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________________ है ? कैसे उसकी श्रेष्ठता को स्थापित कर सकते हैं ? कैसे कह सकते हैं कि वह पौरुषीय सामर्थ्यसम्पन्न तथा संस्कृत और नैतिक गुणों की चरम सीमा है ? नीत्से अतिमानव को 'संस्कृति का अभिजात' (Aristrocrat of Culture) कहता है । उसके अनुसार अतिमानव ही संस्कृति की गौरवपूर्ण चरम सीमा है । व्यक्ति में शक्ति के लोभ का चरम विकास ही उसके संस्कृति के अभिजात होने का द्योतक है। 'शक्तिलोभ' नैतिक, आध्यात्मिक और संस्कृत गुण है। अति-. मानवों में यह अपने पूर्णरूप में प्रस्फुटित होता है । वे इसके बारे में सचेत होते हैं। उनकी प्रभत्वप्राप्ति की इच्छा उनका मार्गदर्शक बनती है। उनकी सार्थकता, उनकी अहम्मन्यता उनमें उनके अधिकारों के विषय में आत्मदढ़ता उत्पन्न कर प्रतीकार की भावना और संघर्ष की इच्छा को पूर्ण रूप में जाग्रत करती है । ऐसी वैयक्तिक स्वतन्त्र आध्यात्मिकता (Independent Spirituality) अर्थात् अतिमानव,-विकास का चरम लक्ष्य तथा उसकी अन्तिम स्थिति है।' वही पृथ्वी की भी सार्थकता है । इससे स्पष्ट है कि मनुष्य में अपने को विकसित करने की शक्ति है । उस शक्ति का हनन नहीं करना चाहिए। उसे महत्ता न देना सभ्यता का निरादर करना है । अतः मनुष्य को चाहिए कि अपनी सम्भावित भौतिक और प्राध्यात्मिक शक्तियों को वास्तविक रूप दे। अपने को अतिक्रम कर अतिमानव की स्थिति में पहुंचे। अतिमानव मानव का अतिक्रमण उसी प्रकार कर सकता है जिस प्रकार कि मानव बन्दर का। 'मनुष्य के सम्मुख बन्दर क्या है ? एक हास्यास्पद वस्तु, एक लज्जा की वस्तु; अतिमानव के सम्मुख मनुष्य की भी यही स्थिति होगी, एक हास्यास्पद तथा लज्जा की वस्तु ।' मनुष्य की सम्भावित शक्तियों के साथ ही नीत्से को यह भी विश्वास था कि अतिमानवों का प्रादुर्भाव आज के युग के मानवों के लिए सम्भव है। उसके लिए उन्हें नयी मान्यताओं की (Table of new Valuations) को स्वीकार करना चाहिए। समस्त मान्यताओं के पुनर्मूल्यीकरण में विश्वास करना चाहिए। जनसाधारण इन मान्यताओं का तिरस्कार इसलिए करता है कि वह स्वतन्त्र व्यक्तित्व से डरता है। वह जानता है कि जीवन संघर्ष में उसी श्रेष्ठ व्यक्ति १. नीत्से ने अपनी पुस्तक Thus Spake Zarathurstra में जरथुस्त्र को अतिमानव के रूप में देखा । इस प्रकार उसने पहले अतिमानव को व्यक्ति के रूप में अंकित किया । बाद को इसी अतिमानव की धारणा को विकास की अन्तिम स्थिति मानकर अतिमानवों की एक जाति की कल्पना की।. फ्रेडरिक नीत्से | ३१५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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