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________________ की। उन्होंने सामाजिक नैतिकता के मूलस्रोत को समझना चाहा और यह जानना चाहा कि नैतिक मान्यताओं का उद्गम क्या है। क्या नैतिक मान्यताएं: अनिवार्य और सार्वभौम हैं ? विकासवाद को माननेवाले सुखवादियों ने नैतिक जीवन की गतिशीलता को महत्त्व दिया। नैतिक मान्यताएँ सापेक्ष हैं। वे विकास और परिवर्तन को प्राप्त हो रही हैं। प्राचीन सुखवादियों का सिद्धान्त वैयक्तिक है। व्यक्ति का हित उनके सम्मुख है। इस स्वार्थ सुखवाद के विरुद्ध अधिकांश आधुनिक विचारकों ने परमार्थ या सार्वभौम सुखवाद को महत्त्व दिया। मानवता का कल्याण (सर्वकल्याण) जीवन का ध्येय है। 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख', इस सिद्धान्त द्वारा हम कर्मों के पौचित्य-अनौचित्य को माप सकते हैं। प्राचीन सुखवाद उस व्यक्ति को विवेकी कहता है जो अपने स्वार्थ को समझते हुए कर्म करता है। मित्रता, प्रात्म-संयम प्रादि शुभ हैं क्योंकि वे व्यक्तिगत सुख का उत्पादन करते हैं। किन्तु प्राधुनिक सुखवादियों ने स्वार्थ-परमार्थ के भेद को मिटाना चाहा। मिल, बैंथम ने उपयोगिता के नाम पर 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' को महत्त्व दिया और विकासवादियों ने व्यक्ति और समाज के अनन्य सम्बन्ध द्वारा स्वार्थ और परमार्थ में एकत्व स्थापित किया। ऍरिस्टिपस, ऍपिक्यूरस, हॉब्स, बैंथम ने सुख के परिमाण के आधार पर आचरण का मूल्यांकन किया, मिल ने परिमाण के साथ ही गुणात्मक भेद को स्वीकार किया। जीवन का ध्येय सुख अवश्य है, किन्तु बुद्धिजीवी श्रेष्ठ सुख चाहता है । ऍपिक्यूरस भी मानसिक और दैहिक सुखों के भेद को स्वीकार करता है किन्तु वह गुणात्मक भेद को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं करता। नैतिक प्रादेश . सुख और कर्तव्य में विरोध-प्राधुनिक सुखवादियों के अनुसार इच्छा का अनिवार्य और स्वाभाविक विषय सुख है। किन्तु साथ ही वे यह भी मानते हैं कि मनुष्य को सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए एवं सार्वजनिक सुख की परवाह करनी चाहिए।' एक ओर तो वे यह मानते हैं कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रात्मसुख की ओर है और दूसरी ओर वे कहते हैं कि नैतिक आदर्श का मापदण्ड 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' है । यदि व्यक्ति १. देखिए, पृष्ठ १६०-६१ । . .. सुखवाद (परिमेष) | १३५६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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