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________________ के विशेषाधिकार होंगे तथा उसी को सफलता मिलेगी । दुर्बल अपनी दुर्बलतानों को छिपाने के अभिप्राय से सृष्टि के नियम ( योग्यतम की ही विजय होती है। और वही शासन करता है) की अवहेलना करते हैं । वे अनैतिक, अशुभ, कायर प्रवृत्तियों (विनम्रता, सुशीलता, दयार्द्रता और निःस्वार्थता) का यशगान करते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में दुर्बल लोग अपनी दुर्बलताएं समानता की पुकार के पीछे छिपाने का विफल प्रयास करते हैं । नीति के क्षेत्र में ईसाइयत को महत्त्व देकर अनैतिकता और पाप का प्रचार करते हैं । उपयोगितावादी 'अधिकतम सुख' संख्या का अधिकतम के घृणित और जघन्य विचार को महत्ता देते हैं । नीत्से इन सब धारणाओं की आलोचना करता है । उसके अनुसार मध्यवर्गीय तृप्ति है | मनुष्य कर्तव्य है कि विकास के लक्ष्य और सभ्यता की परिपुर्णता को समझे । वह विशिष्ट व्यक्तित्व के स्त्री-पुरुषों को महत्ता प्रदान करे । उनको सभ्यता का प्रतीक मानकर उनका शासन स्वीकार करे । प्रभुश्रों और दासों की नैतिकता- नीत्से वर्गभेद में विश्वास करता है । अतिमानव और मानव में महान् अन्तर है । प्रतिमानव श्रेष्ठ व्यक्तित्व का है अतः उसे जीने और सुख भोगने का अधिकार है । मानव साधारण व्यक्ति है, उसका जीवन कीड़े-मकोड़े का जीवन है जिसका एकमात्र अर्थ यही है कि वह अतिमानवों की सेवा करे । उसके अनुसार दो वर्ग हैं - एक शासक का दूसरा शासितों का । नैतिकता दो भिन्न प्रकार की है : दासों की नैतिकता ( Slavemorality) और प्रभुनों की नैतिकता ( Master-morality) | विशिष्ट व्यक्तित्व को धार्मिक और नैतिक बन्धनों से, ग्रथवा उन बन्धनों से जो जीवन की प्रगति में अहितकर हैं, मुक्त करने के अभिप्राय से ही उसने नैतिकता का दो वर्गों में विभाजन किया। प्रतिमानवों की उन्नति और सफलता के लिए ही उसने आत्मविनाशक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । उसका विचार जनसाधारण को धर्म से स्खलित करने का नहीं था । उसने अन्य अनीश्वरवादियों की कटु आलोचना की। उसका कहना था कि जनसाधारण को धर्म में विश्वास करना चाहिए | साधारण मानव को जीवन में वैधानिक प्राश्वासन की आवश्यकता होती है। जनसाधारण की आवश्यकता के लिए ही नीत्से ने दासों की नैतिकता का प्रतिपादन किया । यहाँ पर नीत्से शुभ की वही परिभाषा देता है जो ईसाई धर्म, उपयोगितावादी नैतिकता अथवा प्रचलित नैतिकता द्वारा स्वीकृत है । साधारण मानव शक्ति और असमानता में विश्वास नहीं कर सकते । उनके लिए शुभ श्राचरण वही है जो समानता पर प्राश्रित तथा सुखप्रद है । दासों का ३१६ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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