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________________ उन्नति के प्रतिकूल है जिसे सामाजिक जीवन कहते हैं। अनुकूल नियमों को समझने और कल्याणप्रद नियमों का सृजन करने में वह अमूर्त और दुरूह 'विज्ञान बन जाता है। किन्तु उसकी दुरूहता यह सिद्ध नहीं करती कि नीतिशास्त्र काल्पनिक सिद्धान्त मात्र अथवा बौद्धिक व्यायाम या शतरंज के खेल की भांति है। वह दुरूह इसलिए है कि वह सम्पूर्ण मानवता का आलिंगन करता है। उसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। वह इस अर्थ में भी दुरूह है कि उसे वैज्ञानिक सत्य की भाँति प्रयोग द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता और न उसे काली-पाटी पर लिखकर समझाया ही जा सकता है। साधारण बुद्धिवाले व्यक्ति वैज्ञानिक सत्य को समझ सकते हैं, किन्तु नैतिक सत्य को समझने के लिए सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि की आवश्यकता है। दुरूह होने पर भी नीतिशास्त्र मानव-जीवन के लिए अनिवार्य और आवश्यक है। आधुनिक काल में इसका महत्त्व विशेष रूप से बढ़ गया है। आज के युग में जीवन इतना व्यापक और विविधांगी हो गया है कि मनुष्य को पग-पग पर आचरण के मापदण्ड की आवश्यकता पड़ती है। वह आज वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा उस परम-सत्य की खोज करना चाहता है जिसके आधार पर वह अपने कर्मों को संचालित कर सके । समुचित नैतिक ज्ञान के बिना मनुष्य का जीवन अत्यन्त दुखद हो जाता है। वह कर्तव्यों के झंझावात में खो जाता है। त्रिशंकु की भाँति वह न तो पृथ्वी पर ही रह पाता है और न स्वर्ग में ही। नीतिशास्त्र पृथ्वी और स्वर्ग, वास्तविक जीवन और आदर्श जीवन में सामंजस्य स्थापित करके मनुष्य को अशोभन से शोभन की पोर, अशिव से शिव की ओर एवं अमानुषिकता से मानुषिकता अथवा मनुष्यत्व की ओर ले जाता है । नैतिक समस्या | ३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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