SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हम कह सकते हैं कि बटलर के दर्शन में अनियन्त्रित स्वार्थवाद के लिए स्थान नहीं है। सुखवादियों और शैफ्ट सबरी की आत्म-प्रवत्ति की धारणा की भी बटलर ने आलोचना की है। वह कहता है कि किसी भी प्रवत्ति का प्रमुख लक्ष्य सुख नहीं है। जब प्रवृत्ति अपने स्वाभाविक ध्येय को प्राप्त करती है तब सुख मिलता है । अतः सुख परिणाम है, प्रमुख लक्ष्य नहीं। बटलर ने प्रवृत्तियों की विस्तृत व्याख्या द्वारा बतलाया कि मनुष्य की मूलगत प्रवृत्तियों को पूर्ण रूप से स्वार्थमूलक नहीं कह सकते हैं। अन्तर्बोध का अनिश्चित प्रयोग-नैतिक बोधवादियों, विशेषकर शैफ्ट्सबरी के नैतिक बोध की धारणा से असन्तुष्ट होकर बटलर ने अन्तर्बोध शब्द का प्रयोग किया । अन्तर्बोध और नैतिक बोध में स्पष्ट भेद है। बटलर ने सौन्दर्य इन्द्रिय एवं विशिष्ट इन्द्रिय के रूप में अन्तर्बोध को नहीं समझा है किन्तु मानवस्वभाव को आवयविक समग्रता के रूप में स्वीकार करके अन्तर्बोध की सर्वोच्चता को स्थापित किया है। जब हम उस सिद्धान्त के स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं जो कि सर्वोच्च है तो विफलता मिलती है क्योंकि उसने अन्तर्बोध का अनिश्चित प्रयोग किया है । अन्तर्बोध से या तो उसका अभिप्राय उस अबोधगम्य शक्ति से है जिसे हम अपने अन्तर में पाते हैं और जो नियमों को बनाती है और या उस बोधगम्य शक्ति से है जिसके आदेश हम बौद्धिक चिन्तन द्वारा समझ सकते हैं। किन्तु यह अवश्य सत्य है कि उसके अनुयायियों ने अन्तर्बोध के दोनों अर्थों में स्पष्ट भेद देखा। . अन्तर्बोध और प्रात्मप्रेम के सम्बन्ध को समझाने में असफल-मानवस्वभाव-जो राज्य के विधान-सा है-की व्यवस्था और संगति को समझाने के लिए जब बटलर प्रात्मप्रेम और अन्तर्बोध के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण करता है तो वह एक स्थायी दृष्टिकोण को अपनाने के बदले अनेक रीतियों और भिन्न तर्कों की सहायता लेता है। एक ओर वह अन्तर्वोध के अधिकार को सर्वोच्च कहकर यह मानता है कि अन्तर्बोध उसी आचरण का अनुमोदन करता है जिसका ध्येय सम्पूर्ण समाज का आनन्द है। मानव-जाति एक सम्प्रदाय है और हम एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं । जनता एवं जाति के हित की वृद्धि करना प्रत्येक का कर्तव्य है । क्या हम अन्तर्बोध के परम आदेश को मान लें? - इसका उत्तर पाने के लिए हमें प्रात्मप्रेम की धारणा को समझना होगा। यह धारणा बतलाती है कि आत्मा के राज्य में दो स्वतन्त्र तत्त्व हैं : बौद्धिक आत्मप्रेम और अन्तर्बोध । इनके पारस्परिक सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए वह कहता है कि २६२ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy