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________________ के रूप में देखा । 'योग्यतम की विजय' अथवा 'प्राकृतिक संकलन' ने उसे अपने बचपन के आदर्श, जरथुस्त्र को प्रतिमानव के रूप में साकार करने के लिए प्रेरित किया । उसने लोगों का, नवीन सांस्कृतिक आदर्श को स्वीकार करने के लिए, आह्वान किया। उसका कहना था कि मानव जाति अपना प्रतिक्रमण करके ही अपना संरक्षण कर सकती है । उसका विश्वास था कि मानव अपने एकमात्र कर्तव्य का पालन ( अतिमानवों का संवर्धन) उसकी बनायी हुई मान्यताओं की सूची को स्वीकार करने पर ही कर सकता है । उसने कहा कि मनुष्य को क्षुद्र गुणों, क्षुद्र नीतियों, खोखले विचारों तथा दयनीय सुख की भावनाओं श्रथवा 'अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख' के विचार का त्याग करना चाहिए। उसे नवीन मान्यताओं को अपनाना चाहिए। मानव की उन्नति के लिए ग्रथवा प्रतिमानवों के प्रादुर्भाव के लिए उसने जिन गुणों को महत्ता दी है उनको यदि वास्तविक और व्यावहारिक रूप दिया जाये तो यह कहना अनुचित न होगा कि मनुष्य को मूर्तिमान् नृशंसता तथा निर्ममता का पूजन करना होगा । यह ऐतिहासिक और राजनीतिक सत्य भी है कि नीत्से के सिद्धान्त ने फासिस्तवाद, 'डिक्टेटरशिप तथा दो भयंकर विश्वयुद्धों को जन्म दिया । नीत्से युद्ध का समर्थक था। वह प्रतिमानवों की शक्ति के प्रदर्शन के लिए इसे आवश्यक मानता था । उसके अनुसार युद्ध एक शुभ और आवश्यक कर्म है । उसके द्वारा प्रतिमानव अपने नैतिक गुणों ( साहस और शक्ति) का प्रदर्शन करता है । युद्ध श्रेष्ठ व्यक्तियों की उन्नति और विकास में सहायक होता है | दुर्बल और प्रयोग्य व्यक्ति तथा जातियों का इसके द्वारा नाश होता है । यह दौर्बल्य और निर्वीर्यता को समूल नष्ट कर देने की एकमात्र औषधि है । इसके द्वारा अच्छे कर्म सम्पन्न होते हैं । नी के युद्ध के यशगान ने जर्मनीवालों को प्रभावित किया। वहाँ के नेताओं ने युद्ध की संस्कृति और सभ्यता के लिए आवश्यक समझा और अपने को छोटामोटा प्रतिमानव समझकर विश्व में एक अनियन्त्रित हाहाकार मचाकर उसे आतंकित और ध्वंस किया | श्रेष्ठता के नाम पर दानवता - नीत्से मानव उत्कर्ष विषयक शास्त्र (Eugenics) से काफी प्रभावित था । उसका विश्वास था कि वैज्ञानिक रीति से श्रेष्ठ व्यक्तियों और जातियों की उत्पत्ति हो सकती है। उसने कहा, प्रतिमानव के प्रादुर्भाव के लिए निरन्तर प्रयास करना मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य है प्रभुत्वप्राप्ति की लालसा सर्वसामान्य गुण होने पर भी व्यक्ति समान नहीं हैं । व्यक्तियों की श्रेणी में अन्तर होता है । प्रभुत्वप्राप्ति की लालसा सब में समान रूप से ३१८ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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