SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तथा सुख का आकांक्षी है। ज्ञात-अज्ञात रूप से उसके जीवन का ध्येय सर्वकल्याणकारी हो गया है । अतः सोलहवीं शताब्दी के जड़वादी नैतिक सुखवाद के प्रचारक हॉब्स के विरुद्ध आज कहा जा सकता है कि नैतिक दृष्टि से कर्तव्य का बाह्य भय अथवा बाध्यता के कारण पालन करना अनैतिक है। काण्ट का कथन कि 'कर्तव्य का आदेश अन्तःआरोपित आदेश है', आज के व्यक्ति के मन के अधिक निकट है। ___नीतिशास्त्र कर्तव्य का पथ दिखाता है । कठिनाइयों को हल करके जीवन को सरल और सुन्दर बनाता है; कर्मों के वास्तविक मूल्य के सम्बन्ध में प्रकाश डालकर उनका पुनर्मूल्यीकरण करता है । वह प्रचलित नैतिकता के उन नियमों को समझने का प्रयास करता है जिनके कारण हमारे सामाजिक जीवन की प्रगति कुण्ठित हो गयी है; उदाहरणार्थ, बाल-विवाह, बाल-वैधव्य, सती-प्रथा, अस्पृश्यता आदि । व्यक्ति में अपनी भी अनेक दुर्बलताएँ हैं। उसकी अधिकांश इच्छाएँ आत्म-विनाशक और आत्म-घातक होती हैं जिन्हें यथार्थ-रूप से समझकर उनका संयमन तथा उन्नयन करना उसके लिए आवश्यक है। नीतिशास्त्र मनुष्य को बताता है कि नैतिक प्रगति में ही जीवन की सार्थकता है । जीवन के अर्थ एवं मूल्य को समझाने के कारण ही वह निर्देश करता है कि सुख और आनन्द में क्या भेद है। सुख और सद्गुण में क्या अन्तर है। आनन्द को आचरण का परमलक्ष्य क्यों मानना चाहिए। नैतिक बाध्यता के क्या अर्थ हैं ? वैयक्तिक और सामाजिक कर्तव्य की क्या सीमाएँ हैं ? स्वेच्छाकृत कर्म अथवा संकल्प की स्वतन्त्रता का मानव-जीवन में क्या महत्त्व है ? कर्मों की संचालिका भावना है अथवा बुद्धि ? सत्य बोलना, वचन-बद्ध होना, शपथ खाना-शुभ, उचित, अन्तर्बोध, कर्तव्य और अधिकार आदि शब्दों का, जिनका कि प्रतिदिन के जीवन में प्रयोग किया जाता है, क्या मूल्य है ? इन कठिनाइयों को हल करने के लिए नीतिशास्त्र उस मापदण्ड की खोज करता है जिसके आधार पर इन सबका सापेक्ष मूल्य निर्धारित किया जा सके । अत: नैतिक आदर्श की नींव वास्तविक जगत है। व्यावहारिक कठिनाइयाँ ही इसके मूल में हैं । नैतिक आदर्श वह आदर्श है जो कि मानवीय प्रयास और पुरुषार्थ से पृथ्वी पर स्थापित किया जा सकता है । नैतिक प्रादर्श लौकिक और ऐहिक आदर्श है । मनुष्य के जीवन का व्यावहारिक और क्रियात्मक पक्ष ही उसका जन्मदाता है। जीवन की प्रगति और सर्वांगीण उन्नति ही उसका ध्येय है। वह उन नियमों का खण्डन करता है जो उस पारस्परिक व्यवस्था की ३० / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy