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________________ की श्रेष्ठता उसकी राजकीय उपयोगिता पर निर्भर हो जाती है। राज्य के लिए उपयोगी साहित्य ही श्रेष्ठ और प्रगतिशील है। मार्क्सवाद के अनुसार धर्म अफीम के समान है जो सर्वहारा को उसके आर्थिक अभाव को भुलाये रखने में मदद देता है । अतः मार्क्सवाद आर्थिक समानता के नाम पर वैयक्तिक स्वतन्त्रता का विरोधी है । वह उन सभी प्रवृत्तियों का विनाश करना चाहता है जो आर्थिक समानतारूपी सामूहिक जीवन की प्रगति के लिए राज्य के आदेशों की प्रशंसा और अन्धानुकरण नहीं करतीं। नैतिकता का अर्थ-मार्स ने अपने सिद्धान्त द्वारा अनेक नैतिक समस्याओं को उठाया। जीवन का आदर्श क्या है ? शिक्षा का उचित रूप क्या होना चाहिए ? बच्चों के व्यक्तित्व का विकास कैसा हो ? शुभ-अशुभ से क्या अभिप्राय है ? कर्तव्य, अधिकार, न्याय, स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है ? इन समस्याओं को देखकर लगता है कि मार्क्स ने नैतिकता के सार को समझा है। किन्तु जब हम इस दृष्टि से मार्क्स के दर्शन का अध्ययन करते हैं कि नैतिकता का सम्बन्ध सम्पूर्ण प्रात्मा से है तो निराशा होती है। मार्क्स ने जीवन और नैतिकता के केवल एक अंग को समझा है । उसने भौतिक एवं जैव पक्ष को मान्यता दी है। कानून, नियम, धर्म, शुभ-अशुभ.आदि को उसने आर्थिक मानदण्ड से नापा है और मानव-दुःख के मूल में आर्थिक विषमता को देखा है। उसके अनुसार उत्पादन और वितरण की उचित व्यवस्था द्वारा एवं अर्थशास्त्र के द्वारा ऐसी व्यवस्था की स्थापना कर सकते हैं जो मानव-एकता स्थापित कर सके तथा स्वार्थ और दुःख को दूर कर सके। मार्क्स यह समझने में असमर्थ है कि आर्थिक समता होने पर भी अन्य विषमताएँ-भिन्न विचार, विरोधी आस्थाएँ, शक्तिलोभ, यशलालसा, विशिष्ट गुणसम्पन्नता आदि सम्बन्धी स्पर्धा-जीवन को दुःखी बना सकती हैं। मासं मानवीय सम्बन्धों-पति-पत्नी, माँ-बच्चे, व्यक्ति-समाज, मित्रता आदि–को आर्थिक सम्बन्ध के रूप में देखता है। वह सब समस्याओं का समाधान उत्पादन और वितरण के नियम द्वारा करता है । भौतिक एवं आर्थिक आवश्यकता ही वह जीवन का आदि और अन्त मान लेता है । जीवन की ऐसी व्याख्या नैतिक जिज्ञासा का समाधान नहीं कर सकती। नैतिक जीवन आत्म-पारोपित नियम, संकल्प-स्वातन्त्र्य, आन्तरिक पवित्रता, कर्तव्य के बोध का जीवन है । नैतिकता प्रात्मोन्नति और आध्यात्मिक जागरण का प्रतीक है । वह वैयक्तिक स्वातन्त्र्य के द्वारा सर्वकल्याण की स्थापना करना चाहती है। मार्क्स का नीतिशास्त्र नैतिकता की मूलगत मान्यताओं को ३०४ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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