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धर्म में विश्वास होना चाहिए । यह उनके लिए एक निश्चयात्मक आवश्यकता है । प्रभु का कर्तव्य है कि दासों को नैतिकता मानने के लिए प्रोत्साहित करें । उनमें धार्मिक विश्वास रहना आवश्यक है । इसी के द्वारा प्रभु उन्हें शिक्षित और सरलता से अपने अधीन कर सकते हैं । धार्मिक विश्वास होने पर वे शासकवर्ग को राजसत्ता के लिए साधन बन सकेंगे। प्रतिमानवों की भलाई के लिए, उनके प्रादुर्भाव और विकास के लिए यह आवश्यक है कि दास उनकी सेवा करें। प्रभुनों की नैतिकता प्रतिमानवों की नैतिकता है । यह प्रतिमानवों के संवर्धन तथा प्रभुत्वशक्ति की इच्छा के विकास की नैतिकता है । प्रतिमानव दासों से उच्च हैं । उन्हें प्रचलित नैतिक मान्यताओं ( दासों की नैतिकता ) को नहीं मानना चाहिए । ग्राज की विकसित परिस्थितियों एवं सामाजिक स्थितियों का अध्ययन यह स्पष्ट कर देता है कि त्याग, दया, विश्वबन्धुत्व, सेवा आदि गुण निकृष्ट और प्रयोग्य हैं । मानव विकास के साथ गुणों का रूप बदलता है । अतिमानवों के लिए विलासिता, शक्ति का मोह और स्वार्थता गुण हैं; क्योंकि यही उन्हें जीवन में सफलता देंगे। प्रभुनों की नैतिकता के अनुसार क्रूरता, प्रतिशोध, उच्छृंखलता, उद्दण्डता और स्वायत्तीकरण शुभ गुण हैं । दासों को हेय समझना, उन पर शासन करना उचित है । अतिमानवों का दासों के प्रति व्यवहार कठोर होना चाहिए। उनकी महत्ता तथा विशालता के सम्मुख साधारण मानव की सत्ता उतनी ही निरर्थक है जितनी कि दूध की मक्खी की । प्रतिमानव संस्कृति की थाती है, विकास का ध्येय है । वह जीवन का प्रयोजन
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। उसके लिए यह अनैतिक और अनुचित है कि वह दासों पर दया दिखाये । प्रभुनों की नैतिकता की कसौटी कठोरता की कसौटी है । जो सबसे उत्तम है वही सबसे कठोर है । श्रेष्ठता और उत्तमता के अर्थ हैं : दासों पर शासन करना । दया एवं पड़ोसी के स्नेहवश काम करना अनुचित है । कार्य केवल भावी मानव के प्रेम से प्रेरित होने चाहिए । प्रतिमानवों का संवर्धन ही एकमात्र ध्येय होना चाहिए। उन्हें अपने ग्रापको और दूसरों को भी प्रतिमानव के श्रागमन के लिए साधन बनाना चाहिए । यहाँ पर वह मानता है कि अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के लिए, प्रतिमानव के प्रादुर्भाव के लिए त्याग और सहनशीलता उचित है। इसी से भलाई सम्भव है ।
प्रालोचना
मानवता के ध्वंस की ओर - नीत्से ने जीवनसत्य को जीवविकास क्रम
फ्रेडरिक नीत्से / ३१७
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