लक्ष्य नहीं है बल्कि उनकी यथोचित तृप्ति तथा उन्नयन द्वारा उन्हें नैतिक रूप देकर ध्येय की प्राप्ति में सहायक बनाना ही बुद्धि का काम है जिससे विभिन्न आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, कलात्मक आदि प्रवृत्तियों में संगति और सन्तुलन स्थापित कर मनुष्य व्यक्तित्व के विकास और परिपूर्णता को प्राप्त कर सके । व्यक्तित्व की पूर्णता एवं आत्म-कल्याण के आकांक्षी पूर्णतावादियों ने आत्म-सन्तोष को आत्म-कल्याण का सहवर्ती माना है। आत्म-सन्तोष से उनका अभिप्राय उस सन्तोष से है जो प्रात्मा के दोनों अंगों-बद्धि और भावना-को सन्तोष दे सके । जब सम्पूर्ण आत्मा अपनी परिपूर्णता को प्राप्त करती है तभी उसे सन्तोष एवं प्रानन्द मिलता है। प्रात्मा और समाज-यह सभी मानेंगे कि नैतिक कर्म की सत्यता एवं उसका शुभ-अशुभ होना इस पर निर्भर है कि वह वांछित ध्येय एवं परम शुभ के अनुरूप है या नहीं। अथवा नैतिकता के मानदण्ड की धारणा ध्येय की धारणा पर निर्भर है। ध्येय की धारणा पर आधारित नतिक आदर्श आत्मिक आदर्श है। यह वह आदर्श है जो प्रात्मा को सन्तुष्ट करता है। ध्येय क्या है ? ध्येय, जैसा कि कह चुके हैं, आत्म-सन्तोष है। आत्मा का रूप न तो केवल ऐन्द्रियिक है और न केवल बौद्धिक । ब्रेडले ने आत्मा के इस स्वरूप को स्वीकार करते हुए कहा कि आत्मा का अपने पूर्ण रूप में सन्तुष्ट होना, अर्थात् सम्पूर्ण आत्मा का सन्तोष ही, आत्म-सन्तोष है। प्रात्मा के स्वरूप को भलीभाँति समझने एवं आत्मसन्तोष का व्यापक ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि क्या आत्मा एक असम्बद्ध इकाई के रूप में है अथवा वह समाज का एक अविभाज्य अंश है। नंतिक निर्णय का स्वरूप बतलाता है कि नैतिक निर्णय आत्मा के उस आचरण पर दिया जाता है जो सामाजिक है । मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व को किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक सिद्धान्त मानता है। पूर्णतावादियों ने इस सत्य को समझाने के लिए तत्त्वदर्शन की सहायता ली है। उन्होंने अपने पूर्णतावाद | २६७ For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक ज्ञान को आदर्शवादी तत्त्वज्ञान पर आधारित करते हुए कहा कि मनुष्य और समाज अथवा व्यक्ति और समष्टि अभिन्न हैं, क्योंकि दोनों एक ही शाश्वत चैतन्य की अभिव्यक्ति हैं । इसलिए जीवन का ध्येय न तो मात्र वैयक्तिक कल्याण है और न मात्र सामाजिक । वह सर्व कल्याणकारी है | दोनों का सम्बन्ध अनन्य – पूर्णतावादी व्यक्ति और समाज के अनन्य सम्बन्ध को मानते हुए व्यक्तियों की पारस्परिक निर्भरता को स्वीकार करते हैं । व्यक्ति समाज का अविभाज्य अंग है । समाज में रहकर ही वह अपनी पूर्णता प्राप्त कर सकता है । वह भोजन, वस्त्र, भाषा, शिक्षा एवं अपनी सम्पूर्ण आवश्यकताओं की तृप्ति समाज में रहकर ही कर सकता है । अतः उसे अपने निजत्व को समग्र में एवं समग्र को निजत्व में देखना चाहिए । यदि व्यक्ति और समाज अविच्छिन्न एकता के सूचक हैं तो क्या विकासवादियों की भाँति पूर्णतावादी भी, समाज और व्यक्ति के अनन्य सम्बन्ध को स्वीकार करते हुए, श्रवयविक समग्रता के रूपक को पूर्णतः स्वीकार करते हैं ? पूर्णतावादी इस रूपक की सीमाओं के प्रति सचेत हैं । समाज प्राध्यात्मिक एवं ग्रात्म-प्रबुद्ध प्राणियों की विभिन्न एकता है । प्रवयविक समग्रता की भाँति होने पर मानव जाति रूपी श्रावयविक समग्रता और शारीरिक जीव- रचना में भेद है । जीव रचना के अवयवों में जीवविधान और कर्मव्यापार की दृष्टि से भिन्नता है किन्तु मानव समाज के व्यक्तियों में जातीय समानता है, उनके कर्मव्यापार एवं कर्तव्य भले ही भिन्न हों; प्रत्येक व्यक्ति में अपना निजत्व और व्यक्तित्व है । वह जीवव-रचना के अवयवों की भाँति यान्त्रिक ( अचेतन) रूप से प्रावयविक समग्रता का काम नहीं करता । वह समाज के साथ अपने सम्बन्ध को समझबूझकर स्वेच्छा से उस कर्म को करता है जो कि उसके तथा समाज के लिए, अंग और अंगी दोनों के लिए, कल्याणप्रद है । स्वार्थ- परमार्थ का प्रश्न - स्वार्थ और परमार्थ में परम भेद देखना भ्रान्तिपूर्ण है । व्यक्ति और समाज का अनन्य सम्बन्ध इस नैतिक सत्य को अभिव्यक्ति देता है कि जीवन में न तो परम स्वार्थ ही उचित है और न परम परमार्थ । व्यक्ति नगण्य नहीं है, उसका अपना व्यक्तित्व है । प्राप्त करना उसका अधिकार है, किन्तु इस पूर्णता को वह समाज में ही प्राप्त कर सकता है । अतः वह केवल अपने ही बारे में नहीं सोचता । ' एक का स्वार्थ' एक ऐसा कथन है जो वास्तविकता से दूर है । व्यक्ति के स्वार्थ और पूर्णता का सम्बन्ध उससे है जिसका कि वह अविभाज्य अंग है । हम निजत्व व्यक्तित्व की पूर्णता को २६८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को समग्र से अलग करके नहीं समझ सकते । समग्र के सम्बन्ध में ही निजत्व अर्थ रखता है । व्यक्ति अपने निजत्व को सामाजिक समग्रता से ही पाता है । यह कथन बतलाता है कि परम स्वार्थ आत्म - घातक है । अपने को बचाना खोना है । समाज से भिन्न व्यक्ति का अस्तित्व असम्भव है । वह शारीरिक आवश्यकताओं से लेकर मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं तक के लिए समाज पर निर्भर है । अतः अपने को खोना पाता है । सामाजिक शुभ द्वारा वैयक्तिक शुभ सम्भव है । व्यक्ति अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की तृप्ति समाज में करता है । वह समाज के सामान्य मानस का अंग है । उसका मानसिक विकास अनेक मानसों के सहयोग से होता है । वैयक्तिक शुभ और सामाजिक शुभ परस्पर निर्भर हैं । सामाजिक शुभ अपने मूल रूप में वैयक्तिक है क्योंकि वह व्यक्ति की गहनतम आवश्यकताओं के अनुरूप है । व्यक्ति अपनी नैतिक, बौद्धिक भावुक तथा शारीरिक आदि आवश्यकताओं की तृप्ति के लिए समाज पर निर्भर है । इसी भाँति स्वार्थ और परमार्थ के स्वतन्त्र अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता । व्यक्ति और समाज दोनों का युगपत् विकास होता है । दोनों एक-दूसरे के लिए अनिवार्य हैं । पूर्णतावाद का परिचय - सुखवाद और बुद्धिवाद का उत्पत्तिकाल ही पूर्णतावाद का उत्पत्तिकाल है । सुकरात की मृत्यु के पश्चात् ऍरिस्टिपस ने सुखवाद, एन्टिस्थीनीज़ ने बुद्धिवाद और प्लेटो ने पूर्णतावाद में सुकरात के मुख्य सिद्धान्त को देखा । प्लेटो तथा अन्य पूर्णतावादियों' के अनुसार नैतिक कर्म ग्रात्मा के वास्तविक स्वरूप के अनुरूप कर्म है । वही शुभ कर्म है जो आत्मा को परिपूर्णता प्रदान करता है । पूर्णता से क्या अभिप्राय है ? मनुष्य में अनेक सम्भावित शक्तियाँ हैं । उचित प्रयत्न से हम इन सम्भावित शक्तियों को वास्तविकता एवं पूर्णता प्रदान कर सकते हैं । यही पूर्णतावाद ( Perfectionism ) है | मनुष्य के स्वभाव की विभिन्न प्रवृत्तियों - कलात्मक, नैतिक, सामाजिक, धार्मिक श्रादि - का बुद्धि के निर्देशन में इस भाँति संगतिपूर्ण विकास करना चाहिए कि वे आत्म- पूर्णता की प्राप्ति में सहायक हो सकें । बुद्धि के निरीक्षण में इच्छात्रों और प्रवृत्तियों का समुचित विकास व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है । व्यक्तित्व के पूर्ण विकास की स्थिति ही आत्म १. अरस्तु, फ़िश्टे, शैलिंग, हीगल, ग्रीन, ब्रेडले, मेकैजी, म्योरहेड, जेम्स सेथ, जे० एच० पेटन आदि । For Personal & Private Use Only पूर्णतावाद / २६९ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षात्कार (self-realization ) की स्थिति है । अथवा वह आत्म-बोध, आत्म-कल्याण और आत्म-समृद्धि की स्थिति है । जिस आत्मा का हम साक्षात्कार करते हैं एवं जिसकी पूर्णता प्राप्त करते हैं वह बौद्धिक आत्मा है । वह आत्मा इच्छात्रों और प्रवृत्तियों का हनन या त्याग नहीं करती वरन् उनका उन्नयन, दिव्यीकरण, बुद्धिकरण एवं अध्यात्मीकरण करके उन्हें अपनी परिपूर्णता के लिए सहायक बना लेती है । ऐसी आत्मा संकीर्ण आत्मा नहीं हो सकती । बौद्धिक आत्मा मानवता के साथ तादात्म्य अनुभव करती है । वह सामाजिक एवं सार्वभौम आत्मा अथवा विश्वात्मा है । विश्वात्मा की प्राप्ति के लिए संकीर्ण आत्मा का त्याग अथवा आत्म-त्याग अनिवार्य है । विश्वात्मा की प्राप्ति के लिए मानव जाति के हित को ध्यान में रखना आवश्यक है । मानवता व्यक्ति से भिन्न नहीं है, वह उसी की आत्मा है । अतः मानवता के प्रति सहज स्नेह रखते हुए व्यक्ति को उसके कल्याण के लिए प्रयास करना चाहिए । साथ ही यह भी सच है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी विशेषताओं के साथ एक विशिष्ट परिवार, समाज और परिवेश में जन्म लेता है । उसका इनके प्रति कर्तव्य है । उसे चाहिए कि समाज में अपनी स्थिति, अपनी योग्यता तथा विशिष्ट प्रतिभा को ध्यान में रखते हुए अपनी बौद्धिक आत्मा का विकास करे । वह मनुष्य जिसने आत्म बोध प्राप्त कर लिया है अपने सामाजिक उत्तरदायित्व तथा स्वयं अपने प्रति कर्तव्य के लिए पूर्ण रूप से सचेत होता है । उसे उसका ग्रात्म-बोध श्रानन्द देता है । यही आत्म-सन्तोष है । अतः श्रात्म-सन्तोष, आत्म-वोध एवं पूर्णता का सूचक है । वह ध्येय का अनिवार्य अथवा अभिन्न तत्त्व है । पूर्णतावादियों का कालक्रम के आधार पर विभाजन किया जा सकता है । प्राचीन काल में पूर्णतावाद के विख्यात प्रतिपादक प्लेटो और अरस्तू हुए हैं तथा आधुनिक काल में हीगल, ग्रीन और ब्रेडले । प्राचीन काल : प्लेटो और अरस्तू ने बौद्धिक और अबौद्धिक श्रात्मा का प्रश्न - बुद्धिवादियों और सुखवादियों 'मनुष्य 'के स्वभाव की जो द्वैतवादी व्याख्या की उससे प्रारम्भ के विचारक अनभिज्ञ थे यद्यपि उन्होंने इस बात का अनुभव किया था कि उचित जीवन ही बौद्धिक जीवन है । सुकरात के अनुसार मनुष्य का जीवन बौद्धिक है और इसमें भावनात्रों की तृप्ति के लिए स्थान है । आत्म परीक्षित और आत्मनिर्देशित जीवन में बुद्धि निर्धारित करती है कि भावनाओं की तृप्ति कहाँ तक २७० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचित है। बुद्धि ही मनुष्य का विशेष गुण है। इसी के कारण मनुष्य श्रेष्ठ प्राणी है। परम शुभ को प्राप्त करनेवाला विवेकी व्यक्ति वह है जो अपने सम्पूर्ण जीवन में बुद्धि के आदेश का पालन करता है । इस आधार पर सुकरात ने सद्गुण और ज्ञान को एक माना । प्लेटो और अरस्तू ने बुद्धि की निर्देशनशक्ति को समझा और सुकरात से भी अधिक स्पष्ट रूप से कहा कि शुभ जीवन का रहस्य बुद्धि है । उन्होंने बौद्धिक प्राणी के लिए एकमात्र शुभ जीवन बौद्धिक जीवन बतलाया है। चिन्तनयुक्त या दार्शनिक जीवन ही नैतिक आदर्श है। अर्वाचीन बुद्धिवाद और वैराग्यवाद सुकरात के शिष्यों के सिद्धान्त की ही प्रतिध्वनि है। प्लेटो से भावना के स्थान को अप्रमुख माना। वह भावना को वृद्धि के पूरक के रूप में नहीं समझ पाया। अरस्तू दो प्रकार के सद्गुणयुक्त जीवन को स्वीकार करके कहता है कि उच्च सदगुणपूर्ण जीवन या थेगोरिया का जीवन शुद्ध बौद्धिक जीवन है और निम्न या सामान्य सद्गुणयुक्त जीवन वाला व्यक्ति बौद्धिक और अबौद्धिक स्वभाव की मिश्रित श्रेष्ठता का जीवन व्यतीत करता है। इस भाँति जिस सुखवादी तत्त्व की प्लेटो ने मुख्य रूप से उपेक्षा की उसे ही अरस्तु ने नवीन रूप से प्रधानता दी। अरस्तू ने सदगुणयुक्त जीवन को केवल अनिवार्य रूप से सुखद ही नहीं माना बल्कि सुख में कल्याण या शुभत्व की परिपूर्णता और विकास को देखा। वैसे, दोनों ने ही शुद्ध बुद्धिमय जीवन को नैतिक आदर्श माना । वस्तुगत शुभ की धारणा–सुकरात ने आचरण द्वारा सामाजिक शुभ का सन्देश दिया, किन्तु सिनिक्स ने आत्म-निर्मर व्यक्तित्व को प्रधानता देकर तथा सिरेनैक्स ने वैयक्तिक सुख को प्रधानता देकर परम व्यक्तिवाद को अपना लिया। प्लेटो और अरस्तू ने सुकरात से प्रभावित होकर वैयक्तिक और सामाजिक शुभ के सम्बन्ध को उठाया। आचरण की ऐसी समस्या जटिल और कठिन है क्योंकि मनुष्य-स्वभाव में स्वार्थ और परमार्थ के बीच प्रकट विरोध दीखता है तथा यह प्रतीत होता है कि वैयक्तिक कल्याण और सामाजिक कल्याण की दो भिन्न प्रेरणाएं हैं । वस्तुगत शभ की धारणा ही ऐसे विरोध को मिटा सकती है। ___ मानवतावाद-सुकरात ने उस मनुष्य के आचरण के प्रश्न को उठाया जो कि समाज का सामान्य सदस्य है। उसके व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन की समस्याओं को अपने साधनापूर्ण जीवन के सामाजिक पक्ष द्वारा समझाया। प्लेटो ने इन्द्रिय और अतीन्द्रिय जगत् के द्वैत को अपनाकर इस समस्या को पूर्णतावाद | २७१ For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूढ़ और दार्शनिक स्तर दिया। प्लेटो के दर्शन में सुकरात की उठायी हुई मूल समस्या परम निष्कर्ष अथवा परम परिपक्वता नहीं मिलती। सुकरात ने जिस बीज को अंकुरित किया वह प्लेटों में पल्लवित और अरस्तु में विकसित हमा। अरस्तू ने अधिक व्यापक, स्पष्ट और पूर्ण नैतिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उसका नीतिशास्त्र प्लेटो के रहस्यवादी और वराग्यवादी सुझावों से मुक्त होकर पूर्ण मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाता है। प्लेटो और अरस्तू मानते हैं कि सत्य का ज्ञान अपने-आपमें वांछनीय ध्येय है। वह कल्याण की प्राप्ति के लिए बाह्य साधन नहीं, वरन् स्वतः कल्याण ही है। चिन्तनयुक्त जीवन को परम शुभ मानते हुए उन्होंने ज्ञान के दोनों, व्यावहारिक और सैद्धान्तिक, पक्षों को समान समझा। अतः मात्र चिन्तन या बुद्धिवाद से उनका सिद्धान्त मुक्त है। सद्गुणों का स्वरूप-दोनों ने ही वैयक्तिक कल्याण की समान धारणा को स्वीकार किया। आत्म-कल्याण का जीवन प्रात्मा के विभिन्न अंगों और व्यापारों की संगति का जीवन है। प्लेटो ने माना कि उच्चतम जीवन अर्थात् दार्शनिक जीवन तक बहुत कम लोग पहुँच पाते हैं। वह जीवन सामान्य जीवन से भिन्न और श्रेष्ठ है। अरस्तू का श्रेष्ठ बुद्ध का व्यक्तित्व और थेगोरिया की धारणा प्लेटो के मत का समर्थन करती है। ऐसे व्यक्ति को जनसामान्य से अधिक अधिकार प्राप्त नहीं है वरन् उसे राज्य के कल्याण की चिन्ता होती है। राज्य का कल्याण व्यक्ति के कल्याण से अधिक श्रेष्ठ और व्यापक है। व्यक्ति को अपने सामाजिक उत्तरदायित्य को भली-भाँति निभाना चाहिए । अरस्तु ने अपने नैतिक सद्गुणों की व्याख्या करते हुए उन्हें व्यक्ति और समाज दोनों के लिए मूल्यवान बतलाया। सद्गुण बुद्धि के उन नियन्त्रणों के रूप में प्रकट होते हैं जो सामाजिक कल्याण के लिए आवश्यक हैं। प्लेटो ने समग्रता और अंगों की धारणा द्वारा एवं संगति और एकीकरण के सिद्धान्त के प्रति बौद्धिक प्रेम द्वारा सामाजिक कर्तव्य को समझाया है। उसकी संगति की धारणा न्याय की धारणा है। न्याय व्यक्ति और समाज दोनों के लिए वांछनीय है । किन्तु प्लेटो की न्याय की धारणा जनसामान्य के लिए अमूर्त और अत्यधिक आदर्शवादी है । वह उन्हें आकर्षित करके कर्म करने के लिए पर्याप्त प्रेरक नहीं बन सकती। उसको सशक्त एवं दृढ़ प्रेरक बनाने के लिए सहानुभूति तथा सामाजिक प्रवृत्तियों के साथ युक्त करना होगा और उसकी उपयोगिता को समझाना होगा। २७२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों ने ही बुद्धि को मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ विशिष्टता के रूप में स्वीकार किया है । बुद्धि वह क्षमता है जो सत्य का ज्ञान देती है । बुद्धि को सर्वोच्च मानने पर भी उन्होंने शुष्क ज्ञानवाद का प्रतिपादन नहीं किया है । विशुद्ध सुखवाद की आलोचना करते हुए उन्होंने समझाया कि सुख की प्राप्ति उन इच्छात्रों पर निर्भर है जो सुख के अतिरिक्त अन्य वस्तुनों की इच्छा करती हैं । सुख और सौन्दर्यबोध कल्याण के अनिवार्य अंग हैं । प्लेटो और अरस्तू की प्रणाली- दोनों के नैतिक आदर्श की धारणा समान है, पर प्रणाली भिन्न है । प्लेटो सर्वत्र संगति और एकता को देखते हुए सामान्यीकरण करता है । ग्ररस्तु विश्लेषण श्रौर विभाजन को अपनाता है । अरस्तु नैतिक सद्गुणों के व्यावहारिक अर्थ खोजता है तथा प्लेटो उनकी मूलगत एकता को ढूंढ़ता है । अरस्तू की भिन्नतामूलक बुद्धि नीतिशास्त्र को अन्य विज्ञानों से भिन्न कर देती है । प्लेटो के लिए नैतिक आदर्श और तात्विक अस्तित्व एक ही हैं । किन्तु अरस्तू याथार्थवाद के आधार पर इसे महत्त्व नहीं देता कि सर्वश्रेष्ठ विचारगम्य शुभ को मनुष्य प्राप्त कर सकता है । अर्वाचीन पूर्णतावाद प्रवेश - काण्ट बुद्धि और संकल्प के ऐक्य को समझाने में असमर्थ रहा और उसकी इस दुर्बलता ने एक ओर तो जर्मनी के बौद्धिक प्रदर्शवादियों (फिस्टे, शेलिङ्ग और हीगल) को प्रभावित किया और दूसरी श्रोर शॉपेनहावर' के स्वेच्छावादी निराशावाद ( Voluntaristic pessimism ) को । बौद्धिक आदर्शवादियों ने समझाया कि आत्म-प्रबुद्ध बुद्धि या मानस (self-conscious reason or mind) परम सत्य है और उन्होंने संकल्प को इसी सत्य के आधार पर समझाने का प्रयास किया । अपने ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन करने में वे इस प्राशावादी निष्कर्ष पर पहुँचे कि वास्तविक सत्ता अनिवार्यतः शुभ है। नैतिक दर्शन के क्षेत्र में हीगल को आधुनिक पूर्णतावादियों का प्रवर्तक होने का श्रेय प्राप्त है । हीगल से ही अनुप्राणित होकर ग्रीन, ब्रेडले, बौसेन्के, मेकेञ्जी, म्योरहेड, जेम्स सेथ आदि ने इस पुरातन - नूतन विचारधारा को अग्रसर किया । नैतिक विकास का अर्थ - पूर्णतावाद ने समझाया कि जैव विकास की 1. Schopenhauer. For Personal & Private Use Only पूर्णतावाद / २७३ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाँति नैतिक विकास यान्त्रिक नहीं है । मनुष्य को अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए यद्यपि विकास के क्रम में मानस ग्रात्म प्रबुद्धता की ओर बढ़ रहा है । मनुष्य केवल कर्म ही नहीं करता वरन् अपने कर्मों तथा ज्ञान पर चिन्तन भी करता है | समसामयिक पूर्णतावादी एक ओर ग्रीन की विचारधारा से प्रभावित हुए हैं और दूसरी ओर हीगल और काण्ट की । इन पूर्णता - वादियों के अनुसार जिस सत्ता की पूर्णता को चरितार्थ कहना है वह केवल प्रकृति या सार नहीं बल्कि आत्मा और संकल्प है। जो नियम आत्मा की पूर्णता का प्रादेश देता है वह प्रकृति अथवा किसी अन्य शक्ति का नहीं, आत्मा का नियम है । यह ग्रात्मा वास्तविकता के मूल में है । यह वह शाश्वत ज्ञाता है जिसके हम प्रतिरूप हैं । हीगल तथा काण्ट से प्रभावित पूर्णतावादियों ने संकल्प के स्वरूप at नीतिशास्त्र के लिए पर्याप्त प्राधार माना और ग्रीन से प्रभावित पूर्णतावादियों ने आत्मा के स्वरूप को । पूर्णतावाद और अन्य सिद्धान्त - प्राचीन और अर्वाचीन, दोनों ही काल के, पूर्णतावादियों ने अपने सिद्धान्त को आदर्शवादी तत्त्वदर्शन पर आधारित कर आत्म-साक्षात्कार एवं आत्म- पूर्णता को जीवन का ध्येय माना । शुभ अस्तित्व की परिपूर्णता की प्राप्ति पर निर्भर है और वह अस्तित्व आत्मा या संकल्प है । वह नियम जो आत्म-साक्षात्कार का आदेश देता है अस्तित्व का वह सामान्य नियम नहीं है जिसके अनुसार प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव की पूर्णता को प्राप्त होती है प्रत्युत आत्मा का वह नियम है जो अन्तिम विश्लेषण में समस्त वास्तविकता का स्रोत है । अपनी आत्मा को विश्वात्मा मानना तथा उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास करना ही मनुष्य का ध्येय है । इसी पर आत्मा की परिपूर्णता निर्भर है | अतः जिस आत्मा का साक्षात्कार करना चाहते हैं वह सीमित तथा सामान्य अनुभव द्वारा ज्ञात आत्मा नहीं है बल्कि शाश्वत, प्राध्यात्मिक ज्ञाता आत्मा है जो अपने को सीमित आत्माओं द्वारा पुनरुत्पन्न करता है । ऐसा सिद्धान्त न बुद्धिवाद, न सहजज्ञानवाद और न प्रकृतिवाद के अन्तर्गत प्रा सकता है । बुद्धिवादी मनुष्य के मूर्त व्यक्तित्व को समझने में असमर्थ रहे । पूर्णता - वादियों ने मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाकर बुद्धिवादियों की इस कमी को दूर किया । उन्होंने काण्ट की नियमानुवर्तिता की धारणा के बदले उस नियम at for जिसे ध्येय की धारणा निर्धारित करती है और जो सम्पूर्ण ग्रात्मा को स्थायी आनन्द देता है | अतः नैतिक नियम रूपात्मक एवं अन्तर्तथ्य शून्य नहीं है । प्रकृतिवादियों के विपरीत पूर्णतावादियों ने बाह्य प्रकृति को मानस का ही २७४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक रूप माना और समझाया कि अनुभवात्मक और वर्णनात्मक प्रणाली को अपनाकर नैतिक बाध्यता तथा कर्तव्य को नहीं समझाया जा सकता। सहजज्ञानवादियों की भाँति उन्होंने शुभ-अशुभ की विभक्तियों को परम नहीं माना क्योंकि इन्हें दो स्वतन्त्र सत्यों के रूप में नहीं समझाया जा सकता। अशभ अबौद्धिक प्रवृत्ति या वस्तुओं के एकांगी ज्ञान का सूचक है । प्रकृति और मानस एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि मानस प्रकृति में अन्तहित हैं। विरोधों में सामंजस्य-पूर्णतावादियों ने मानव-स्वभाव की संगति को समझाया । दार्शनिक सिद्धान्तों तथा मानव-संस्कृति और सभ्यता का इतिहास बतलाता है कि चिन्तन और व्यवहार के क्षेत्र में हमें सर्वत्र, सभी देश और सभी कालों में वैराग्यवादी और भोगवादी दो दृष्टिकोण मिलते हैं। ये दोनों ही वास्तविक जीवन-समस्या पर आधारित हैं और नैतिक चिन्तन के लिए पर्याप्त सामग्री देते हैं। बुद्धि और भावना दोनों के ही अधिकार को समझना उस व्यापक सिद्धान्त को अपनाना है जो कि मनुष्य के लिए वांछनीय है। ऐसे वांछनीय सिद्धान्त को देने का प्रयास पूर्णतावादियों ने किया है। निःसन्देह नैतिक विज्ञान का काम एक स्थितप्रज्ञ का काम है। अपनी उग्रता के कारण वास्तविक जीवन का निराकरण करनेवाली प्रवृत्तियों और विचारों को समत्व के मानदण्ड के अधीन रखना उचित है । अतः दोनों के प्रतिभासित चिर-प्रसंगत विरोधों को दूर करने का श्रेय पूर्णतावाद को है। प्लेटो ने बुद्धि और भावना दोनों के सामान्य जीवन की उस एकता को समझाया जो न्याय और संगति की धारणा से संचालित है । हीगल ने इन्द्रियबोध और बुद्धि में संगति देखी । वह संवेदना और विचार की एकता के मूर्त तथ्य को यह कहकर स्थापित करता है कि वास्तविक ही बुद्धिमय है। ग्रीन ने अपनी पुस्तक' में इस संगति को समझाने का सफल प्रयास किया है । भावना और बुद्धि की संगति और एकता को समझने के लिए यह समझना भी अत्यन्त आवश्यक है कि उनमें विरोध है अन्यथा यह संगति सार्थक नहीं होगी। प्राचीन विचारकों ने विरोध को अत्यधिक महत्त्व दिया और इसलिए वे उस जीवन को नहीं समझा पाये जो मानव-जीवन है। आधुनिक विचारकों, विशेषकर, हीगल के मतावलम्बियों ने इन्द्रियों को बुद्धि का प्रतिरूप और सिरनामा कहकर समन्वय की उस समस्या को हटा दिया जो वास्तव में है। किन्तु फिर भी पूर्णतावादियों के लिए यह मानना होगा कि 1. Prolegomena to Ethics. पूर्णतावाद | २७५ For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने सुखवाद और बद्धिवाद की एकांगिता से ऊपर उठने का प्रयास किया और उस सर्वग्राही दृष्टिकोण को अपनाने का प्रयत्न किया जिसके आधार पर सम्यक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जा सकता है। कल्याणकारी मार्ग की पोर-जीवन की विभिन्न समस्याओं को व्यावहारिक रूप देने के लिए आत्मा के स्वरूप को जानने का प्रयास करना चाहिए। सभी पूर्णतावादी बुद्धि और भावना के प्रश्न को उठाते हैं और इनके सम्भावित समन्वय की धारणा को लेकर नैतिक समस्याओं को हल करते हैं । इस समन्वय की धारणा के मूल में परम सत्य, चैतन्य तत्त्व, परम प्रत्यय अथवा भगवान् हैं। ऐसी परम एकता को स्वीकार करने पर भी उन्होंने मनुष्य के स्वतन्त्र अस्तित्व को समझने की चेष्टा की है और उसकी योग्यतानों तथा सीमानों का परीक्षण किया है । अरस्तू का मध्यम मार्ग और ब्रेडले का 'मेरी स्थिति और कर्तव्य' मनुष्य के मूर्त सामाजिक अस्तित्व के सूचक हैं। यद्यपि समाज का मूल्यांकन करते समय हीगल व्यक्तित्व को भूल जाता है फिर भी सामान्य रूप से सभी पूर्णतावादियों ने व्यक्ति और समाज के न्यायोचित अधिकार और स्वतन्त्र किन्तु परस्पर निर्भर मूल्य को समझा है। प्रत्येक व्यक्ति बौद्धिक है। उसका अपना अस्तित्व है। उसके व्यक्तित्व की पूर्णता दूसरों की पूर्णता की अपेक्षा रखती है। जिस स्वार्थ और परमार्थ के प्रश्न को अन्य विचारकों ने शाश्वत समस्या का रूप दे दिया था उसे पूर्णतावादियों ने मानव सत्य के आधार पर समझाया और उसे आकर्षक, सुन्दर, व्यापक, वास्तविक तथा कल्याणकारी रूप दिया। यदि इस सत्य के आधार पर आज के विश्वव्यापी शोषक-शोपित के प्रश्न को सुलझायें तो व्यक्तियों और राष्ट्रों के ध्वंस के बदले एक उन्नत मानव-जाति का निर्माण हो जायेगा जिसे कि पाशविक प्रवृत्तियाँ छिपाये हुए ___व्यक्तित्व को प्राप्त करो'- इस कथन द्वारा पूर्णतावादियों ने समझाया कि संकीर्ण प्रात्मा से ऊपर उठकर बौद्धिक प्रात्मा की परिपूर्णता को प्राप्त करना चाहिए। इसके लिए प्रात्मा के स्वरूप को पहचानना आवश्यक है। प्रात्मा का ज्ञान उन शक्तियों पर नियन्त्रण रखता है जो कि अधोमुखी हैं। वह हमें कर्तव्यबोध देता है। वह हमें यह भी बतलाता है कि प्रत्येक व्यक्ति बौद्धिक है और उसका स्वतन्त्र अस्तित्व है। ऐसा ज्ञान उस आत्मत्याग की ओर प्रेरित करता है जो कि प्रात्म-कल्याण और पूर्णता का सूचक है। संकीर्ण आत्मा की मत्यु ही आध्यात्मिक आत्मा के जीवन का प्रारम्भ है जो आत्मा और २७६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वात्मा को तादात्म्य की ओर ले जाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति, सामाजिक उत्तरदायित्व और लोककल्याण की ओर पूर्णतः सचेत रहता है। वह विश्व में सर्वत्र संगति और समानता देखता है। उसका जीवन जन-मंगलमय हो जाता है । पूर्णतावाद | २७७ For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ मूल्यवाद प्रवेश-नीतिशास्त्र आचरण का आदर्श देता है और आचरण स्वेच्छाकृत कर्मों का सूचक है । नैतिक निर्णय कर्मों के शुभ और अशुभ स्वरूप के बारे में बतलाते हैं। सामान्य वार्तालाप में शुभ-अशुभ का प्रयोग कर्मों के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं और घटनाओं के लिए भी किया जाता है। इनका ऐसा अनिश्चित प्रयोग उस विज्ञान की अपेक्षा रखता है जो कि इनके विभिन्न अर्थों पर प्रकाश डाले तथा उन अर्थों की पारस्परिक भिन्नता और विशेषता को समझाये। ऐसा सिद्धान्त मूल्यों अथवा मान्यताओं का विज्ञान (Axiology or the science of values) कहलाता है। मूल्यों का विज्ञान सामान्यतः शुभ-अशुभ वस्तुओं का विवेचन करता है : ललित कला, सुन्दर नृत्य, शुभ आचरण, रहस्यानुभूति आदि के बारे में निर्णय देता है । वे नैतिक सिद्धान्त, जो हेतुवादी हैं और जिनके अनुसार वे कर्म शुभ हैं जो मूल्यवान् परिणामों को देते हैं, मूल्यवाद के सिद्धान्त (value theories) हैं। मान्यताओं के विज्ञान का प्रयोग जब नीतिशास्त्र के क्षेत्र में किया जाता है तो उसका सम्बन्ध उन वस्तुओं या दृश्यों से नहीं होता जो सुन्दर हैं, बल्कि उसके द्वारा कर्मों के परिणामों का मूल्यांकन किया जाता है। मूल्यवाद का सिद्धान्त वह सिद्धान्त है जो कर्म के औचित्य या शुभत्व को इस आधार पर आँकता है कि उसका परिणाम एक विशिष्ट अर्थ में शुभ है। प्रश्न यह है, किन मूल्यवाले परिणामों को नैतिक रूप से शुभ कह सकते हैं और मूल्य के क्या अर्थ हैं ? शुभ और मूल्य-मूल्यवादियों ने शुभ को मूल्य के रूप में समझाया और साध्यगत मूल्य तथा साधनगत मूल्य के भेद द्वारा सिद्ध किया कि साध्यगत मल्यों एवं प्राभ्यन्तरिक मूल्यों की प्राप्ति ही परम शुभ है जो कि सत्य, सौन्दर्य और २७८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिव का एक-दूसरे के परस्पर उचित सम्बन्ध में रहना है । अतः परम मूल्य दैहिक, सामाजिक और आध्यात्मिक आत्मा की पूर्णता है । परम मूल्य वह है जो सम्पूर्ण आत्मा को सन्तोष देता है । अथवा मूल्यवादियों के अनुसार आत्म-साक्षात्कार विभिन्न मान्यताओं का वह बौद्धिक नियम है जो कि क्रमशः आत्मा की क्षमतानों को सन्तुलित रूप में सशक्त करता है । मूल्य का मानदण्ड' उस प्राचरण की ओर ले जाता है जो निःश्रेयस् अथवा सर्वश्रेष्ठ मूल्यवान की प्राप्ति में सहायक है । विश्व में निहित परम सत्य की प्राप्ति ही परम ध्येय है । यह निःश्रेयस् है । इससे अधिक मूल्यवान् अन्य कुछ नहीं है । कुछ विचारकों ने भगवान् को परम मूल्य कहा है । वह स्वयम्भू पूर्णता है । इतिहास के प्रवाह में व्यक्ति इस सर्वोच्च मूल्य का अनुसन्धान कर रहा है । मूल्यवाद तथा अन्य विचारक - बुद्धिवादी, सुखवादी, पूर्णतावादी आदि विचारकों ने मूल्यवादियों की भाँति ही नैतिक आदर्श के स्वरूप को समझने का प्रयास किया । बुद्धिवादियों अथवा काण्ट ने नैतिक आदर्श को नियम के रूप में देखा, सुखवादियों ने सुख और पूर्णतावादियों ने उस पूर्णता के रूप में जो व्यक्ति और समाज के जीवन की चरितार्थता है । काण्ट का नियमानुवर्तिता का सिद्धान्त अन्तर्तथ्यशून्य है और सुखवादी उस नैतिक सिद्धान्त को देने में असमर्थ हैं जो सार्वभौम और वस्तुगत है । पूर्णतावादियों की पूर्णता की धारणा नैतिकता को एक सत्य तथ्य अवश्य देती है किन्तु वे स्पष्ट और व्यापक रूप से पूर्णता का अर्थ समझाने में असमर्थ रहे। मूल्यवादी पूर्णतावादियों की भाँति नैतिकता की व्याख्या श्रात्मसाक्षात्कार के रूप में करते हैं । वे अन्य तात्त्विक सिद्धान्तों से इस बात में भिन्न हैं कि नैतिकता की ओर उनका दृष्टिकोण शील की आधुनिकतम विकसित धारणा का है । उनके लिए सामान्य मूल्य ( generic value), जो कि नैतिक मूल्य से भिन्न है, अस्तित्व पर निर्भर नहीं वरन् अस्तित्व की बाध्यता पर निर्भर है । 2 वास्तव में, मुल्यवादियों ने उसी प्राचीन किन्तु चिरनूतन प्रश्न को उठाया जिसे कि सुकरात और प्लेटों ने उठाया था और वह है, शुभ का क्या रूप है ? मूल्यवादी इसी समस्या का हल करने के लिए प्रश्न करते हैं : परम मूल्य से क्या अभिप्राय है ? 1. The Standard as Value. 2. Hill, pp. 273. For Personal & Private Use Only मूल्यवाद / २७६ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य की समस्या-यदि मूल्य के आधार पर नैतिकता अथवा आचरण के शुभन्व को समझा जाता है तो मूल्य से हमारा क्या अभिप्राय है ? जीवन में उसका क्या स्थान है ? मानस के किसी भी सिद्धान्त, विचार और धारणा को मूल्य का रूप नहीं दे सकते हैं। यदि व्यक्ति किसी सामाजिक प्रचलन के अनुरूप कर्म करता है और सामाजिक दृष्टि से उसका आचरण शुभ है तो नैतिक दृष्टि से उसके आचरण को मल्य नहीं कहा जा सकता। मूल्य उस सत्य को कह सकते हैं जिसके लिए व्यक्ति या समाज जीवित रहता है और जिसके लिए आवश्यकता पड़ने पर वह संघर्ष करने, दुःख सहने तथा मृत्यु को स्वीकार करने के लिए भी तत्पर है। मूल्य का आर्थिक प्रयोग-जीवन की आवश्यकताओं ने 'मूल्य' को आर्थिक रूप दिया। सर्वसामान्य के जीवन में मल्य अपने आर्थिक रूप में ही प्रयोग में प्राता है। मूल्य के साथ ही उन्हें पैसों का ध्यान आता है, अथवा, वे उस वस्तु को मूल्यवान् मानते हैं जो कि इच्छाओं की तृप्ति करती है। क्षधा के कारण भोजन एवं खाद्य पदार्थों को और जीवन की कठिनाइयों के कारण निवास और वस्त्र को मूल्यवान् समझा जाता है। जनसामान्य के लिए वे वस्तुएँ और विषय मूल्यवान् हैं जो किसी-न-किसी रूप में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति और इच्छाओं की तृप्ति करते हैं। अर्थशास्त्र ने मूल्य का प्रयोग दो अर्थों में किया है : व्यवहार (उपयोग) के अर्थ में और विनिमय के अर्थ में । व्यवहार के अर्थ में मूल्य वस्तु की उस समता को व्यक्त करता है जो मानव-आवश्यकताओं और इच्छाओं को सन्तोष देने में सहायक है । विनिमय के अर्थ में यह एक वस्तु का दूसरी वस्तु से आदान-प्रदान का सूचक है जो वर्तमान युग में धन के रूप में किया जाता है, जिसे वस्तु की कीमत या मूल्य कहते हैं। मूल का अर्थशास्त्रीय अर्थ सीमित है । वह जैव आवश्यकताओं के लिए साधन मात्र है । अपने सीमित अर्थ में प्रत्येक वस्तु, यहाँ तक कि, सुरा का भी मूल्य है क्योंकि यह पीनेवाले को तृप्ति देती है । मूल्य के विनिमय के रूपक को भी नीतिशास्त्र में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वह वस्तुओं का परिमाणात्मक मूल्यांकन करता है । सुखवादियों की नैतिक गणना ऐसी ही भ्रान्ति पर आधारित है । नैतिकता गुणात्मक मूल्यांकन को स्वीकार करती है, न कि परिमाणात्मक । मूल्य के दो रूप-आर्थिक और नैतिक मूल्य का भेद प्राभ्यन्तरिक मूल्य २८० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बाह्य मूल्य' परम मूल्य और निमित्त मूल्य', तथा स्थायी मूल्य और अस्थायी मूल्य एवं साध्यगत मूल्य और साधनगत मूल्य का है । समस्त व्यवहार का मूल्य, जिससे कि अर्थशास्त्र का सम्बन्ध है, साधनगत मूल्य है। नैतिकता का सम्बन्ध साध्यगत मूल्य एवं परम मूल्य से है । वह वस्तु, जो अपने-आपमें शुभ है, परम मूल्य रखती है। सभी सुखद वस्तुएं, अथवा वे वस्तुएँ जो किसी-न-किसी रूप में मनुष्य को सन्तोष देती हैं, व्यावहारिक मूल्य रखती हैं। सन्तोष के विषयों का मूल्य उनकी उपयोगिता पर निर्भर है। नैतिक मूल्यवाद यह मानता है कि वस्तुएँ कभी भी केवल इस कारण नैतिक रूप से शुभ नहीं होती कि वे सन्तोष या श्लाघा का विषय हैं। इस तथ्य को मानना कि वस्तुएँ नैतिक रूप से शुभ इसलिए हैं कि वे सुखप्रद हैं, प्राकृतिक हेत्वाभास है। इसमें सन्देह नहीं कि प्रतिदिन के सामान्य वार्तालाप में उन वस्तुओं और विषयों को शुभ कहते हैं जो कि व्याख्या करनेवाले को सन्तोष देते हैं अथवा जो उसकी दृष्टि में श्लाघनीय हैं, किन्तु मात्र श्लाघा और सन्तोष के विषयों को हम नैतिक मूल्य नहीं प्रदान कर सकते। अर्बन द्वारा मूल्यों का विश्लेषण-अर्बन ने मूल्यों को दो वर्गों में विभाजित किया है : जैविक (Organic) तथा अति-जैविक (Hyper-organic) । पुनः जैविक मल्यो के अन्तर्गत उन्होंने तीन प्रकार के मूल्यों की चर्चा की है : दैहिक आर्थिक तथा मनोरंजन के मूल्य । अति-जैविक के अन्तर्गत उन्होंने सामाजिक तथा प्राध्यात्मिक मल्यों को माना है। सामाजिक मूल्य के अन्तर्गत साहचर्य-सम्बन्धी तथा चरित्र-सम्बन्धी (चारित्रिक) मूल्य आते हैं। आध्यात्मिक मूल्य बौद्धिक, सौन्दर्यपरक तथा धार्मिक मूल्यों का समावेश करता है । वैसे, सभी मूल्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-साधननत मूल्य और साध्यगत मूल्य । स्पष्ट ही, नैतिकता साध्यगत मूल्य को महत्त्व देती है, वह परम साध्य को प्राप्त करना चाहती है। __ मूल्यों के विभिन्न स्तर-जो व्यक्ति मूल्य को महत्त्व देता है उसके लिए अपने-आपमें कोई भी कर्म भला या बुरा नहीं है। वही नियम और कर्म अच्छे हैं जो सर्वोच्च मूल्य की प्राप्ति में सहायक हैं । किन्तु सर्वोच्च मूल्य को विकसित 1. Intrinsic value and Extrinsic value. 2. Absolute value and Instrumental value. 3. Permanent value and Transient value. मूल्यवाद | २८१ For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना ही समझ सकती है । चेतना के क्रम विकास की स्थिति ही मूल्यों के विभिन्न स्तरों की सूचक है । जिसे हम विभिन्न जातियों और व्यक्तियों के मूल्यों का संघर्ष अथवा एक ही व्यक्ति के प्रान्तरिक जगत् के मूल्यों का संघर्ष कहते हैं वह बतलाता है कि अपूर्ण विकास एवं सम्यक् ज्ञान का प्रभाव ही इस संघर्ष के मूल में है । विशिष्ट व्यक्तित्व, परिस्थिति तथा श्रावश्यकता मूल के विभिन्न स्वरूपों को हमारे सम्मुख रखती है । मूल्यों के सापेक्ष रूप तथा उच्च स्थिति को प्राप्त होती हुई क्रमिक श्रृंखला एवं गुणात्मक भेद बतलाता है कि मूल्य साधारण श्रावश्यकता से लेकर सर्वोच्च आवश्यकता को समझाता है । मूल्यों की एक ऊपर को उठती हुई श्रेणी है जिसका कि व्यक्ति अपने विकास के क्रम में अनुसरण करता है | मनुष्य अपनी अविकसित अवस्था में मूल्यों की निम्नतर स्थिति में होता है । वह जीवित रहने की इच्छा को इतना अधिक मूल्य प्रदान करता है कि जीवित रहने के लिए पशु - जीवन को भी स्वीकार कर लेता है । मूल्यों का मापदण्ड पशुजीवन की आवश्यकताओं से निर्वैयक्तिक और सार्वभौम मूल्यों की इच्छा त विस्तृत है । उदाहरणार्थ, स्वतन्त्रता और नैतिकता - सत्य, न्याय, सौन्दर्य, सेवा, समानता, बन्धुत्व के सिद्धान्त प्रादि सार्वभौम मूल्यों का आवाहन करते हैं । महान् सन्तों, दार्शनिकों और अध्यात्मवादियों ने भी यह अनुभव किया है कि ये मूल्य परम और शाश्वत हैं, इनका सदैव अस्तित्वं रहेगा और ये सबके लिए समान रूप से सत्य रहेंगे। निःसन्देह सत्य, शिव, सौन्दर्य, प्रेम, पूर्णता, स्वतन्त्रता आदि शाश्वत मूल्य हैं फिर भी इनके रूप देशकाल की आवश्यकताओं के अनुसार बदलते रहते हैं । यद्यपि कला के आदर्श और शैलियाँ बदलती रहती हैं किन्तु उनमें सौन्दर्य की ही शाश्वत खोज मिलती है । P आज के युग में बहुतों के लिए धन ही सब कुछ है, वे धन को ही सर्वोच्च मूल्य प्रदान करते हैं, और कुछ के लिए सफलता संस्कृति का मापदण्ड है; किन्तु नैतिक जीवन के प्रेमियों के लिए यह याद रखना अनिवार्य है कि धन जीवन का एक अंग मात्र है और वह भी सर्वाधिक आवश्यक अंग नहीं है । इसी भाँति सफल होना संस्कृत होना नहीं है । अन्तर्बोध के प्रदेश का पालन, सेवा, त्याग, सच्चरित्रता, प्रेम, सत्यता आदि शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति धन और सफलता मे कहीं अधिक श्रेष्ठ है क्योंकि मनुष्य और जो कुछ भी हो वह व्यक्ति अथवा ग्रात्मा अवश्य ही है और मानव मूल्य की पर्याप्त धारणा तब तक नहीं बनायी जा सकती जब तक कि आत्म-साक्षात्कार की धारणा का समावेश नहीं किया जाये । विभिन्न वस्तुनों, आवश्यकताओं और इच्छाओं का गुणात्मक मूल्यांकन आत्म २८२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षात्कार के सम्बन्ध में ही कर सकते हैं। अत: वही प्राभ्यन्तरिक रूप से मूल्यवान् है जो व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए अनिवार्य है; यह, वास्तव में, धनात्मक और ऋणात्मक मूल्यों के भेद की ओर हमें ले जाता है। धनात्मक मूल्य की वस्तु शुभ है। वह आत्म-पूर्णता में सहायक है; उसके विपरीत, वह वस्तु, जो पूर्णता अथवा साक्षात्कार के मार्ग में विरोध उत्पन्न करती है, ऋणात्मक मूल्य की वस्तु है, तथा अशुभ है । ___ काण्ट के अनुसार शुभ संकल्प ही एक मात्र प्राभ्यन्तरिक मल्य एवं तात्त्विक मूल्य है । सुखवादियों ने सुख को, बुद्धिवादियों ने बुद्धि को तथा गांधीजी ने सत्य को साध्य मूल्य से युक्त माना है। इसी भाँति अन्य विचारक विवेक, सौन्दर्य, स्वतन्त्रता, प्रेम आदि को परम मूल्यवान मानते हैं। साध्य मूल्य की विभिन्न धारणाएँ यह बतलाती हैं कि वह वस्तु, जो अपने-आपमें पूर्ण है एवं अन्य वस्तुओं के लिए साधन मात्र नहीं है, परम मूल्यवान् अथवा परम शुभ है। मूल्यवादियों के अनुसार प्रात्म-साक्षात्कार या आत्म-पूर्णता ही परम शुभ है। वह तात्त्विक मूल्ययुक्त पूर्णता है। प्राभ्यन्तरिक शुभ वैयक्तिक भी है-परम मूल्यवान् वस्तु वह नहीं है जो क्षणिक विचारों, भावनाओं और इच्छाओं को तप्त करती है किन्तु जिसे प्रत्येक विवेकी व्यक्ति मूल्यवान् मानता है । साध्य मूल्य की वस्तु ही परम शुभ है । यह शुभ वस्तुगत होते हुए भी आत्मगत है । परम शुभ सार्वभौम है यद्यपि यह व्यक्ति द्वारा प्राप्त होता है। परम शुभ की प्राप्ति सुख देती है यद्यपि सुख परम शुभ नहीं है। शुभ एवं मूल्य का सुखद होना इस बात का सूचक है कि इसका अनुभव व्यक्ति करते हैं । अत: नैतिक मूल्य वैयक्तिक और सार्वभौम दोनों ही है। मूल्य वह है जिसे व्यक्ति महत्त्व देता है और उसके अनुरूप कर्म करता है। प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करता है कि मूल्य की धारणा उसकी अपनी सम्पत्ति है । वह केवल यही नहीं कहता कि मैं इस वस्तु को मूल्य देता हूँ बल्कि उस मूल्य के अनुरूप कर्म करने के लिए सदैव तत्पर भी रहता है। धन को परम मूल्य देनेवाला व्यक्ति धन उपार्जन के लिए निन्दनीय कर्मों को सहर्ष स्वीकार कर लेता है और यश का आकांक्षी अपना सर्वस्व त्याग करके यश प्राप्त करना चाहता है। इससे प्रकट होता है कि अपने व्यापार में मुल्य आत्मगत या भाव-प्रधान है और वह प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न है । मूल्य क्रियाशील भी है । यह मनुष्य के अन्तरतम में जगती हुई वह शक्ति है जो उसे एक विशिष्ट प्रकार से कर्म करने के लिए प्रेरित करती है और उसके जीवन को अपने अनुरूप शासित कर उसे एक विशिष्ट दिशा मूल्यवाद / २८३ For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदान करती है। मल्य केवल मनुष्य को यह नहीं बताता कि उसे क्या करना चाहिए वरन् उसके आचरण को शासित भी करता है । मूल्य का ऐसा शक्तिमय स्वरूप हमें बतलाता है कि हमें शुभ मूल्यों को समझने का प्रयास करना चाहिए। मूल्य का सम्बन्ध व्यक्ति से है अत: व्यक्ति को विवेक को जाग्रत करके उस कर्म को अपनाना चाहिए जो कि परिस्थिति-विशेष में आत्म-पूर्णता की प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम हो। मूल्यों का उत्तरोत्तर विकास : तुलनात्मक स्थिति-मूल्य का आत्मगत पक्ष यह भी बतलाता है कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के मूल्य भिन्न होते हैं और एक ही व्यक्ति में भी वे उसकी विकास की अवस्था के अनुसार बदलते रहते हैं। अपने बोध और विवेचन की शक्ति (नीरक्षीर विवेक) के अनुरूप प्रत्येक व्यक्ति एक विशिष्ट तथ्य और विषय को मूल्य देता है। जनसामान्य के जीवन का अध्ययन बतलाता है कि कोई भी मूल्य ऐसा नहीं है जिसके बारे में हम यह कह सकें कि यह प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक राष्ट्र को मान्य है। प्रत्येक अपने स्वभाव, व्यक्तित्व और चेतना के विकास के स्तर के अनुरूप विषय को मूल्यवान मानता है। अथवा मानव-चेतना की विभिन्न स्थितियों का अध्ययन दैहिक आवश्यकताओं की तृप्ति को मूल्यवान् समझने की स्थिति ने आत्मपूर्णता को मूल्यवान समझने की स्थिति का अंध्ययन है । मूल्यवाद किसी भी मूल्य का पूर्ण रूप से निराकरण नहीं करता है किन्तु साथ ही उस परम मूल्य को भी समझने का प्रयास करता है जो शाश्वत और सार्वभौम है । वह निम्नतम मूल्य से लेकर उच्चतम मूल्य के स्थान को निर्धारित करने का प्रयास करता है। साध्यगत और साधनगत मूल्यों के भेद द्वारा मूल्यवादी साधनगत मूल्यों की उपेक्षा नहीं करते हैं बल्कि यह समझाते हैं कि आर्थिक, दैहिक, मनोरंजन सम्बन्धी मूल्य प्राभ्यन्तरिक मूल्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। अथवा आत्मा की विभिन्न आवश्यकताओं-शारीरिक, बौद्धिक, कलात्मक आदि की उचित परिमाण में तृप्ति ही परम शुभ या निःश्रेयस् मूल्य है । प्रात्म-साक्षात्कार वह है जो विभिन्न अंशों की आवयविक समग्रता एवं एकता है । यह ज्ञान, संस्कृति, सौन्दर्य, सद्गुण आदि के पारस्परिक उचित सम्बन्ध पर निर्भर है । सर्वोच्च शुभ मूल्यों के एक-दूसरे से समुचित प्रकार से सम्बन्धित श्रेणियों को कहते हैं। अतः दैहिक मूल्य से श्रेष्ठ सामाजिक मूल्य है और सामाजिक से श्रेष्ठ आध्यात्मिक मूल्य तथा ज्ञान और सौन्दर्य से श्रेष्ठ नैतिक शुभत्व या सद्गुण हैं । मूल्यों की तुलना करके उनकी क्रमिक श्रेष्ठता के आधार पर हम २८४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह सकते हैं कि प्राभ्यन्तरिक मूल्य बाह्य मूल्य से श्रेष्ठ हैं और स्थायी मूल्य अस्थायी मूल्य से । ___ मूल्यों का तुलनात्मक मूल्यांकन बतलाता है कि सब मूल्य सपरिमाण (commensurable) हैं अथवा प्रत्येक शुभ एवं मूल्य को तोला जा सकता है और उसका स्थान निम्नतम से उच्चतम मूल्यों की उत्तरोत्तर विकसित होती हई श्रेणी में निर्धारित किया जा सकता है। विविध शुभों का स्थान निर्धारित करने के लिए उनकी राशि और गुण दोनों को समझना होगा। मूल्यों का गुणात्मक भेद स्पष्ट बतलाता है कि जब निम्न और उच्च मूल्यों के बीच चयन का प्रश्न उठे तो सदैव उच्च मूल्य का वरण करना चाहिए । यही कारण है कि एक प्रकार का शुभ चाहे राशि में कितना ही अधिक हो वह दूसरे प्रकार के शुभ की पूर्ति नहीं कर सकता है। अतः जब परिस्थितियों के कारण यह असम्भव हो जाता है कि हम सभी प्रकार के शुभों को अपने या दूसरों के लिए प्राप्त कर सकें तब हमें यह निश्चित कर लेना चाहिए कि उनमें से कौन-सा सर्वश्रेष्ठ शुभ है जिसे कि प्राप्त किया जा सकता है। नैतिक ज्ञान बतलाता है कि वही कर्म उचित है जो शुभ को उत्पन्न करता है। जब विभिन्न शभों में से एक शुभ को चनने का प्रश्न उठता है तब उस शभ को चुनना उचित है जो अधिकतर शभ को उत्पन्न करता है । ऐसा कथन बतलाता है कि सब प्रकार के शुभों की तुलना की जा सकती है और हम सब प्रकार के शभों को एक ही तुला में तोल सकते हैं तथा प्रत्येक का दूसरों के सम्बन्ध में उचित मूल्य प्राँककर उनके सापेक्ष मूल्य को निर्धारित कर सकते हैं। सभी मूल्य तोले जा सकते हैं, किन्तु मल्यों का सपरिमाण होना यह नहीं बतलाता कि एक मूल्य का विशिष्ट परिमाण में होना दूसरे मूल्य के अभाव की कमी पूर्ण कर सकता है और न हम बैंथम की भाँति यही कह सकते हैं कि समान परिमाण होने पर तुच्छ खेल और कविता करने के सुख को समान रूप से शभ कह सकते हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि सामान्य जीवन में सभी मूल्यों की प्राप्ति असम्भव है । अधिकतर भिन्न प्रकार के शुभों के बीच विरोध उत्पन्न हो जाता है, और तब यह आवश्यक हो जाता है कि उचित विवेक और नैतिक चेतना की सहायता से उनका मूल्यांकन करके श्रेष्ठ शुभ को चुना जाय । वैसे सत्य, सौन्दर्य, शुभ एवं सद्गुण उच्चतम शुभ के अंग हैं और प्रांगिक भाव से सम्बद्ध हैं। हमें प्रत्येक को आवयविक समग्रता के अंग के रूप में समझने तथा प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, न कि असम्बद्ध इकाई के रूप में । यदि हम उन्हें आवयविक समग्रता के रूप में प्राप्त करने में मूल्यवाद / २८५ For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असमर्थ हों तो हमें चाहिए कि उन्हें एक-दूसरे से पृथक् करके समझने का प्रयास करें और मूल्यों की तुला में उनके स्थान को निर्धारित करें। ___ आभ्यन्तरिक मूल्य-मूल्यवादी आत्मा के ज्ञानात्मक, क्रियात्मक और रागात्मक स्वरूपों के आधार पर सत्य, सौन्दर्य और शुभ या सद्गुण को आभ्यन्तरिक मूल्य प्रदान करते हैं। ये अपने-आपमें शुभ हैं। इनकी खोज व्यक्ति इन्हीं के लिए करता है और इसलिए ये साध्य हैं, न कि साधन । सत्य आत्मा के ज्ञानात्मक पक्ष, सौन्दर्य रागात्मक पक्ष और शुभ एवं नैतिक पूर्णता क्रियात्मक पक्ष को तुष्टि प्रदान करता है। ये मल्य अति वैयक्तिक (overindividual) हैं अतएव सार्वभौम हैं । ये व्यक्तियों से स्वतन्त्र हैं यद्यपि व्यक्ति इनका अनुभव करते हैं । ये तीनों उसी भाँति अपृथक् हैं जिस भाँति कि ज्ञान, कर्म और भावना। किन्तु फिर भी यह सत्य है कि बौद्धिक रूप से इनकी अभिन्नता को समझने में असमर्थ हैं। शुभ नैतिक कर्तव्य या बाध्यता की भावना देता है। नैतिक शुभ की चेतना नैतिक स्थायी भावना से युक्त है। यह सदाचार के मार्ग की ओर ले जाती है। अतः शुभ सत्य तथा सौन्दर्य की भाँति नहीं है । सुन्दर चित्र की प्रशंसा करते समय हम चित्रकार की प्रेरणा, चरित्र एवं व्यक्तित्व पर निर्णय नहीं देते, किन्तु नैतिक शुभ चरित्र पर निर्णय देता है । यह अद्वितीय और अनुपम है । भगवान् को परम मूल्य माननेवाले मूल्यवादी भगवत् प्रेम को पाभ्यन्तरिक मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैं। भगवान् ही सत्य, सौन्दर्य और शिव की परिपूर्णता है। प्रार्थना और दिव्य मिलन अद्वितीय आनन्द हैं। वे अपने-आप में शुभ हैं। नैतिक मल्य भगवत् प्रेम की ओर ले जाता है। नैतिकता मानवता के प्रति सेवा और प्रेम को महत्त्व देती है और धर्म भगवत प्रेम को। नैतिक मूल्य और धार्मिक मूल्य दोनों ही प्रेम को महत्त्व देते हैं और प्रेम ही परोपकारी कर्म का प्रमुख स्रोत है । प्रेम के द्वारा ही हम दूसरे के चरित्र को प्रभावित कर सकते हैं। भगवत प्रेम का अर्थ सर्वशुभ से है। भगवत् प्रेम और पड़ोसी का प्रेम ही नैतिक शुभ का सार है । वैयक्तिक और सामूहिक जीवन की पूर्णता उस १ तुलना कीजिए न धनं न जनं न च कामिनी कवितां वा जगदीश कामये मम जन्मनि जन्मनि ईश्वर भगवताद्भक्तिरहैतुको त्वयि । २८६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सर्वोच्च शाश्वत मूल्य (भगवान्) पर निर्भर है जिसमें कि सत्य, सौन्दर्य और शिव परिपूर्णता प्राप्त कर चरितार्थ होते हैं । शुभ, नैतिक शुभ और परम शुभ-शुभ वह है जिसका नैतिक मूल्य है । इसका प्रयोग साधन और साध्य दोनों अर्थों में होता है । शुभ व्यक्ति वह है जो वास्तविक मूल्यों की उन्नति के लिए, चाहे वह साधन रूप में हों या साध्य रूप में, अपनी क्षमता के अनुरूप सतत प्रयत्नशील है । नैतिक मूल्यों की वृद्धि नैतिक शुभ की वृद्धि है और नैतिक शुभ परम शुभ की अपेक्षा रखता है । परम शुभ वह है जो बौद्धिक प्राणी को पूर्ण सन्तोष देता है यद्यपि साथ ही यह भी सत्य है कि परम शुभ की प्राप्ति दुर्लभ है । परम शुभ को उस व्यवस्थित बौद्धिक विधान के रूप में समझने पर, जोकि बौद्धिक व्यक्ति को सन्तोष देता है, प्रश्न उठता है कि क्या परम शुभ की ऐसी धारणा वास्तविक है ? ऐसा प्रश्न हमें तत्त्वदर्शन की ओर ले जाता है । तात्विक कठिनाइयों में न जाकर इतना समझ लेना पर्याप्त होगा कि नैतिक शुभ एवं नैतिक मूल्य इस तथ्य पर आधारित है कि मनुष्य वर्तमान स्थिति से उत्पन्न असन्तोष के कारण अपना यह कर्तव्य समझता है कि वह स्वेच्छा से उस मार्ग को चुने जिसकी प्राप्ति उसे सन्तोष देगी । ऐसी सन्तोष की स्थिति एवं नैतिक शुभ की प्राप्ति तथा साक्षात्कार के लिए व्यक्ति सदैव प्रयास करता है । वर्तमान असन्तोष उसे इस स्थिति की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है । वह नैतिक शुभ का स्वतन्त्रतापूर्वक वरण करके उस पूर्णता की स्थिति को प्राप्त करना चाहता है जहाँ दुख, असन्तोष और पाप नहीं है । यही पूर्ण शुभ, पूर्ण कल्याण और पूर्ण सौन्दर्य की स्थिति है । ऐसे शुभ का चयन करना और उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना नैतिक शुभ है । अतः नैतिक शुभ सामान्य शुभ से भिन्न है । सामान्य तौर से उस वस्तु को शुभ कहते हैं जो किसी व्यक्ति विशेष को सन्तोष देती है । किन्तु नैतिक शुभ पूर्णता की धारणा पर आधारित है । वह अपने आप में शुभ है चाहे वह व्यक्ति को सन्तोष दे या न दें । वह चाहे व्यक्ति के लिए सुखद हो या दुःखद, वह शुभ है । यदि यह मान लें कि नैतिक शुभ व्यक्ति को सुख देता है तो इसका यह अर्थ नहीं कि नैतिक शुभ का शुभत्व उसके सुखद होने पर निर्भर है, क्योंकि नैतिक शुभ के लिए व्यक्ति सहर्ष दुःख स्वीकार करता है । शुभ और औचित्य - प्रात्मगत और वस्तुगत औचित्य - शुभ-अशुभ का For Personal & Private Use Only मूल्यवाद / २८७ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्ध ध्येय से है और औचित्य-अनौचित्य का सम्बन्ध साधन से' । अत: उचित कर्म शुभ की प्राप्ति के लिए साधन मात्र है। सामान्य रूप से उचित कर्म वह है जिसे कि उपलब्ध ज्ञान के आधार पर सभी व्यक्ति उचित कहते हैं । किन्तु अधिकतर देखा गया है कि जिसे सब लोग अच्छा कहते हैं उसे व्यक्ति-विशेष अनुचित कहता है और जिसे व्यक्ति उचित कहता है उसे अन्य लोग अनुचित कहते हैं । ऐसी परिस्थिति आत्मगत और वस्तुगत प्रौचित्य के प्रश्न को उठाती है। स्थल रूप से व्यक्तिगत कल्याण के अनुरूप कर्म आत्मगत औचित्यवाले होते हैं और मानव-कल्याण के अनुरूप कर्म वस्तुगत औचित्यसम्पन्न हैं । क्या आत्मगत और वस्तुगत औचित्य में भेद है, या वे एक ही हैं ? नैतिकता वैयक्तिक शुभ और वास्तविक शुभ में भेद नहीं देखती है। वैयक्तिक दष्टि से वही शुभ है जो वास्तविक शुभ की प्राप्ति में सहायक है। वैसे आत्मगत औचित्य उसे कहते हैं जिसे कि कर्म करनेवाला व्यक्ति उचित समझता है और वस्तुगत औचित्य उसे जो कि वास्तव में शुभ की प्राप्ति में सहायक है। उचित कर्म को समझना कठिन कार्य है। अधिकतर कर्ता कर्म के जिस मार्ग को ग्रहण करता है उसके बारे में वह स्वयं ही अनिश्चित रहता है। जिस साधन को चुनते हैं क्या वह वास्तव में उचित है ? सम्यक वैश्व दृष्टिकोण से कौन-सा मार्ग सर्वश्रेष्ठ है ? क्या जो आत्मगत रूप से उचित है वह सदैव ही वस्तुगत रूप से उचित रहेगा ? क्या सब कर्म आत्मगत रूप से उचित हैं ? क्या सब कर्म वस्तुगत रूप से उचित हैं ? क्या वह कर्म वास्तव में शुभ है जिसे व्यक्ति शुभ समझता है ? नैतिकता यह मानती है कि वास्तविक शुभ के अनुरूप कर्म आत्मगत और वस्तुगत रूप से उचित है। अत: आत्मगत और वस्तुगत औचित्य परस्परविरोधी नहीं हैं। फिर भी यदि यह प्रश्न करें कि क्या आत्मगत औचित्यवाला कर्म सदैव ही वस्तुगत रूप से उचित है तो कठिनाई उत्पन्न होती है । सुखवादियों और बुद्धिवादियों ने उचित कर्म की अपूर्ण व्याख्या की है। उदाहरणार्थ, बुद्धिवादियों ने कहा है कि ध्येय की पवित्रता कर्म के औचित्य को निर्धारित करती है। किन्तु ध्येय परिणाम से स्वतन्त्र नहीं है । इसी भाँति केवल परिणाम के आधार पर कर्म का औचित्य नहीं अाँका जा सकता। व्यापक ज्ञान की कमी, परिवेश और परिस्थिति का अज्ञान, क्षीण नैतिक १ देखिए-भाग १, अध्याय । 2. Subjective and Objective rightness. २८८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्दृष्टि, अनहोनी प्राकृतिक घटनाएँ आदि प्रतिकूल परिणामों को उत्पन्न करके शुभ प्रेरणा के कर्म को वस्तुगत रूप से अशुभ सिद्ध कर देती हैं । क्या हम कह सकते हैं कि सब कर्म वैयक्तिक रूप से उचित हैं ? इसमें भिन्न मत नहीं हो सकता कि कोई भी व्यक्ति जान-बूझकर अपना हित नहीं करता है । चोर चोरी को उचित समझकर ही करता है । वह अविवेक के कारण उचित और हितकर स्वार्थ को एक ही मान लेता है और वास्तविक कल्याण को भूल जाता है | आत्मगत औचित्यवाले कर्मों को समझने के लिए सम्यक् ज्ञान और विवेक अनिवार्य है । विवेक उसी कार्य को व्यक्तिगत रूप से अच्छा एवं आत्मगत औचित्यवाला कहता है जिसमें कि व्यक्ति का वास्तविक शुभ है । ऐसा कर्म वह कर्म है जिसमें कि सभी की भलाई निहित है । वास्तविक कल्याणवाले कर्म नैतिक शुभत्व से युक्त हैं । शुभ व्यक्ति वह है जो सक्रिय रूप से साध्यगत या साधनगत वास्तविक मूल्यों की अभिवृद्धि के लिए वहाँ तक प्रयास करता है जहाँ तक कि उसमें क्षमता है । समस्त वास्तविक मूल्यों की अभिवृद्धि अपने भीतर नैतिक शुभत्व की वृद्धि का समावेश करती है । अतः नैतिक शुभत्व को साध्य और साधन दोनों रूपों में समझा जा सकता है। शुभ - अशुभ से परे – नैतिक शुभ तात्विक दृष्टिकोण की ओर ले जाता है । नैतिकता शुभ-अशुभ और पाप-पुण्य के भेद द्वारा यह बतलाती है कि हमें घटनाओं के प्रवाह में आँख मूंदकर नहीं बह जाना चाहिए वरन् अपने विवेक को जाग्रत कर उन कर्मों का वरण करना चाहिए जो शुभत्व की स्थापना में सहायक हैं । नैतिकता विश्व की घटनाओं और कार्यों के सापेक्ष मूल्य को निर्धारित करती है । परिस्थिति, देश, काल और आवश्यकता के अनुसार कर्म को समझना चाहिए । सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान का विकास बतलाता है कि नैतिक निर्णय परिवर्तनशील है । व्यक्ति को रूढ़ि-रीति एवं निश्चित नियमों से ऊपर उठकर उन कर्मों को समझने का प्रयास करना चाहिए जिन्हें कि वह परिस्थिति विशेष में वैयक्तिक और सामाजिक कल्याण के लिए सर्वश्रेष्ठ समझता है । ऐसा विवेक नैतिक कल्याण की ओर ले जाता है और नैतिक कल्याण उस तात्विक सत्य की ओर जो हमें बतलाता है कि पाप और पुण्य का भेद अपूर्ण ज्ञान का सूचक है । शाश्वत दृष्टिकोण से विश्व की घटनाएँ परम शुभ को अभिव्यक्त करती हैं । फिर भी जहाँ तक अपूर्ण और सीमित ज्ञान का प्रश्न है, शुभ और अशुभ हैं। अपनी दुर्बलतानों से ऊपर उठने के लिए नैतिक शुभ की धारणा अनिवार्य है । नैतिक शुभ को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए । मूल्यवाद / २५६ For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक शुभ की चरितार्थता ही परम शुभ की ओर ले जायेगी और परम शुभ की स्थिति शुभ और अशुभ से परे की स्थिति है | मूल्यवाद का स्थान — मूल्यवाद का सामान्य अध्ययन बतलाता है कि इसके प्रतिपादकों ने किसी नवीन सत्य को सम्मुख नहीं रखा। उन्होंने उस सिद्धान्त को जिसे कि सामान्य रूप से सभी नीतिज्ञों ने और विशेष रूप से पूर्णतावादियों ने स्वीकार किया, मूल्यवाद का बाना पहना दिया है । 'मूल्य' शब्द की नवीनता तथा सिद्धान्त के प्रतिपादन की शैली को देखकर क्षण-भर के लिए यह अवश्य प्रतीत होता है कि हमें उस सत्य का भास होने जा रहा है जिससे कि अन्य विचारक अनभिज्ञ हैं । पर, हम देखते हैं कि इन्होंने आत्म-साक्षात्कार के स्वरूप को समझने का प्रयास किया । आत्म-साक्षात्कार का प्रश्न परम साध्य, परम ध्येय एवं परम मूल्य का प्रश्न है । प्राचीन यूनानी विचारकों से लेकर विश्व के अर्वाचीन विचारक भी इसी गुत्थी में उलझे हुए हैं कि परम शुभ क्या है ? आत्म- पूर्णता के क्या अर्थ हैं ? मूल्यवाद के सिद्धान्त की विशिष्टता यह है कि इसने ध्येय की धारणा को व्यक्त करने के लिए अनायास ही एक ऐसे शब्द (मूल्य) का प्रयोग कर दिया है जिसने कि नीति के क्षेत्र में वस्तुवाद श्रौर आदर्शवाद के पारस्परिक विरोध की प्रबलता को क्षीण कर दिया है । मूल्यवादी विचारकों के लिए यह कहना कि वस्तुवादियों' ने मूल्य की पूर्ण रूप से वस्तु - 'वादी व्याख्या और श्रादर्शवादियों ने केवल आदर्शवादी व्याख्या की है, भ्रान्तिपूर्ण होगा; क्योंकि दोनों ने आवश्यकता प्रतीत होने पर एक-दूसरे से सहायता ली है । यही कारण है कि मूल्यवाद एक व्यापक 'वाद' के रूप में हमारे सम्मुख आता है । 1. G. E. Moore, Franz Brentano, Alexius von Meinong, Edmund Husserl, Necoli Hartmann, Hastings Rashdall, A. E. Ewing, John Laird आदि । 2. W. M. Urban, A. Campbell Garnett, W. R. Sorley, A. E. Taylor, Harold Osborne, G. H. Howison, A. C. Knudson, Edgar Sheffield Brightman आदि । २९० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग पाश्चात्य नीतिज्ञ : मार्क्स और नीत्से For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्ल मार्क्स जीवनी-राइन प्रान्त के निवासी डॉक्टर कार्ल मार्क्स' जर्मन ज्यू थे। उन्होंने अपना जीवन अत्यन्त निर्धनता में बिताया । यहाँ तक कि जब उनके एक पुत्र की मृत्यु हुई तो उसे दफनाने के लिए उनके पास पैसा तक न था। वे बड़े मेधावी थे और समय के प्रतिभाशाली राजनीतिक अर्थशास्त्रवेत्ता थे। उन्होंने लन्दन जाकर विलायत के श्रम की समस्याओं का अध्ययन किया और हीगल की द्वन्द्वात्मक प्रणाली (Dialectical Method) के आधार पर अपने प्रसिद्ध द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को जन्म दिया। वे अपने युग के एक क्रान्तद्रष्टा और विचारक थे। उन्होंने अपनी विख्यात अर्थशास्त्र की पुस्तक, 'द कैपिटल' (Das Kapital) में यन्त्रयुग की उत्पादन, वितरण तथा अतिरिक्त लाभ की समस्याओं का विश्लेषण कर पूंजीवादी प्रथा का घोर विरोध किया है। संसार के श्रमिकों को एकत्र होने के लिए आह्वान कर उन्होंने कहा, 'संसार के श्रमिकों, अपना संघटन करो. इससे तुम्हारा कुछ नहीं जायेगा, केवल तुम्हारे दासता के बन्धन जायेंगे।' इस प्रकार उन्होंने यह समझाने की चेष्टा की कि पूंजीवादी प्रथा को मिटाने के लिए रक्तक्रान्ति अथवा वर्गयुद्ध अनिवार्य है। हीगल की द्वन्द्वात्मक प्रणाली-हीगल के अनुसार सत्ता का चरम रूप बुद्धिमय है और जो बुद्धिमय है वही वास्तविक है : सर्वत्र एक ही विचार है। 1. Kari Marx जन्म १८१८ ई० मृत्यु १८८३ ई० 2. Reality. 3. Rational. . . कार्ल मार्क्स | २६३ For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितनी विभिन्नताएँ अथवा विशेषताएँ हैं उनकी सचाई एकता में है । विश्व गतिशील और क्रियात्मक है । उसकी गति के रूप ( विकास - प्रक्रिया ) को समभाने के लिए ही हीगल अपनी द्वन्द्वात्मक प्रणाली का प्रतिपादन करता है । सत्ता के दो रूप हैं : तथ्यात्मक और विचारात्मक । सत्ता के विकास के साथ ही उसके दोनों रूपों का भी निरन्तर विकास हो रहा है । इस विकास का क्या रूप है ? यह कैसे होता है ? हीगल के दर्शन के अनुसार सत्ता एवं वास्तविकता एक क्रमानुगत प्रणाली है जिसका कि कहीं अन्त नहीं हो सकता है । इस क्रमानुगत प्रणाली में विचारों और तथ्यों का विकास साथ-साथ होता है । दार्शनिक होने के कारण वे विचारों को महत्ता देते हैं और कहते हैं कि द्वन्द्वात्मक प्रणाली की प्रेरणाशक्ति स्वयं विचार हैं। अपनी द्वन्द्वात्मक प्रणाली वे यह कहकर समझाते हैं कि विचार की एक विशिष्ट प्रवृत्ति अपने विकास में अपने विरोधी विचार को जन्म देती है । यह विरोधी विचार पूर्वविचार को त्यागता नहीं है किन्तु पूर्वविचार का अपने भीतर समावेश कर लेता है । अतः उत्तरविचार अधिक सत्य है क्योंकि वह पूर्वविचार को सम्मिलित करता है और पूर्वविचार की एकांगी और प्रांशिक उन्नति को पूर्णता देता है । दो विरोधी विचारों के द्वन्द्व के फलस्वरूप पूर्वविचार का उत्तर विचार में प्रवेश कर लेने के क्रम को ही हीगल द्वन्द्वात्मक प्रणाली कहते हैं । वे इस प्रणाली को आवश्यक मानते हैं और प्रत्येक घटना तथा विचार में इसे देखते हैं | विचार, प्रकृति और मानव जगत ये सभी द्वन्द्वात्मक प्रणाली से संचालित होते हैं । द्वन्द्वात्मक प्रणाली द्वारा हीगल ने बतलाया कि विकास का निश्चित लक्ष्य परम प्रत्यय (Absolute Idea ) को प्राप्त करना है। विकास पूर्णतया नियमित र नियन्त्रित है । वह बोधगम्य है | दर्शन का इतिहास विचारों के द्वन्द्वात्मक या पारस्परिक विरोधमूलक इतिहास का निदर्शन है । द्वन्द्वात्मक रीति से प्रत्येक घटना, वस्तु और विचार निषेध एवं विरोध के नियम से संचालित होकर आत्म-संगतिपूर्ण धारणा एवं परम प्रत्यय की ओर बढ़ रहे हैं । परम प्रत्यय ही इनका पर्यवसान है । इतिहास यह स्पष्ट कर देता है कि विकास चलता रहता है और द्वन्द्वात्मक रीति से मानव सदैव अधिक सत्य विचारों की ओर अग्रसर होता रहता है । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद - कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एन्जिल्स' समाजवादी 1. Friedrich Engels. २६४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे। उन्होंने इतिहास की अर्थशास्त्रीय व्याख्या करने में हीगल की द्वन्द्वात्मक प्रणाली को स्वीकार किया एवं साम्यवाद को व्यवस्थित स्वरूप तथा दार्शनिक आधार दिया। हीगल की द्वन्द्वात्मक प्रणाली पर आधारित साम्यवाद दार्शनिक दृष्टि से भौतिकवाद है । उसका स्वरूप भौतिक है । उसके अनुसार विचारों का उत्थान-पतन भौतिक घटनाओं पर निर्भर है । भौतिक घटनाएँ एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ नैतिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि विभिन्न विचारों और सिद्धान्तों पर प्रकाश डाल सकती हैं। मार्क्स और हीगल में भेद- मार्क्स हीगल के विकास के द्वन्द्वात्मक क्रम को मानता है और स्वीकार करता है कि कोई भी विशिष्ट प्रवृत्ति दो विरोधी प्रवृत्तियों का समन्वय है । मार्क्स और हीगल दोनों ही विकास की पद्धति को वाद, प्रतिवाद और समन्वय के रूप में स्वीकार करते हैं। इस समानता के पश्चात् दोनों विचारकों में महान असमानता दीखती है । एक भौतिकवादी और तथ्यात्मक है और दूसरा दार्शनिक और विचारक है। हीगल के अनुसार तथ्यात्मक और विचारात्मक जगत में युगपत् परिवर्तन होते हैं । किन्तु दार्शनिक होने के कारण वह साथ ही यह भी कहता है कि द्वन्द्वात्मक प्रणाली को प्रगति देनेवाले विचार ही हैं। विचारों के विकास के साथ विभिन्न भौतिक घटनाओं (आर्थिक, सामाजिक आदि) में परिवर्तन होते हैं । मार्क्स हीगल के विपरीत कहता है कि दृश्यमान भौतिक जगत मानसिक जगत पर अवलम्बित नहीं है । पदार्थ जगत मानसिक जगत से पहले है और इसलिए विकास के क्रम में वस्तुजगत की घटनाएँ मानसिक घटनाओं में परिवर्तन लाती हैं । अथवा द्वन्द्वात्मक प्रगति को प्रेरणा देनेवाले 'विचार' नहीं हैं किन्तु जीवन की वास्तविक व्यावहारिक आवश्यकताएँ हैं । विचार इतिहास के एक आवश्यक अंग हैं किन्तु वे ऐतिहासिक घटनाओं के जन्मदाता नहीं। वे अपने-आपमें महत्त्वपूर्ण नहीं । उनका महत्त्व इसलिए है कि वे उन परिस्थितियों के प्रतिफल स्वरूप हैं जो उन्हें जीवित रखती हैं। बाह्य जगत की घटनाएँ ही मनुष्य के विचारों की जम्मदाता हैं। विचारों का उत्थान-पतन उन्हीं पर निर्भर है।। ऐतिहासिक दृष्टान्त द्वारा स्पष्टीकरण-इस तथ्य की पुष्टि करने के लिए मार्स ऐतिहासिक उदाहरण देता है। तथ्यात्मक विकास द्वन्द्वात्मक है । एक विशिष्ट प्रवृत्ति अपनी पूर्वप्रवृति के ह्रास के साथ बढ़ती है और अपने उत्थान 1. Thesis, Antithesis and Synthesis. कार्ल मार्क्स | २६५ For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक पहुँचते-पहुँचते वह अपनी उत्तरप्रवृत्ति को जन्म दे देती है। यह क्रम चलता रहता है। अथवा तथ्यात्मक घटनाओं के उतार और चढ़ाव का क्रम ही विकास है। मार्क्स कार्य-कारण भाव को भी मानता है। प्रत्येक तथ्यात्मक घटना के घटित होने के पीछे सदैव एक कारण है । वास्तविक घटनाओं को लेते हुए कहता है कि उन्नीसवीं शताब्दी में व्यक्तिवाद अपने चरम विकास में पहुँचा और उसने अपने विकास के क्रम में सामूहिकवाद को जन्म दिया। अतः घटनाओं को समझने के लिए विरोधी प्रवृत्तियों और उनके परिणाम को समझना आवश्यक है। समाज का विश्लेषण : विरोधी वर्ग-इस दृष्टि से मार्क्स समाज का अध्ययन करता है और इस परिणाम पर पहुँचता है कि समाज की आर्थिक रचना प्रचलित नैतिक, दार्शनिक, धार्मिक और सामाजिक विचारों को समझा सकती है । विभिन्न विचारों को समझने के लिए ही वह अपने अर्थशास्त्रीय सिद्धान्त की ऐतिहासिक दृष्टि से मीमांसा करता है। यदि प्राचीन मानवइतिहास को पढ़ें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताओं-भोजन, वस्त्र, निवासस्थान-ने उसे कच्चे माल का उपयोग करना सिखलाया। जीवन-यापन के लिए मनुष्य और वस्तु का सम्बन्ध अखण्ड और आवश्यक है । मनुष्य और वस्तुओं के बीच के सम्बन्ध ने ही मनुष्य और मनुष्य के बीच के सम्बन्ध को स्थापित किया है । एक ओर वे लोग हैं जो कच्चा माल, उत्पादन, एवं उत्पन्न वस्तुओं और उत्पादन के यन्त्रों के स्वामी हैं और दूसरी ओर वे जिनके पास केवल श्रम करने की शक्ति है और जिनके जीवन की आवश्यकताएँ उन्हें विवश करती हैं कि वे अपनी श्रम-शक्ति को अधिकारी वर्ग के हाथों में बेच दें। मानव-जीवन का लब्ध इतिहास बतलाता है कि समाज में सदैव दो विरोधी वर्ग रहे हैं। शासक और शासित, पूँजीपति और सर्वहारा, स्वामी और सेवक अथवा वस्तुओं के अधिकारी और अपनी श्रम-शक्ति को बेचनेवाले। यही दो वर्ग सदैव किसी-न-किसी रूप में प्रस्फुटित होते रहे हैं। ऐतिहासिक दृष्टान्त देते हुए मार्क्स ने कहा कि समाज में विरोधी वर्गों के तीन मुख्य रूप मिलते हैं-(१) दासप्रथावाला समाज, (२) सामन्ती समाज और (३) पूँजीवादी समाज । सामाजिक नैतिकता वर्ग नैतिकता है-इन तीनों प्रकार के समाजों का 1. Collectivism. २६ ६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन बतलाया है कि श्रमिक शक्ति का क्रय करनेवाले अत्यन्त निष्ठुर और निर्मम रहे हैं । उन्होंने सदैव श्रमिकों का शोषण किया । अपनी सुविधा और लाभ के अनुसार नियम बनाये। जिन नियमों को समाज शुभ और उपयोगी कहता है वे केवल धनिकों के सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य के लिए हैं । धनिकों ने sus और आर्थिक शक्ति के बल पर उन सामाजिक नियमों की स्थापना की है जो शोषित वर्ग के हित से दूर हैं। अपने हित को सम्मुख रखकर धनिकों ने कर्तव्य और अधिकारों को निश्चित किया है । नैतिक, धार्मिक और सामाजिक नियम अपने मूल में अधिकारी वर्ग और श्रमिकों के सम्बन्ध के सूचक हैं । जिसे हम सामाजिक नैतिकता कहते हैं वह वर्ग नैतिकता है । सामाजिक नैतिकता का स्वरूप बतलाता है कि शोषकवर्ग के बनाये नियम सर्वसाधारण के लाभ के लिए नहीं हैं वरन् स्वयं उन्हीं के लाभ के लिए हैं । मार्क्स अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर यह भी कहता है कि प्रत्येक समाज में उसके विरोधी कीटाणु रहते हैं । यदि पूँजीवाद को लें तो हम देखेंगे कि पूँजीपति श्रमिकों की श्रम-शक्ति कम-से-कम मूल्य में खरीदते हैं । सर्वहारावर्ग अपनी आवश्यकताओं की भूख के कारण और पूंजीपति अपने स्वामित्व तथा धनं- लालसा के कारण एक-दूसरे के कट्टर विरोधी होते जा रहे हैं । मार्क्स का कहना था कि पूँजीवाद का यह प्रान्त - रिक विरोध उसी का विनाश करके साँस लेगा । प्रार्थिक व्यवस्था विभिन्न विचारों की जन्मदात्री - जो वस्तुनों के अधिकारी एवं धनी हैं उनके हाथों में ही राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक शक्ति है । वे अपनी आवश्यकता और सुविधानुसार नियमों को बनाते, बिगाड़ते और बदलते रहते हैं | मनुष्य के बनाये नियमों का मूल प्रेरणास्रोत मनुष्य और वस्तुत्रों के बीच का सम्बन्ध है । आर्थिक व्यवस्था ही विभिन्न विचारों की जन्मदात्री है | इतिहास के क्रम और भौतिक घटनाओं को कच्चे माल की प्राप्ति, उत्पादन -यन्त्रों का आविष्कार तथा जलवायु सम्बन्धी भौगोलिक परिवर्तन निर्धारित करते हैं, न कि मनुष्यों के संकल्प और विचार । ग्रतः प्रार्थिक परिवर्तन ही इतिहास को बनाते हैं। मनुष्य और वस्तु सम्बन्ध के अनुसार ही विभिन्न नियमों, विचारों और धारणाओं में परिवर्तन हुआ है । मनुष्य की प्रतिभा और विचार, उसकी सृजन-शक्ति, मनः-शक्ति और इच्छाएँ जो कुछ भी करती हैं वह भौतिक आवश्यकतात्रों से बाध्य होकर । यह कहना भ्रान्तिपूर्ण है कि विचार अपने आप में स्वतंन्त्र है और मनुष्य का मानस आविष्कार और सृजन कर सकता है : यदि मानव मस्तिष्क की क्रियानों को उचित रूप से कार्ल मार्क्स / २९७ For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझने का प्रयास करें तो मालूम पड़ेगा कि उसकी सृजन-क्रिया स्वतन्त्र और सहज नहीं है। वह परिस्थितियों की उपज है। मार्क्स अपने सिद्धान्त द्वारा यह सिद्ध करना चाहते थे कि किसी विशिष्ट समाज में जो परिवर्तन होते हैं वे उसकी आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर हैं। समाज का सांस्कृतिक जीवन, धार्मिक और नैतिक नियम, कानुनी तथा शिक्षासंस्थाएँ, सौन्दर्यशास्त्र आदि जो कुछ भी मनुष्य के आदर्शों और विचारों के प्रतीक हैं वे मूलतः आर्थिक विधान पर आश्रित हैं। नैतिक विचारों की प्रसत्यता का स्पष्टीकरण-मार्क्स नैतिक सुधार की दृष्टि से जीवन की समस्याओं का अध्ययन करते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि विश्व की आर्थिक क्रान्ति ही नैतिक क्रान्ति में प्रतिबिम्बित होती है। प्रचलित नैतिकता शोषकवर्ग की नैतिकता है। वह विरोधी वर्गों के सम्बन्ध पर आधारित है। उसमें नयी मान्यताओं का समावेश करके उसे आमूल बदलना होगा। पुरानी रूढ़िग्रस्त नैतिकता अनेक विकृतियों से पीड़ित है, वह जनता की आवश्यकताओं को नहीं समझ पायी है। मार्क्स उन सभी नैतिक विचारों को अपूर्ण और असत्य कहते हैं जो सर्वहारावर्ग की समस्याओं से दूर हैं। उनका कहना है कि शुभ-अशुभ, न्याय-अन्याय, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य की परिभाषा देनेवाले नीतिज्ञों का दर्शन भ्रान्तिपूर्ण है। क्योंकि आदर्शवादी नीतिज्ञ जीवन-संघर्ष से दूर रहे हैं, वे जीवन की आवश्यकतानों को नहीं समझ सके । उन्होंने नैतिक प्रत्ययों को अपनी ही सामाजिक और आर्थिक रचना के अन्दर देखा और उसी की भलाई के उद्देश्य से नैतिकता को जन्म दिया । उनका ज्ञान जीवन के व्यावहारिक और वास्तविक पक्ष का ज्ञान नहीं है । कोरे बुद्धिवाद का कोई वास्तविक मूल्य नहीं है। विशिष्ट वर्ग के सम्पर्क में रहनेवाला बुद्धिजीवी मानव जनसामान्य की आवश्यकतानों को नहीं समझ पाया । खातेपीते पंजीवादियों के अतिरिक्त एक बड़ी संख्या उन लोगों की है जो विचारहीन तथा कष्टसाध्य जीवन बिताते हैं और जीवन-यापन के यथेष्ट साधन तथा सुविधाएँ न होने के कारण असमय में चल देते हैं । उनकी श्रम शक्ति को निर्दय धनिक खरीद लेते हैं। चिन्तन के जगत में रहनेवाले नीतिज्ञ जीवन की नग्न और वास्तविक समस्याओं को नहीं सुलझा पाये । उन्होंने उन अमूर्त मान्यतानों और असत्य विचारों को जन्म दिया जो त्रस्त और भूखे सर्वहारावर्ग के लिए अहितकर हैं। उनका दर्शन अपने ही अभिभावक समाज एवं शोषकवर्ग के लाभ के लिए है। २९८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक सापेक्षवाद-मार्क्स ने समाज के विरोधी वर्गों के आधार पर समझाया कि नैतिक नियम शाश्वत और निरपेक्ष नहीं हैं । समाज में जो परिवर्तन मिलता है उसके मूल्य में उत्पादन और वितरण का नियम है और समाज की आर्थिक व्यवस्था ही नैतिक नियमों के स्वरूप को निर्धारित करती है । नैतिक प्रत्यय और निर्णय केवल मूल्यपरक नहीं हो सकते । मान्यताओं और आदर्शों को तथ्य से भिन्न मानना व्यर्थ है । वही नियम वास्तव में नैतिक हैं जो दलित मानवों के व्यापक और मूर्त भौतिक तथा सांस्कृतिक कल्याण से सम्बन्ध रखते हैं। आर्थिक स्थित से स्वतन्त्र नैतिक नियम असत्य हैं। आदर्शवादी और प्राध्यात्मिक नैतिकता तथा प्राचीन और प्रचलित नैतिक नियम अनैतिक हैं। इन्होंने सद्गुण और शुभ जीवन के अर्थ को नहीं समझा । नैतिक नियमों को शास्वत कहना नैतिक समस्या को हल करना नहीं है । उचित-अनुचित, शुभ-अशूभ के नैतिक प्रत्यय अपने-आपमें कुछ नहीं हैं। समाज की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में वे ही अर्थ रखते हैं। यदि यह मान लें कि चिन्तनप्रधान प्रणालियों की अपनी विशेषता है तो भी नैतिक दृष्टि एवं जीवन की वास्तविक कठिनाइयों की दष्टि से वे व्यर्थ हैं। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर मार्क्स यह भी कहता है कि जो कभी बौद्धिक था वह आज अबौद्धिक माना जाता है। दासप्रथा तथा सामन्ती समाज में दासों तथा कृषकदासों का रखना उचित माना जाता था किन्तु आज की आर्थिक व्यवस्था उसे अनुचित मानती है। अतः नैतिक नियमों को नित्य और शास्वत मानना अनुचित है। विकास के क्रम में नैतिक अनैतिक हो जाता है। . स्वतन्त्रता का अर्थ-~-मार्क्स जड़वादी विचारक थे। उन्होंने अध्यात्मवादियों की भाँति शाश्वत चैतन्य या आत्मा को नहीं माना; उनके अनुसार प्राकृतिक जड़भूतों से उत्पन्न शरीर से ही मानस उत्पन्न होता है । मनुष्य का मानस भौतिक परिस्थितियों से स्वतन्त्र नहीं है। मानस और संकल्प उन भौतिक स्थितियों से निरूपित होता है जिन्हें कि वे व्यक्त करते हैं। ये स्थितियाँ ही उस ढाँचे का निर्माण करती हैं जिसकी सीमा के अन्दर मनुष्य स्वतन्त्र है। मार्क्स यह मान लेता है कि जड़ और मन एक दूसरे को प्रभावित करते हैं पर साथ ही वह यह सिद्ध करता है कि अन्ततः जड़ ही मानस को निर्धारित करता है। उत्पादन तथा उत्पादन-यन्त्रों पर अधिकार रखनेवाला वर्ग ही समाज के विचारों को निर्धारित करता है । ये विचार मनुष्य के मानस को प्रभावित करते हैं और उसकी इच्छात्रों और रुचियों से संयुक्त होकर उत्पादन वितरण के नियमों को कार्ल मार्क्स / २६६ For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप देते हैं। मानस आर्थिक शक्तियों का कुछ सीमा तक रूपान्तर कर बुद्धि तथा विचार द्वारा परिस्थिति को एक विशिष्ट रूप देता है। किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि मनुष्य के सृजनशील विचार सहज तथा स्वतन्त्र चिन्तन के परिणाम नहीं हैं। वे उस शिक्षा, संस्था और प्रचलित मान्यताओं की उपज हैं जिनमें कि व्यक्ति पलता है और इन सबके मल में आर्थिक स्थिति है। साम्यवाद तथा साध्य और साधन की समस्या-मार्क्स के अनुसार साम्यवादी जनतन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भौतिक आवश्यकताओं को प्राप्त करने का अधिकार रहेगा। अपनी योग्यता तथा आवश्यकता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से अवसर मिल सकेगा। वैयक्तिक सम्पत्ति के लिए साम्यवाद में कोई स्थान नहीं है। समानता को स्वीकार करनेवाला साम्यवाद सम्पत्ति पर एकमात्र राष्ट्र का आधिपत्य मानता है यद्यपि सब व्यक्ति योग्यता एवं अावश्यकतानुसार समान रूप से सम्पत्ति का उपयोग कर सकते हैं । सम्पत्ति का ऐसा सिद्धान्त वर्गहीन समाज की स्थापना करेगा। और वर्गहीन समाज आर्थिक स्वार्थों, लोभों तथा ईर्ष्याओं से मुक्त होकर जनमानवता की भावना की पुष्टि करेगा। ऐसे तन्त्र में रहनेवाला व्यक्ति आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त होकर अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है । आर्थिक स्वतन्त्रता ही स्वतन्त्रता को जन्म देती है और आर्थिक स्वतन्त्रता के लिए निरन्तर कर्म (शारीरिक श्रम) करना अनिवार्य है। समता और स्वतन्त्रता की भावनाएँ व्यक्तित्व के विकास में सहायक हैं किन्तु इनके मूल में वर्गहीन समाज है। व्यक्ति समाज का अंग है। उसे समाज के लिए कर्म करने पड़ेंगे। सामाजिक गुण ही अन्य गुणों को उत्पन्न करते हैं। प्रश्न यह है कि ऐसे वर्गहीन समाज की स्थापना कैसे सम्भव है ? मार्क्स का कहना है कि ऐसे समाज के लिए वर्गसंघर्ष एवं रक्तक्रान्ति का होना अनिवार्य है। प्रारम्भ में ऐसे समाज के संचालन के लिए तानाशाही का होना "भी आवश्यक है। अपनी अन्तिम स्थिति में ऐसे समाज में शासन-सत्ता अपने आप ही लुप्त हो जायेगी। वर्गहीन समाज कल्याणप्रद है किन्तु उसकी प्राप्ति के लिए हिंसात्मक साधन को स्वीकार करना पड़ेगा। पूँजीवादी समाज में अधिकांश व्यक्ति भूखे मर रहे हैं। रेडियो, चलचित्र, प्रेस सभी पर धनिकों का अधिकार है। वे धन के बल पर वोट तक खरीद लेते हैं। उनका धन और शक्तिलोभ नृशंस शासक की भाँति सर्वहारावर्ग का रक्त चूस रहा है । असहाय सर्वहारा अपने अधिकारों की मांग तक नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति में ३०० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजातन्त्रवाद भी व्यर्थ है क्योंकि सम्पत्तिहीन के लिए वैयक्तिक स्वतन्त्रता अर्थशून्य है। साम्यवाद ही एकमात्र शुभ है क्योंकि यह आर्थिक समानता का पोषक है । ऐसे समाज की स्थापना के लिए विश्वव्यापी क्रान्ति अनिवार्य है। हमें चाहिए कि हम श्रमिकों में विद्रोह और विप्लव की प्राग सुलगा दें। जब श्रमिक अपने ऊपर किये हुए अत्याचारों के प्रति सचेत हो जायेंगे तो वर्गयुद्ध जन्म लेगा। रक्त-क्रान्ति के पश्चात् सर्वहारा का अनन्य शासन अनिवार्य है । धनिकों एवं बुर्जुगों' का राज्यसत्ता में कोई अधिकार नहीं रहेगा। पूंजीवाद ने सर्वहारावर्ग को उत्पन्न किया है और सर्वहारावर्ग उसका विनाश अवश्य करेगा। श्रमिकों का एकच्छत्र राज्य साम्यवाद की स्थापना करेगा और साम्यवाद की अन्तिम स्थिति में राज्यशासन की कोई आवश्यकता नहीं रह जायेगी। आलोचना आर्थिक मूल्यांकन---उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में प्रौद्योगिक क्रान्ति से आक्रान्त हुए कुछ प्रतिभाशाली विचारक हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति से प्रभावित हुए। इन विचारकों ने, विशेषकर, मार्क्स और एंजिल्स ने मानव-विचारों, मान्यताओं और नियमों के मूल में भौतिक घटनाओं एवं समाज की आर्थिक स्थिति को देखा और इस निष्कर्ष पर पहँचे कि धर्म, दर्शन, कला, सामाजिक संस्थाएँ, नैतिक मान्यताएँ आदि आर्थिक व्यवस्था को प्रतिबिम्बित करती हैं। अधिक संख्यक की दुर्बल आर्थिक स्थिति को देखकर मार्क्स अत्यन्त दुखी हुए और उनकी गहन समवेदना उग्र प्रतिशोध के रूप में प्रकट हुई। उन्होंने अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद द्वारा समझाया कि विश्वव्यापी रक्तक्रान्ति ही आर्थिक समानता, सुख और शान्ति की स्थापना कर सकती है। इसमें सन्देह नहीं कि मार्क्स ने अपने युग की समस्याओं तथा मशीन के सम्पर्क में आयी हुई जनता को भलीभाँति समझा। मनुष्यों की क्षुधा-काम की प्रवृत्तियों का अध्ययन करके एक नवीन सामाजिक संघटन की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट किया। सभी विचारक अब इस सत्य को किसी-न-किसी रूप में मानने लगे हैं कि जीवन के १. Bourgeois == बुर्जुश्रा शब्द मध्यवर्ग का पर्यायवाची है। मध्यवर्ग निर्दयता, दुष्टता एवं नृशंसता का प्रतीक बन गया है । २. Proletariat=प्रोलिटेरिएंट, श्रमिक अथवा सर्वहारा । कार्ल मार्क्स /३०१ For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्थिक पक्ष की ओर से हम उदासीन नहीं रह सकते । जीवन की इस मूलगत आवश्यकता की ओर गांधीजी ने संकेत करते हुए कहा कि वे भूखों को धर्म का सन्देश नहीं दे सकते । धार्मिक विचारक भी यह मानते हैं कि 'भूखे भजन न होइ गुपाला' । भूखा मनुष्य एक ओर तो नरभक्षी तक बन जाता है और दूसरी ओर भोजन का प्रभाव उसे असहाय तथा निःशक्त बना देता है | मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए तथा उसकी सांस्कृतिक, कलात्मक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए शारीरिक सुख आवश्यक है । भोजन, वस्त्र और निवास का अधिकार मूलगत और जन्मसिद्ध है । किन्तु मार्क्स ने ऐसी मूलगत आवश्यकता की तृप्ति के लिए जिस साधन ( रक्तक्रान्ति) को अनिवार्य बतलाया है वह उतना ही निर्मम है जितना वह वर्ग जिसे कि वह मिटाना चाहता है । साध्य साधन का प्रश्न - प्रार्थिक समानता की स्थापना के लिए मार्क्स जिस साधन को अपनाता है वह मानवोचित नहीं है । मनुष्य की नैतिक चेतना एक ऐसे पथ को नहीं अपना सकती जो रक्तपंकिल हो । 'खून का बदला खून', यह कथन सामाजिक कल्याण के इच्छुक अथवा समानता और भ्रातृत्वभावनावाले व्यक्ति के लिए मान्य नहीं है । नैतिक जीवन में साधन और साध्य, दोनों की पवित्रता अनिवार्य है । अशुभ साधन द्वारा प्राप्त शुभ ध्येय अशुभ और वांछनीय है । मार्क्स ने अपने साधन को केवल रक्तक्रान्ति और वर्गयुद्ध से सम्बन्धित रखा । इसे हम मार्क्स के युग की सीमा मान सकते हैं क्योंकि उसके युग में पूँजीवाद अपने चरम शिखर पर था । अतः प्राज का दृष्टिकोण वर्गयुद्ध को मार्क्स के युग के विराट् संघर्ष का एक राजनीतिक चरणमात्र मान सकता है । श्रान्तरिक चेतना अनिवार्य - अर्थभित्ति पर मार्क्स उस नवीन सामाजिक सम्बन्धको वास्तविकता देना चाहता है जो समानता, भ्रातृत्व-भावना और स्वतन्त्रता का मूर्तिमान् स्वरूप है । वास्तविक जीवन का अध्ययन, मनोवैज्ञानिक संचय और चेतना का तात्विक स्वरूप बतलाता है कि प्रार्थिक स्थिति ग्रान्तरिक 'चेतना का मार्गनिर्देशक नहीं बन सकती । बाह्य परिवर्तन से प्रान्तरिक परिवर्तन का प्रयास उलटी गंगा बहाना है। किसी भी शुभ कर्म के लिए आन्तरिक शुद्धता अनिवार्य है । जब मानव चरित्र किसी सत्य को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेता है तो वह अवश्य ही कर्म द्वारा व्यक्त होता है। सच तो यह है कि पारस्परिक एकता और स्नेह की चेतना सहज रूप से त्याग और प्रार्थिक समानता के रूप में प्रकट होती है, न कि प्रार्थिक समानता मानसिक समानता के रूप | आर्थिक विषमताजन्य अत्याचारों को आदर्शवादियों और अध्यात्मवादियों ३०२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने भी भलीभाँति समझा। गान्धीजी को तो इस सत्य की तीव्र अनुभूति हुई और इसको दूर करने के लिए उन्होंने सत्य और अहिंसा का व्रत लेकर जनसेवा को अपने जीवन का ध्येय बनाया। मार्क्स के रक्तक्रान्ति के नारे के विरुद्ध उन्होंने स्वेच्छित अपरिग्रह और सम्पत्ति के संरक्षण की चेतना के स्थायी मूल्य को समझाया। यदि डण्डे के जोर से समानता स्थापित हो भी गयी तो वह जल्दी ही मिट जायेगी। भयवश किसी नियम का पालन करना उसे अपनाना नहीं है। आर्थिक और राजनीतिक क्रान्तियों का जीवन के बाह्य पक्ष से सम्बन्ध है । हमें हृदय की क्रान्ति एवं उस व्यापक सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक जागरण की आवश्यकता है जो चिरस्थायी रहेगा। लोकसंघटन अपने-आपमें अपर्याप्त है। मनःसंघटन इसका पूरक है और वह नैतिक चेतना की जाति की अपेक्षा रखता है। अत: प्रान्तरिक अनुभूति के विना बौद्धिक सहानुभूति और आन्तरिक एकता के बिना बाह्य एकता केवल एकांगी सिद्धान्तमात्र रह जाते हैं। ___ जीवन के दो पक्ष : ऊर्ध्व और समतल : व्यक्ति नगण्य—मार्क्स का भौतिकवाद सामाजिक वास्तविकता का जन्मदाता है। उसने जीवन को समतल में देखा और उसकी एकांगी व्याख्या की । जीवन के दो पक्ष हैं : ऊर्ध्व और समतल अथवा प्राध्यात्मिक और भौतिक । ये दोनों आपस में विरोधी नहीं हैं और जीवन में युगपत् रूप से कार्य करते हैं। मार्क्स की ऐतिहासिक और आर्थिक मीमांसा मानवीय चेतना, विचार और भावना को नहीं समझा सकती किन्तु मार्क्स अर्थशास्त्रीय व्याख्या में इतना लीन हो जाता है कि वह जीवन के ऊर्ध्व अथवा आत्मिक एवं आध्यात्मिक पक्ष को भूल जाता है । शारीरिक सुख अपनेआपमें अपूर्ण है। सुखी जीवन आत्मिक और शारीरिक सुख का योग है। साम्यवादी तन्त्र में शारीरिक तथा भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए मनुष्य को अपनी वैयक्तिक स्वतन्त्रता से हाथ धोना पड़ता है । व्यक्ति का जीवन, उसका परिवार, उसके विचार और कर्म सब कुछ राज्य के अधीन हो जाते हैं। सामूहिकता के लिए राज्य उसके सर्वस्व का हरण कर सकता है। राज्य साम्यवाद के विरोधियों को मृत्युदण्ड दे सकता है। ऐसे समय में लेखक और कलाकार की प्रतिभा का मूल्य भी इसी पर निर्भर है कि वे राज्य तथा सर्वहारा की गुणगाथा और धनिकों की नशंसता को कितनी अभिव्यक्ति दे सकते हैं। अतः साहित्य १ देखिये-भाग ३, अध्याय २५ । कार्ल मार्क्स | ३०३ For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की श्रेष्ठता उसकी राजकीय उपयोगिता पर निर्भर हो जाती है। राज्य के लिए उपयोगी साहित्य ही श्रेष्ठ और प्रगतिशील है। मार्क्सवाद के अनुसार धर्म अफीम के समान है जो सर्वहारा को उसके आर्थिक अभाव को भुलाये रखने में मदद देता है । अतः मार्क्सवाद आर्थिक समानता के नाम पर वैयक्तिक स्वतन्त्रता का विरोधी है । वह उन सभी प्रवृत्तियों का विनाश करना चाहता है जो आर्थिक समानतारूपी सामूहिक जीवन की प्रगति के लिए राज्य के आदेशों की प्रशंसा और अन्धानुकरण नहीं करतीं। नैतिकता का अर्थ-मार्स ने अपने सिद्धान्त द्वारा अनेक नैतिक समस्याओं को उठाया। जीवन का आदर्श क्या है ? शिक्षा का उचित रूप क्या होना चाहिए ? बच्चों के व्यक्तित्व का विकास कैसा हो ? शुभ-अशुभ से क्या अभिप्राय है ? कर्तव्य, अधिकार, न्याय, स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है ? इन समस्याओं को देखकर लगता है कि मार्क्स ने नैतिकता के सार को समझा है। किन्तु जब हम इस दृष्टि से मार्क्स के दर्शन का अध्ययन करते हैं कि नैतिकता का सम्बन्ध सम्पूर्ण प्रात्मा से है तो निराशा होती है। मार्क्स ने जीवन और नैतिकता के केवल एक अंग को समझा है । उसने भौतिक एवं जैव पक्ष को मान्यता दी है। कानून, नियम, धर्म, शुभ-अशुभ.आदि को उसने आर्थिक मानदण्ड से नापा है और मानव-दुःख के मूल में आर्थिक विषमता को देखा है। उसके अनुसार उत्पादन और वितरण की उचित व्यवस्था द्वारा एवं अर्थशास्त्र के द्वारा ऐसी व्यवस्था की स्थापना कर सकते हैं जो मानव-एकता स्थापित कर सके तथा स्वार्थ और दुःख को दूर कर सके। मार्क्स यह समझने में असमर्थ है कि आर्थिक समता होने पर भी अन्य विषमताएँ-भिन्न विचार, विरोधी आस्थाएँ, शक्तिलोभ, यशलालसा, विशिष्ट गुणसम्पन्नता आदि सम्बन्धी स्पर्धा-जीवन को दुःखी बना सकती हैं। मासं मानवीय सम्बन्धों-पति-पत्नी, माँ-बच्चे, व्यक्ति-समाज, मित्रता आदि–को आर्थिक सम्बन्ध के रूप में देखता है। वह सब समस्याओं का समाधान उत्पादन और वितरण के नियम द्वारा करता है । भौतिक एवं आर्थिक आवश्यकता ही वह जीवन का आदि और अन्त मान लेता है । जीवन की ऐसी व्याख्या नैतिक जिज्ञासा का समाधान नहीं कर सकती। नैतिक जीवन आत्म-पारोपित नियम, संकल्प-स्वातन्त्र्य, आन्तरिक पवित्रता, कर्तव्य के बोध का जीवन है । नैतिकता प्रात्मोन्नति और आध्यात्मिक जागरण का प्रतीक है । वह वैयक्तिक स्वातन्त्र्य के द्वारा सर्वकल्याण की स्थापना करना चाहती है। मार्क्स का नीतिशास्त्र नैतिकता की मूलगत मान्यताओं को ३०४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकार नहीं करता। वह नैतिकता के नाम पर समाज की अर्थशास्त्रीय व्याख्या करता है। विरोधाभास-मार्क्स का कहना है कि आर्थिक समानता वर्गहीन समाज एवं साम्यवाद की स्थापना करेगी जो कि मानव-विकास की अन्तिम परिणति है । इस समाज में शान्ति चिरस्थायी होकर रहेगी। यह समाज ही विश्वजीवन के विकास ध्येय है। किन्तु मार्क्स की ऐसी उक्ति विरोधाभासपूर्ण है। क्या उसका द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद यह नहीं कहता कि एक ही स्थिति सदैव नहीं रह सकती ? क्या निषेध-विरोध अथवा भाव-प्रभाव का नियम सदैव नवीन शक्तियों को जन्म नहीं देता है ? कार्ल मार्क्स | ३०५ For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ फ्रेडरिक नीत्से 1 जीवनी - फ्रेडरिक नीत्से ( Friedrich Nietzsche ) का जन्म १६ अक्टूबर १८४४ में हुआ । उनके पिता पादरी थे । उनका पालन-पोषण ईसाई धर्म के वातावरण में हुआ । स्वभावतः छुटपन से ही उनकी पादरी बनने की उत्कट अभिलाषा थी । किन्तु विधाता ने उनको अनीश्वरवादी बना दिया । वह एक मधुर प्रकृति के, विनम्र सहृदय तथा ग्रात्म-प्रबुद्ध व्यक्ति थे । किन्तु प्रत्यन्त उच्चाभिलाषी और तर्कप्रधान होने के कारण वह दुष्टबुद्धि हो गये । उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ विषम परिस्थितियों द्वारा बुरी तरह कुचली गयीं । उनके जीवन की घटनाओं का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका जीवन निराशा और कटुतापूर्ण था । वे सेना के किसी उच्च पद पर होना चाहते थे । पर अपनी क्षीण चक्षुशक्ति, अस्वस्थता और घोड़े से गिर पड़ने की दुर्घटना के कारण उन्हें सेना में स्थान नहीं मिला । वह जिस स्त्री को चाहते थे उसे भी न पा सके और आजन्म अविवाहित रहे । वह बौद्धिक मित्रता के इच्छुक थे, वहाँ भी उन्हें सफलता न मिली । अन्त में अपनी ही मोल ली हुई विपत्तियों द्वारा, 'अपनी उच्चाभिलाषा और असहिष्णुता के कारण, उनके जीवन में असह्य एकाकीपन आ गया । वह इतने आक्रान्त हो गये कि उनकी क्षुब्ध मनःस्थिति ने उन्हें पागल बना दिया और २५ अगस्त १६०० में वे निमोनिया से पीड़ित हर चल बसे । सिद्धान्त का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण —— नीत्से के सिद्धान्त को उचित रूप से समझने के लिए उनके जीवन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आवश्यक है । केवल पुस्तकों के अध्ययनमात्र से उनके स्वभाव और दर्शन के सम्बन्ध में भ्रान्त ३०६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारणा हो सकती है। उनकी धर्म-विषयक धारणाओं में जो एक भयंकर अनैतिकता और असमानता की झलक मिलती है उसके लिए उनके अवचेतन के संस्कारों को ही दोषी बतलाना उचित होगा। उनकी तर्कबुद्धि अत्यन्त तीक्षण और घातक थी। उसने मनुष्यों के एकमात्र अवलम्ब ईश्वर को भी छीन लिया। उनके अनीश्वरवाद के कारण अधिकांश लोग उन्हें वौद्धिक दानव समझने लगे हैं । उनकी जीवनी का सहानुभूतिपूर्ण अध्ययन और उनकी पुस्तक 'बियॉण्ड गुड ऐण्ड इविल' ( Beyond good and evil) के मनन से स्पष्ट हो जाता है कि उनका उद्देश्य लोगों को धर्म से स्खलित करने का नहीं था । उन्होंने धर्म को एक बौद्धिक और तार्किक स्तर पर उठाने का प्रयास किया, जिससे वह अनीश्वरवादी बन गये । पूर्ण विकसित, बौद्धिक जनसत्ता राज्य (intelJcetual aristocracy) को समझाने के हेतु उन्होंने नैतिकता को, जैसा कि हम ग्रागे देखेंगे, दो विरोधी वर्गों में बाँट दिया : प्रभों की नैतिकता और दासों की नैतिकता । प्रभुनों की नैतिकता की श्रेष्ठता समझाने के अभिप्राय से उन्होंने दासों की नैतिकता (प्रचलित नैतिकता)को संघ सदाचार( (herd morality) तथा उपयोगितावादी नैतिकता (Utilitarian morality) कहकर उसकी खिल्ली उड़ायी। उसी आधार पर उन्होंने ईसाई धर्म के सदाचार की भी कड़ी अालोचना की। किन्तु यह मानना ही होगा कि उन्होंने दुर्बुद्धि के कारण ही अनीश्वरवाद को महत्त्व देकर उसका प्रचार किया। एक असम्भव महत्त्वाकांक्षा के कारण ही वे जीवन भर स्नेह, शान्ति, सम्मान और कीर्ति को न पा सके । उनके भाग्य और स्वभाव ने उन्हें सर्वत्र निराशा और झुंझलाहट ही दी । उनके जीवन की निराशा और कटुता का एक और कारण था-उनका सन्मित्रों के साथ अन्तरतम सम्बन्ध का अभाव । उन्हें जीवन में सहानुभति और प्रेम-सी कोई वस्तु प्राप्त न हो सकी । वे समचित्तवृत्ति एवं समबुद्धि मित्रता के लिए प्राजन्म १. अपनी सत्यानासी महत्त्वाकांक्षा के कारण ही वह इस तथ्य पर पहुँचे कि पृथ्वी में अति मानव (पूर्ण विकसित व्यक्ति अथवा प्रभुत्व प्राप्ति की महदाकांक्षावाला प्राणी) से महान कुछ नहीं है। अपनी घातक तर्कद्धि द्वारा उन्होंने भगवान् की सत्ता तथा मानवीय गुणों की वास्तविकता पर सन्देह किया और वे इस परिणाम पर पहुँचे कि सत्य का ज्ञान इस बात का साक्षी है कि अतिमानव (अति दानव ? ) को ही जीवित रहने का अधिकार है। २. "एक पूर्ण व्यक्ति को मित्रों की आवश्यकता होती है, अथवा उसे ईश्वर पर अनन्य विश्वास होना चाहिए । मेरे पास न तो ईश्वर है और न मित्र ही...!" फ्रेडरिक नीत्से | ३०७ For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरसते रहे । उनका जीवन मित्रों तथा बन्धुप्रों से हीन था। बौद्धिक समानता तथा बौद्धिक मित्रता का अानन्द न उठा सकने के कारण उनके अतिमानव का सिद्धान्त विषैले डंक के समान हो गया । यहाँ पर यह कहना आवश्यक होगा कि उनके जीवन के कट क्षणों तथा दारुण अनुभूतियों के लिए केवल परिस्थितियों को ही दोष देना अनुचित है। विधाता ने उन्हें इतना स्वाभिमानी, उच्चाभिलापी तथा कुतर्की बनाया कि उन्हें प्राजन्म अकेला ही रहना पड़ा। जीवन के एकाकीपन के साथ मनचाही ख्याति की कमी उनके लिए असह्य हो गयी। उनकी पुस्तकें उनके जीवन की कटुतापूर्ण विषम मनःस्थिति की द्योतक हैं। अपनी पुस्तक 'एंटी क्राइस्ट' (Anti Christ) में उन्होंने ईसाई धर्म का बुरी तरह से खण्डन किया। उनकी अन्तिम पुस्तक 'एक्के होमो' (Ecce Homo)-जो कि एक प्रकार से उनकी आत्मकथा है-में कई भाव ऐसे हैं जो उनकी प्रगल्भता तथा मानसिक प्रतिभावना के उदाहरण हैं । यह पुस्तक अत्यन्त अपसामान्य है। अतिमानव का सिद्धान्त-नीत्से को डारविन के दर्शन की पीठिका में सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। डारविन के अनुसार योग्यतम की ही जीवन १. देखिए-Thus Spake Zarathustra, In Beyond Good & Evil, The Will to Power. २. उनका कहना था कि मनुष्य में सम्भावित शक्तियाँ हैं। इन शक्तियों को वास्तविकता देकर वह अतिमानवीय व्यक्तित्व प्राप्त कर सकता है । अतिमानवीय व्यक्तित्व से उनका अभिप्राय उस नृशंसता तथा निर्ममता से है जो दूसरों पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहती है। अतिमानव अपने सूख के लिए मानवता का रक्त पीता है तथा पडोसी के शव पर खड़ा होकर अट्टहास करता है । ३. उनकी बहिन ने उनका प्राजन्म साय दिया। किन्तु उससे उन्हें विशेष सान्त्वना न मिल सकी। ४. उसके कुछ परिच्छेदों के शीर्षक ये हैं : 'Why I am so wise', 'Why I write such excellent books', Why I am so clever', आदि । ५ नीत्से ने स्वयं अपने मत को डारविन के विरुद्ध कहा । उसका कहना था कि मैंने 'जीवन संघर्ष' के बदले 'शक्ति-संघर्ष' (Struggle for pover) माना है। डारविन के अनसार प्रकृति का मल नियम जीवन-संघर्ष है। प्राणी जीवित रहना चाहता है, उसमें जीवित रहने की सक्रिय इच्छा है। जीवित रहने के लिए उसे संघर्ष करना पडता है और विकास-क्रम में योग्यतम की ही जीवन विजय होती है। नीत्से उसके विरुद्ध कहता है कि इच्छाशक्ति जीवित रहने के लिए नहीं, शक्तिशाली बनने के लिए है। 'अस्तित्व की इच्छा' के सिद्धान्त को माननेवालों ने जीवनसत्य को नहीं समझा। इच्छा जीवित रहने के लिए नहीं है; किन्तु अबाध रूप से प्रभुत्वप्राप्ति के लिए अथवा विजयी होने के लिए है । विजयी होने एवं प्रभुत्वप्राप्त करने की इच्छाशक्ति मौलिक और नैतिक इच्छा है। ३०८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय होती है। नीत्से ने इस सिद्धान्त को नैतिक रूप देकर यह कहा कि सामर्थ्यवान को ही जीवित रहना चाहिए। इस प्रकार नीत्से का मल नैतिक नियम डारविन के जैव विकासवाद से लिया गया है । नीत्से का विश्वास था कि समर्थ को जीवित रहना चाहिए। विकासवाद को स्वीकार करते हुए वह कहता है कि विकास का ध्येय साधारण मानव को उत्पन्न करना नहीं है बल्कि प्रतिमानवीय व्यक्तित्व को। इस विश्वास के आधार पर उसने अतिमानवीय व्यक्तित्व एवं अतिमानव को महत्ता दी। अतिमानव एवं समर्थ व्यक्ति ही विकास का ध्येय है अतएव उसे ही जीवित रहना चाहिए। नीत्से के अनुसार विकास (प्रगति का क्रम) केवल बौद्धिक स्तर पर ही नहीं होता, वह मानसिक स्तर पर भी होता है। 'समर्थ' से अभिप्राय केवल शक्तिशाली स्थूल व्यक्तित्व से ही नहीं, बल्कि बौद्धिक व्यक्तित्व से भी है। मनुष्य में जीवन का प्रसार उच्च मनुष्यत्व के प्रादुर्भाव के लिए होता है, अथवा यह कहना चाहिए कि शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक गुणों के विकास के लिए होता है। विकास का ध्येय अतिमानव है जो स्वस्थ शरीर, तेजस्वी, व्यक्तित्ववान, नैतिक और आध्यात्मिक गुणसम्पन्न व्यक्ति है। इन गुणों से नीत्से का तात्पर्य 'शक्ति की याकांक्षा' (Will to power) वाले व्यक्तित्व से है। अथवा वह व्यक्तित्व जो सदैव अपनी इच्छाशक्ति तथा अपने दढ़ संकल्प द्वारा अपने सजातियों पर शासन करता है; जो शक्तिशाली, प्रभावशाली, साहसिक तथा निर्भीक है; जिसमें स्वाभिमान, धष्टता, उच्छखलता, प्रगल्भता आदि गण भलीभाँति विकसित हैं। उपर्युक्त गुणोंवाला व्यक्ति ही सुसंस्कृत, शिष्ट, दृढ़ संकल्पवाला स्वस्थ शरीर का मानव है, जो अतिमानव है। डारविन के प्राकृतिक चयन और योग्यतम की ही विजय के सिद्धान्त को नीत्से ने अतिमानवों के प्रादुर्भाव के रूप में समझाया। विकास की अन्तिम स्थिति नैतिक, आध्यात्मिक गुणसम्पन्न बलिष्ठ मानवों की है, क्योंकि प्रकृति में सर्वत्र निष्ठर, निर्भीक, शक्तिशाली तथा शासन करनेवाले प्राणी ही विजयी और जीवित रहते हैं। असमर्थ पर समर्थ की विजय ही जीवन का नियम है। उसकी अवहेलना करना पाप है। उस प्राकृतिक विजय के प्राधार पर ही नैतिक नियमों का निर्माण सम्भव है : समर्थ (शक्ति की महत्त्वाकांक्षावाले व्यक्तित्व) को ही जीवित रहना चाहिए। यूनानी सभ्यता का प्रभाव : समस्त मान्यतामों का पूनम ल्यीकरण- नीत्से का अतिमानव का सिद्धान्त प्राचीन यूनानियों की 'व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास' फ्रेडरिक नीत्से | ३०९ For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धी धारणा का दानवीय रूप है। ग्रादिकालीन यूनानी संस्कृति का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे लोग व्यक्ति एवं नागरिक के चरित्र के उत्थान के लिए अच्छी परिस्थितियों का निर्माण करने में विश्वास करते थे । नीत्से बाल्यकाल ही से इस बात से प्रभावित था कि व्यक्ति को महत्ता देनी चाहिए | बड़े होकर उसने अपने दर्शन में इसी विचारधारा को एक नवीन एवं पाशविक रूप दिया । उसके अनुसार “ मनुष्य जाति को सदैव महापुरुषों को उत्पन्न करने का प्रयास करना चाहिए - इसके अतिरिक्त उसका और कोई दूसरा कर्तव्य नहीं है ।" उसका कहना था कि मानव को प्रतिमानव बनाने के लिए, प्रतिमानवों के उत्थापन और संवर्धन के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करना चाहिए ताकि अधिक से अधिक और श्रेष्ठ से श्रेष्ठ प्रतिमानवों का प्रादुर्भाव हो सके । अतः वह कहता है कि ' अतिमानव का संवर्धन' (The rearing of the Superman ) करना मनुष्य का कर्तव्य है और उसके लिए 'समस्त मान्यताओं का पुनर्मूल्यीकरण' (Transvaluation of all Values) श्रावश्यक है । समर्थ की जीवन- विजय के प्राकृतिक एवं जैव नियम को नैतिक रूप देने के लिए मनुष्य को पुराने आदर्शों को छोड़ देना चाहिए । मानवों को प्रतिमानव बनाने के लिए उन्हें नवीन प्रौर उच्च आदर्शों द्वारा शिक्षित करना चाहिए । नैतिक और शिष्ट गुणों को वास्तविक रूप देने के लिए मानव जाति को अपना अतिक्रमण तथा रूपान्तर करने का प्रयास करना चाहिए और उसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य संघसदाचार तथा मध्यवर्गीय विचारधारा का त्याग कर नवीन मान्यताओं को स्वीकार करे | मान्यताओं एवं नैतिक नियमों का मूल आधार 'प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा' है । इसी की अभिवृद्धि के लिए अथवा प्रतिमानवों के संवर्धन के लिए नीत्स ने नवीन मान्यतानों की और मानव जाति का ध्यान आकृष्ट किया। उसका कहना था कि प्राचीन मान्यताएँ प्रतिमानव के संवर्धन में सहायक नहीं होतीं। उन मान्यताओं के जीर्ण मृत रूप को समझाने के लिए उसने धर्म और नीति के मूलतत्त्वों की उपेक्षा और उपहास किया और ईसाई धर्म, उपयोगितावादी नैतिकता तथा सोद्देश्य नैतिकता की आलोचना कर अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । नीत्से का नैतिक सिद्धान्त प्रमुख रूप से हमें उसकी पुस्तक, 'शुभ अशुभ से परे' ( Beyond Good and Evil) में मिलता है । इस पुस्तक द्वारा उसने नीतिशास्त्र को एक नवीन सिद्धान्त दिया है । इसमें उसके नैतिक दर्शन के महत्त्वपूर्ण अंश वर्तमान हैं | उसने अपनी पूर्वगामी सिद्धान्तों की चिन्तनप्रणालियों की आलोचना ३१० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा अपने 'शक्ति की आकांक्षा' के सिद्धान्त का निर्माण तथा उसका स्पष्टीकरण किया। उसने सत्य के सापेक्ष रूप को समझाने का प्रयास किया; सद्गुणों के ऐतिहासिक मूल्य को समझाया; नैतिकता के प्राकृतिक इतिहास एवं नैतिकता के उद्गम का परीक्षण किया और दास नैतिकता तथा प्रभनों की नैतिकता की संहितानों के द्वैत की स्थापना की। यह कहना उचित होगा कि उसने 'शक्ति की आकांक्षा' के विरोधी सभी सिद्धान्तों की ध्वंसात्मक आलोचना की और अतिमानवों की विशेषताओं और महानताओं का मुक्त कण्ठ से गान किया । उसने अतिमानवों के प्रादुर्भाव के लिए समस्त मान्यताओं के पुनर्मूल्यीकरण को महत्त्व दिया है । अब हम नीत्से के सिद्धान्त के आलोचनात्मक पक्ष को समझने का प्रयास करेंगे। ईसाई धर्म का खण्डन—'प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा' में जीवन के मूल स्रोत को ढंढनेवाले नीत्से ने ईसाई धर्म अथवा किसी भी अन्य धर्म को महत्ता नहीं दी। उसने ईसाई धर्म का खण्डन किया और कहा कि उस धर्म ने शोभन, सुसंस्कृत, निर्भीक गुणों तथा ग्रहन्ता का विरोध किया है । अपनी पुस्तक, एंटी क्राइस्ट ' में उसने यह समझाने की चेष्टा की कि ईसू को सत्य का ज्ञान नहीं था। नीत्से के अनुसार शक्ति की भावना की वृद्धि ही सत्य का मानदण्ड है। इस कसौटी पर कसकर वह ईसाई धर्म, जो कि शक्तिहीनता के गुणगान करता है, की बुरी तरह पालोचना करता है। उसका कहना है कि ईसाई धर्म ने जीवन के निर्माण और विकास में सहायक शक्तियों को महत्त्व नहीं दिया है। अत: यदि मनुष्य अपनी रक्षा करना चाहता है तो उसे अपनी जाति में शुभ गुणों की वृद्धि और उन्नति करनी चाहिए। ईसू को रक्षक मानकर उनका आश्रय लेना भूल है, क्योंकि उन्होंने सदगुणों को नष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया है। उन्होंने सदाचार के नियमों द्वारा कायरों को प्राश्रय तथा उन्हें जीवित रहने का अधिकार दिया है। प्रभुत्व की इच्छा-शक्ति के प्रचारक के लिए यह असह्य था कि ईसाई धर्म में माने जानेवाले गुणों को लोग स्वीकार करें। नीत्से यह कहता है कि विनम्रता, सहिष्णुता, समानता तथा दान, दया आदि कायरों के गुण हैं । ईसाई धर्म के एकता और विश्वप्रेम आदि के सिद्धान्त पशुताभरे १. Thus Spake Zarathustra और Beyond Good & Evil को भी देखिए । वैसे उसने सर्वत्र आलोचना की है। फ्रेडरिक नीत्से | ३११ For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा मूर्खतापूर्ण हैं। भगवान् के नाम पर सबको समानता की श्रेणी में रखना अतिमानव का तिरस्कार करना है। समानता का विचार काल्पनिक है। अतिमानव में जो शक्ति की महदाकांक्षा है, वह. असमानता का लक्षण है। ईसाई धर्म समानता के साथ प्रत्येक व्यक्ति को अपने-आपमें परिपूर्ण मानता है। नीत्से उसके विपरीत कहता है कि अतिमानव अपने ध्येय की पूर्ति के लिए मानव को साधन बना सकता है। ईसाई धर्म निष्क्रिय, अयोग्य तथा असमर्थ व्यक्ति का धर्म है। वह असफल जीवनवालों को यह कहकर सान्त्वना देता है कि दूसरे जीवन में उन्हें सफलता मिलेगी। दुर्बलों को यह कहकर धीरज बँधाता है कि पौरुषीय गुणों से सम्पन्न, आत्माभिमानी, दढ़ तथा आत्मनिर्भर व्यक्तित्व से भगवान् घृणा करते हैं। नीत्से का कहना है कि भगवान अथवा ईसूमसीह पर आस्था नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि इससे हम अतिमानव को भूल जाते हैं । अथवा 'सब देवता मर गये हैं : अब हम चाहते हैं कि अतिमानव जीवित रहे ।' अतिमानव को विकास का ध्येय मानने के लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि 'पुराना ईश्वर मर गया है । यह मानते ही मन में आकांक्षा, आश्चर्य तथा स्वतन्त्रता की भावना जाग्रत हो जायेगी और तब सब लोग जीवन की प्रगति की ओर सन्तद्ध हो जायेंगे। उस समय पौरुषीय, मानवीय, नैतिक गुणों का विकास ही जीवन का लक्ष्य हो जायेगा। उपयोगितावादी नैतिकता-नीत्से ने उपयोगितावादी नैतिकता को अनैतिक कहा है; क्योंकि वह समानता में विश्वास करती है और जनसाधारणअविवेकी, शक्तिहीन, अनैतिक, ह्रासोन्मुख व्यक्तित्व-को जीवित रहने का अधिकार देती है। नीत्से के दर्शन का ध्येय अतिमानवों को प्रतिष्ठित करना था । वह उन सभी विचारों के विरुद्ध है जो समानता का सर्वकल्याणकारी मार्ग अपनाते हैं। उसका कहना था कि उपयोगितावादी नैतिकता की नींव झूठी और थोथी है । यह समता की धारणा पर आधारित है। वास्तविकता यह है कि मनुष्य समान नहीं है। मानव और अतिमानव की असमानता प्रत्यक्ष है। उपयोगितावादी नैतिकता को वह दल की नैतिकता अथवा संघनैतिकता कहता है जो भय से उत्पन्न होती है। उसे माननेवाला व्यक्ति कायर है। वह वही कार्य करता है जो कि संघ द्वारा समर्थित है । संघसदाचार के अनुसार व्यक्ति को जो कुछ भी समूह से ऊपर उठाकर, उसे शक्तिशाली तथा पड़ोसियों के भय का कारण बनाता है वह पाप है। संघनैतिकता में सहनशीलता, विनय, यथानुकूलता और समानता की प्रवृत्ति का आदर किया जाता है। नीत्से का ३१२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृढ़ विश्वास था कि संस्कृति का एकमात्र ध्येय मानव-स्वभाव का उन्नयन करना है। हम अधिकतम संख्या के हित के कारण महान् कवि, कलाकार, महान् सन्त तथा विशिष्ट व्यक्तित्व के स्त्री-पुरुषों का तिरस्कार नहीं कर सकते । अधिकतम संख्या के सुख में विश्वास करना संस्कृति का पतन करना है । सुखभोग का अधिकारी केवल अतिमानव है। ___ सोद्देश्य नैतिकता : संकल्प स्वतन्त्र नहीं है-नीत्से के अनुसार संकल्प स्वातन्त्र्य की धारणा भ्रान्तिपूर्ण है । यह कल्पनामात्र है। व्यक्ति के कर्म आत्मनिर्णीत नहीं होते, वह अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं है। जिस प्रेरणा से वह कर्म करने के लिए प्रेरित होता है वह वातावरण और परिस्थितिजन्य होती है। विश्व में हमें भौतिक और देह-व्यापार-सम्बन्धी कार्य-कारण का अनवरत प्रवाह मिलता है। हमारी प्रेरणा एवं संकल्प इस शृंखला से मुक्त नहीं है। हमारे कर्म भी इसी शृंखला के अंग हैं । वे अपने पूर्वकारणों से ही अनिवार्यत: निर्धारित होते हैं । उनके स्वरूप को वातावरण और आनुवंशिकता निर्धारित करती है.। अत: कर्म स्वतन्त्र संकल्प के परिणाम नहीं हैं और न वे सोद्देश्य ही होते हैं। कार्य-कारण की शृंखला का अंग होने के कारण कर्म, उद्देश्य एवं प्रेरणाएँ अपने-आपमें न तो सत् हैं और न असत् हैं; न नैतिक हैं, न अनैतिक ही। _ नैतिक सापेक्षता-नीत्से सापेक्षतावादी हैं । वह कहता है कि नैतिक प्रत्यय सापेक्ष होते हैं, शाश्वत नहीं । उसके अनुसार नैतिक प्रत्यय एवं सत असत् की धारणाएँ देश, काल, परिस्थितियों पर निर्भर होती हैं। वे समयानुसार परिवर्तित होती रहती हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि विभिन्न जातियों, देशों और कालों में भिन्न-भिन्न नैतिक नियम मिलते हैं। जो एक विशिष्ट काल में शुभ है वह दूसरे काल में अशुभ है; जो एक जाति के लिए उचित है वह दूसरी जाति के लिए अनुचित है। कालक्रम में अपनी उपयोगिता एवं अनुपयोगिता के अनुसार सत् असत् और असत् सत् बनता जाता है। नैतिक विभक्तियाँ शाश्वत नहीं हैं । वे जैव, भौगोलिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों पर निर्भर हैं। जहाँ तक प्रकृति का प्रश्न है उसमें किसी प्रकार का नैतिक उद्देश्य दष्टिगोचर नहीं होता । वह न सत् है और न असत; वह निनैतिक है। प्राकृतिक घटनाएँ नैतिक मान्यताओं से परे हैं। इसका महत्त्व मनुष्य के सम्बन्ध में है। वह घटनाओं की नैतिक व्याख्या करता है। नीत्से के कथनानुसार विश्व प्रकृति नैतिकता से शून्य है। नैतिकता केवल मानव-जगत की उपज है। सत फ्रेडरिक नीत्से | ३१३ For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और असत् की धारणाएँ प्राकृतिक जगत् में मनुष्य ने अपनी सुविधानुसार स्थापित की हैं । वे परिवर्तनशील हैं । उन्हें भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक वातावरण के सम्बन्ध में ही समझ सकते हैं । अपने-आपमें वह निरर्थक हैं । उसके अनुसार प्रतिमानव अपने सुख और सुविधा के अनुसार नैतिक नियमों का निर्माण और ध्वंस करने का पूर्ण अधिकार रखता है । प्रतिमानव सत्य की रूपरेखा निर्धारित कर सकता है । वह विकास की पूर्णता का सूचक है । शुभ अशुभ की परिभाषाएँ सुख-दुःख के अर्थ शुभ और अशुभ की नीत्से नवीन परिभाषा देता है । वह नैतिक मान्यताओं को जैव और दैहिक तत्त्वों पर आधारित बतलाता है । उसके अनुसार शुभ वह है जो कि शक्ति की इच्छा की वृद्धि करता है तथा जीवन को प्रगति देता है और अशुभ वह हैं जो शक्ति की लालसा तथा प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा को दुर्बल तथा शक्तिहीन बनाता है । अथवा 'वह सब जो शक्ति से आता है शुभ है और वह सब जो दुर्बलता से आता है अशुभ है ।' नी ने प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा को मौलिक नैतिक गुण कहा है । वह अन्य सभी नैतिक गुणों और प्रत्ययों को इसी के आधार पर समझाता है । सुखवाद यह मानता है कि व्यक्ति अपने कर्मों को सुख और दुःख की भावना से प्रेरित होकर संचालित करता है । नीत्से इसकी आलोचना करते हुए कहता है कि मानव स्वभाव को सुख और दुःख शासित नहीं करते हैं । मानव-स्वभाव, मानव-कर्म तथा मानव - मान्यताएँ सब कुछ 'प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा' पर निर्भर हैं । उसी की प्रेरणा के परिणाम हैं । शक्ति की तीव्र इच्छा को जब हम सन्तुष्ट नहीं कर पाते तब दुःख मिलता है और जब सन्तुष्ट कर लेते हैं तब सुख मिलता है। सुख-दुःख की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । वे शक्ति की महदाकांक्षा के परिणाममात्र हैं । -- नीत्से के सिद्धान्त का भावात्मक पक्ष : प्रतिमानव का सिद्धान्त; उसकी पुष्टि - प्रतिमानव के सिद्धान्त की स्थापना करने के अभिप्राय से नीत्से मानवस्वभाव का विश्लेषण करता है । प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा सर्वसामान्य प्रवृत्ति है। यह मौलिक सहजप्रवृत्ति है । वह कहता है "जहाँ कहीं भी मैंने चेतन प्राणी देखे, वहाँ मैंने प्रभुत्वप्राप्ति की इच्छा पायी मनुष्य को प्राप सब कुछ सम्भव दे दीजिए - स्वास्थ्य, भोजन, श्राश्रय, भोग - किन्तु वह दुःखी और झक्की ही रहेगा क्योंकि दानव निरन्तर प्रतीक्षा में रहता है और उसे सन्तुष्ट करना पड़ता है ।" यदि प्रभुत्वप्राप्ति की इच्छा सर्वसामान्य प्रवृत्ति है तो अतिमानव और साधारण लोगों में क्या भेद है ? प्रतिमानव की क्या पहचान ३१४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ? कैसे उसकी श्रेष्ठता को स्थापित कर सकते हैं ? कैसे कह सकते हैं कि वह पौरुषीय सामर्थ्यसम्पन्न तथा संस्कृत और नैतिक गुणों की चरम सीमा है ? नीत्से अतिमानव को 'संस्कृति का अभिजात' (Aristrocrat of Culture) कहता है । उसके अनुसार अतिमानव ही संस्कृति की गौरवपूर्ण चरम सीमा है । व्यक्ति में शक्ति के लोभ का चरम विकास ही उसके संस्कृति के अभिजात होने का द्योतक है। 'शक्तिलोभ' नैतिक, आध्यात्मिक और संस्कृत गुण है। अति-. मानवों में यह अपने पूर्णरूप में प्रस्फुटित होता है । वे इसके बारे में सचेत होते हैं। उनकी प्रभत्वप्राप्ति की इच्छा उनका मार्गदर्शक बनती है। उनकी सार्थकता, उनकी अहम्मन्यता उनमें उनके अधिकारों के विषय में आत्मदढ़ता उत्पन्न कर प्रतीकार की भावना और संघर्ष की इच्छा को पूर्ण रूप में जाग्रत करती है । ऐसी वैयक्तिक स्वतन्त्र आध्यात्मिकता (Independent Spirituality) अर्थात् अतिमानव,-विकास का चरम लक्ष्य तथा उसकी अन्तिम स्थिति है।' वही पृथ्वी की भी सार्थकता है । इससे स्पष्ट है कि मनुष्य में अपने को विकसित करने की शक्ति है । उस शक्ति का हनन नहीं करना चाहिए। उसे महत्ता न देना सभ्यता का निरादर करना है । अतः मनुष्य को चाहिए कि अपनी सम्भावित भौतिक और प्राध्यात्मिक शक्तियों को वास्तविक रूप दे। अपने को अतिक्रम कर अतिमानव की स्थिति में पहुंचे। अतिमानव मानव का अतिक्रमण उसी प्रकार कर सकता है जिस प्रकार कि मानव बन्दर का। 'मनुष्य के सम्मुख बन्दर क्या है ? एक हास्यास्पद वस्तु, एक लज्जा की वस्तु; अतिमानव के सम्मुख मनुष्य की भी यही स्थिति होगी, एक हास्यास्पद तथा लज्जा की वस्तु ।' मनुष्य की सम्भावित शक्तियों के साथ ही नीत्से को यह भी विश्वास था कि अतिमानवों का प्रादुर्भाव आज के युग के मानवों के लिए सम्भव है। उसके लिए उन्हें नयी मान्यताओं की (Table of new Valuations) को स्वीकार करना चाहिए। समस्त मान्यताओं के पुनर्मूल्यीकरण में विश्वास करना चाहिए। जनसाधारण इन मान्यताओं का तिरस्कार इसलिए करता है कि वह स्वतन्त्र व्यक्तित्व से डरता है। वह जानता है कि जीवन संघर्ष में उसी श्रेष्ठ व्यक्ति १. नीत्से ने अपनी पुस्तक Thus Spake Zarathurstra में जरथुस्त्र को अतिमानव के रूप में देखा । इस प्रकार उसने पहले अतिमानव को व्यक्ति के रूप में अंकित किया । बाद को इसी अतिमानव की धारणा को विकास की अन्तिम स्थिति मानकर अतिमानवों की एक जाति की कल्पना की।. फ्रेडरिक नीत्से | ३१५ For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के विशेषाधिकार होंगे तथा उसी को सफलता मिलेगी । दुर्बल अपनी दुर्बलतानों को छिपाने के अभिप्राय से सृष्टि के नियम ( योग्यतम की ही विजय होती है। और वही शासन करता है) की अवहेलना करते हैं । वे अनैतिक, अशुभ, कायर प्रवृत्तियों (विनम्रता, सुशीलता, दयार्द्रता और निःस्वार्थता) का यशगान करते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में दुर्बल लोग अपनी दुर्बलताएं समानता की पुकार के पीछे छिपाने का विफल प्रयास करते हैं । नीति के क्षेत्र में ईसाइयत को महत्त्व देकर अनैतिकता और पाप का प्रचार करते हैं । उपयोगितावादी 'अधिकतम सुख' संख्या का अधिकतम के घृणित और जघन्य विचार को महत्ता देते हैं । नीत्से इन सब धारणाओं की आलोचना करता है । उसके अनुसार मध्यवर्गीय तृप्ति है | मनुष्य कर्तव्य है कि विकास के लक्ष्य और सभ्यता की परिपुर्णता को समझे । वह विशिष्ट व्यक्तित्व के स्त्री-पुरुषों को महत्ता प्रदान करे । उनको सभ्यता का प्रतीक मानकर उनका शासन स्वीकार करे । प्रभुश्रों और दासों की नैतिकता- नीत्से वर्गभेद में विश्वास करता है । अतिमानव और मानव में महान् अन्तर है । प्रतिमानव श्रेष्ठ व्यक्तित्व का है अतः उसे जीने और सुख भोगने का अधिकार है । मानव साधारण व्यक्ति है, उसका जीवन कीड़े-मकोड़े का जीवन है जिसका एकमात्र अर्थ यही है कि वह अतिमानवों की सेवा करे । उसके अनुसार दो वर्ग हैं - एक शासक का दूसरा शासितों का । नैतिकता दो भिन्न प्रकार की है : दासों की नैतिकता ( Slavemorality) और प्रभुनों की नैतिकता ( Master-morality) | विशिष्ट व्यक्तित्व को धार्मिक और नैतिक बन्धनों से, ग्रथवा उन बन्धनों से जो जीवन की प्रगति में अहितकर हैं, मुक्त करने के अभिप्राय से ही उसने नैतिकता का दो वर्गों में विभाजन किया। प्रतिमानवों की उन्नति और सफलता के लिए ही उसने आत्मविनाशक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । उसका विचार जनसाधारण को धर्म से स्खलित करने का नहीं था । उसने अन्य अनीश्वरवादियों की कटु आलोचना की। उसका कहना था कि जनसाधारण को धर्म में विश्वास करना चाहिए | साधारण मानव को जीवन में वैधानिक प्राश्वासन की आवश्यकता होती है। जनसाधारण की आवश्यकता के लिए ही नीत्से ने दासों की नैतिकता का प्रतिपादन किया । यहाँ पर नीत्से शुभ की वही परिभाषा देता है जो ईसाई धर्म, उपयोगितावादी नैतिकता अथवा प्रचलित नैतिकता द्वारा स्वीकृत है । साधारण मानव शक्ति और असमानता में विश्वास नहीं कर सकते । उनके लिए शुभ श्राचरण वही है जो समानता पर प्राश्रित तथा सुखप्रद है । दासों का ३१६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म में विश्वास होना चाहिए । यह उनके लिए एक निश्चयात्मक आवश्यकता है । प्रभु का कर्तव्य है कि दासों को नैतिकता मानने के लिए प्रोत्साहित करें । उनमें धार्मिक विश्वास रहना आवश्यक है । इसी के द्वारा प्रभु उन्हें शिक्षित और सरलता से अपने अधीन कर सकते हैं । धार्मिक विश्वास होने पर वे शासकवर्ग को राजसत्ता के लिए साधन बन सकेंगे। प्रतिमानवों की भलाई के लिए, उनके प्रादुर्भाव और विकास के लिए यह आवश्यक है कि दास उनकी सेवा करें। प्रभुनों की नैतिकता प्रतिमानवों की नैतिकता है । यह प्रतिमानवों के संवर्धन तथा प्रभुत्वशक्ति की इच्छा के विकास की नैतिकता है । प्रतिमानव दासों से उच्च हैं । उन्हें प्रचलित नैतिक मान्यताओं ( दासों की नैतिकता ) को नहीं मानना चाहिए । ग्राज की विकसित परिस्थितियों एवं सामाजिक स्थितियों का अध्ययन यह स्पष्ट कर देता है कि त्याग, दया, विश्वबन्धुत्व, सेवा आदि गुण निकृष्ट और प्रयोग्य हैं । मानव विकास के साथ गुणों का रूप बदलता है । अतिमानवों के लिए विलासिता, शक्ति का मोह और स्वार्थता गुण हैं; क्योंकि यही उन्हें जीवन में सफलता देंगे। प्रभुनों की नैतिकता के अनुसार क्रूरता, प्रतिशोध, उच्छृंखलता, उद्दण्डता और स्वायत्तीकरण शुभ गुण हैं । दासों को हेय समझना, उन पर शासन करना उचित है । अतिमानवों का दासों के प्रति व्यवहार कठोर होना चाहिए। उनकी महत्ता तथा विशालता के सम्मुख साधारण मानव की सत्ता उतनी ही निरर्थक है जितनी कि दूध की मक्खी की । प्रतिमानव संस्कृति की थाती है, विकास का ध्येय है । वह जीवन का प्रयोजन 1 । उसके लिए यह अनैतिक और अनुचित है कि वह दासों पर दया दिखाये । प्रभुनों की नैतिकता की कसौटी कठोरता की कसौटी है । जो सबसे उत्तम है वही सबसे कठोर है । श्रेष्ठता और उत्तमता के अर्थ हैं : दासों पर शासन करना । दया एवं पड़ोसी के स्नेहवश काम करना अनुचित है । कार्य केवल भावी मानव के प्रेम से प्रेरित होने चाहिए । प्रतिमानवों का संवर्धन ही एकमात्र ध्येय होना चाहिए। उन्हें अपने ग्रापको और दूसरों को भी प्रतिमानव के श्रागमन के लिए साधन बनाना चाहिए । यहाँ पर वह मानता है कि अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के लिए, प्रतिमानव के प्रादुर्भाव के लिए त्याग और सहनशीलता उचित है। इसी से भलाई सम्भव है । प्रालोचना मानवता के ध्वंस की ओर - नीत्से ने जीवनसत्य को जीवविकास क्रम फ्रेडरिक नीत्से / ३१७ For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के रूप में देखा । 'योग्यतम की विजय' अथवा 'प्राकृतिक संकलन' ने उसे अपने बचपन के आदर्श, जरथुस्त्र को प्रतिमानव के रूप में साकार करने के लिए प्रेरित किया । उसने लोगों का, नवीन सांस्कृतिक आदर्श को स्वीकार करने के लिए, आह्वान किया। उसका कहना था कि मानव जाति अपना प्रतिक्रमण करके ही अपना संरक्षण कर सकती है । उसका विश्वास था कि मानव अपने एकमात्र कर्तव्य का पालन ( अतिमानवों का संवर्धन) उसकी बनायी हुई मान्यताओं की सूची को स्वीकार करने पर ही कर सकता है । उसने कहा कि मनुष्य को क्षुद्र गुणों, क्षुद्र नीतियों, खोखले विचारों तथा दयनीय सुख की भावनाओं श्रथवा 'अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख' के विचार का त्याग करना चाहिए। उसे नवीन मान्यताओं को अपनाना चाहिए। मानव की उन्नति के लिए ग्रथवा प्रतिमानवों के प्रादुर्भाव के लिए उसने जिन गुणों को महत्ता दी है उनको यदि वास्तविक और व्यावहारिक रूप दिया जाये तो यह कहना अनुचित न होगा कि मनुष्य को मूर्तिमान् नृशंसता तथा निर्ममता का पूजन करना होगा । यह ऐतिहासिक और राजनीतिक सत्य भी है कि नीत्से के सिद्धान्त ने फासिस्तवाद, 'डिक्टेटरशिप तथा दो भयंकर विश्वयुद्धों को जन्म दिया । नीत्से युद्ध का समर्थक था। वह प्रतिमानवों की शक्ति के प्रदर्शन के लिए इसे आवश्यक मानता था । उसके अनुसार युद्ध एक शुभ और आवश्यक कर्म है । उसके द्वारा प्रतिमानव अपने नैतिक गुणों ( साहस और शक्ति) का प्रदर्शन करता है । युद्ध श्रेष्ठ व्यक्तियों की उन्नति और विकास में सहायक होता है | दुर्बल और प्रयोग्य व्यक्ति तथा जातियों का इसके द्वारा नाश होता है । यह दौर्बल्य और निर्वीर्यता को समूल नष्ट कर देने की एकमात्र औषधि है । इसके द्वारा अच्छे कर्म सम्पन्न होते हैं । नी के युद्ध के यशगान ने जर्मनीवालों को प्रभावित किया। वहाँ के नेताओं ने युद्ध की संस्कृति और सभ्यता के लिए आवश्यक समझा और अपने को छोटामोटा प्रतिमानव समझकर विश्व में एक अनियन्त्रित हाहाकार मचाकर उसे आतंकित और ध्वंस किया | श्रेष्ठता के नाम पर दानवता - नीत्से मानव उत्कर्ष विषयक शास्त्र (Eugenics) से काफी प्रभावित था । उसका विश्वास था कि वैज्ञानिक रीति से श्रेष्ठ व्यक्तियों और जातियों की उत्पत्ति हो सकती है। उसने कहा, प्रतिमानव के प्रादुर्भाव के लिए निरन्तर प्रयास करना मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य है प्रभुत्वप्राप्ति की लालसा सर्वसामान्य गुण होने पर भी व्यक्ति समान नहीं हैं । व्यक्तियों की श्रेणी में अन्तर होता है । प्रभुत्वप्राप्ति की लालसा सब में समान रूप से ३१८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्फुटित नहीं होती। केवल अतिमानव में ही वह पूर्ण रूप से प्रस्फुटित होती है। अतः वह पुरुषत्वप्रधान व्यक्ति है। नीत्से ने अपने अतिमानव के सिद्धान्त द्वारा पौरुषीय गणों को प्रधानता दी। पुरुषत्व क्षत्रियों और पार्यों का भी धर्म है। प्रश्न यह उठता है कि नीत्से ने पुरुषत्व के क्या अर्थ लिये । वीरता, कठोरता, स्वार्थता, शक्तिप्रेम, युद्धप्रेम, तानाशाही, विलासिता, अहन्ता, सत्य और न्याय को अपने स्वभावानुसार समझना, अपने को ही सृष्टिकर्ता समझकर मनमानी करना, यही अर्थ नीत्से पौरुषीय गुण को देता है। उसकी दृष्टि में शुभ, परमार्थता, समानता, आत्मत्याग, अहिंसा, सत्य के शाश्वत रूप को मानना, जनतन्त्रवाद में विश्वास करना कायरता और अनैतिकता है। नीत्से का अतिमानव स्वतन्त्र व्यक्तित्व का, स्वार्थी, मर्यादाहीन तथा उच्छृखल व्यक्ति है । वह मनुष्यत्व तथा मानवीय भावना से शून्य, प्रभुत्वशक्ति का स्फुल्लिग है । अपने को प्रसन्न करने के लिए, अपनी दानवता को तुष्ट करने के लिए वह मानव को पशु से भी गयाबीता समझता है। असमानता अनैतिक है-नीत्से की नैतिकता अपने मूल रूप में अनैतिक है। वह शुभ कर्म उसे कहता है जो प्रभत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा की अभिवद्धि तथा सुख की भावनाशक्ति की अभिलाषा की तप्ति करता है। नैतिक प्रत्ययों के चिरन्तन और शाश्वत रूप को वह स्वीकार नहीं करता और साथ ही संकल्प की स्वतन्त्रता को भी अस्वीकार करता है। उसके अनुसार मनुष्य अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं है। सुप्रसिद्ध नीतिज्ञ काण्ट के अनुसार नैतिकता के तीन स्वतःसिद्ध प्रमाण हैं : संकल्प की स्वतन्त्रता, भगवान् की सत्ता, आत्मा की अमरता। नीत्से इन तीनों का विरोधी है। उसके सिद्धान्तानुसार संकल्प की स्वतन्त्रता मिथ्या कल्पना है, कर्म सोद्देश्य नहीं होते और भगवान् मर चुका है। उसकी सत्ता में विश्वास करना अतिमानव का उपहास करना है। आत्मा की अमरता धर्म की कायरता की सूचक है। प्रात्मा मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाती है । नरक कुछ नहीं है। जितनी भी नैतिक और धार्मिक धारणाएँ, और संस्थाएं हैं उनका मूल्य तभी तक है जब तक कि वे अतिमानव का संवर्धन कर सकती हैं । जीवन की आवश्यकताएँ यह सिद्ध करती हैं कि प्रचलित नैतिकता के रूप को बदलना पड़ेगा। सहानुभूति, प्रेम, सेवा, त्याग, बान्धव-स्नेह तथा परार्थ भावनाएँ आज के युग में असंगत हैं। मानव-विकास की वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए द्वैतात्मक नैतिक संहिता नीत्से के नैतिक दर्शन के प्रमुख आधारस्तम्भों में से एक है। यही समस्त मान्यताओं का पुनर्मूल्यीकरण फ्रेडरिक नीत्से | ३१६ For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने के लिये कहती है। प्रभुत्रों की श्रेणी के मनुष्यों के लिए नीत्से उन प्रवृत्तियों को सद्गुण कहता है जो मनुष्य के कठोर और पाशविक स्वभाव के लक्षण हैं। अहंमन्यता, निदे यता, धृष्टता, प्रतिशोध, स्वायत्तीकरण अादि उसके अनुसार कोमल प्रवृत्तियों से श्रेष्ठ हैं। इन्हें प्रभुत्रों की नैतिकता वांछनीय सद्गुण मानती है । किन्तु जब वह दासों की नैतिकता का वर्णन करता है तब सहानुभूति, दया, क्षमा, विनम्रता तथा प्रभु भक्ति को दासों के लिए आवश्यक गुण बतलाता है। शक्तिशाली व्यक्तियों को वह उपयोगितावादी नैतिकता और धर्म के बन्धन से अपने को मुक्त रखने को कहता है; क्योंकि ये उनकी प्रगति में बाधक हैं। पर दुर्बलों के लिए वे अावश्यक हैं। जनसाधारण को उनके धार्मिक विश्वास के द्वारा ही अतिमानव उन्हें अपने राज्य के लिए साधन बना सकता है। अतः उनके धार्मिक विश्वास की रक्षा करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इसके द्वारा ही उन्हें शिक्षित और अनुशासित किया जा सकता है । इस भाँति एक ओर तो नीत्से 'शुभ और अशुभ से परे' के सिद्धान्त का पोषक है और दूसरी ओर उपयोगितावादी नैतिकता तथा धार्मिक विश्वास को स्वीकार करता है। उसके • 'शुभ और अशुभ से परे' का सिद्धान्त केवल शक्तिशालियों के लिए है; शक्तिशाली जो कुछ भी करता है वह उचित है। प्रचलित मान्यताएँ और धार्मिक विश्वास, जो प्रभुत्रों की नैतिकता की दृष्टि से तुच्छ, हेय और त्याज्य है, अशक्त के लिए अनिवार्य है। इनके द्वारा अतिमानव अशक्तों को अपने हाथ का खिलौना बना सकता है। नैतिकता को इस भाँति दो वर्गों में विभाजित करके नीत्से शासक वर्ग और शासित वर्ग अथवा प्रभुत्रों और दासों को पूर्ण रूप से विभक्त कर देता है। मानव मानव का विरोधी है। किन्तु नैतिकता मानवमानव में कोई भेद नहीं देखती है । नैतिकता के क्षेत्र में ऐसी असमानता के लिए कोई स्थान नहीं है । वह वस्तुगत, सार्वभौम और सार्वजनीन है । नीत्से की नवीन मान्यताओं की सूची नैतिकता के नाम में भयानकता, अमानुषीयता और कुरूपता की सूची है। तत्त्वज्ञान की दृष्टि से नीत्से सत्तात्मक एकता में विश्वास नहीं करता। नैतिकता की दृष्टि से वह 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का विरोधी है । धर्मों की मूल, आधारभूत समानता की भावना को वह भ्रमात्मक कहता है । संस्कृति के आदर्शस्तम्भ, करुणा और प्रेम को वह हेय समझता है। नैतिकता को दो विरोधी वर्गों में बाँटकर वह मनुष्यता का गला घोंटता है। द्वन्द्वात्मक नैतिक नियम को मानवीय विकास और गुणों का मुख्य आधारस्तम्भ मानना बर्बर सभ्यता का वीभत्स और नग्न प्रदर्शन करना है। नीत्से का सिद्धान्त असम्भव, ३२० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवास्तविक और अव्यावहारिक है। वह सार्वजनीन भी नहीं है। किन्तु नीत्से को इन सब बातों की परवाह नहीं है। वह एक विशिष्ट जाति की वद्धि के लिए पागल की भाँति चिल्लाता है। और इस जाति की दानव-प्रवृत्ति की महत्ता को समझाने के अभिप्राय से कहता है कि एक वासनापूर्ण स्त्री के स्वप्नपाश में बँधने से अच्छा एक बधिर के हाथ में पड़ना है। तर्कहीन असंस्कृत सिद्धान्त-नीत्से का सिद्धान्त तार्किक भी नहीं है। उसकी बुद्धि की अहंमन्यता उसके विश्वासों और धारणाओं को दृढ़तापूर्वक स्थापित कर देती है। बिना अपने सिद्धान्त के वास्तविक पक्ष को सोचे, बिना उचित तर्क दिये वह अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। वह अपने मत को स्वयं महत्ता देता है और अपने मित्रों को अपने आदर्श की कसौटी पर कसने का विफल प्रयास करता है। उसके सिद्धान्त के मूल में उसके जीवन का अकथनीय सूनापन, कुण्ठा तथा दारुण अनुभव है । वह अनुभव उसकी असम्भव महत्त्वाकांक्षा की देन है। नीत्से के विचार में स्थिरता नहीं है। वे एक दूसरे के विरोधी हैं। वह विकास में विश्वास करते हुए भी विकास की एक अन्तिम स्थिति-अतिमानवों के प्रादुर्भाव की स्थिति की कल्पना करता है। उसके विचार भ्रमात्मक और दुराकांक्षी हैं। वे उसके मानसिक और दार्शनिक पतन का कारण हैं । उसका कहना था कि वह नैतिक दानव नहीं है, उसका अतिमानव संस्कृति का साकार रूप है। क्या सचमुच नीत्से का दर्शन संस्कृति का दर्शन है ? नीत्से का दर्शन विषैले बिच्छ के डंक की भाँति है। बिच्छ को क्षमा कर सकते हैं किन्तु प्रात्मचेतन मनुष्य को नहीं। नीत्से के विचार सत्यानासी हैं। वे संस्कृति और सभ्यता का अभिशाप हैं। नीत्से ने शोभन, मानवोचित संस्कृति के बदले पाशविक विचारों का प्रतिपादन किया है। वह अपनी अहन्ता के उन्माद में कहता है कि जीवन का ध्येय सर्वकल्याणकारी नहीं है। क्या नीत्से का स्वार्थी मानव समाज में रह सकता है ? क्या समाज को रौंदकर वह अपनी उन्नति कर सकता है ? मनुष्य चेतन, आत्मप्रबुद्ध, संस्कृत प्राणी है । वह जानता है कि संस्कृति और सभ्यता की सार्थकता वसुधैव कुटुम्बकम् है । किन्तु इन सबके विरुद्ध नीत्से का कहना है कि स्वाभाविक शिष्टजन सत्ता राज्य (Natural aristocracy) की नैतिक संहिता के आवश्यक निर्माणात्मक अंग पौरुषीय गण, प्रभत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा और स्वार्थ हैं। नीत्से के दर्शन में नैतिकता का निराकरण मिलता है अथवा उसका 'समस्त मान्यताओं का पुनर्मूल्यीकरण' अन्य सब नैतिक मानदण्डों को असत्य फ्रेडरिक नीत्से | ३२१ For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर देता है । उसके एक आलोचक' के शब्दों में 'नीत्से ने कहा कि मैं संस्कृति का समर्थक हूँ किन्तु इसके विपरीत उसने संस्कृति का सर्वनाश किया । जिस प्रकार उसके व्यक्तिगत जीवन का अन्त पागलपन में हुआ, उसी प्रकार उसके दर्शन की अन्तिम परिणति भी एक विरोधाभास में हुई । क्योंकि संस्कृति का दर्शन होते हुए भी उसके भीतर संस्कृति के विरोधी बीज वर्तमान हैं ।" 1. F. Nietzsche by Frederick Copleston ३२२ / नीतिशास्त्र (Second impression) p. 203. For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाग भारतीय नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ चार पुरुषार्थ पुराणों एवं हिन्दू धर्म के अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ हैं । पुरुषार्थ का अर्थ है पुरुष का लक्ष्य एवं पुरुष के उद्योग का विषय, यह उस प्रयोजन को इंगित करता है जिसकी प्राप्ति के लिए पुरुष को प्रयत्न करना चाहिए । पुरुषार्थ को प्राप्त करके मनुष्य अपने दुःख का निवारण करता है। ____काम-काम को प्रथम पुरुषार्थ माना गया है। काम इन्द्रियसूख तथा रतिसुख का सूचक है। हिन्दु धर्म ने काम को स्वीकार किया है, उसे अनैतिक नहीं माना है। इसीलिए देवी-देवताओं की कल्पना उनके यूगल रूप----शिव-पार्वती, हर-गौरी—में की है। किन्तु जड़वादियों की भाँति इसे जीवन का परम लक्ष्य नहीं माना है। चार्वाक दर्शन जो यह मानता है कि कामिनी सुख ही परम पुरुषार्थ है हिन्दू धर्म को मान्य नहीं है और न यह पाश्चात्य भोगवादी दृष्टिकोण -स्थूल सुखवाद-को ही स्वीकार करता है। काम का जीवन में एक सीमित स्थान है; उच्च ध्येय, महत् पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए यह प्रारम्भिक सोपान मात्र है क्योंकि इसकी सन्तुष्टि अपने-आपमें पूर्ण नहीं है। यह तभी वांछनीय है जब यह श्रेष्ठतम जीवन की अोर मनुष्य को प्रेरित करता है। अर्थ-मानव-जीवन काम के साथ ही अर्थ की अपेक्षा रखता है । जीवन में अर्थ अार्थिक मूल्यों का एक विशिष्ट स्थान है । काम और अर्थ मनुष्य की दैहिक आवश्यकताओं--भौतिक कल्याण-की बैसाखियाँ हैं। अर्थ के लिए कह सकते हैं कि कामतृप्ति धन एवं अर्थ की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है। किन्तु अन्ततः काम और अर्थ अपने-आपमें साध्य नहीं हैं। मनुष्य दैहिक-बौद्धिक आध्यात्मिक प्राणी है । उसे काम और अर्थ के धरातल से ऊपर उठना है। चार पुरुषार्थ | ३२५ For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-मनुष्य सामाजिक प्राणी है अथवा व्यक्ति और समाज परस्पर सम्बन्धित हैं । सामाजिक जीवन धर्म की अपेक्षा रखता है । धर्म आचरण अथवा नैतिकता के मापदण्ड को निर्धारित करता है। बिना धर्म के अर्थ और काम की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। धर्म मनुष्य के लिए सभी कालों में आवश्यक हैमनुष्य ने धर्म का सदैव किसी न किसी रूप में पालन किया भी है। धर्म ही नैतिक और पारलौकिक अथवा दिव्य आनन्द का दायक है। अतः मनुष्य को, अपने लक्ष्य के रूप में, धर्म को अंगीकार करना ही होगा। मोक्ष-सांसारिक जीवन दुखपूर्ण है, यह मनुष्य को बन्धन में डालता है । सांसारिक बन्धन से मुक्ति प्राप्त करना परम पुरुषार्थ है । अतः मुक्ति एवं मोक्ष प्राप्त करना मानवजीवन का एकमात्र लक्ष्य है। अविद्या, अविवेक, माया-मोह, आसक्ति, अहंकार आदि के कारण मनुष्य अपनी वास्तविकता-अपने सच्चे स्वरूप-को भूल जाता है और भवचक्र में पड़ जाता है। पर यह मनुष्य की स्थायी स्थिति–नियति-नहीं है। नैतिक-आध्यात्मिक आचरण और जीवन को अपनाकर वह अपने सच्चे स्वरूप एवं मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। सभी भारतीय आध्यात्मिक दार्शनिकों, मनीषियों, ऋषियों, दष्टानों ने मोक्ष को स्वीकार किया है यद्यपि मोक्ष के स्वरूप के बारे में उनमें मतैक्य नहीं है । जैव, बौद्ध, सांख्य, न्याय-वैशेषिक, अद्वैत वेदान्त आदि ने अपने मूल सिद्धान्त के अनुरूप ही मोक्ष की व्याख्या की है। ३२६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ चार्वाक-दर्शन चार्वाक-दर्शन एवं जड़वाद-भारतीय दर्शन की जड़वादी विचारधारा चार्वाकदर्शन के नाम से ज्ञात है। दर्शन के जन्म-काल से ही जड़वाद किसी-न-किसी रूप में रहा है, इसमें सन्देह नहीं है। जड़वादियों के अनुसार जड़ का ही एकमात्र अस्तित्व है। विश्व की विभिन्न वस्तुओं को, यहाँ तक कि मन, आत्मा, चैतन्य आदि को जड़ के ही आधार पर समझा सकते हैं। सृष्टिकर्ता, स्वर्ग, नरक, धर्म, आत्मा की अमरता आदि की कल्पना मिथ्या है । जड़ एवं प्रकृति ही सृष्टि के मूल में है। उत्पत्ति काल तथा ग्रन्थ-चार्वाक-दर्शन अपनी अप्रस्फुटित तथा अविकसित अवस्था में ऋग्वेद में तथा पूर्व-बौद्ध-युग में वर्तमान रहा है। वैसे विद्रोही सिद्धान्त के रूप में इसका उत्पत्ति-काल ६०० ई० पू० माना गया है । यह वह युग है जिसमें कि बौद्ध और जैन दर्शन का प्रतिपादन हुआ था। चार्वाक-दर्शन पर कोई भी स्वतन्त्र पुस्तक प्राप्त नहीं है। यह कहा जाता है कि वृहस्पति के सूत्र जड़वाद पर शास्त्रीय प्रमाण हैं जो कि नष्ट हो गये हैं। चार्वाक-दर्शन पर एक भी स्वतन्त्र पुस्तक न होने पर भी हम यह नहीं मान सकते कि इस विचारधारा या सिद्धान्त का अस्तित्व नहीं था। इसके अस्तित्व का सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि इसका उल्लेख वेदों, पुराणों, बौद्धग्रन्थों तथा दार्शनिक ग्रन्थों में मिलता है। ___ दो वर्ग-चार्वाकों को दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं : धूर्त तथा सुसंस्कृत । धूर्त चार्वाक वे चार्वाक हैं जिन्होंने कि निकृष्ट इन्द्रिय सुख को वांछनीय बतलाया है। वास्तव में, आलोचकों ने इन अश्लील और पशु-प्रवृत्तिवाले चार्वाक-दर्शन / ३२७ For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाकों की ही आलोचना की है । सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत चार्वाकों ने उत्कृष्ट सुख को महत्त्व दिया है । उन्होंने राजकीय व्यवस्था, सामाजिक नियमों और दण्डनीति को स्वीकार किया है । वे सामाजिक, स्वार्थपूर्ण वासनाओं की तृप्ति में विश्वास नहीं करते हैं । सुशिक्षित चार्वाकों में कामसूत्र के रचयिता वात्स्यायन ने प्रसिद्धि प्राप्त की है । इन्द्रियों की तृप्ति एवं पंचेन्द्रियों की तृप्ति को सुख एवं काम के मूल में मानकर उन्होंने ब्रह्मचर्य, धर्म तथा नागरिक वृत्ति को साधन रूप में आवश्यक माना । ईश्वर के अस्तित्व और परलोक में विश्वास रखते हुए सुख को परम लक्ष्य माना । वात्स्यायन का कहना है कि आचरण के उन नियमों को स्वीकार करना चाहिए जो सुख प्राप्ति के लिए उपयोगी हैं । सुख को अन्तिम लक्ष्य मानते हुए उन्होंने शिष्ट सुख को अपनाने के लिए कहा । पाशविक सुख की आत्मघातक प्रवृत्ति से वे परिचित थे । यही कारण है कि उन्होंने तीन पुरुषार्थ माने हैं— धर्म, अर्थ और काम। जीवन में इन तीनों का यथोचित सन्तुलन आवश्यक है यद्यपि धर्म और अर्थ का महत्त्व गौण है । काम सर्वोपरि तथा प्रमुख ध्येय है और शरीर-रक्षा के लिए आवश्यक है । मनुष्य को चाहिए कि वह पशुओं की भाँति सहज रूप से कामतृप्ति को न अपनाये । उसे कामतृप्ति के साधनों, उसकी विभिन्न अवस्थाओं एवं जीवन के व्यापक और व्यवस्थित अध्ययन द्वारा उस ज्ञान को प्राप्त कर लेना चाहिए जो कि परम लक्ष्य-काम की प्राप्ति में सहायक है । स्थूल स्वार्थ सुख के बदले वात्स्यायन ने शिष्ट सुख को उचित बतलाया । उन्होंने यह समझाया कि किशोरावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन तथा वेदों का अध्ययन आवश्यक है । चौंसठ ललित कलाओं के अभ्यास द्वारा इन्द्रियों को शिक्षित, संयमित और सुसंस्कृत भी बनाना चाहिए । इस भाँति वात्स्यायन ने वर्तमान एवं तत्कालीन सुख के बदले सम्पूर्ण जीवन के सुख की ओर ध्यान आकर्षित किया । शुद्ध बुद्धिमय जीवन अथवा निःस्पृहतावाद की प्रतिक्रिया - हम घोर पारलौकिक प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया के रूप में इस दर्शन को समझ सकते हैं । विचार के क्षेत्र में यह सदैव ही देखते हैं कि जब कोई विशिष्ट विचारधारा अपने प्रवेश एकांगी हो जाती है तो मानो उसे सुधारने और स्वस्थ रूप देने के लिए उतनी ही शक्तिशाली दूसरी विचारधारा जन्म ले लेती है । यूनानी दर्शन में सुखवाद और बुद्धिपरतावाद एक-दूसरे के विरोधी होने पर भी परस्पर पूरक हैं । भारतीय जीवन का अध्ययन बतलाता है कि उपनिषदों का निर्गुण ब्रह्म जनसाधारण के ३२८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए अनाकर्षक और नीरस था । शुद्ध बुद्धिमय जीवन एवं कोरे ज्ञान और अमूर्त सत्य की प्राप्ति के लिए जीवन की उपेक्षा करना जनसामान्य के लिए असह्य हो गया । अतः लुके - छिपे रूप में उन्होंने भोगवाद को महत्त्व देना प्रारम्भ कर दिया । चार्वाक विचारकों का सुसंघटित सम्प्रदाय रहा हो ऐसा नहीं दीखता है । चार्वाक दर्शन अपने सारांश में यह है : लोकायत एकमात्र शास्त्र है; उसके अनुसार प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है । चार भूत हैं : पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु | धन और भोग मानव अस्तित्व के विषय हैं । जड़ द्रव्य चिन्तन कर सकता है । परलोक की धारणा मिथ्या है । मृत्यु सबका अन्त है | धर्म की कटु आलोचना - चार्वाकों ने वैदिक प्रदेश और पुरोहित वर्ग के विरुद्ध अपने मत का प्रतिपादन किया । परात्परवाद, प्रतीन्द्रियवाद तथा चमत्कारवाद की धारणाओं के साथ ही उन सभी धारणाओं का खण्डन किया जो कि दर्शन, धर्म तथा नैतिकता के मूल आधार हैं । प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण मानकर उन्होंने ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग की धारणा का उपहास किया और कहा कि आध्यात्मिक जीवन एवं चेतना के उच्च स्तर में रहने के बदले भौतिक जगत् के भोग-विलास के स्तर पर रहना चाहिए । विशुद्ध सुखवाद का प्रतिपादन करके उन्होंने वैयक्तिक सुख को ही जीवन का ध्येय बतलाया । धार्मिक और नैतिक विश्वासों से अपने को मुक्त करके उन्होंने पुरोहितों के एकाधिकार को छीन लिया । धर्म से अपने को मुक्त करने के प्रयास में वे जड़वाद के एकांगी शिखर पर पहुँच गये । धर्मशिक्षकों, वैदिक पुस्तकों तथा यज्ञ एवं शास्त्रविधियों के वे पूर्ण विरोधी थे । उनका कहना था कि वैदिक पुस्तकों में पुनरुक्ति, आत्म-विरोध और असत्य मिलता है । यदि हम स्वर्ग और नरक की धारा को समझने का प्रयास करें तो मालूम होगा कि वे धारणाएँ मिथ्या हैं । परलोक का विचार छलपूर्ण है । इस जगत् के अतिरिक्त अन्य कोई जगत् नहीं है । जगत् के मूल में ईश्वर की सत्ता को मानना अनावश्यक है । जड़भूतों के संयोग से जगत् की उत्पत्ति हुई है । पाखण्डियों और धूर्तों ने अपने स्वार्थ के कारण इन धारणाओं को जन्म दिया और इनका प्रचार किया । धर्म एक मूर्खतापूर्ण भ्रान्ति है, यह मानसिक रोग है । पण्डित और पुरोहित वर्ग ने धन की लिप्सा एवं व्यावसायिक लाभ को सम्मुख रखकर आचरण के नियमों को बनाया है । उन्होंने अपने जीविकोपार्जन के लिए नरक का भय तथा मुक्ति और स्वर्ग का प्रलोभन दिया है । अथवा चार्वाक कहते हैं: यदि बलि का पशु सीधे स्वर्ण पहुँच जाता है तो यजमान अपने ही पिता की बलि क्यों चार्वाक दर्शन / ३२ε For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं दे देता ? जब तक जीवन है मनुष्य को सुखपूर्वक रहना चाहिए। ऋण लेकर भी उसे घी पीना चाहिए। जब एक बार देह भस्म हो जाती है तो वह फिर कैसे आ सकती है ? अतः ये जो अनेक धार्मिक विधियाँ दीखती हैं उन्हें ब्राह्मणों ने अपनी जीविका-उपार्जन के लिए ही चलाया है। वेद के प्रणेता भाण्ड, धूर्त और पिशाच थे। धूर्त पण्डितों ने अलौकिक सत्ता, ईश्वर, आत्मा तथा स्वर्ग का प्रलोभन देकर क्षीण बुद्धिवालों को बेवकूफ बनाया। __ जड़वादी दर्शन : प्रत्यक्ष पर आधारित -निश्चित अथवा यथार्थ ज्ञान को प्रमा कहते हैं और चार्वाक यह मानते हैं कि प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त ज्ञान ही प्रमा है। ज्ञान को प्रत्यक्ष तक सीमित करके उन्होंने शब्द (लौकिक और वैदिक), अनुमान, कार्य-कारण सम्बन्ध अथवा किसी अन्य प्रकार की व्याप्ति को अस्वीकार कर दिया । ज्ञान विशिष्ट संवेदनों तक सीमित है । वस्तुओं के अनिवार्य सम्बन्ध की स्थापना नहीं कर सकते । स्वर्ग, नरक, भगवान्, परलोक, प्रात्मा की अमरता आदि, किसी के बारे में कुछ नहीं कह सकते। अतीत गत हो चुका है और भावी अनागत तथा अज्ञेय है । प्रत्यक्ष के आधार पर वर्तमान ही एकमात्र सत्य है। हम यह नहीं जानते कि मृत्यु के बाद शरीर कहाँ जाता है अथवा यह शरीर दुबारा मिलेगा या नहीं । अनुभव बतलाता है कि मत्यु सबका अन्त है : जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है, और जो अप्रत्यक्ष है वह अस्तित्वरहित है। जड़ ही एकमात्र सत्य है। इसका ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त होता है। ऐसे वस्तुवाद के साथ चार्वाकों ने अनेकतावाद को भी अपनाया है। उनके अनुसार चार स्थूल भूत हैं : पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु । वे आकाश और इन भूतों के सूक्ष्म रूपों को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनका इन्द्रियजन्य ज्ञान असम्भव है। उनके अनुसार स्थूल भूतों के आधार पर विश्व की प्रत्येक वस्तु को समझा सकते हैं । भूतों के स्वतःसम्मिश्रण एवं अन्तनिहित स्वभाव के आधार पर प्रोटो-- जा से लेकर दार्शनिक के विकास तक को समझा सकते हैं। __ आत्मा के अस्तित्व को उसके प्रचलित अर्थ में स्वीकार नहीं कर सकते हैं। आत्मा को परम सत्य नहीं मान सकते हैं क्योंकि इसका इन्द्रियजन्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। आन्तरिक प्रत्यक्ष द्वारा चैतन्य को समझा सकते हैं । चैतन्य है किन्तु वह कोई अभौतिक तत्त्व या आत्मा का गुण नहीं है। जिस भाँति विभिन्न तत्त्वों के मेल से मदिरा बनती है और उसमें मादकता का गुण आ जाता है उसी भाँति चार भूतों एवं शरीर के तत्त्वों के मेल से चैतन्य बनता है। देह के विभिन्न भूतों के मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण यह देह की विशेषता या गुण ३३० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इसे अभौतिक तत्त्व या प्रात्मा का गुण नहीं मान सकते । चैतन्य परम सत्य या शाश्वत सत्य नहीं है और न इसका स्वतन्त्र अस्तित्व ही है । यह सदैव देह से युक्त रहता है। इसे देह से भिन्न किसी से नहीं देखा। यह एक प्राकृतिक घटना मात्र है। चैतन्य को शरीर का गुण कहकर अथवा चेतन को ही आत्मा कहकर जड़वादियों ने संस्कार, प्रारब्ध, भाग्यवाद, कर्मवाद आदि को अपने दर्शन में स्थान नहीं दिया । भावी जीवन, पुनर्जीवन, स्वर्ग, नरक आदि का भय या प्रलोभन अर्थशून्य हो जाता है क्योंकि आत्मा की अमरता मिथ्या है और मृत्यू जीवन का अन्त है। चार्वाक नैतिकता-आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग, कर्मभोग की धारणाओं का निराकरण करके चार्वाक ने त्याग, अपरिग्रह, संन्यास, सार्वभौम परोपकारिता की उपेक्षा की और कहा है कि वैयक्तिक सुख ही एकमात्र सत्य है। जड़वादी दष्टिकोण से उन्होंने जीवन के मूल्य को समझने का प्रयास किया और सुखभोग को ही परम और प्रत्यक्ष ध्येय माना। चार्वाक का जड़वादी दृष्टिकोण उसे भोग-विलास की ओर ले जाता है। जीवन के मूल में स्त्री और पुरुष का मिलन है। इन्द्रियों का सम्भोग या विलास ही जीवन है। जीवन सुखभोग के लिए है। उसकी उपेक्षा करना हास्यास्पद है। यह पेड़ की उस शाखा को काटना है जिस पर कि व्यक्ति स्वयं बैठा है। परम ध्येय : काम-भारतीय दार्शनिकों ने चार पुरुषार्थ (मानवोचित गुण) माने हैं : अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष । किन्तु चार्वाक-दर्शन ने अर्थ और काम को ही स्वीकार किया है। धर्म और अधर्म एवं पाप और पुण्य का भेद शास्त्रसम्मत है और शास्त्र को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। शरीर का सुख-दुःख-से अविच्छेद्य सम्बन्ध है तथा सुख-दु:ख सापेक्ष हैं । अतः मोक्ष एवं दुःख-विनाश मृत्यु का सूचक है । मृत्यु की कामना करना विवेक-सम्मत नहीं है। उपर्युक्त तर्क के आधार पर चार्वाक यह समझाते हैं कि धर्म और मोक्ष को हम जीवन का लक्ष्य नहीं मान सकते । अर्थ साधन मात्र है और इसलिए अभीप्सित है। निःस्पृहता अवांछनीय-सभी भारतीय दार्शनिकों की भाँति चार्वाक यह मानते हैं कि जीवन में दुःख है। दुःख को स्वीकार करने पर भी चार्वाक दार्शनिकों का अन्य दार्शनिकों से मतभेद है। अन्य दार्शनिकों का यह कहना है कि दुःख की पूर्ण निवृत्ति या विनाश सम्भव है और दुःख-विनाश की यह अवस्था ही मुक्ति है । कुछ यह मानते हैं कि मुक्ति मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होती है और चार्वाक-दर्शन | ३३१ For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ इसी जीवन में मुक्ति की प्राप्ति सम्भव बतलाते हैं। चार्वाक मुक्ति या अपवर्ग के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते हैं। यदि मुक्ति का अर्थ प्रात्मा का देह के बन्धन से मुक्त होना है तो यह सम्भव नहीं है। प्रात्मा और देह अभिन्न हैं, इसलिए आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। अत: प्रात्मा का देह से बियोग मृत्यु का सूचक है, न कि अपवर्ग का । यदि मुक्ति का अर्थ दुःख का पूर्ण विनाश है तो यह भी असम्भव है। सुख-दुःख देह की विशेषताएँ हैं और इनका देह से अभिन्न सम्बन्ध है। इस जीवन में दुःख का पूर्ण विनाश अचिन्तनीय है। कुछ विचारकों ने सुख-दुःख के सापेक्ष सम्बन्ध को समझाते हुए दुःख से छुटकारा पाने के लिए इच्छाओं और स्वाभाविक प्रवृत्तियों के नियन्त्रण और हनन को महत्त्व दिया है और सुख-दुःख के प्रति तटस्थता या नि:स्पृहता को वांछनीय बतलाया है। किन्तु दु:ख के भय से सुख से विरक्त होना उचित नहीं है । मछली में काँटे होते हैं और धान-गेहूँ में छिलका होता है किन्तु कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति उनको खाना नहीं छोड़ता। इस प्रकार चार्वाक अनेक उदाहरण देकर जीवन के सुखों के प्रति मनुष्य को आकृष्ट करते हैं। हमें वर्तमान के निश्चित सुख का भविष्य के सन्दिग्ध सुख की प्राशा में त्याग नहीं करना चाहिए । 'मोर को पाने की आशा से हाथों में आये हुए कबूतर को नहीं छोड़ना चाहिए।' भविष्य अनिश्चित, सन्दिग्ध एवं अज्ञेय है। वर्तमान ही एकमात्र सत्य है । हमें वर्तमान जीवन में उसी कर्म को करना चाहिए जो कि अधिक-से-अधिक सुख और कम-से-कम दुःख दे। यदि जीवन में दुःख सहना पड़ता है तो उसने डरकर इच्छाओं का विनाश नहीं करना चाहिए बल्कि पूर्ण लगन से सुखभोग करना चाहिए । काम ही एकमात्र नैतिक ध्येय है। इच्छानों से ऊपर उठने के बदले आत्म-विभोर होकर कामुकता का प्रालिंगन करना चाहिए। आलोचना भोगवादी-चार्वाक भोगवादी है । इन्द्रिय-सम्भोग को महत्त्व देने के लिए उन्होंने सद्गुण को भ्रान्ति कहा और भोग को एकमात्र सत्य कहा । जो कुछ भी शुभ, श्रेष्ठ, पवित्र और दयापूर्ण है उस पर अविश्वास प्रकट किया। भोगविलास या काम का मुक्त समर्थन किया । जनसामान्य जिन गुणों का अर्जन और पालन करता है वे प्रचलन और उसकी मन्द सांसारिक बुद्धि के सूचक हैं। ऐसा इन्द्रिय-सम्भोग वैयक्तिक सुख का प्रतिपादक है। निजी इन्द्रिय-सुख के लिए जो कर्म और नियम उपयोगी हैं उन्हें ही बुद्धिमान् व्यक्ति अपनाता ३३२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । इस आधार पर चार्वाक ने त्याग और परहित की धारणाओं को अवांछनीय कहा । ऐसा स्थूल उपयोगितावादी दृष्टिकोण नैतिक और आध्यात्मिक मान्यताओं, योग और साधना तथा सदाचार और संयम का विरोधी है। कुछ देर के लिए यह कल्पना करना कठिन हो जाता है कि कभी भी मानवोचित स्तर एवं बौद्धिक धरातल पर एक ऐसे सम्प्रदाय का अस्तित्व रहा जिसने कि स्वेच्छा से सुख के लालच में पशुजीवन को अपना लिया । यदि यह मान भी लें कि मृत्यु के बाद कुछ नहीं रहता तो भी क्या यह कहना मानव-गौरव के अनुकूल होगा कि इन्द्रिय-सम्भोग ही एकमात्र सत्य है । आत्म-प्रबुद्ध प्राणी उस धरातल पर सदैव नहीं रह सकता है जिससे कि वह ऊपर उठ पाया है। प्रात्मत्याग और आत्म-संयम की पुकार उसकी उस आत्मा की पुकार है जो कि अपनी ही पशु-प्रवृत्तियों से ऊब गयी है। इसमें भी सन्देह नहीं है कि भोगवादी विचारधारा कठोर वैराग्यवाद की पूरक है किन्तु प्रात्मरति का ऐसा उच्छखल, मुक्त और वीभत्स गान मनुष्य के लिए असह्य हो जाता है। आलोचकों ने अपनी असहनशीलता और घणा को व्यक्त करने के लिए ही चार्वाक को सन्देहवादी, संशयवादी, नास्तिक-शिरोमणि, धर्मनिन्दक और भोगवादी कहा है। अनैतिक-यह भी विवादपूर्ण है कि आलोचकों ने चार्वाक-दर्शन को जितना निम्न और हेय दिखलाया है क्या वह वास्तव में वैसा ही था। यह सम्भव है कि आलोचना के आवेश में उन्होंने अतिशयोक्ति को अपना लिया हो। किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि चार्वाक-दर्शन जिस कट और तीव्र आलोचना का विषय बन गया है उसका कारण उसी की आन्तरिक दुर्बलता है। अपने व्यावहारिक पक्ष में उसने सामाजिक व्यवस्था और नैतिक दायित्व को समूल नष्ट करना चाहा। यह न तो उस भगवान् को मानता है जो विश्व में सदाचार की स्थापना के लिए जन्म लेता है या नैतिक व्यवस्था का संचालक है और न उस आन्तरिक बोध या ध्वनि को जो सदाचार के मार्ग पर चलाती है। यह सदाचार के मूल आधारों और मान्यताओं-पुनर्जन्म, आत्मा की अमरता, ईश्वर का अस्तित्व, कर्मवाद—को तिरस्कृत करके उन्हें असत्य कहता है । श्रेष्ठ नैतिक जीवन से मनुष्य को स्खलित करके उसे इन्द्रिय-सम्भोग की ओर ले जाना वह अपना श्लाघनीय ध्येय मानता है। इन्द्रिय-सम्भोगवाद परहित की छाया से भी दूर रहना चाहता है । उस सामान्य शुभ की स्थापना भी नहीं करना चाहता जिसके अधीन मनुष्य का स्वार्थ है । इसके अनुसार यदि सामूहिक सुख है तो वह व्यक्तियों के सुख द्वारा ही व्यक्त होता है । उपनिषदों चार्वाक-दर्शन | ३३३ For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कष्ट - सहिष्णुता, त्याग और कठोर वैराग्य के बदले चार्वाक ने अनियन्त्रित प्राणशक्ति का सिद्धान्त दिया । सब प्रकार के आदेशों के प्रति उन्होंने ग्रात्म दृढ़ता के साथ सम्मान और प्रगल्भता व्यक्त की है। सार्वभौम परोपकारिता, प्रेम और आत्म-संयम के लिए जीवन में स्थान नहीं है । मनुष्य ने काम प्रवृत्ति को प्रकृति से दाय-रूप में प्राप्त किया है । इसकी तृप्ति ही परम ध्येय है । इस प्रकार हम देखते हैं कि चार्वाक ने ढीठ हठधर्मी के साथ मानव जगत् को उसकी समस्त मान्यताओं से दूर कर दिया । ईश्वर पर विश्वास और परलोक की धारणा को दुर्बलता, कायरता, मिथ्याचार और धूर्तता का चिह्न कहा । मनुष्य की नैतिक प्रकृति को अनैतिक प्रकृति का सन्देश दिया । अन्तर्निहित सत्य - दुर्बलताओं और सीमाओं से घिरे होने पर भी चार्वाक - दर्शन सत्यांश से युक्त है । वैराग्यवाद को श्मशान की निद्रा से जगाने के लिए इन्द्रियपरक आत्मा की तीव्र और लालसा भरी पुकार आवश्यक है। उपनिषदों - के त्याग, वैराग्य और संन्यास के गीत आत्मा के मूर्त व्यक्तित्व से दूर होते जा रहे थे । एक ऐसी धारणा की आवश्यकता थी जो कि भावना के समानाधिकार को सम्मुख रख सके । बुद्धि के एकाधिपत्य के समान्तर में भावना के एकाधिपत्य को खड़ा करके यह बतला सके कि किसी के भी अधिकार को छीन नहीं सकते हैं । चार्वाक-विचारधारा भारतीय दर्शन के व्यापक दृष्टिकोण और उदार चेतना को समझाती है । वह बतलाती है कि भारतीय दर्शन संन्यासवाद तक ही सीमित नहीं है, उसमें सभी प्रकार के विचार मिलते हैं । निम्न से निम्न और उच्च से उच्च विचार व्यक्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण स्वतन्त्र है । चार्वाक दर्शन मनुष्य की स्वतन्त्रता की चेतना के जागरण का सूचक है । संकीर्ण धर्म, जादू-टोना, परम्परा, चमत्कारवाद, रूढ़िवाद तथा बाह्यादेशों का खण्डन करके इस दर्शन ने स्वतन्त्र विचार और विद्रोह की उस लहर को जन्म दिया जो कि श्राध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक है । इसने यह समझाया कि उसी सत्य को स्वीकार करना चाहिए जिसका अनुमोदन बुद्धि करती है । निःसन्देह चार्वाक दर्शन के मूल में सन्देहवाद और अज्ञेयवाद मिलता है किन्तु यह प्रगति के शिखर का अनिवार्य सोपान है । जब एक विचारधारा रूढ़िग्रस्त और एकांगी हो जाती है तो उसका विकास रुक जाता है। विकास की प्रगति के लिए सन्देहवाद एवं संशयवाद अत्यन्त श्रावश्यक है । चार्वाक ने भविष्य को अज्ञेय कहकर और प्रत्यक्ष को ही सत्य का मानदण्ड मानकर उन संख्य ३३४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्याओं और कठिनाइयों को उपस्थित कर दिया जिनको समझने और सुलझाने में विरोधी दर्शनों का दृष्टिकोण अधिक व्यापक हो गया । चार्वाक - दर्शन की अपूर्णता, सांसारिकता और घोर इन्द्रियता ने अन्य दार्शनिकों को प्रेरित किया कि वे अपने दर्शन का नीर-क्षीर विवेचन करके तथा पुष्ट तार्किक प्रमाण देकर उसकी पूर्णता स्थापित करें | विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का अध्ययन यह बतलाता है कि अपने सिद्धान्त की प्रामाणिकता को स्थापित करने के लिए भारतीय दार्शनिकों ने चार्वाक दर्शन को असत्य सिद्ध करना अपना प्रमुख लक्ष्य माना । श्रमान्य और अवांछनीय दर्शन - उपर्युक्त सत्यांश होने पर भी चार्वाक - दर्शन का मान्य और वांछनीय सिद्धान्त के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते हैं । चार्वाक ने समझाया कि नैतिक नियम प्रचलन मात्र है । प्रचलनों का अन्धानुकरण करने के आवेश में हमें मुख्य ध्येय को नहीं भूलना चाहिए । जब हम प्रश्न करते हैं कि बौद्धिक प्राणी के लिए वह ध्येय क्या है जिसका निरन्तर स्मरण आवश्यक है तो हमें उत्तर मिलता है कि जीवन का अभीप्सित ध्येय काम है । व्रत, संयम, नियम, त्याग, सार्वभौम परोपकारिता आदि छूछी मान्यताएँ हैं । मनुष्य स्वतन्त्र है । वह इन्द्रिय- सम्भोग का अधिकारी है । अतः चार्वाक आत्म-त्याग के बदले आत्म- रति की धारणा देते हैं । जिस वैयक्तिक स्वतन्त्रता और काम-वासना को चार्वाक ने महत्त्व दिया है वह मनोवैज्ञानिक, जैव, नैतिक तथा सामाजिक दृष्टि से घातक है । जीवन के तथ्य बतलाते हैं कि ऐसा व्यक्ति सामाजिक हित की हत्या करने के साथ ही अपनी हत्या भी करता है । वह आत्मघाती है क्योंकि नैतिकता के बदले पशुत्व को स्वीकार करता है । चार्वाक दर्शन / ३३५. For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ गीता रचनाकाल और रचयिता-गीता महाभारत के भीष्मपर्व का एक अंश है । इसके रचनाकाल के बारे में विद्वानों में मतभेद है। इसका काल १०० ई० पू० से लेकर ५०० ई० पू० के बीच माना जाता है। इसके रचयिता के बारे में भी हमारा ज्ञान सन्दिग्ध है। धार्मिक आस्था व्यास को इसका रचयिता मानती है जो कि महाभारत, भागवत आदि अनेक ग्रन्थों के रचयिता माने जाते हैं। गीता की समन्वयात्मक दृष्टि-गीता के दर्शन को समझाने के लिए यह कहा जाता है कि गीता उपनिषदों का सार है। कृष्ण दुहनेवाले हैं; अर्जुन बछड़ा है; उपनिषद् गायें हैं । यदि ज्ञानी व्यक्ति चाहे तो अमृत सदृश गीता के उत्तम दूध का पान कर सकता है। यह उपमा सत्यांश युक्त है, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि गीता केवल उपनिषद् है। गीता की दृष्टि समन्वयात्मक है। उसका क्षेत्र सर्वग्राही है और सन्देश व्यापक है। उसने विभिन्न सिद्धान्तों और प्रचलित मान्यताओं के सार को ग्रहण करके उन्हें व्यवस्थित और आकर्षक रूप दिया है। वेद, उपनिषद, श्रीमद्भागवत् एवं वैष्णव धर्म, सांख्य, योग, एकवाद आदि के बीच उसने संगति स्थापित की और साथ ही प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग का निष्काम कर्म के रूप में समन्वय किया । अतः यह कहना भ्रान्तिपूर्ण है कि गीता ने किसी सिद्धान्त-विशेष का ताकिक और दार्शनिक रूप से प्रतिपादन किया। ___ नैतिक मूल्य-गीता का ध्येय किसी ऐसे गुह्य ज्ञान को देना नहीं है जिसे कि इने-गिने लोग ही समझ सकते हैं बल्कि एक ऐसे सरल और सुगम सन्देश को देना है जो कि मानवता के लिए हितकर है । गीता यह भली-भाँति समझती ३३६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक है । गीता है कि अधिकांश व्यक्ति अज्ञानवश संसार में दुःख भोगते हैं । अपने ध्येय और कर्मपथ को समझने में समर्थ होने के कारण वे भटकते रहते हैं । गीता ने एक ऐसे विश्वव्यापी, सार्वभौम और शाश्वत सन्देश को दिया है जो देश, काल, परिस्थिति तथा राष्ट्र, जाति, वर्ण के भेद से अछूता है । वह सभी नैतिक जिज्ञासुत्रों को उस ग्रान्तरिक मार्ग का ज्ञान देती है जो भगवत् - प्राप्ति में ने कर्म का सन्देश दिया और यह सन्देश जीवन के दर्शन पर आधारित है । तात्त्विक सत्य का ज्ञान ही कर्म की ओर ले जाता है। गीता ने ब्रह्मविद्या और योग शास्त्र दोनों को समान माना है । जीवन का तात्त्विक रूप हमें कर्म का आदेश देता है । कर्म एवं कर्तव्य द्वारा हम जीवन की समस्याओं को सुलझाकर उनके स्वामी बन जाते हैं। गीता ने नैतिक समस्या - कर्तव्य को कृष्ण और अर्जुन के वार्तालाप द्वारा समझाया है । 1 कृष्ण तथा अर्जुन का व्यक्तित्व - महाभारत कृष्ण के ऐतिहासिक व्यक्तित्व एवं वास्तविक अस्तित्व को स्वीकार करता है और साथ ही उनकी अवतार के रूप में पूजा करता है । किन्तु इतिहास कृष्ण के वास्तविक अस्तित्व को सिद्ध करने में अभी तक असमर्थ है । ऐतिहासिक दृष्टि से कृष्ण पौराणिक नायक हैं । महाभारत के अनुसार अर्जुन कुन्ती के पुत्र हैं । वे अपने अधिकार, धर्म और सत्य की रक्षा के लिए युद्ध-क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । गीता के अनुसार अर्जुन वह व्यक्ति है जो ज्ञान और हृदय की दुर्बलता के कारण मानसिक संघर्ष की स्थिति में पड़ा है तथा कर्तव्य एवं सदाचार के मार्ग को निर्धारित करने में असमर्थ है । I नैतिक समस्या और उसका समाधान - युद्ध का रूपक लेकर गीताकार ने कर्तव्याकर्तव्य के प्रश्नों को उठाया है । यह जीवन धर्म-क्षेत्र है इसलिए सदाचार का मार्ग ही एकमात्र वांछनीय मार्ग है । सदाचार का क्या अर्थ है ? जीवन का ध्येय क्या है ? क्या युद्ध उचित है ? क्या अपनों का हनन करके विजयी होना न्यायसंगत है ? अर्जुन का मन अस्थिर और दु:खी है । ममत्व, भावावेश और क्लीवता ने उसके विवेक को कुण्ठित कर दिया है । क्षात्र धर्म और अग्रजों का प्रदेश उसे युद्ध करने के लिए प्रेरित करता है किन्तु उसका प्रज्ञान उसे दुविधा में डाल देता है | वह अनेक तर्क-वितर्क करता है । यदि युद्ध में पराजय प्राप्त हुई तब क्या होगा ? यदि स्वजनों का हनन करके विजय भी मिली तो उसमें ही क्या सुख होगा ? ऐने तर्क उसे कर्तव्य - विमूढ़ बना देते हैं । वह बारम्बार इस पर विचार करता है कि क्या करना उचित है और क्या करना अनुचित । अन्त में गीता / ३३७ For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह श्रीकृष्ण से प्रश्न करता है कि मैं क्या करूँ ? श्रीकृष्ण उसे समझाते हैं कि कर्तव्य का मार्ग स्वार्थ, ममत्व और भावना के मार्ग से भिन्न और श्रेष्ठ है। अपने ऐसे कथन के प्रतिपादन के लिए वे अनेक युक्तियाँ देते हैं। उदाहरणार्थ, वे कहते हैं कि सर्वत्र एक ही सत्य की अभिव्यक्ति है । व्यक्ति और विश्व एक ही सत्य के अंश हैं। प्रतः सर्वभूतों में एक ही सत्य व्याप्त है। इसलिए सत्य के लिए युद्ध करने में विमुख नहीं होना चाहिए। भगवत-प्राप्ति के लिए सदाचार अनिवार्य है। यदि युद्ध एवं ध्वंस सदाचार के लिए आवश्यक है तो उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। परिणाम की चिन्ता नहीं करनी चाहिए और यदि अर्जुन यह सोचता है कि वह युद्ध द्वारा आत्मजों का हनन करेगा तो वह भ्रम में है । मनुष्य का प्रान्तरिक रूप नित्य सत्य है । आत्मा अमर है, 'जल उसे भिगो नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती और अस्त्र छेद नहीं सकते।' इसलिए यह सोचना व्यर्थ है कि हम किसी का हनन करते हैं अथवा किसी का हनन हो सकता है । स्वधर्म को छोड़ा अनुचित है। अर्जन क्षत्रिय है। क्षत्रिय का धर्म राज्य तथा समाज के कल्याण के लिए युद्ध करना है। यदि वह युद्धपराङमुख होगा तो उसके परिवार तथा समाज के लोग उसे कायर समझकर उसका अपमान करेंगे। कर्म, अकर्म का प्रश्न-गीता यह समझाने का प्रयास करती है कि अपनी चेतना के उच्चतर स्तर में रहकर भी व्यक्ति कर्म कर सकता है। इसीलिए उसने सदाचार के प्रश्न को उठाकर कर्तव्य का सन्देश दिया है। कर्तव्य के सन्देश के मूल में जगत् की सत्यता की धारणा है । गीता अकर्म एवं कर्मत्याग या कर्मसंन्यास को स्वीकार नहीं करती है। वह आत्मशुद्धि के द्वारा प्राध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति बतलाती है और आध्यात्मिक ज्ञान उचित कर्म की प्रेरणा देता है। अतः गीता ने ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र को एक ही माना है । गीता कर्मयोग की स्थापना करती है। ___ कर्म का सन्देश देने के लिए गीताकार ने कृष्ण के मुख से यह कहलाया है कि 'जब-जब धर्म का ह्रास होता और अधर्म का विकास होता है तब-तब मैं अवतार लेता हूँ।' जब स्वयं कृष्ण, जो कि पूर्णकाम हैं, सदाचार की स्थापना के लिा कर्म करते हैं तो मनुष्य अकर्म को कैसे अपना सकता है ? यह अवश्य है कि मनुष्य को कर्म सदैव धर्म या सदाचार के लिए करने चाहिए, न कि स्वार्थसिद्धि अथवा स्वर्ग और धन की कामना से प्रेरित होकर । कर्मयोग और कर्मसंन्यास-गीता में योग की अनेक व्याख्याएँ मिलती हैं. ३३८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे 'समत्वं योग उच्यते' या 'योगः कर्मसु कौशलम्' इत्यादि । जब कर्म के सन्दर्भ में योग का अर्थ समझने का प्रयास करते हैं तो योग से गीता का अभिप्राय 'युक्त' करने से है । अपने को सामाजिक यज्ञ कर्म अथवा कर्तव्य से युक्त करना ही कर्मयोग है । कर्मयोग के द्वारा गीता ने उन सभी सामाजिक कर्तव्यों को मान्यता दी है जिन्हें कि सब व्यवस्थित समाज स्वीकार करते हैं । जगत् और जीव एवं अनेकता को सत्य मानकर गीता ने कर्मयोग को महत्त्व दिया है। गीता के अनुसार जीव आत्मा और देह का योग है और कर्म देह एवं प्रकृति का गुण है । अतः जब तक देह है, कर्म भी है । कर्म से मुक्ति असम्भव है । कर्मयोग न्याय संगत और उचित है । कर्म से संन्यास लेना भ्रान्तिपूर्ण है । कर्म का त्याग करने के बदले हमें अपने को कर्ता समझने की भावना का तथा कर्मफल का त्याग करना चाहिए । कर्म देह का गुण है । शरीर मात्र ही कर्म करता है । व्यक्ति को निःसंग अथवा अनासक्त रहकर अपने को अकर्ता जानना चाहिए। भगवान् वास्तविक कर्ता है । वह सम्पूर्ण विश्व का संचालक है । कर्तव्य करने के लिए कर्ताभाव का त्याग आवश्यक है क्योंकि वह ग्रहंकारजन्य है । मनुष्य प्रविद्या और ग्रहंकार के कारण सोचता है कि मैंने अपने शत्रु को पराजित किया प्रथवा मैंने यह किया, वह किया । वास्तव में भगवान् ही सब कुछ करवाते हैं । मनुष्य तो निमित्त मात्र है । अर्पण-बुद्धि एवं भगवत् संकल्प से अपने संकल्प को युक्त करके कर्म करना चाहिए | निष्क्रियता और अकर्म के लिए उस जीवन में स्थान नहीं है जो कि श्राध्यात्मिक है। अकर्मण्यता प्राध्यात्मिक ज्ञान और स्वतन्त्रता ( बन्धन से मुक्ति) का सूचक नहीं है । कर्तृत्वभाव और फलेच्छा बन्धन में डालती है । निष्काम कर्म को अपनाकर बन्धन से मुक्त हो सकते हैं । कर्मत्याग एवं अकर्म वांछनीय है । सम्यक् एवं सत्य ज्ञान मनुष्य को कर्म से युक्त करता है । वह विश्व के प्रार्त प्राणियों के कल्याण के लिए प्रयास करता है और सामाजिक कर्म से विमुख नहीं होता है । ऐसा नि:वार्थ कर्म बन्धन में नहीं डालता । कर्म करने मात्र से दोष नहीं लगता है | स्वार्थी इच्छाएँ और निम्न प्रेरणाएँ कर्म को दोषयुक्त करती हैं । इनके ऊपर उठकर शुभ कर्म करने चाहिए। कर्म का त्याग अथवा कर्मसंन्यास ग्रहण करने से अधिक वांछनीय और श्रेयस्कर निष्काम कर्म है | fasara कर्म : प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग का समन्वय - गीता के नैतिक सिद्धान्त का केन्द्रबिन्दु कर्मफलत्याग एवं निष्काम कर्म है । यह वह सेतु है जो गीता / ३३९ For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवत्ति और प्रवृत्ति मार्ग को संयुक्त करता है। गीता का काल वह काल था जब कि जीवन के दो विरोधी आदर्श समाज में प्रचलित थे : कर्मयोग और कर्मसंन्यास, सांसारिक, जीवन चिन्तनप्रधान पारलौकिक जीवन, तपपूर्ण एकाकी जीवन और कर्मप्रधान जीवन, यही दो आदर्श निवृत्ति और प्रवृत्ति मार्ग के नाम से प्रसिद्ध हैं। निवृत्तिमागियों ने कर्मत्याग को महत्त्व देकर संन्यासवाद एवं वैराग्यवाद का समर्थन किया । इच्छा कर्म का अनिवार्य अंग है और वह स्वार्थी भावनाओं को जन्म देती है । स्वार्थ व्यक्ति के ज्ञान को भ्रम में डाल देता है। उसे औचित्य के मार्ग से हटा देता है। ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए कि कर्म का त्याग कर दे । किन्तु प्रवृत्तिमार्गी सामाजिक कर्तव्य को अनिवार्य मानते हैं। वे कर्मकाण्ड एवं शास्त्र-विधियों को भी स्वीकार करते हैं। ऐसे कर्म मुक्ति स्वर्ग और ऐश्वर्य की कामना से किये जाते हैं। परलोक के सूख की चिन्ता निम्न प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण अवश्य रखती है पर साथ ही स्वार्थ को पल्लवित करती है। इस भाँति यह वैयक्तिक शुभ एवं स्वार्थ को स्वीकार करती है। ___ गीता ने निवत्ति और प्रवत्तिमार्ग के मूल में स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को देखा और स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के त्याग के लिए निष्काम कर्म को आवश्यक बतलाया। गीता ने समझाया कि देहधारी के लिए कर्म का त्याग असम्भव है। इसलिए जीवन का आदर्श कर्मत्याग का प्रादर्श नहीं हो सकता। यह कर्म में त्याग का आदर्श है। स्वार्थपूर्ण इच्छानों के जाल से मुक्त होने के लिए ही गीता कहती है कि परिणाम की ओर से विरक्त होकर कर्म करना चाहिए। कर्तव्य करना ही मनुष्य का कर्म है। परिणाम एवं फल दैवाधीन है। फलासक्ति छोड़कर कर्म करना चाहिए। आशारहित होकर कर्म करना उचित है। कर्म से मुक्ति असम्भव है। कर्म को छोड़ना गिरना है। जो परिणाम से विमुख होकर कर्म करता है वह भगवान् को पाता है। यदि कर्म करने में एकमात्र दोष यह है कि कर्म के द्वारा ममत्व, अहंकार, राग, द्वेष, क्रोध, घणा आदि निम्न और स्वार्थ पूर्ण इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं तो इस दोष से मुक्ति सम्भव है । आसक्ति और फलेच्छा से मुक्त कर्म करने चाहिए । कर्तव्य की प्रेरणा दिव्य प्रेरणा है। इस प्रेरणा के द्वारा इच्छात्रों का उन्नयन और सुधार कर सकते हैं । वही कर्म शुभ है जो कर्तव्य की प्रेरणा दिव्य प्रेरणा से संचालित है और परिणाम की ओर से तटस्थ है । यही गीता का निष्काम कर्म है। इसके द्वारा निवृत्ति और प्रवत्तिमार्ग के बीच संगति स्थापित करके अथवा उनकी एकता को समझाकर गीता ने निवृत्तिमार्ग को अाकर्षक बनाया और प्रवृत्तिमार्ग को श्रेष्ठता प्रदान की। ३४० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबुद्धि और अर्पण बुद्धि निष्काम कर्म के लिए अनिवार्य - प्रर्जुन निष्पक्ष चिन्तन करने में असमर्थ है क्योंकि ममत्व के बोझ के कारण उसका हृदय क्लान्त हो गया है । वह हृदय की दुर्बलता के कारण मानसिक सन्तुलन( समत्व ) खो बैठा है और तटस्थ बुद्धि से कर्तव्य को समझने के बदले लाभहानि, जय-पराजय, अपना-पराया अथवा स्वार्थ और परिणाम के सम्बन्ध में सोचता है | भगवान ही परमकर्ता हैं तथा कर्म देह का गुण है । मनुष्य निमित्त मात्र है। कर्म का परिणाम दैवाधीन है । ऐसी स्थिति में परिणाम की चिन्ता अविवेकी ही करते हैं । विवेकी व्यक्ति फलासक्ति का त्याग करके निष्काम कर्म करता है । निष्काम कर्म के लिए दो बातें ग्रावश्यक हैं : आत्मशुद्धि तथा अर्पणबुद्धि | आत्मशुद्धि द्वारा गीता ने यह समझाया कि निम्न इच्छाओं का परिष्कार करना आवश्यक है । हमें अपने को संकीर्ण इच्छाओं, कामनाओं और वासनाओं के बन्धन से मुक्त करके कर्तव्य के मार्ग को अपनाना चाहिए | सब इच्छाएँ कर्तव्य के अधीन होनी चाहिए । मनुष्य प्राध्यात्मिक प्राणी है । उसके जीवन का ध्येय उच्च है, भगवत् - प्राप्ति है । इस ध्येय की प्राप्ति के लिए इच्छात्रों का उन्नयन अनिवार्य है । संकीर्ण इच्छात्रों से ऊपर उठकर प्रात्मशुद्धि द्वारा व्यक्ति अपने अन्तरतम की दिव्य ध्वनि को सुन सकता है । उस प्रादेश प्रथवा भगवत् संकल्प के अनुरूप कर्म करना ही व्यक्ति का कर्तव्य है । अतः श्रात्मशुद्ध अर्पण-बुद्धि को जाग्रत करती है । भगवान् ही हमारी वास्तविक प्रात्मा है । वह सब भूतों का प्रान्तरिक सत्य है । उन्हें पूर्ण श्रात्म-समर्पण कर देना चाहिए वसुधैव कुटुम्बकम् : व्यक्ति और समाज- अर्पण-बुद्धि विश्वकल्याण की बुद्धि है । सर्वत्र एक ही सत्य की अभिव्यक्ति है । अतः भेद-भाव मिथ्या है । व्यक्ति और समाज एक ही हैं। दोनों में ही ईश्वर है । ईश्वर ही सब प्राणियों का प्रान्तरिक सत्य है | जब व्यक्ति भगवान् को पूर्ण श्रात्म-समर्पण कर देता है तब वह भगवद्-बुद्धि से जनता को जनार्दन मानकर उसकी सेवा करने लगता है । अत: समाज की सेवा करना भगवान् की सेवा करना है । सब प्राणियों में भगवान् को देखना अथवा एकता का बोध विश्वबन्धुत्व एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के भाव का जनक है । जब दूसरों के लिए त्याग करते हैं तो यह नहीं समझना चाहिए कि हम दूसरों का उपकार कर रहे हैं । वे दूसरे नहीं हैं उनमें भी हमारी ही ग्रात्मा है । समाज सेवा द्वारा व्यक्ति संकीर्ण आत्मा से ऊपर उठकर विश्वात्मा को प्राप्त करता है । आत्मत्याग आत्मोन्नति है । गीता के अनुसार सर्वभूतों के हित के लिए कर्म करना चाहिए । लोकमंगल ही ध्येय है । इस गीता / ३४१ For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय की प्राप्ति के लिए निम्न और स्वार्थी इच्छाओं का दिव्यीकरण आवश्यक है । ऐसा व्यक्ति धीर प्रकृति एवं सम-दृष्टि का व्यक्ति है। उसके लिए दुःखसुख, निन्दा-प्रशंसा और घृणा तथा स्नेह समान हैं । वह न तो शत्रु की निन्दा करता है और न मित्र की प्रशंसा। शम, दम, तप, सत्य, अहिंसा, दान, दृढ़संकल्प, करुणा, सन्तोष, विनम्रता, विश्वप्रेम प्रात्मोन्नति में सहायक हैं और हिंसा, अहंकार, राग, द्वेष, घृणा, लोभ, मोह, आत्मश्लाघा आदि आत्म-विनाशक हैं । अथवा गीता उन सभी प्रवृत्तियों को शभ कहती है जो नि:स्वार्थ भाव से लोकमंगल के लिए प्रयास करती हैं और भगवत्-प्राप्ति में सहायक हैं। इसके विपरीत वे प्रवृत्तियाँ जो कर्तुत्वभाव, अहंकार, स्वार्थ और कर्मफल की प्राशा करती हैं, अशुभ हैं। कर्मवाद : स्वतन्त्रता का प्रश्न-गीता कर्मवाद को मानती है और यह कहती है कि पूर्वजन्म के संस्कार वर्तमान जीवन को निर्धारित करते हैं। पूर्वजन्म के कर्मानुसार ही मनुष्य विशिष्ट जाति और कुल के वातावरण में जन्म लेता है तथा दुःख-सुख पाता है । तो क्या गीता के अनुसार मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है ? सब-कुछ पूर्वनिर्धारित और निश्चित है ? क्या गीता का कर्मवाद निराशावादी है ? क्या मुक्ति एवं मोक्ष के लिए प्रयास करना व्यर्थ है ? गीता का कर्मवाद आशावादी है ? वह हमारे सामने उज्जवल भविष्य रखता है। गीता आत्म-स्वातन्त्र्य में विश्वास रखने के कारण ही कर्मवाद को अपनाती है। व्यक्ति कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है पर प्रत्येक कर्म फल से युक्त है । अतः उसे चाहिए कि सहजप्रवृत्तियों, आवेगों, उद्दाम इच्छाओं और संकीर्ण भावनाओं के प्रवाह में न बहे। समझ-बूझकर कर्म करे। बौद्धिक प्राणी होने के कारण वह अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है । अशुभ कर्म का अशुभ परिणाम उसे भुगतना पड़ेगा। दुःख अशुभ कर्म का परिणाम है। अत: धीर व्यक्ति दुःख को अवश्यम्भावी मानता है। शुभ परिणाम के लिए शुभ करना अनिवार्य है। मनुष्य वर्तमान स्थिति से ऊपर उठकर अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। आध्यात्मिक प्राणी के जीवन का ध्येय भगवत्-प्राप्ति है और इस ध्येय को पाने के लिए वह स्वतन्त्र है । आत्म-नियन्त्रित कर्मों द्वारा अथवा आन्तरिक सत्य के अनुरूप कर्म करने पर वह अपने इष्ट को प्राप्त कर सकता है । इस भाँति गीता कर्मवाद को महत्त्व देकर समझाती है कि व्यक्ति का भविष्य उसके हाथ में है अतः उसे अबौद्धिक और अनुचित कर्म नहीं करने चाहिए। नैतिक आचरण से एक क्षण के लिए भी मुक्ति सम्भव नहीं है। अपने नियतिवाद एवं कर्मवाद द्वारा एक ३४२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर तो गीता हमें अनैतिक कर्मों के गर्त में गिरने से बचाती है और दूसरी ओर हमारे अन्दर उत्तरदायित्व और प्रात्मश्रेष्ठता के भाव को जगाती है। पालोचना मार्गनिर्देशन-गीता ने यह भलीभांति समझाया कि आचरण की समस्या आत्म-प्रबुद्ध प्राणी के लिए मुख्य समस्या है । व्यक्ति केवल जैव आवश्यकताओं का प्राणी नहीं। वह पशु-जीवन को अपनाकर सुखी नहीं रह सकता । वह प्राध्यात्मिक प्राणी है, वह जीवन के अर्थ और मूल्य को जानना चाहता है। उसके कर्म विवेक से संचालित होने चाहिए। अतः गीता ने नैतिक समस्या को तत्त्वदर्शन पर आधारित किया। जीवन के आदर्श को तत्त्वदर्शन की पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है। नैतिक समस्या को एक मूर्त रूप देने के लिए ही गीताकार ने एक विशिष्ट स्थिति को लिया और उस स्थिति के आधार पर समझाया कि मानसिक द्वन्द्व एवं नैतिक समस्या को कैसे सुलझा सकते हैं। वार्तालाप की सरल शैली को अपनाकर नैतिक सन्देश को जनसामान्य के लिए आकर्षक और ग्रहणीय बना दिया। ____ संसार में भलीभाँति रहने के लिए अधिकांश व्यक्तियों को मार्ग निर्देशन की आवश्यकता होती है । अविकसित बुद्धि के कारण अथवा आवेगजन्य प्रवृत्ति तथा स्वार्थान्ध होने के कारण मनुष्य की नैतिक बुद्धि मन्द पड़ जाती है। वे कर्म के औचित्य-अनौचित्य पर विचार नहीं करते। गीता ने सदाचार को दृढ़ दार्शनिक सम्बल देकर तथा कर्मवाद को स्वीकार करके ऐसे अनैतिक प्राणियों को चेतावनी दी है। नैतिक जिज्ञासुओं को मूलगत नैतिक तत्त्वों की ओर आकर्षित किया है। प्राचारण के व्यापक नियमों की संहिता असम्भव है अत: गीता ने संहिता देने का प्रयास नहीं किया । फिर भी यह सत्य है कि अपने समय की सामाजिक स्थिति की उपेक्षा कोई भी नैतिक सिद्धान्त नहीं कर सकता अतः गीता भी इससे अछती नहीं है। इसलिए आज के नीतिज्ञ के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि आज की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना के आधार पर गीता की पुनर्व्याख्या करे । ___फलासक्ति अनुचित-लोकमंगल को महत्त्व देने के कारण ही गीता ने यह समझाया है कि फलासक्ति की इच्छा से कर्म नहीं करने चाहिए। जो मनुष्य परिणाम पर विचार करते हैं वे अधिकतर कर्तव्यभ्रष्ट हो जाते हैं। स्वार्थ एवं सुखभोग की कामना विवेक को अज्ञान से आच्छादित कर देती है। गीता | ३४३ For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन फल की चिन्ता करके कर्म को साधन मान लेता है और इसलिए उसका नीति-नीति का विवेक कुण्ठित हो जाता है । कर्म के आन्तरिक शुभत्व को समझना चाहिए | कर्म अपने-आपमें साध्य है । परिणाम को महत्त्व देकर गीता ने यह नहीं समझाया है कि कर्म परिणाम से युक्त नहीं है । वरन् यह कहा है कि परिणाम को महत्त्व देनेवाला व्यक्ति आत्मस्वार्थ से ऊपर नहीं उठ सकता । वह शुभ को ध्येय मानने के बदले आत्मस्वार्थ को ध्येय मान लेता है | अतः परिणाम से तटस्थ रहकर ही व्यक्ति संकीर्ण स्वार्थ से ऊपर उठकर लोककल्याण की स्थापना करता है । वैराग्यवाद को स्वीकार - गीता ने अनासक्ति योग को महत्त्व देकर यह बतलाया कि मनुष्य को सदाचार के लिए स्वार्थ का त्याग करना चाहिए । शुभ ध्येय की प्राप्ति के लिए निम्न इच्छाओं का उन्नयन करके उनका दिव्यीकरण करना चाहिए । कुछ आलोचकों का यह कहना है कि गीता ने अनासक्ति योग एवं निष्काम कर्म को महत्त्व देकर वैराग्यवाद और कठोर संन्यासी-जीवन का यशगान किया है । गीता वैराग्यवाद को स्वीकार नहीं करती है, उसने मनुष्य की अनुभवात्मक आत्मा एवं जीवात्मा के स्वरूप को भलीभाँति समझा है । काण्ट की भाँति गीता अमनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाकर इच्छाओं का समूल नाश करने के लिए नहीं कहती बल्कि उनका दिव्यीकरण करने के लिए कहती है | इच्छा स्वेच्छाकृत कर्म का अनिवार्य अंग है । बिना इच्छा के कर्म सम्भव नहीं । इच्छाहीन जीवन अमानवीय, सारहीन और अनाकर्षक है । गीता यह कहती है कि केवल इन्द्रियसुख भोगविलास और स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ बुरी हैं । वे आत्मघातक हैं और व्यक्ति को विषयान्ध बनाकर उसकी पूर्णता के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती हैं । इन इच्छाओं का उन्नयन करना अनिवार्य है । इन्हें सदाचार की इच्छा के अधीन होना चाहिए । सदाचारी इच्छा दिव्य है । सदाचार की प्रेरणा से कर्म करके व्यक्ति अद्वितीय प्रानन्द और पूर्णता को प्राप्त कर सकता है । व्यक्ति नगण्य नहीं है— गीता के अनुसार मनुष्य को अपने को समझना चाहिए | आत्मज्ञान बतलाता है कि भेदभाव मिथ्या है | अज्ञान भेदमूलक या द्वैतमूलक है । यही शत्रु मित्र, अपना-पराया, व्यक्ति समाज तथा स्वार्थ और परमार्थ के द्वैत के मूल में है । व्यक्ति की आत्मा विश्वात्मा है । अतः जब वह लोकहित और लोककल्याण के लिए प्रयास करता है तब वास्तव में वह अपनी संकीर्ण श्रात्मा का वास्तविक आत्मा के लिए त्याग करता है और ग्रात्मत्याग ३४४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा आत्मोन्नति और पूर्णता को प्राप्त करता है । गीता ने व्यक्ति को महत्त्व दिया है। व्यक्ति को नगण्य न मानने के कारण ही उसकी पूर्णता के लिए प्रयास किया और कहा है कि स्थायी आत्मानन्द के लिए संकीर्ण प्रवृत्तियों का त्याग अनिवार्य है। गीता का सन्देश विश्वव्यापी और शाश्वत है, वह सामयिक और संकीर्ण नहीं है । गीता ने उच्च और निम्न प्रात्मा के संघर्ष के प्रश्न को उठाकर यह समझाया है कि जीवात्मा अपने बन्धनों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। परमात्मा का सान्निध्य एवं उसकी प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है क्योंकि जीवात्मा का अन्तरतम सत्य परमात्मा है । परमात्मा को प्राप्त करने के लिए अथवा भगवत् साक्षात्कार के लिए भेदभाव को भूलना होगा । समानता का भाव उस बुद्धि को देता है जो जनमंगल और भूमंगल का प्रतीक है । निःसन्देह जब तक मनुष्य समाज में रहेगा वह गीता के लोक-कल्याणकारी ज्ञान का आश्रय लेता रहेगा। गीता | ३४५ For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ गांधीजी जीवनी – मोहनदास कर्मचन्द गांधी का जन्म सन् १८६६ में २ अक्टूबर को पोरबन्दर ( कठियावाड़) में हुआ । वैष्णव परिवार में पलने के कारण उनके मन में बचपन से ही धार्मिक संस्कारों ने घर कर लिया था । फलतः वेद, उपनिषद् और विशेषतः रामायण के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा पैदा हो गयी जो आगे चलकर अनन्य रामभक्ति में परिणत हो गयी । बालक मोहनदास के हृदय में सदाचार तथा सत्य के प्रति एकान्त आग्रह रहा । जब वह पीछे बैरिस्टरी पढ़ने के लिए विदेश भेजे गये तब उन्होंने विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन कर उन्नत प्रदर्शों को आत्मसात् कर लिया। इस प्रकार उनके भीतर होनहार महात्मा ने विलायत में ही जन्म ले लिया । दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने अपने आदर्शों को प्रयोग की कसौटी पर कसा और प्रवासी भारतवासियों पर हो रहे गोरों के अत्याचारों से पीड़ित होकर अपने प्रसिद्ध सत्याग्रह आन्दोलन को जन्म दिया । भारत लौटने तक गांधीजी एक सिद्ध जननायक बन चुके थे । यहाँ पहुँचने पर सालभर बाद ही उन्होंने भारतीय जनता में राष्ट्रीय जागरण तथा स्वतन्त्रता की चेतना भरने का व्रत लिया । सन् १९२१ में उन्होंने अपना पहल सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ा और कई वर्षों तक लगातार सविनय अवज्ञा - पूर्वक अपने अहिंसात्मक आन्दोलन से १५ अगस्त १९४३ में भारत को दासता के बन्धनों से मुक्त करा दिया । यह स्वतन्त्रता का रक्तहीन संग्राम संसार के इतिहास में अद्वितीय था । इसके प्रादर्श प्राण जननायक ने सत्य और अहिंसा का सामूहिक प्रयोग कर मानव जाति के सामने एक महान् मानवीय प्रदर्श उपस्थित कर दिया । ३० जनवरी १९४८ में जब गांधीजी प्रार्थना सभा में जा ३४६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहे थे तो गोडसे नामक एक व्यक्ति ने गोली चलाकर इस अमर प्रकाश को सदा के लिए भौतिक शरीर से छुटकारा दिला दिया । महत्त्वाकांक्षा : पृथ्वी पर राम-राज्य की स्थापना - जीवमात्र के सुख तथा कल्याण की भावना ही गांधीजी की अन्तरात्मा की पुकार थी । उनके मनोजगत् पर दार्शनिक सिद्धान्तों से अधिक धार्मिक विश्वासों का प्रभाव था । वे विश्वास वैज्ञानिक अथवा तार्किक नहीं कहे जा सकते किन्तु वे महत् धारणाओं और उच्च भावनाओं से अनुप्राणित थे। गांधीजी का मंगलमय भगवान् के प्रति अखण्ड विश्वास था । उनका कहना था कि मंगलमय तथा लोक-कल्याणमय जगत् की स्थापना सात्विक तथा नैतिक गुणों के अर्जन से ही सम्भव है । व्यक्ति को अपनी मुक्ति के लिए सात्विक नियमों का पालन करने का प्रयास करना चाहिए । उनका यह भी कहना था कि वैयक्तिक साधना सामूहिक निर्माण अथवा विकास का एक आवश्यक अंग है । समस्त संसार को 'सियाराममय' मानने के कारण ही उन्होंने यह कहा और इसीलिए जीवनभर लोक-सेवा और लोक-कल्याण में निरत रहे । उन्होंने आत्मोत्थान को लोक-कल्याण का एक सफल साधन माना । पृथ्वी पर आदर्श जीवन अथवा रामराज्य की स्थापना के लिए उन्होंने साध्य और साधन को समान महत्त्व दिया । भौतिक सुखसम्पन्न सामाजिक जीवन से अधिक प्रधानता एक पवित्र, सरल, सदाचारपूर्ण कर्तव्यनिष्ठ जीवन को दी। उनके रामराज्य का ध्येय एक उन्नत प्रदर्शमय मनोजीवन का ध्येय है । गांधी - दर्शन : सत्य की परिभाषा - गांधीजी का दर्शन गीता तथा उपनिषद् के दर्शन से भिन्न नहीं है । भारतीय दर्शन ने सत्य के जिस चिरन्तन तथा शाश्वत स्वरूप की चर्चा की है, गांधीजी ने उसी को अपने जीवन में अनुभव करने का प्रयत्न किया है । उसी की प्राप्ति के लिए सदाचरण श्रौर साधना को महत्ता दी । उनके जीवन में भक्ति तथा कर्मयोग का अद्वितीय समन्वय मिलता है । यह गीता के निष्काम तथा अनासक्त कर्म की व्याख्या पर आधारित है । उनकी भक्ति का केन्द्र बिन्दु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का सात्विक चरित्र रहा है और उनका राम गीता तथा उपनिषद् का शाश्वत तथा सनातन पुरुष १. 'मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने कुछ नये सिद्धान्तों और तत्वों का भाविष्कार किया है। मैंने अपने ढंग से शाश्वत सत्यों को प्रतिदिन के जीवन की समस्याओं में अनूदित करने का प्रयत्न किया है ।' For Personal & Private Use Only गांधीजी / ३४७. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा है । उनकी दृष्टि में सत्य ही ईश्वर है । 'सत्य के बिना ईश्वर कहीं नहीं है।' सत्य का ज्ञान भगवद्ज्ञान है । भगवद्ज्ञान के अनुसार भगवान की अनुभूति अथवा उनकी सेवा उनके व्यापक सगुण तथा व्यक्त स्वरूप की सेवा द्वारा ही सम्भव है। सम्पूर्ण सृष्टि एवं समस्त जीव भगवान् के ही अंश हैं। इसीलिए विश्व-बन्धूत्व तथा जीव प्रेम की भावना सत्य के ज्ञान की द्योतक हैं। सत्य का नैतिक स्वरूप-सदाचार ही सत्य का नैतिक तथा व्यावहारिक पक्ष है। इसके लिए तप और त्याग आवश्यक हैं। तप की आवश्यकता प्रात्मशुद्धि के लिए और त्याग की आवश्यकता मोह तथा स्वार्थ की भावना से मुक्त होने के लिए है। स्वार्थ और मोह दृष्टि में प्रावरण की तरह पड़े रहते हैं और सत्य के दर्शन में बाधक होते हैं। स्वार्थ त्याग तथा जीवों की सेवा द्वारा मनुष्य सत्य के निकट पहँचता है। सत्य को समझने के लिए हठधर्मी एवं कट्टरता से ऊपर उठना आवश्यक है । उसके लिए भ्रमात्मक तथा एकांगी सिद्धान्तों से दूर रहकर पूर्वग्रहों और दोषों से अपने को मुक्त करना चाहिए। यदि सदाचरण ही जीवन में महत्त्वपूर्ण है और वही जीवन का ध्येय है तो सदाचरण का क्या रूप हो ? गांधीजी का नीतिशास्त्र श्रद्धा तथा विश्वासमूलक है । वह सैद्धान्तिक नहीं है, किन्तु जीवन-सत्य पर आधारित है । गांधीजी ने अपने सहज विश्वास के कारण, अनेक धर्मों, दर्शन-ग्रन्थों के अध्ययन, मनन, चिन्तन तथा निरन्तर आत्म-साधना के कारण सदाचरण के सम्बन्ध में आन्तरिक अनुभूति प्राप्त कर ली थी। उनका नैतिक आदर्श काल्पनिक नहीं है, वह जनजीवन के वास्तविक ज्ञान पर आधारित है। उन्होंने सत्य के शाश्वत तत्त्वों पर व्यावहारिक तथा नैतिक प्रकाश डाला। उनके अनुसार ज्ञान सद्गुण है । सत्य का ज्ञानी सत्य के अनुसार ही कर्म करेगा। उसके विपरीत कर्म करना असह्य है; वह जीवित मृत्यु है। जनता के सम्मुख उन्होंने, अपने जीवन के रूप में, सत्य के क्रियात्मक आदर्श को सम्मुख रखा। अपने चारों ओर व्याप्त युगजीवन के घनिष्ठ सम्पर्क में आने के कारण उन्होंने साम्प्रदायिक वाद-विवादों के ऊपर एक मानवीय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। अत: उनके नैतिक नियम किसी विशिष्ट वाद के अन्तर्गत नहीं पाते हैं। जैसा कि गांधीजी स्वयं कहते हैं, "मैं तो किसी का बाजा बजाता नहीं या फिर सारे जगत् का बजाता हूँ।" गांधीजी की नैतिकता मानव-जीवन के कल्याण की नैतिकता है। गांधीवादयदि उसे वाद कहना आवश्यक ही है--किसी प्रकार के कोरे संकीर्ण सिद्धान्तों का संग्रह नहीं है । वह जीवन-सत्य के व्यापक क्रियात्मक स्वरूप का प्रतिपादन ३४८ । नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने की ओर प्रयत्नमात्र है। यह प्रयत्न दर्शन के शाश्वत तत्त्वों, धर्मों के मौलिक सिद्धान्तों तथा मनोविज्ञान के स्वस्थ नियमों' का सन्तुलित संकलन है । गांधीवाद के अनुसार अन्तःसत्य बाह्य जीवन का आवश्यक अंग है। मनुष्यों में सत्तात्मक एकता है। विश्व की विविधता एकता के सूत्र में पिरोयी हुई है। भिन्नता केवल अविद्या की देन है। अतएव यह नैतिक कर्तव्य है कि मनुष्य एक-दूसरे के सुख-दुःख को समझे और संसार से अन्याय, दरिद्रता और दुःख को मिटाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहे एवं लोक-कल्याण की वृद्धि करे । संक्षेप में, गांधीजी की नैतिकता 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की नैतिकता है; उसमें विश्व-प्रेम अथवा मानव-प्रेम ही एकमात्र साध्य और साधन है।। अहिंसा-गांधीजी के भीतर प्रतिष्ठित मनुष्यत्व की भावना उनके सत्य और अहिंसा के प्रादर्शों के द्वारा अभिव्यक्त होती है। गीता में कर्मयोग ढूंढ़नेवाले गांधीजी ने सत्य और अहिंसा को एक-दूसरे का पूरक कहा है। उन्होंने सत्यज्ञान को ही सदाचार कहा है। सत्य का क्रियात्मक रूप ही अहिंसा है। सत्यज्ञान तथा अहिंसा द्वारा ही अज्ञान, अन्याय और अधर्म दूर हो सकते हैं और मानव-हृदय में प्रेम का संगीत तथा उसकी श्वासों में शान्ति की सुगन्ध भरी जा सकती है । अहिंसा (विश्वप्रेम) ही सत्यज्ञान तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त की सार्थकता है। अहिंसात्मक निष्काम लोक-कार्य ही जीवन का ध्येय है। सब व्यक्तियों में एक ही सर्वव्यापी ईश्वर व्याप्त है। यह सर्वात्मबोध ही आत्मबोध है। दूसरों का दुःख अपना दुःख है। उसे हटाना हमारा कर्तव्य है। वास्तविक शान्ति जीवमात्र को स्नेह और प्रेम का पात्र समझने से ही प्राप्त हो सकती है। पाप से घृणां करना उचित है, पापी से नहीं। पापी स्नेहास्पद है । पापी को प्यार करते हुए पाप और अधर्म के विरुद्ध अहिंसात्मक युद्ध करना ही मनुष्य का कर्तव्य है। गांधी-दर्शन यह अखण्ड विश्वास देता है कि सभी प्राणियों में एक ही चेतन-शक्ति व्याप्त है। सब एक ही पिता के पुत्र १. परिपूर्ण मंगलमय जगत् अथवा रामराज्य के आदर्श को सम्मुख रखते समय उन्होंने मानव___ स्वभाव के दोनों पक्षों-बौद्धिक और भावुक-को समझा । २. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार विचार-साहचर्य के नियम इस बात की पुष्टि करते हैं कि पापी और पाT में तादात्म्य स्थापित हो जाता है। उसके विरुद्ध इतना ही कहना है कि गांधीजी ने जो कुछ भी कहा उसका पहले अपने जीवन में अभ्यास और अनुभव कर लिया । फिर भी यह मानना उचित है कि साधारण व्यक्ति के लिए यह कठिन कार्य मानसिक और प्राध्यात्मिक उन्नति से ही सम्भव है। गांधीजी | ३४६ For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। इसी को लक्ष्य करते हुए गांधीजी कहते हैं कि मनुष्य का श्राचरण धार्मिकसर्व कल्याणकारी - होना चाहिए | श्रहिंसा मानवीय सत्य का ही सक्रिय गुण है । इसके दो रूप हैं : भावरूप या धनरूप श्रीरं प्रभावरूप या ऋणरूप । प्रभावात्मक रूप के अनुसार किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । पर-पीड़न पाप है । शारीरिक अथवा मानसिक पीड़ा पहुँचाना पाप है । गांधीजी तत्वज्ञानी होने के नाते अहिंसा का व्यापक अर्थ ' लेते हैं । अहिंसा का भावात्मक रूप सर्व कल्याणकारी है । लोकमंगल के हेतु विश्व- प्रेम को स्वीकार करना ही अहिंसा | हिंसात्मक व्यक्ति के लिए राग, द्वेष, क्रोध, मोह, लोभ और घृणा आदि मन के विकार धर्म हैं । उसे मनसा, वाचा, कर्मणा, पवित्र तथा संयमी होना चाहिए । जीवनरूपी कर्मक्षेत्र में उसे हिंसा तथा असत्य के विरुद्ध निरन्तर संग्राम करना चाहिए । कर्मक्षेत्र में अकर्मण्यता के लिए स्थान नहीं है । सदैव धर्म की स्थापना के लिए प्रयास करना चाहिए । परिणाम से डरकर कर्तव्य से विमुख होना पाप है | मनुष्य को अहिंसा ग्रीत्मबल देती है । वह उसे क्षुद्र इच्छाओं तथा दाम्भिक भावनाओं से ऊपर उठाती है । उसे स्वार्थहीन तथा आत्मविजयी बनाकर विश्वात्मा की अनुभूति कराती है गांधीजी के अनुसार सत्य और अहिंसा दोनों ही प्राचीन तथा शाश्वत हैं । सत्य ही सच्चिदानन्द भगवान् है और अहिंसा उसकी प्राप्ति का साधन है । अभीष्ट (सत्य) की प्राप्ति के लिए अहिंसा एकमात्र साधन है । । सत्याग्रह — सत्याग्रह' का अर्थ है सत्य के प्रति प्राग्रह | सत्य व्यक्तिविशेष 1 १. अपने संकीर्ण अर्थ में अहिंसा का अभिप्राय अधिकतर कार्य और दैहिक हिंसा न करने से रहता है। गांधीजी ने गौतम बुद्ध के समान ही हिंसा का व्यापक अर्थ लिया । गौतम बुद्ध और गांधी, दोनों ने ही मानवता के कल्याण के लिए विश्वप्रेम, करुणा, सेवा और निःस्वार्थ भाव को अपनाने की लोगों से प्रार्थना की। २. सत्य और अहिंसा गांधीजी के अनुसार उतने ही प्राचीन हैं जितने कि पर्वत । उनका कहना है कि मैं दुनिया को कोई नयी बात नहीं बता रहा हूँ । मुझे सत्य की खोज करने में सत्य और अहिंसा का बोध हुमा । श्रहिंसा का सिद्धान्त अत्यन्त प्राचीन | वह ऋग्वेद में भी पाया जाता है। उपनिषदों में भी ऐसी अनेक कथाएँ हैं जिनके द्वारा विश्वप्रेम का प्रतिपादन हुआ है । गीता, बौद्धधर्म, ईसाई धर्म में भी इसे मान्यता दी गयी है । इसे सर्वोत्तम नीति बताया गया है । ३. सत्याग्रह का जन्म दक्षिण अफ्रीका में हुआ । इसके द्वारा गांधीजी ने वहाँ के काले लोग को बताया कि अपने अधिकारों के लिए जाग्रत होयो । वहाँ उन्होंने 'टालमटाय फार्म' खोलकर लोगों को स्वावलम्बी बनाने का प्रादेश दिया। आत्मबल और संघटित शक्ति ३५० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक ही सीमित नहीं है । अपने व्यापक रूप में वह सर्वशक्तिसम्पन्न है; उसी प्रति ग्रह सत्याग्रह है । केवल विचारों से अहिंसात्मक होना पर्याप्त नहीं है | उसे कर्मक्षेत्र में प्रतिष्ठित करना चाहिए । असत्य के विरुद्ध खड़े होकर और सत्य के प्रति जागरूक रहकर ही अहिंसा को व्यवहार में लाया जा सकता है | सत्याग्रही के लिए अन्याय, अत्याचार, क्रूरता, अनीति आदि को स्वयं सहना अथवा दूसरे को उन्हें सहते हुए देखना असह्य है । अधर्म और अनैतिकता को हटाने के लिए वह अहिंसात्मक सत्याग्रह करता है | सत्याग्रह के द्वारा वह लोकजीवन के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करके अपने अधिकारों का भोग करता है | सत्याग्रही कर्म करते समय विपक्षी अथवा कठोर से कठोर अत्याचारी सम्मुख भी नहीं झुकता । प्राणिमात्र को अत्याचार से मुक्त करना उसका ध्येय है । किन्तु इस मुक्ति को प्राप्त करने के लिए अहिंसा ही एकमात्र साधन है । द्वेष, घृणा, अन्याय को प्रेम से जीतना चाहिए । प्रतिशोध की भावना पाप' है । घृणा के प्रति घृणा अथवा पशुबल के प्रति पशुबल अनुचित है। हिंसा को अहिंसा से अथवा पशुबल को आत्मबल से जीतना चाहिए । समस्त मनुष्य एक ही परिवार के प्राणी हैं । हिंसा से ( विवश करके अथवा डरा-धमकाकर ) उनका हनन करने के बदले प्रेम से उनका सुधार करना चाहिए। गांधीजी का सत्याग्रह के में ज़ोर दिया। लोक-सेवा और नैतिक जीवन की ओर ध्यान आकर्षित किया । प्राकृतिक उपचार, सफाई और मिताहार का पाठ पढ़ाया । सत्याग्रह का पूर्ण विकास भारत में हुआ । ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने लोगों के स्वाभिमान की रीढ़ तोड़ दी थी। वे अपनी संस्कृति से विमुख हो गये थे । मानसिक और सांस्कृतिक दासता स्वीकार कर चुके थे 1 गांधीजी ने सत्याग्रह तथा असहयोग आन्दोलनों, देशव्यापी हड़तालों और कठोर दीर्घकालीन उपवासों द्वारा नैतिक पतन से भारतीयों को बचाया । सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आत्मनिग्रह आदि का कठोर व्रत लोगों को सिखाया । आत्म-त्याग और बलिदान द्वारा लोकसेवा अथवा आत्मसन्तोष का मार्ग दिखाया। लोक-जीवन और मानव स्वभाव का उन्हें गूढ़ ज्ञान था । लोकरक्षा और संस्कृति के मूल तत्त्वों की रक्षा के लिए ही उन्होंने ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी । १. अपनी आत्मकथा में गांधीजी कहते हैं कि वे 'अवगुण बदले गुण करे, सत्य धर्म का मर्म है"- " - इस कथन से प्रभावित हुए । यीशु के अनुसार भी हमें बुराई को बुराई से नहीं रोकना चाहिए । यही बात रहीमदासजी ने भी कही है- 'जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तूं फुल ।' राजनीति के क्षेत्र में यह विचित्र अथवा अव्यावहारिक कथन लगता है । गांधीजी ने भारत को अहिंसात्मक आत्मबल तथा सत्याग्रह द्वारा स्वतन्त्रता दिलाकर उसकी वास्तविकता को केवल सिद्ध ही नहीं किया वरन् विश्व के इतिहास में एक नयी राजनीति को जन्म और स्थान दिया है । For Personal & Private Use Only गांधीजी / ३५१ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौम्य, शिष्ट, प्रेम का ही एक रूप है | सत्याग्रह के लिए भी उनका कहना है कि यह उनका मौलिक सिद्धान्त नहीं है । यह सनातन धर्म अथवा शाश्वत सत्य का यथार्थ तथा व्यावहारिक रूप है । 'सत्याग्रह श्रात्मशुद्धि की लड़ाई है; वह धार्मिक लड़ाई है ।" सत्याग्रह के लिए सम्यक् बोध तथा व्यापक प्रेम की आवश्यकता है । दूसरे के मन में सत्य का बोध जाग्रत कर प्रेम से उसे आकर्षित करना ही सत्याग्रह है । सत्य की ओर अभिमुख होकर दूसरों के मन में उच्च भावनाओं को जाग्रत करना, उनका ग्रात्मोन्नयन करना ही सत्याग्रह का ध्येय है । गांधीजी के सत्याग्रह का मुलरूप आत्मत्याग तथा आत्म- बलिदान है । यही नहीं, उन्होंने सत्याग्रही के कर्तव्यों की रूपरेखा भी बनायी । सत्याग्रही को आत्मसंयमी, आत्मप्रबुद्ध तथा निर्भीक होना चाहिए । उसका बलमात्र आत्मबल है । उसे लगन, आत्मविश्वास, अहिंसा तथा श्रद्धा के साथ, अडिग होकर, सत्य के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए । इसी में उसे श्रात्मानन्द मिलता है और यही लोककल्याण का मार्ग है । हिन्दू धर्म और अछूतोद्धार - गांधीजी का धर्म से अभिप्राय किसी विशिष्ट सम्प्रदाय या मत से नहीं, किन्तु शाश्वत सत्य से था । उन्होंने हिन्दू धर्म के मौलिक दार्शनिक सत्यों को अपने विवेक के प्रकाश में समझकर उन्हें आत्मसात् किया और कहा कि प्राणी- प्राणी में मूलतः कोई भेद नहीं है । दूसरे का 1 हित करना अथवा बुरा सोचना या देखना प्रथर्म है । मानवता के प्रति ममत्व की भावना तथा विश्वप्रेम ही धर्म है । अथवा सर्वकल्याण का नाम ही धर्म है । वे अपने प्रवचनों में बार-बार दुहराते थे कि मैं सनातन ( शाश्वत ) सत्य का पूजक हूँ । उनका सनातन धर्म अत्यन्त सहिष्णु है । उसके चार मुख्य स्तम्भ हैं : सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । उसका क्षेत्र व्यापक है । वह 'सर्वधर्म समन्वय' में विश्वास करता है । वेद, कुरान, बाइबिल, गीता, आवेस्ता आदि सब महान् धर्मग्रन्थों के मौलिक सिद्धान्तों को स्वीकार कर उनके प्रति श्रद्धा रखता है । मानव एकता को भूलकर बाह्य जातिगत तथा सम्प्रदायगत विभेदों को देखना, अपने धर्म को अच्छा कहकर दूसरे धर्मों का अनादर करना १. गांधी- सत्याग्रह के मुख्य अंग स्नेह, प्रेस, एकता, सहृदयता और सहयोग हैं। भारतीय दर्शन और संस्कृति ने भी सदैव इन्हें ही प्रधानता दी। २. देखिए - पट्टाभि भा० १, पृ० ३८, ४५-४७, १७८-१८४ । ३५२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधी-धर्म के अनुसार धार्मिक और अनैतिक' है । गांधीजी ने धर्म और नैतिकता को एक ही माना है । ये एक ही शाश्वत सत्य के दो स्वरूप हैं । दोनों में प्रभिन्नता है | अधार्मिक सिद्धान्त अनैतिक है । सब धर्म अपने विवेकसम्मत नैतिक रूप में ( रूढ़िबद्ध और संकीर्ण रूप में नहीं) समान तथा श्रद्धामूलक हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपना धर्म पालन करने के लिए स्वतन्त्र है । गांधीजी अपने को हिन्दू कहते थे, पर वे सब धर्मों का समान आदर करते थे । धर्मप्रचारकों के वे विरुद्ध थे। किसी भी मतावलम्बी को दूसरों के धर्म का उन्मूलन करने का तब तक अधिकार नहीं है जब तक कि उसका धर्म मौलिक मानवीय सदाचार के विरुद्ध न हो । अनासक्त योग' गांधीजी के धर्मप्रेम, सत्यप्रेम अथवा नैतिकता का एक महत्त्वपूर्ण अंग था । धर्म एवं मानव कल्याण की भावना ने ही उन्हें राजनीति में प्रवेश करने के लिए बाध्य कर समाज-सुधारक बनाया | रूढ़ि - रीतिग्रस्त, प्रधार्मिक नियमों का विद्रोही बनाया । हिन्दू धर्म के माथे से छुआछूत के कलंक के टीके को मिटानेवाला बनाया । धर्म के कारण ही उन्होंने हरिजन आन्दोलन को भारतीय स्वतन्त्रता के संग्राम का एक मुख्य अंग बनाया । अछूतों को हरिजन कहकर उन्होंने इस कथन की पुष्टि की कि 'जाति-पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई ।' गांधी-धर्म एक शिष्ट सदाचारपूर्ण मानव समाज का धर्म है । वह विवेकसम्मत धर्म है । उसकी नींव अन्धविश्वास पर नहीं, वह नैतिकता का ही दूसरा नाम है । शिक्षा - गांधीजी का कहना था कि बच्चों को राष्ट्र की आवश्यकताओं तथा प्रदर्शो के अनुसार शिक्षा देनी चाहिए | यूनिवर्सिटी की शिक्षा-पद्धति तथा उसके पाठ्य-क्रम से वह सन्तुष्ट न थे; क्योंकि वह हमारे नवयुवकों को १. 'जब यहाँ भी ईश्वर है, वहाँ पर भी ईश्वर है और ईश्वर तो एक ही हो सकता है तब दोनों अलग-अलग नाम लें और एक-दूसरे के नाम बर्दास्त न कर सकें, यह पागलपनसाही दीखता है ।' २. 'हिन्दू धर्म, जैसा उसे मैं समझता हूं, मुझे पूर्ण आत्म-सन्तोष देता है, मेरे समस्त अस्तित्व पूर्णता देता है और मुझे भगवद्गीता और उपनिषद से शान्ति मिलती है ।' ३. गीता की भाँति वे प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के समन्वय में विश्वास करते थे । समाज में रहकर निःसंग होकर काम करना चाहिए। ४ 'ऐसे व्यापक सत्यनारायण के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए प्राणिमात्र के प्रति प्रात्मवत् (अपने समान) प्रेम की बड़ी भारी जरूरत है । यही कारण है कि मेरी सत्य की पूजा मुझे राजनीतिक क्षेत्र में घसीट ले गयी ।' For Personal & Private Use Only गांधीजी / ३५३ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कष्ट - सहिष्णु, स्वावलम्बी तथा सेवा तत्पर बनाने में असमर्थ है। वह अपने धर्म तथा संस्कृति से भी विमुख है । वह विद्यार्थियों को क्लर्कों का जीवन व्यतीत करना भर सिखा रही है । उनके अनुसार शिक्षा का लक्ष्य, नैतिक चेतना को जाग्रत करना होना चाहिए । विद्यार्थियों को स्वावलम्बन तथा श्रम उद्योग भी सीखने चाहिए । परीक्षाओं को अत्यधिक महत्त्व देना भूल है । वे जीवन कादि और अन्त नहीं हैं । शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों में कर्तव्य ज्ञान उत्पन्न करना चाहिए। उन्हें देश की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का ज्ञान होना चाहिए । वर्धा शिक्षा केन्द्र इन्हीं आदर्शों पर स्थापित किया गया था और गांधी सेवा संघ भी व्यक्तियों को स्वावलम्बी और आत्म-त्यागी बनाने के लिए खोला गया था । 1 गांधीवाद और समाजवाद - गांधीजी ने सत्य-अहिंसा द्वारा एक नवीन सामाजिक व्यवस्था बनानी चाही । उन्होंने समाजवाद की परिभाषा को व्यापक रूप देना चाहा । समाजवाद से उनका अभिप्राय केवल आर्थिक समानता से नहीं था किन्तु प्राध्यात्मिक एकता, नैतिक निष्ठा तथा कर्तव्यबोध से भी था । उनका कहना था कि सत्तात्मक एकता के सत्य को लोगों को समझना चाहिए । इससे उनकी नैतिक चेतना का विकास होगा । वे समानाधिकार में विश्वास करने लगेंगे | पृथ्वी से उत्पन्न पदार्थों का भोग सभी कर सकते हैं । अमीरगरीब का तथा जातीय राष्ट्रीय भेद मानना अनुचित है । प्रात्म चेतन प्राणी तथा सत्य-अहिंसा के उपासक को अपने कर्त्तव्य और अधिकार को समझना चाहिए | उनके मत के अनुसार पूँजीपति और सम्पत्तिवान् दरिद्रनारायण के 'घन के संरक्षक मात्र हैं । उन्हें गरीबों का अभिभावक बनना होगा और इसलिए विषय - सुख तथा विलासिता को हिंसा समझकर उन्हें अपने ऊपर उतना ही खर्च करना चाहिए जितना उनके मानसिक और शारीरिक जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है ।' उन्हें गरीबों की रक्षा करना, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति १. स्वयं भी वे अपने जीवन में प्रत्यन्त मितव्ययिता के साथ रहे। जब सन् १९३० में वे यरवदा जेल में थे तो उन्होंने जेल सुपरिटेण्डेण्ट से कहा कि उन पर ३५ रु० मासिक से अधिक खर्च नहीं होना चाहिए । उन्हें खाने के लिए सी क्लास के बरतन मिलने चाहिए। उन्होंने रोज नीम की नयी दातुन तक लेने से इन्कार कर दिया । देखिए – बापू की झाँकियाँ - दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर । ३५४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना, उनकी सेवा करना अपना परम कर्तव्य समझना चाहिए क्योंकि उन्हीं के पास गरीबों की धरोहर है ।' उनका विश्वास था कि नैतिक चेतना के विकास द्वारा ही सुदृढ़ रामराज्य (मानव-प्रेम और आत्मिक एकता के समाजवाद) की स्थापना हो सकती है। प्रात्मत्याग, प्रात्मोन्नति और वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धान्त को आत्मसात करने की आवश्यकता है। यही वास्तविक समाजवाद को स्थापित कर सकेगा। इसके विपरीत अाधुनिक साम्यवादी तथा समाजवादी, जिन्होंने अपनी प्रेरणा पश्चिम से पायी है, अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए हिंसात्मक साधन को आवश्यक समझते हैं। वे वर्तमान आर्थिक व्यवस्था को वर्गयुद्ध तथा रक्तक्रान्ति द्वारा बदलना चाहते हैं। उनके अनुसार समानता (आर्थिक) अमीरों को मिटाने से ही सम्भव है। सम्पत्तिवानों तथा शोषकों का हृदय-परिवर्तन आर्थिक व्यवस्था के परिवर्तन द्वारा ही हो सकता है । अथवा व्यक्तियों में नैतिक चेतना की जागति, मानवीय भावना की उत्पत्ति के लिए यह आवश्यक है कि सर्वहारा में क्रान्ति की भावना उत्पन्न की जाय। प्रार्थिक व्यवस्था में परिवर्तन तथा क्रान्ति का आतंक ही वर्ग-चेतना से पीड़ित समाज का हृदय बदल सकता है । समाजवाद व्यक्तिगत सम्पत्ति में विश्वास नहीं करता है । पूंजीपतियों को अस्तित्वरहित करना ही इसका सर्वोपरि ध्येयहै । समाजवादियों के अनुसार सम्पूर्ण-चल और अचल सम्पत्ति-स्वामी लोक राष्ट्र है । मनुष्य का परिवार तथा बच्चे सब कुछ लोकराष्ट्र के हैं । मनुष्य राष्ट्र का अंग मात्र है । उसकी व्यक्तिगत सत्ता नहीं के बराबर है । गांधीवाद समाजवाद के साधनों को हिंसात्मक समझता है । उसके अनुसार पूंजीपतियों की सम्पत्ति के छीने जाने का विचार हिंस्र पशु-प्रवृत्ति का सूचक है । रक्त-क्रान्ति की पुकार अमानुषीय और अनैतिक है । व्यक्तिगत सम्पत्ति रखना, निर्धनों के धन का संरक्षक बनना अनुचित नहीं है । अपने स्वार्थ के लिए धन-संचय (परिग्रह) करना पाप है । स्वेच्छापूर्वक प्रात्मत्याग करना, अपने ऊपर पाव १. तुलना कीजिए 'Temporal goods which are given to men by God are his as regards their possession but as regards their use, if they should be superfluous to him, they belong to others who may profit by them'—Thomas Aquinas. (१२२५-१२७४) गांधीजी | ३५५ For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्यकता से अधिक खर्च न करना, दीनों को दान देना नैतिकता है । मनुष्य का नैतिक उन्नयन बाह्य परिस्थितियों, भौतिक घटनाओं तथा प्रार्थिक व्यवस्था के रक्त- कान्तिपूर्ण परिवर्तन द्वारा सम्भव नहीं है । जब तक व्यक्ति अपनी आत्मप्रेरित बुद्धि से समानता और लोककल्याण की भावना को स्वीकार नहीं करेगा तब तक सुख और शान्ति असम्भव है । दूसरे शब्दों में गांधीवाद प्रात्मोन्नति, आध्यात्मिक विकास तथा सांस्कृतिक उत्थान के द्वारा चिरस्थायी मंगलमय सामाजिकता की स्थापना करना चाहता है । आलोचना – ग्रालोचकों के अनुसार गांधीजी ने स्वप्नद्रष्टा की भाँति आदर्श आध्यात्मिक समाज स्थापित करने की चेष्टा की। उनका ध्येय प्रतिमानवीय है । उनके साधन प्रवास्तविक और अव्यावहारिक हैं । उनका 'वाद' कष्टसाध्य संन्यासवाद के समान है । वे शुद्ध बुद्धिमय जीवन को पवित्र जीवन कहते हैं । किन्तु गांधीजी के नैतिक ( अथवा दार्शनिक ) सिद्धान्त को एकांगी कहना अनुचित है । जीवन-सत्य को उन्होंने अपनी सहजबुद्धि से समझ लिया था । उनका नैतिक ज्ञान मानवीय वास्तविकता का ज्ञान है । वे भली-भाँति जानते थे कि नंगे तन और भूखे पेटवालों को नैतिक, सामाजिक और धार्मिक सदाचार का पाठ पढ़ाना पागलपन है । अतः उन्होंने खेत-खलिहानों की ओर ध्यान आकर्षित किया | ग्रामोद्योगों और पंचायत राज को महता दी। ग्रामीणों के स्वास्थ्य, आहार-विहार-सम्बन्धी स्वच्छता तथा अछूतोद्वार की ओर ध्यान दिया । इसी अभिप्राय से उन्होंने गांधी- सेवक संघ की स्थापना की । यह सब कोरा एकांगी सिद्धान्तवाद नहीं है । उन्होंने भारत की मिट्टी के कण-कण से अपने को परिचित किया और इस परिणाम पर पहुँचे कि भारत की असल आबादी या असल हिन्दुस्तान गाँवों में है । उन्होंने अपने अहिंसात्मक आर्थिक सिद्धान्त के आधार पर ग्रामोद्योगों के विकास के लिए प्रयत्न किया। लोगों से सादगी और ईमानदारी का जीवन व्यतीत करने को कहा ताकि लोग आत्मनिर्भर हो सकें और हमारी भूखी जनता का पेट भर सके । नैतिक पतन से बचने के लिए उन्होंने सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आत्मनिग्रह का कठोर व्रत धारण कर जनता के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत किया । गुलाम भारतीयों को उन्होंने गुलामों को उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहित न कर स्वतन्त्र होने पर स्वतन्त्र भारतवासियों को जन्म देने को कहा । भारत के असंख्य नंगे तथा भूखों को ध्यान में रखते हुए वे कहा करते थे कि इस देश में भूखा मरने के लिए सन्तान को उत्पन्न नहीं करना चाहिए । उन्होंने सदैव मानव स्वभाव की दुर्बलताओं को ३५६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामने रखकर लोगों को सब प्रकार की शिक्षा दी । उन्होंने भावनाओं का उन्नयन कर उन्हें बौद्धिक स्तर पर उठाने का आदेश दिया । गांधीजी मनुष्य-ज् -जीवन के उन्नत तथा दुर्बल, दोनों पक्षों से भली-भाँति परिचित थे । श्रात्म चेतन मनुष्य पशुता से ऊपर उठकर आत्मानन्द प्राप्त कर सकता है, यही संक्षेप में गांधीवाद का तत्त्व तथा उनका नैतिक दर्शन है । वे जानते थे कि प्राणी का व्यक्तित्व सृष्टि का एक आवश्यक अंग है । उसका आत्म-सन्तोप सष्टिमात्र की प्रसन्नता पर निर्भर है । व्यक्तिगत कल्याण और लोक-कल्याण में अभिन्नता है । अतः मानवता की सोयी हुई चेतना को जगाना ही उन्होंने अपना धर्म समझा । उनका जीवन उपनिषदों के कथन का क्रियात्मक रूप रहा है । "मैं शक्ति का आकांक्षी नहीं हूँ, मैं स्वर्ग का आकांक्षी हूँ, मैं पुनर्जन्म से मुक्ति का आकांक्षी नहीं हूँ, मैं सृष्टि के प्रार्त प्राणियों को वेदना से मुक्त करने का आकांक्षी हूँ ।"" गांधीजी की यह आकांक्षा प्रात्मज्ञानियों के लिए, आत्मिक सत्य को समझनेवालों के लिए नवीन और असम्भव नहीं है । सत्तात्मक एकता के माननेवाले का ममत्व व्यापक होता है। गांधीजी स्वयं ममता तथा लोक-प्रेम की मूर्ति थे । उन्हें प्राणों का मोह या मृत्यु का भय नहीं था । उनका जीवन विश्व - जीवन से प्रोत-प्रोत था । इसलिए उन्होंने धरती की सन्तानों को उन्नत मनुष्यत्व में बाँधकर भू-स्वर्ग निर्माण करने की चेष्टा की । वे लोक-पुरुष थे । मानव-सभ्यता की सांस्कृतिक और नैतिक उन्नति के द्योतक थे। सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, प्रार्थिक विषमताओं, वर्गयुद्धों, व्यक्तिगत घृणा-द्वेषों से वे मानवों का उद्धार करना चाहते थे । बुद्ध और मसीह की भाँति नवीन मानवता की सजीव शोभा को पृथ्वी पर मूर्तिमान् करना चाहते थे । पृथ्वी को प्रात्मिक ऐश्वर्य देना चाहते थे । किन्तु प्रश्न यह है कि गांधी के विश्व - प्रेमरूपी रामराज्य की स्थापना सम्भव, है या नहीं ? क्या वह केवल बौद्धिक आदर्श है ? गांधीजी के अनुसार यह आत्मिक आदर्श है तो श्रात्म-त्याग और आत्मम-शुद्धि' द्वारा सम्भव है । उसको १. एफ० जी० जेन्स के अनुसार भी गांधी-नैतिकता के यही अर्थ हैं : 'दूसरों के लिए तपना, उन्हें प्रेम देना – वह पुराने और नये मसीह को अपने समय की खोज है ।" पट्टाभि भा० १, पृ० १८६ | अनुभव नहीं किया जा सकता | २ विना श्रात्म-शुद्धि के प्राणिमात्र के साथ एकता का और ग्रत्न-शुद्धि के अभाव में धर्म का पालन करना भी हर तरह नामुमकिन है । लेकिन मैं पल-पल पर इस बात का अनुभव करता हूँ कि शुद्धि का वह मार्ग विकट .. गांधीजी / ३५७ For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रहिंसा, श्रम तथा निष्ठा द्वारा व्यापक और मूर्त रूप देना आवश्यक है । यह सिधारा का मार्ग है जो नीत्से के अतिमानव को शक्ति लालसा और पदाधिकार से मुक्त करता है | उसके पाशविक अट्टहास को प्रात्मानन्द में बदल देता है । समर्थ और चेतन मनुष्य को हिंसा से ऊपर उठाकर जनमंगल की ओर ले जाता है । वह मानव विकास, मानव उन्नति और लोक-सेवा में अपना सर्वस्व उसी प्रकार खो देता है जिस प्रकार भक्त भगवान् में । जनता ही उसके लिए जनार्दन है । ऐसे व्यक्ति को - समष्टि को अपनानेवाले को — प्रहिंसा प्रात्म बल देती है । गांधीजी के खिलाफत आन्दोलन, बारदोली, नमक सत्याग्रह, पौराणिक डाँडीयात्रा, असहयोग आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन, रौलेट ऐक्ट आन्दोलन, लगानबन्दी, आम हड़तालें आदि अहिंसात्मक कर्म उनके और उनके अनुयायियों के प्रत्मबल के ही सूचक हैं | अपने सत्य और अहिंसा के अज्ञेय पौरुष द्वारा उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को हिला दिया और सदियों की दासता के बन्धन को तोड़कर हिन्द के इतिहास में नवीन युग उपस्थित कर दिया । इसमें सन्देह नहीं कि अहिंसा का सिद्धान्त प्राचीन है । किन्तु इसका क्रियात्मक सामूहिक प्रयोग, विश्व के इतिहास में सर्वप्रथम गांधीजी ने ही किया । बिना रक्त क्रान्ति के, बिना युद्ध के भारत को स्वतन्त्र करना अहिंसात्मक प्रात्म-शक्ति द्वारा ही सम्भव था । अहिंसा का सिद्धान्त व्यावहारिक है । यह उपयोगी है | अहिंसा, जो कि अभी तक विचारकों, राजनीतिज्ञों, दार्शनिकों, नीति- चिन्तकों और सुधारकों का स्वप्न मात्र थी, उसे गांधीजी ने ही विश्वव्यापी धर्म बना दिया | गांधीजी ने संसार को सत्य और अहिंसा के रूप में नया युग-धर्म देकर विश्व के इतिहास में एक युगान्तर उपस्थित कर दिया । उनका धर्म सत्तात्मक एकता और विश्वप्रेम के दृढ़ विश्वास पर आसीन है । वह राजनीति, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र को नैतिक एकता के सूत्र में पिरोता है । गांधीजी ने विश्वनिर्माण, विश्व एकीकरण की नवीन सांस्कृतिक शक्तियों का आवाहन किया और आज इस नवीन युगधर्म के कारण ही मानवीय नैतिक चेतना जाग्रत हो रही है और विश्व शान्ति की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट हो रहा है । अनासक्ति योग युग-युग से निष्क्रिय हृदयों को आकर्षित कर रहा है । गांधीजी के ज्ञान और कर्म के समन्वय ने मानव जीवन के समस्त क्षेत्रों में नवीन प्रालोक है | शुद्धि होने का मतलब तो मन से, वचन से और काया से निर्विकार होना, राग-द्वेष आदि से रहित होता है । हिंसा नम्रता की पराकाष्ठा है ।' ३५८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डालकर मानव-दष्टिकोण को विकसित किया। गांधीजी के लिए ज्ञान और आचार अभिन्न हैं । पूर्ण शील ही पूर्ण प्रज्ञा है और पूर्ण प्रज्ञा ही पूर्ण शील है। वह यह मानते हैं कि जीवन और नैतिकता एक ही है। उनका जीवनरूपी कर्मक्षेत्र नैतिकता की सजीव मूर्ति था। उनके जीवन को समझना ही एक नवीन किन्तु चिरपुरातन नैतिक-सांस्कृतिक चेतना को समझना है। उनका जीवन आचार-शास्त्र का क्रियात्मक एवं सत्य रूप है। गांधीजी ने अहिंसा को एक व्यापक सांस्कृतिक एवं नैतिक प्रतीक के रूप में ही हमारे सम्मुख रखा है। वह विश्व-मानवता का एकमात्र सार है और आज के विध्वंस के युग में मानव-जाति का एकमात्र जीवन-अवलम्ब है । गांधीजी ने अपने व्यक्तिगत जीवन के आदर्शों द्वारा अपराजित साहस, संयम, तत्परता, निर्भयता तथा जागरूकता को आत्मिक गुण बताया। वह स्वतन्त्र मानवीय चेतना के प्रतीक थे। त्यागी, तपस्वी तथा निर्भीक विचारक थे। वे अहिंसाव्रतधारी थे । अहिंसा को उनके अनुसार वही समझ सकता है जिसकी आत्मा का हनन न हुआ हो । 'मगर जो आदमी आत्मा से लला है, पंगू है, अन्धा है, वह अहिंसा को समझ नहीं सकता।' गांधी-दर्शन में कठोर यथार्थता है। वह नैतिक और सामाजिक आदर्शों का, त्याग और सेवा का, सत्य और अहिंसा का वह असिपथचारी धर्म है जो 'असत् से सत की ओर और अन्धकार से प्रकाश की ओर' ले जाता है। गांधीजी | ३५६ For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जन नीतिशास्त्र शब्द विज्ञान के अनुसार अर्थ-शब्द विज्ञान के अनुसार जैन शब्द की व्युत्पत्ति 'जिन' से हुई है और यह अध्यात्मविजयी की प्रकृति को इंगित करता है। 'जिन' वह है जिसने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर ली है, जिसने कठोर आत्म-संयम एवं साधना द्वारा अपने सच्चे स्वरूप को प्राप्त कर लिया है; वह मुक्त, सिद्ध, सर्वज्ञ और सार्वशक्तिमान है; वह सांसारिक बातों के प्रति तटस्थ है । जिन एवं तीर्थंकर (पथ के निर्माता) की ही जैनी उपासना करते हैं । जैन धर्म यात्म-प्रयास, आत्म-निर्भरता में विश्वास करता है, यह दया या अनुकम्पा को महत्त्व नहीं देता है। इसलिए वह मानता है कि मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक को स्वयं प्रयास करना होगा एवं तीर्थंकरों द्वारा निर्देशित मार्ग का पालन करना होगा। तीर्थकर-रूढ़िवादी जैनियों के अनुसार जैन धर्म शाश्वत है तथा समयसमय पर तीर्थंकरों ने इसे उद्घाटित किया है। जैनी चौबीस तीर्थंकरों को मानते हैं। यह माना जाता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे और अन्तिम अथवा चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्ध मान या महावीर । पार्श्वनाथ इस परम्परा के तेईसवें तीर्थंकर माने जाते हैं। महावीर का जन्म ५६६ ई० पू० में हुअा।' प्रारम्भ में उन्होंने गार्हस्थ जीवन व्यतीत किया । तीस वर्ष की आयु में उन्होंने प्राध्या १. देह-त्याग ५२७ ई० पू० २. जैन धर्म के अन्तर्गत दो सम्प्रदाय हैं । श्वेताम्बर और दिगम्बर । श्वेताम्बर मानते हैं कि महावीर विवाहित थे, दिगम्बर उन्हें अविवाहित मानते हैं। साथ ही इन सम्प्रदायों में आचार-विचार सम्बन्धी कुछ बातों को लेकर मतभेद है । इस दृष्टि से दिगम्बरों का आचरण सम्बन्धी विधान श्वेताम्बरों से अधिक कठोर है । ३६० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्मिक जीवन का वरण कर लिया। बारह वर्ष तक कठोर आत्म-संयम, आत्मवर्जन का पालन करने के परिणामस्वरूप वे जिन हो गये। अपने जीवन के अन्तिम तीस वर्ष उन्होंने जैन धर्म पर भाषण देने, संन्यासियों को एकत्रित करने एवं जैन आचरण का विधान बनाने में व्यतीत किये। अनीश्वरवाद-जैन धर्म अनीश्वरवादी और अवैदिक है, यह न तो वेदों के आदेश को मानता है और न ईश्वर के अस्तित्व को ही स्वीकार करता है। जैनी मुख्यतः अहिंसावादी हैं, वे पशु-बलि द्वारा ईश्वर अथवा किसी भी सत्ता को प्रसन्न करने की बात स्वीकार नहीं कर सकते । पशु-बलि की तीव्र आलोचना करते हुए वे समझाते हैं कि ईश्वर है ही नहीं, अतः पशु-बलि की आवश्यकता नहीं है । हमारे जीवन का ध्येय आचरण की पूर्णता द्वारा अपने सच्चे स्वरूप को प्राप्त करना है। पूर्ण अहिंसा का जीवन जीना ही वांछनीय है। नीतिशास्त्र जीव : बद्ध और मुक्त-जैन धर्म में तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं : (१) सत्ता की यथार्थवादी व्याख्या एवं अनेकतावादी तत्त्वदर्शन; (२) ज्ञानमीमांसा अथवा स्याद्वाद; तथा (३) वैराग्यवादी नैतिकता । जैन धर्म अपने कठोर नीतिशास्त्र के लिए प्रसिद्ध है । इसके द्वारा यह चारित्रिक पूर्णता, प्रात्मउपलब्धि को परम महत्त्व देता है। जीव एवं आत्मा अपने सच्चे स्वरूप में अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति तथा अनन्त विश्वास है। जीव अनन्त है, सब समान और शाश्वत हैं। कर्म पुदगल के कारण जीव बन्धन में पड़ जाता है। उसका ग्राभ्यन्तरिक रूप छिप जाता है। मूलतः समान होते हुए भी जीव अपनी बद्ध स्थिति में, देह के आकार के कारण, एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं । अत: जीव दो प्रकार के होते हैं : बद्ध और मुक्त । मुक्त जीव समान हैं किन्तु बद्ध जीवों में भिन्नता मिलती है। जीव चेतनात्मक है, चेतना उसका लक्षण है--चेतनालक्षणो जीवः । यद्यपि चेतना प्रत्येक जीव का मूलभूत लक्षण है किन्तु देह-पुदगल—की प्राकृति के अनुसार उनमें भिन्नता मिलती है । पूर्व जन्म के संस्कार, कर्म एवं प्रवृत्ति के कारण जीव एक विशिष्ट देह के प्रति अाकर्षित हो जाता है। पूर्व जन्म के कर्म उसके शरीर, वर्ण, परिवार, आयु आदि सभी को निर्धारित करते हैं। देह के अनुसार जीव का पुनः वर्गीकरण कर सकते हैं : त्रस (गतिमान) जीब और स्थावर (गतिहीन)। स्थावर जीव में केवल एक इन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-होती है। ये जीव जल, अग्नि, वायू, क्षिति तथा वनस्पति-रूप शरीरों में रहते हैं। बस जीवों में विकास-भेद मिलता है। इस विकास-भेद को दो, तीन, चार तथा पाँच इन्द्रियों के आधार पर समझाया जा जैन नीतिशास्त्र | ३६१ For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है । उच्च पशु, पक्षी तथा मनुष्य पाँच इन्द्रियों से युक्त हैं । मनुष्य इनमें श्रेष्ठ है, उसमें पाँच इन्द्रियों के अतिरिक्त मन भी है । वह बौद्धिक प्राणी है। मनुष्य से श्रेष्ठ सिद्ध आत्माएँ ( पूर्ण ज्ञानी ) है । आत्मा का स्वरूप तथा बन्धन - देह एवं इन्द्रिय आत्मा के मूल स्वरूप की सूचक नहीं हैं । इन्द्रियगत भेद सांसारिक एवं बद्ध जीव की विकास की स्थिति पर प्रकाश डालता है । बद्ध जीव प्राध्यात्मिक और भौतिक प्राणी है । अपने भौतिक रूप में वह बद्ध है, उसका ज्ञान सापेक्ष और सीमित है, वह भोक्ता और कर्ता है, उसका जीवन दुःखपूर्ण है क्योंकि वह पुद्गल से युक्त है । किन्तु प्रश्न यह है कि जीव जीव एवं पुद्गल से क्यों युक्त होता है ? जैनियों का कहना है कि पूर्व जन्म के कर्मों अथवा कषायों ( क्रोध, मान, मोह, लोभ) के कारण कर्म पुद्गल जीव में चिपक जाते हैं । कर्म पुद्गल का जीव में चिपकना प्राश्रव कहलाता है । यही जीव का बन्धन (बन्ध ) में पड़ना है । बन्धन के दो प्रकार हैं— भाव-बन्ध तथा द्रव्य - बन्ध । दूषित - कलुषित मनोभावों का मन में होना भाव-बन्ध है तथा जीव का पुद्गल से प्राक्रान्त हो जाना द्रव्य-बन्ध है । बन्धन की स्थिति में पड़े रहना जीव की नियति नहीं है । वह आत्म प्रयास, नैतिक कर्म द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकता है । मुक्ति पाने अथवा अपने सच्चे स्वरूप को प्राप्त करने के लिए त्रिरत्न तथा पंच महाव्रत का पालन अनिवार्य है । इनका पालन करने से प्रारम्भ में नये पुद्गलों का प्राश्रव बन्द हो जाता है, यह सम्वर की स्थिति है । इसके पश्चात् पुराने पुद्गल के अणु-परमाणु भी जीर्ण होकर खत्म हो जाते हैं । इस स्थिति को जैनी निर्जर की स्थिति कहते हैं । अतः इस स्थिति में जीव का पुद्गल से वियोग हो जाता है और यही उसकी मुक्ति है । वह अपनी पूर्णता और अनन्तता को प्राप्त कर लेता है— अपने इस सच्चे स्वरूप में वह अनन्त ज्ञान, अनन्त श्रानन्द अनन्त शक्ति तथा अनन्त विश्वास है । द्वारा त्रिरत्न - त्रिरत्न से जैनियों का अभिप्राय सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान प्रौर सम्यक् चरित्र से है - सम्यक् दर्शन ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः । सम्यक् दर्शन वे यह समझाते हैं कि जैन धर्म में पूर्ण विश्वास, तीर्थंकरों और मुक्तात्माओं के उपदेशों के प्रति पूर्ण श्रद्धा का होना आवश्यक है । सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होता है । सम्यक् ज्ञान अथवा जैन धर्म का उचित ज्ञान, जीव एवं द्रव्यों के वास्तविक स्वरूप का बोध आवश्यक है क्योंकि प्रज्ञान — उचित ज्ञान का अभाव — क्रोध, मान, मोह, लोभ को उत्पन्न करते - ३६२ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । अतः बिना सम्यक् ज्ञान के इन कषायों से छुटकारा सम्भव नहीं है । जब तक कषाय रहेंगे तब तक जीव में कर्म पुद्गलों का आश्रव होता रहेगा, वह अजीव से युक्त रहेगा । सम्यक् ज्ञान तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि वह सम्यक् चरित्र से युक्त नहीं हो जाता । मन, वचन, कर्म से पवित्र और उदार होना उचित आचरण का सूचक है । सम्यक् चरित्र सांसारिक सुखों के प्रति विरक्त बनाता है । यह हिंसा, प्रेम आदि भावात्मक गुणों को जन्म देकर व्यक्ति को सद्गुणी बनाता है वस्तुतः सद्गुणी वह है जो पंच महाव्रत का पालन । करता है । पंच महाव्रत - सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पंच महाव्रत हैं ।' सत्य सत्यभाषिता और प्रियभाषिता की अनिवार्यता का द्योतक है | सत्य ( सुनृत) तब तक पूर्ण है जब तक कि वह मधुर नहीं है । अतः सत्यवादी का प्रमुख कर्तव्य है कि वह कर्कश कठोर शब्दों का प्रयोग न करे; परनिन्दा, असभ्यता, चपलता, वाचालता आदि धार्मिकता के लक्षण हैं । हिंसा अपने भावात्मक अर्थ में व्यापक प्रेम को — जीव मात्र के प्रति प्रेम - अभिव्यक्ति देती है और अपने निषेधात्मक रूप में यह जीवों की हत्या का निषेध करती है । हिंसा परम धर्म है, पंच व्रतों में इसका श्रेष्ठ स्थान है । अस्तेय से अभिप्राय है चोरी न करने से । ब्रह्मचर्य वासनाओं के त्याग को लक्षित करता है । ब्रह्मचर्य का प्रयोग वे व्यापक अर्थ में करते हैं - यह सभी प्रकार की कामनाओं के परित्याग को महत्त्व देता है । अपरिग्रह ( परिग्रह एवं संचय न करना) सांसारिक विषयों के प्रति विरक्ति को अभिव्यक्त करता है क्योंकि विषयासक्ति मनुष्य को सांसारिकता की ओर ले जाती है जिस कारण उसे पुनः जन्म ग्रहण करना पड़ता है । - पंच महाव्रत तथा त्रिरत्न का अभ्यास करने पर कर्म पुद्गलों का पूर्ण विनाश हो जाता है और संवर, निर्जरा जीव अपनी विशुद्धता अथवा पूर्णता - अनन्त चतुष्ट्य — को प्राप्त कर लेता है । यह विशुद्धता एवं मुक्ति अन्य कुछ नहीं है वरन् अपने आन्तरिक स्वरूप - स्वात्मनि अवस्था — को प्राप्त करना - १. महाव्रतों का पालन करने अथवा सच्चा व्रती होने के लिए 'शल्य' का परित्याग भावश्यक ने । शल्य मुख्यतः तीन हैं एक-दम्भ, कपट, ढोंग प्रथवा ठगने की वृत्ति का त्याग । दो - निदान भोगों की लालसा का त्याग तथा तीन - मिथ्या दर्शन ( असत्य के प्रति आग्रह ) का त्याग एवं सत्य पर श्रद्धा रखना । इन मानसिक दोषों से मुक्त होने पर ही पंच महाव्रतों का सच्चे अर्थ में पालन किया जा सकता है । जैन नीतिशास्त्र / ३६३. For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । कठोर वैराग्यवाद - राग द्वेष के पूर्ण विनाश-द्वारा ही वह सभी के प्रति मंत्री भाव का अर्जन कर लेता है, सद्गुणी को देखकर उसे आनन्द होता है तथा दुःखी को देखकर उसमें करुणा उत्पन्न होती है । वैराग्यवाद अथवा रागहीनता आत्म-प्राप्ति का मुख्य साधन है । मन-वचन-कर्म से अहिंसा वह मूलगत सद्गुण है जो अन्य सभी सद्गुणों को जन्म देती है— सत्यता, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह (लोभ) इसी पर आधारित हैं । नैतिक नियम आन्तरिक - कर्म का मूल्यांकन जैनी प्रेरणा की पवित्रता के आधार पर करते हैं । वही प्रेरणा शुभ या पवित्र है जो आसक्ति, विद्वेष, राग- मोह से अछूती है । ग्रतः कर्म का औचित्य उसके बाह्य परिणामों – चाहे वे दूसरों के लिए सुखद हों - पर निर्भर नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति नियोग अथवा नैतिक नियम का पालन करके अपनी आन्तरिक पूर्णता को प्राप्त कर सकता है । नियोग मुक्त जीव ( सर्वज्ञाता अथवा अर्हत ) का आदेश है । यद्यपि यह प्रतीत होता है कि नियोग प्रर्हत द्वारा आरोपित - बाह्यारोपित - है तथापि यह ग्रात्म-प्रारोपित है । नैतिक नियम मूलतः जीव ही है । यह वह है जिसे आत्मा स्वयं अपने ऊपर आरोपित करती है । अपनी आत्मा का आदेश ही नैतिक नियम, नैतिक बाध्यता या नियोग है । अत: नियोग एवं त्रिरत्न और पंच महाव्रत का पालन कर जीव प्रति नैतिक विशुद्धि को प्राप्त कर लेता है । मुक्त जीव बद्ध जीव का मार्ग निर्देशन करता है । क्योंकि उसके बतलाये 雪 पथ ( नियोग ) का अनुसरण कर बद्ध जीव अपनी मुक्ति प्राप्त करता है | जैन धर्म श्रात्म-प्रयास स्वावलम्बन में विश्वास करता है । मुक्ति अनुकम्पा से प्राप्त नहीं होती है । इसका अर्जन करना होता है । यह सिद्धान्त वैराग्य और संन्यास में विश्वास करता है । इसके आचरण सम्बन्धी नियम अत्यन्त कठोर हैं । जैन साधु का जीवन आत्म-वर्जन पूर्ण है । जहाँ तक जनसाधारण या गृहस्थ का प्रश्न है उनके नैतिक नियम साधु के आचरण सम्बन्धी नियमों से भिन्न हैं । जनसाधारण को साधु को आदर्श मानना होगा यद्यपि वे अणुव्रतों का पालन करते हैं न कि महाव्रतों का । ३६४ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ बौद्ध नीतिशास्त्र जीवन-सिद्धार्थ अथवा गौतम बुद्ध का जन्म राजसी कुल में ५६३ ई० पू० में हया । उनका लालन-पालन वैभव और ऐश्वर्य में हा। किन्तु जब उन्होंने दुर्बल वद्ध व्यक्ति, रोगी व्यक्ति, मत व्यक्ति और संन्यासी को देखा तो उनका मन सांसारिकता से विमुख हो गया। उन्होंने विश्व की क्षणभंगुरता एवं विश्वव्यापी दुःख से आक्रान्त होकर उन्तीस वर्ष की आयु में वैराग्य ले लिया । दुःख के कारण को जानने के लिए वे संकल्परत हो गये । उन्होंने अपने समय की चेतना के अनुसार कठोर तपस्या की । छः वर्ष तक कठोर वैराग्य एवं योगसाधना में तथा निरन्न रहने पर भी जब उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ तो उन्होंने यह सब छोड़ दिया। अन्त में बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें ५२८ ई० पू० में परम प्रकाश, ज्ञान एवं बोध की प्राप्ति हो गयी और वे सिद्धार्थ से 'बुद्ध' हो गये। उन्होंने दुःख के स्वरूप और उसको दूर करने के उपाय को जान लिया । आर्य सत्य-बुद्धत्व को प्राप्त कर उन्होंने चार आर्य सत्यों को समझा(१) दुःख, (२) दुःख समुदाय अथवा दुःख का कारण, (३) दुःख निरोध तथा (४) दु:ख-निरोध का मार्ग । तत्पश्चात् उन्होंने अपना जीवन (पंतालीस वर्ष) अपना धर्म और दर्शन का प्रचार करने में व्यतीत किया। ___बुद्ध के मौखिक आख्यानों-वचनों और उपदेशों को उनके शिष्यों ने त्रिपिटक-सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक–में सुरक्षित किया है। सुत्तपिटक में बुद्ध की वाणी एवं उपदेश, विनयपिटक में सदाचार सम्बन्धी नियम (नैतिक समस्या) तथा अभिधम्मपिटक में दार्शनिक विवेचन मिलता बौद्ध नीतिशास्त्र | ३६५ For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे (६) क्या होते हैं ? मृत्यु तात्त्विक प्रश्नों के प्रति मौन - बुद्ध का दर्शन व्यावहारिक और नैतिक है । दुःख को दूर करना चाहते थे इसलिए वे तात्त्विक समस्याओं के प्रति उदा-सीन रहे । उनका कहना था कि पहले व्यावहारिक समस्या को सुलझाना के चाहिए, दुख का निवारण करना चाहिए । इस दृष्टि से पोठपाद सुत्त अनुसार, बुद्ध ने दस प्रश्नों को अव्याकृत ( अव्यक्तानि ) कहा है । ( १ ) क्या यह लोक सनातन है ? ( २ ) क्या यह अनित्य है ? (३) क्या यह अनन्त है ? ( ४ ) क्या यह शान्त है ? (५) क्या आत्मा और शरीर एक हैं ? आत्मा और शरीर भिन्न हैं ? ( ७ ) क्या मृत्यु के बाद तथागत ( ८ ) क्या मृत्यु के बाद तथागत नहीं होते हैं ? ( 8 ) क्या वे के बाद होते और नहीं भी होते हैं ? (१०) क्या वे न तो अमर होते हैं और न मरणशील. ही ? इन दस प्रश्नों का समाधान न सम्भव है और न व्यावहारिक दृष्टि से प्रगति है । जीवन की ज्वलन्त समस्या दुःख की समस्या है । इन प्रश्नों द्वारा हम दुःख का निरोध नहीं कर सकते, दु:ख निरोध के मार्ग को नहीं जान सकते। ऐसा प्रयास वैसा ही होगा जैसा कि यदि किसी को बाण बेध दे तो वह तब तक बाण निकलवाना मना कर दे जब तक कि वह बाण और धनुष को न जान ले, बेधनेवाले पुरुष को न जान ले आदि । यह जिज्ञासा, हठ या प्रश्न अव्याकृत रह जायेंगे क्योंकि तब तक शल्य से बिंधा व्यक्ति मर जायेगा । इसीलिए जब बुद्ध के शिष्यों ने उनसे तात्त्विक एवं दार्शनिक प्रश्न किये वे मौन रहे क्योंकि नैतिक और व्यावहारिक दृष्टि से आध्यात्मिक समस्याएँ अनुपयोगी तथा निरर्थक हैं । बुद्ध का मुख्य उद्देश्य दुःख निरोध के मार्ग को समझना था क्योंकि यही हमें दुःख से मुक्ति दे सकता है, निर्वाण एवं पूर्ण आनन्द प्रदान कर सकता है। प्रथम आर्य सत्य - बुद्ध ने माना कि जीवन दुःखपूर्ण है, सब कुछ दुःख है । अतः उन्होंने दुःख के विश्वव्यापी स्वरूप पर प्रकाश डाला। बुढ़ापा, मृत्यु, रोग ही दुःख नहीं हैं वरन् समस्त संसार दुःखपूर्ण है । किन्तु दुःख को देखकर बुद्ध ने निराशावादी दृष्टिकोण स्वीकार नहीं किया । उन्होंने इसे दूर करने की आवश्यकता को महत्त्व दिया अथवा उनका कहना था कि मनुष्य दुःख से मुक्ति पा सकता है । द्वितीय श्रार्य सत्य - द्वितीय आर्य सत्य बतलाता है कि कुछ भी प्रकारण उत्पन्न नहीं हो सकता क्योंकि प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार प्रत्येक वस्तु अपनी उत्पत्ति के लिए अपने कारण पर निर्भर है । सर्वत्र दुःख है और दुःख का मूल ३६६ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण विद्या है। अविद्या को समझना द्वादश निदान, भव-चक्र को समझना है । जरामरण के दुःख से कैसे छुटकारा पा सकते हैं एवं ( १ ) जरामरण का क्या कारण है ? जरामरण बिना ( २ ) जाति ( जन्म ग्रहण) के सम्भव नहीं है और जाति का कारण ( ३ ) भव ( जन्म की इच्छा ) है । भव (४) उपादान ( सांसारिक विषयों के प्रति प्रासक्ति) पर निर्भर है और उपादान ( ५ ) तृष्णा परनिर्भर है । तृष्णा का कारण ( ६ ) वेदना है । वेदना या इन्द्रियानुभूति बिना ( ७ ) स्पर्श के सम्भव नहीं है । स्पर्श के लिए ( ८ ) षडायतन ( पाँच इन्द्रियाँ तथा मन का समूह ) आवश्यक है । षडायतन इसलिए है कि (2) नामरूप ( मन और देह ) है और नामरूप बिना (१०) विज्ञान (चेतना) के कोई अर्थ नहीं रखता है । विज्ञान अपने अस्तित्व के लिए ( ११ ) संस्कार ( प्रवृत्ति) पर निर्भर है और संस्कार का कारण ( १२ ) अविद्या है | अतः दुःख का मूल कारण विद्या है। बिना विद्या के दुःख-निरोध सम्भव नहीं है । अविद्या के कारण ही जीव जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति नहीं पाता है । तृतीय श्रार्य सत्य - दुःख के कारण को जान लेने पर दुःख निरोध सम्भव हो जाता है । दुःख निरोध की अवस्था निर्वाण की अवस्था है क्योंकि निर्वाण दुःख-शून्यता है, दुःख का अन्त है | अतः निर्वाण दुःख की समाप्ति और पुनजन्म के कारण से मुक्ति का सूचक है । शब्द विज्ञान के अनुसार निर्वाण का अर्थ है–'बुझ जाना', 'ठंडा हो जाना,' 'शांन्त हो जाना' । इससे अर्थ लगा लिया जाता है कि निर्वाण जीवन के अन्त का सूचक है। निर्वाण जीवन का अन्त एवं अस्तित्व का निराकरण नहीं है । यह इसी जीवन में प्राप्त हो सकता है। निर्वाण वस्तुतः तीव्र वासनाओं का अन्त है, वासना की अग्नि का बुझ जाना है, यह व्यक्तित्व में जो भ्रम है उसका विनाश है, श्रविद्या हन्ता का नाश है, समस्त दुःखों की परिसमाप्ति है। निर्वाण इस सत्य के बोध का सूचक है कि विश्व परिवर्तनशील है, सब कुछ अनन्त है, यह नैरात्म्यवाद का बोध है | नैरात्म्यवाद हमारी स्वार्थी इच्छाओं - राग, द्वेष, मोह, वासना, काम, घृणा आदि -- की शुद्धि कर देता है। निर्वाण अकर्मण्यता - कर्म संन्यास - का भी सूचक नहीं है । स्वयं बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् पैंतालीस वर्षों तक जन-कल्याणार्थं कर्म किया । निर्वाण निष्काम कर्म - महत् करुणा – के आदर्श को हमारे सम्मुख रखता है । यह समस्त मानवता के दु:ख निरोध के आदर्श को हमारे सम्मुख रखता है । यह हमारे भीतर एकता की भावना को उत्पन्न करता है— सब प्राणियों के प्रति दया और प्रेम के भाव को जन्म देता बौद्ध नीतिशास्त्र / ३६७ For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । निर्वाण पूर्ण ज्ञान, शील और शान्ति का सूचक है, यह इसी जीवन में परम शान्ति, आध्यात्मिक आनन्द की वह स्थिति है जिसकी तुलना क्षणिक या ऐन्द्रिय सुख से नहीं कर सकते हैं। यह पूर्णता की स्थिति है, अतः अनिर्वचनीय है, अचिन्त्य, अकल्पनीय है । इसका हम केवल नकारात्मक वर्णन कर सकते हैं। इसकी पूर्णता को जब भावात्मक विशेषणों द्वारा समझाते हैं तब यह ध्यान में रखना होता है कि ये विशेषण उसकी पूर्ण व्याख्या नहीं कर सकते हैं क्योंकि निर्वाण साधारण अनुभव, सामान्य ज्ञान द्वारा नहीं समझा जा सकता है। दुःख-निरोध का मार्ग-निर्वाण की प्राप्ति निर्वाणप्राप्ति के पथ को प्रशस्त करती है । निर्वाण एवं दुःख-निरोध का मार्ग नैतिकता का मार्ग है, यह आर्य अष्टांगिक मार्ग है जो ज्ञान और शील के ऐक्य को स्थापित करता है। बुद्ध ने स्वयं इस मार्ग का अनुसरण किया और इसे निर्वाणप्राप्ति के लिए अनिवार्य माना। अष्टांगिक मार्ग से अभिप्राय है- (१) सम्यक् दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३) सम्यक् वचन, (४) सम्यक् कर्म, (५) सम्यक् आजीव, (६) सम्यक व्यायाम, (७) सम्यक स्मति और (८) सम्यक समाधि । अात्मा तथा जगत के बारे में उचित ज्ञान एवं चार आर्य सत्यों का उचित ज्ञान ही सम्यक् दृष्टि है। अविद्या मिथ्या दृष्टि को जन्म देती है और यह हमारे दुःख का कारण है। उचित दृष्टि एवं नैरात्म्यवाद' पर उचित विश्वास रखना आवश्यक है। सम्यक दृष्टि अर्थात् चार आर्य सत्यों का ज्ञान सम्यक संकल्प की ओर ले जाता है। निर्वाण के लिए ज्ञान अपने-आपमें पर्याप्त नहीं है, ज्ञान के अनुरूप आचरण अनिवार्य है। अतः सम्यक् दृष्टि सम्यक् संकल्प की अपेक्षा रखती है । सम्यक् संकल्प सांसारिक विषयों के प्रति विरक्ति तथा हिंसा और विद्वेष का त्याग है। यह त्याग, परोपकार और करुणा को अपनाना है। सम्यक संकल्प केवल मानसिक नहीं होना चाहिए, इसे कार्य रूप में परिणत होना चाहिए। सम्यक् संकल्पवाला सर्वप्रथम अपनी वाणी, 'वचन', पर नियन्त्रण रखता है। यह सम्यक् वाक् है । 'सत्य, शुभ और उचित पर स्थिर रहना' ही सम्यक वाक है। यह मनुष्य को अप्रिय कठोर वचन, निन्दा, वाचालता, अशुभ, १. निर्वाण के स्वरूप के बारे में हीनयान तथा महायान (बौद्ध दर्शन की शाखामों) में मतभेद २. प्रात्मा परिवर्तनशील मानसिक और भौतिक तत्त्वों का संघात है एवं मनुष्य काय, चित्त और विज्ञान का संघात ही मनुष्य है । ३६८ / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्या कथन से दूर रखता है । सम्यक् संकल्प का एक रूप सम्यक् वाक् है तो दूसरा रूप सम्यक् कर्मान्त है । सम्यक् संकल्प को कर्म में परिणत करना सम्यक् कमन्त है। हिंसा, अस्तेय तथा इन्द्रिय संयम सम्यक् कर्मान्त को अभिव्यक्त करते हैं । मन और कर्म की विशुद्धता सम्यक् प्राजीव को महत्त्व देती है । वह बतलाती है कि मनुष्य को उचित ढंग से जीविकोपार्जन करना चाहिए । जीविका निर्वाह के लिए अनुचित, अशुभ, अनैतिक साधन को नहीं अपनाना चाहिए | सम्यक् व्यायाम कुसंस्कारों के उन्मूलन को महत्त्व देता है । सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्ति, सम्यक् प्राजीव को अपनाने पर भी यह सम्भव हो सकता है कि दढ़ पुराने कुसंस्कार हमें हमारे मार्ग से विचलित कर दें | इसलिए धर्म मार्ग में सम्यक् व्यायाम की अत्यन्त आवश्यकता । इस बात का निरन्तर ध्यान रखना चाहिए कि कुसंस्कार व्यक्ति पर हावी होकर उसे धर्म मार्ग से स्खलित न कर दें । अतः निरन्तर प्रयास की श्रावश्यकता है और यह चार बातों को महत्त्व देना है : ( १ ) पुराने बुरे भावों का पूर्ण विनाश होना अनिवार्य है । ( २ ) नये बुरे तथा निषिद्ध भाव उत्पन्न न होने पायें । ( ३ ) मन कभी शान्त एवं विचाररहित नहीं रह सकता है इसलिए मन में अच्छे विचार उत्पन्न करने चाहिए । ( ४ ) अच्छे विचारों को मन में देखने के लिए सतत प्रयास करना चाहिए । सम्यक् स्मृति इस ओर ध्यान आकर्षित करती है कि धर्म मार्ग तलवार की धार है, यह अत्यन्त सतर्कता चौर चेष्टा की अपेक्षा रखता है। जिन विषयों का ज्ञान प्राप्त हो गया हो उनका सदैव स्मरण रखना चाहिए। शरीर का शरीर, वेदना का वेदना, चित्त का चित्त और मानसिक दशा का मानसिक दशा के रूप में ही चिन्तन करना चाहिए। इनमें से किसी के लिए भी यह सोचना कि 'यह मैं हूँ' या 'यह मेरा हैं' भ्रमपूर्ण है । क्योंकि यह भ्रमपूर्ण चिन्तन हमें सत्य से अलग कर देता है, हम सक्ति और मोह में पड़ दुःख भोगते हैं । सम्यक् स्मृति के बारे में बुद्ध ने विस्तृत उपदेश दिये हैं । उन्होंने समझाया है कि शरीर क्षिति, जल, अग्नि तथा वायु का बना हुआ है । यह हाड़, मांस, त्वचा, अँतड़ी आदि हेय वस्तुओं का आगार है । श्मशान में हम इसके वास्तविक रूप को देखते हैं । यदि इस वास्तविक स्वरूप को ध्यान में रख लें, इसकी अनित्यता और हेयता को समझ लें तो इसके प्रति आसक्ति नहीं रहेगी । इसी भाँति वे वेदना, चित्त और मानसिक अवस्था के बारे में समझाते हैं उपर्युक्त चारों का सतत ध्यान हमें विषयों से विरक्त' बना देगा । जो मनुष्य अष्टांग मार्ग के सात नियमों का । बौद्ध नीतिशास्त्र / ३६६ For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफलतापूर्वक पालन कर लेता है वह सम्यक् समाधि में प्रवेश पा सकता 2 सम्यक् समाधिचित्त की एकाग्रता है, चित्त वृत्तियों का शान्त हो जाना है | इसके अन्तर्गत चार अवस्थाएँ हैं : ( १ ) पहली अवस्था में शान्त मन से चार श्रार्य सत्यों पर मनन, चिन्तन और तर्क करते हैं । विरक्त और शुद्ध विचारों के कारण अपूर्व श्रानन्द प्राप्त होता है । ( २ ) दूसरी अवस्था में सन्देह का विनाश हो जाने के कारण तर्क-वितर्क अनावश्यक हो जाते हैं । आर्य सत्यों के प्रति श्रद्धा दृढ़ हो जाती है तथा प्रानन्द और शान्ति का बोध होता है । ( ३ ) यह अवस्था तटस्थता की अवस्था है । शांति और आनन्द से मन को तटस्थ करके चित्त की साम्यावस्था स्थापित की जाती है । इस स्थिति में चित्त की साम्यावस्था के साथ दैहिक विश्राम का भाव तो रहता है किन्तु समाधि के श्रानन्द के प्रति तटस्थता एवं उदासीनता रहती है । ( ४ ) चतुर्थ अवस्था में समाधि के श्रानन्द, चित्त की साम्यावस्था, दैहिक विश्राम, किसी का भी बोध नहीं रहता है । वह पूर्ण शान्ति, पूर्ण विराग तथा पूर्ण संयम की अवस्था है । इसमें न सुख है, न दुख है, यह दोनों से रहित है । यह पूर्ण प्रज्ञा, पूर्ण शील, पूर्ण समाधि है । अष्टांग मार्ग के तीन मुख्य अंग ( त्रिरत्न ) हैं - प्रज्ञा, शील और समाधि । बुद्ध के लिए ज्ञान और शील एक ही हैं । अष्टांग मार्ग का प्रथम नियम एवं सोपान सम्यक् दृष्टि है, ग्रार्य सत्यों का ज्ञान है । इस ज्ञान का विरोध कुसंस्कारों – मन, वचन, कर्म के कुसंस्कारों से होता है । परिणामस्वरूप नैतिकता, शुभ आचरण एवं अष्टांग मार्ग के सोपानों की ओर जब हम बढ़ते हैं तो श्रन्तर्द्वन्द्व अनिवार्य हो जाता है । इस प्रन्तर्द्वन्द्व की समाप्ति के लिए श्रावश्यक है कि सम्यक् संकल्प से लेकर सम्यक् समाधि तक के सात नियमों का निरन्तर अनुशीलन और अभ्यास करें। सभी बाधाओं के दूर होने पर सम्यक् समाधि की अन्तिम अवस्था प्राप्त हो जाती है तथा प्रज्ञा का उदय होता है । प्रज्ञा अविद्या, तृष्णा एवं जरा-मरण का मूलोच्छेदन कर देती है । दुःखों का निरोध हो जाता है। निर्वाण या अर्हत पद की प्राप्ति के साथ ही पूर्ण प्रज्ञा, पूर्ण शील, पूर्ण शान्ति का उदय हो जाता है । ३७० / नीतिशास्त्र For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोतिशास्त्र नीतिशास्त्र का विषय अत्यन्त जटिल तथा गम्भीर है और इसका। सम्बन्ध मनुष्य के दैनिक आचरण के अलावा, उसके जीवन की उन सूक्ष्म मान्यताओं से भी है जो निरन्तर विकसित होती रहती हैं / विदुषी लेखिका ने इस पुस्तक में प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक के नीतिज्ञों के विचारों का ऐतिहासिक, विकासात्मक आलोचनात्मक अध्ययन सुबोध शैली में प्रस्तुत किया है। मानव-प्रात्मा के नैतिक विकास में नीतिशास्त्र संबंधी सभी विषयों के महत्व पर उन्होंने विचार किया है। लेखिका का विश्वास है कि इस पुस्तक के अध्ययन से छात्रों एवं सामान्य पाठकों के मन में नैतिक जिज्ञासा ही उदित नहीं होगी, प्रत्युत् नीतिशास्त्र के ज्ञान से प्रेरणा ग्रहण कर एवं अपने व्यक्तित्व का संस्कार तथा विकास कर वे जीवन की सार्थकता का अर्थ भी समझ सकेंगे। राजकमल प्रकाशन नयी दिल्ली पटना For Personal & Private Use Only www.atelibrary.org