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________________ है । इस तथ्य को समझने के लिए मानव इतिहास से उदाहरण लेना आवश्यक है । प्रादिमकाल में मनुष्य जीवन सरल था । उसकी आवश्यकताएं थोड़ी थीं । वह अपनी भौतिक और शारीरिक आवश्यकताओं — नींद, भूख प्यास — के लिए ही सचेत था । किन्तु आधुनिक विज्ञान के युग में पहुँचने तक उसका जीवन अत्यन्त जटिल और व्यापक हो गया है । उसकी आवश्यकताएँ केवल उसके समुदाय, झुण्ड, परिवार तक ही सीमित नहीं हैं । उसे अब राष्ट्र और विश्व के रूप में भी सोचना पड़ता है । वह आज सम्पूर्ण विश्व पर अपनी भौतिक, मानसिक आवश्यकताओं के लिए निर्भर है । वह बौद्धिक रूप से अधिक सचेत और जागरूक हो गया है । वह सामूहिक तथा वैश्व मनोवृत्ति को समझना चाहता है । उसकी बौद्धिक जिज्ञासा किसी भी प्रवृत्ति, संस्कृति अथवा धर्म को बिना समझे स्वीकार नहीं करती है । उसे वैयक्तिक, सामाजिक अभ्यासों में जो असंगति मिलती है उसे वह दूर करना चाहता है । नये विचार तथा नयी आवश्यकताओं के प्रादुर्भाव से उसकी व्यावहारिक समस्याएँ बढ़ गयी हैं । इन समस्याओं का रूप अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है । व्यक्ति का जीवन और अस्तित्व केवल उसके जाति वर्ग तक ही सीमित नहीं रह गया है. वह विश्वजनीन हो गया है । उसके सम्मुख एक ओर तो व्यक्तिगत सुख-दुःख है और दूसरी ओर सम्पूर्ण मानवता का शुभ है, जिसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने कर्तव्यों की स्पष्ट रूपरेखा बनाये, व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्ध को समझे । कर्तव्य और अधिकार की क्या सीमाएँ हैं ? उनके क्या अर्थ हैं ? वह कौन से कर्म हैं जिनका मनुष्य के ऊपर सामाजिक ऋण है ? जिन्हें उसे करना ही है, आदि। ये आज के बौद्धिकरूप से सजग प्रत्येक व्यक्ति की समस्याएँ हैं, जिनका उसे स्वयं समाधान खोजना है और जिनके लिए वह आज भाग्य और धर्म की दुहाई देनेवाले पण्डितों के पास जाना व्यर्थ समझता है । वह श्राज जनसाधारण द्वारा स्वीकृत देवी प्रदेश और ईश्वरीय नियमों के मूल की खोज करना चाहता है । चमत्कास्वाद और जादू-टोने के भय से ऊपर उठ जाने के कारण वह नैतिक मान्यताओं की प्रामाणिकता जानना चाहता है । आज के मानव की चिन्तन-धारा प्राचीन मानव की विचारधारा से नितान्त भिन्न है । उसके जीवन में विश्वव्यापी परिवर्तन आ गया है। उसके दार्शनिक, साहित्यिक, कलात्मक तथा व्यावसायिक विचारों में आमूल क्रान्ति आ गयी है । उसका जीवन विश्व - जीवन का अंग बन गया है । उसका सुख व्यक्ति तक अथवा किसी विशिष्ट समुदाय तक ही सीमित नहीं रह गया है । वह सम्पूर्ण मानवता के शुभ नैतिक समस्या | २६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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