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________________ और असत् की धारणाएँ प्राकृतिक जगत् में मनुष्य ने अपनी सुविधानुसार स्थापित की हैं । वे परिवर्तनशील हैं । उन्हें भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक वातावरण के सम्बन्ध में ही समझ सकते हैं । अपने-आपमें वह निरर्थक हैं । उसके अनुसार प्रतिमानव अपने सुख और सुविधा के अनुसार नैतिक नियमों का निर्माण और ध्वंस करने का पूर्ण अधिकार रखता है । प्रतिमानव सत्य की रूपरेखा निर्धारित कर सकता है । वह विकास की पूर्णता का सूचक है । शुभ अशुभ की परिभाषाएँ सुख-दुःख के अर्थ शुभ और अशुभ की नीत्से नवीन परिभाषा देता है । वह नैतिक मान्यताओं को जैव और दैहिक तत्त्वों पर आधारित बतलाता है । उसके अनुसार शुभ वह है जो कि शक्ति की इच्छा की वृद्धि करता है तथा जीवन को प्रगति देता है और अशुभ वह हैं जो शक्ति की लालसा तथा प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा को दुर्बल तथा शक्तिहीन बनाता है । अथवा 'वह सब जो शक्ति से आता है शुभ है और वह सब जो दुर्बलता से आता है अशुभ है ।' नी ने प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा को मौलिक नैतिक गुण कहा है । वह अन्य सभी नैतिक गुणों और प्रत्ययों को इसी के आधार पर समझाता है । सुखवाद यह मानता है कि व्यक्ति अपने कर्मों को सुख और दुःख की भावना से प्रेरित होकर संचालित करता है । नीत्से इसकी आलोचना करते हुए कहता है कि मानव स्वभाव को सुख और दुःख शासित नहीं करते हैं । मानव-स्वभाव, मानव-कर्म तथा मानव - मान्यताएँ सब कुछ 'प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा' पर निर्भर हैं । उसी की प्रेरणा के परिणाम हैं । शक्ति की तीव्र इच्छा को जब हम सन्तुष्ट नहीं कर पाते तब दुःख मिलता है और जब सन्तुष्ट कर लेते हैं तब सुख मिलता है। सुख-दुःख की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । वे शक्ति की महदाकांक्षा के परिणाममात्र हैं । -- नीत्से के सिद्धान्त का भावात्मक पक्ष : प्रतिमानव का सिद्धान्त; उसकी पुष्टि - प्रतिमानव के सिद्धान्त की स्थापना करने के अभिप्राय से नीत्से मानवस्वभाव का विश्लेषण करता है । प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा सर्वसामान्य प्रवृत्ति है। यह मौलिक सहजप्रवृत्ति है । वह कहता है "जहाँ कहीं भी मैंने चेतन प्राणी देखे, वहाँ मैंने प्रभुत्वप्राप्ति की इच्छा पायी मनुष्य को प्राप सब कुछ सम्भव दे दीजिए - स्वास्थ्य, भोजन, श्राश्रय, भोग - किन्तु वह दुःखी और झक्की ही रहेगा क्योंकि दानव निरन्तर प्रतीक्षा में रहता है और उसे सन्तुष्ट करना पड़ता है ।" यदि प्रभुत्वप्राप्ति की इच्छा सर्वसामान्य प्रवृत्ति है तो अतिमानव और साधारण लोगों में क्या भेद है ? प्रतिमानव की क्या पहचान ३१४ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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