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सदैव अपने ही सुख की प्रेरणा से प्रेरित होकर कर्म करता है तो यह कैसे कहा जा सकता है कि कर्मों के औचित्य और अनौचित्य का मापदण्ड सार्वजनिक सुख है । यदि यह सत्य है कि मनुष्य क्षणिक अथवा. वैयक्तिक सुख की ही इच्छा करता है तो यह कहना विरोधपूर्ण है कि उसे सामाजिक सुख के लिए यत्न करना चाहिए अथवा सुख की खोज के साथ ही उसे अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। सुखवादियों ने यह माना कि कर्मों की एकमात्र प्रेरणा सख की भावना है, सुख ही जीवन का ध्येय है। वे यह भी कहते हैं कि प्रात्मसुख-रत व्यक्ति सामाजिक प्राणी भी है । उसके लिए सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना आवश्यक है। उसके कर्मों और सामाजिक नियमों में समानुरूपता होनी चाहिए। किन्तु सुख और कर्तव्य, ये दो विरोधी विचार हैं। इनमें सामंजस्य कैसे सम्भव हो सकता है ? कैसे कह सकते हैं कि स्वार्थी व्यक्ति को परमार्थी कर्म करने चाहिए । सुख के बदले उस कर्तव्य का पालन करना चाहिए जो सामान्य सुख की वृद्धि करता है। - समन्वय की अोर प्रयास : नैतिक प्रदेश के अर्थ-सुखवादियों के अनुसार समाज में कुछ ऐसे प्रचलित और निर्धारित नियम हैं जिनका उल्लंघन करने से व्यक्ति को दुःख सहना पड़ता है । वह समझ जाता है कि इनका पालन करने में ही उसकी भलाई निहित है जिसके परिणामस्वरूप उसे सुख मिलेगा। इन नियमों के कारण ही वह प्रत्यक्ष रूप से अपने सुख की खोज नहीं करता प्रत्युत कर्तव्यों का पालन करता है। इस तथ्य को सुखवादी यह कहकर समझाते हैं कि कुछ ऐसे नैतिक नियम एवं 'नैतिक प्रादेश' हैं जिनके कारण व्यक्ति सुख के बदले कर्तव्य को चुनता है। अपने प्राथमिक रूप में प्रादेश (Sanction) के अर्थ होते हैं निश्चित करना या स्थिर करना। संक्शन लैटिन शब्द संक्टियो (Sanctio) से उद्भूत हुआ । इसके अर्थ होते हैं 'बाँधने की क्रिया' अथवा वह वस्तु जो व्यक्ति को बाँधने में सहायक हो। आदेश वह है जो राष्ट्र के नियमों को निश्चित और प्रमाणित करता है, जो व्यक्ति को नियमों के पालन करने के लिए आज्ञा देता तथा बाधित करता है । प्रादेशों की अवज्ञा करने से व्यक्ति को दण्डित होना पड़ता है, सुख से कहीं अधिक दुःख भोगना पड़ता है । इसलिए वह उनके उल्लंघन के दुःखप्रद परिणामों से बचने के लिए उनका पालन करता है। उन नियमों का परिणाम सुखप्रद होने के साथ ही सामान्य सुख की वृद्धि करता है । अतः आदेश वह हैं जो एक विशिष्ट रूप से कर्म करने के लिए व्यक्ति को बाधित करते हैं । शुभ आचरण का कारण नैतिक पादेश हैं। वही व्यक्ति के
व / नीतिशास्त्र
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