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________________ ये दोनों परस्पर संयोजित हैं । दूसरी ओर उसकी पुस्तक में कुछ ऐसे वाक्य मिलते हैं जो आत्मप्रेम को अधिक महत्त्व देते हैं । दोनों की असंगति को असम्भव मानने के पश्चात् वह कहता है कि यदि इन दोनों में असंगति हो जाय तो अन्तर्बोध को अपना स्वाभाविक अधिकार छोड़ना होगा। आगे वह यह भी मान लेता है कि जब शान्त क्षण में हम सोचने बैठते हैं तो हम किसी भी प्रवृत्ति को तब तक उचित या न्यासम्मत नहीं समझ पाते हैं जब तक कि हमें यह विश्वास नहीं हो जाता कि वह हमारे सुख के लिए है अथवा हमारे सुख की विरोधी नहीं है । वैसे बौद्धिक या विवेकशील प्राणी के लिए आत्मप्रेम और अन्तर्बोध का विशेष विरोध नहीं है । अपने सतर्क आशावाद के आधार पर वह कहता है कि यह स्वीकार करना बुद्धिसम्मत है कि जिन दो आन्तरिक अधिकारियों के अधीन स्वभाव एवं प्रकृति ने हमें रखा है उनमें संगति है । इस संगति का एक कारण यह भी है कि इनके विरोध को हम प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं कर सकते हैं । स्वार्थ के आधार पर ही इन्हें विरोधी सिद्ध कर सकते हैं पर स्वार्थवादी गणना अनिश्चित और सम्भाव्य है । यदि स्थूल दृष्टि से यह विरोध दीख ही जाये तो हमें अन्तर्बोध के आदेश का उसके सरल और स्पष्ट होने के कारण पालन करना चाहिए । पुन: एक स्थल पर वह यह कहता है कि अन्तर्बोध और आत्मप्रेम दोनों ही मानव स्वभाव के प्रमुख और श्रेष्ठ तत्त्व हैं, इसलिए यदि किसी कर्म में इनमें से किसी का भी निराकरण हो जाये तो वह मानव-स्वभाव के अनुरूप नहीं होगा । यदि दोनों ही मानव स्वभाव के दो तत्त्व हैं तो नीतिज्ञ दोनों की सापेक्ष स्थिति को समझना चाहेगा । बटलर का उत्तर द्विविधापूर्ण है । बटलर एक ओर तो यह कहकर छुटकारा पाना चाहता है कि व्यावहारिक दृष्टि से सापेक्ष स्थिति का प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं है और दूसरी ओर वह कहता है कि अपने परम स्वार्थ को समझना अत्यन्त कठिन है । बटलर के ऐसे कथन के विरुद्ध दो प्रश्न हमारे मानस में आते हैं; हम कैसे सिद्ध कर सकते हैं कि अन्तर्बोध के आदेश अधिक स्पष्ट हैं ? इसका क्या प्रमाण है कि हमारे स्वार्थ के लिए अन्तर्बोध के आदेश श्रात्मस्वार्थ के आदेश से अधिक श्रेष्ठ पथनिर्देशक हैं ? व्यक्तिवाद और उत्तरदायित्व - श्रात्मप्रेम और ग्रन्तर्बोध का विरोध सुख और सद्गुण की समस्या को खड़ा करता है । बटलर सुख और सद्गुण के विरोध को बौद्धिक तर्क द्वारा नहीं बल्कि ईश्वरज्ञान द्वारा दूर करने का प्रयास करता है । सुखात्मा की आन्तरिक स्थिति का सूचक नहीं है । इसके द्वारा सृष्टिकर्ता उन्हें पुरस्कृत करता है जो अपनी प्रवृत्तियों को उनके निर्दिष्ट ध्येय के लिए साधन सहजज्ञानवाद ( परिशेष) / २६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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