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________________ कुछ इसी जीवन में मुक्ति की प्राप्ति सम्भव बतलाते हैं। चार्वाक मुक्ति या अपवर्ग के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते हैं। यदि मुक्ति का अर्थ प्रात्मा का देह के बन्धन से मुक्त होना है तो यह सम्भव नहीं है। प्रात्मा और देह अभिन्न हैं, इसलिए आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। अत: प्रात्मा का देह से बियोग मृत्यु का सूचक है, न कि अपवर्ग का । यदि मुक्ति का अर्थ दुःख का पूर्ण विनाश है तो यह भी असम्भव है। सुख-दुःख देह की विशेषताएँ हैं और इनका देह से अभिन्न सम्बन्ध है। इस जीवन में दुःख का पूर्ण विनाश अचिन्तनीय है। कुछ विचारकों ने सुख-दुःख के सापेक्ष सम्बन्ध को समझाते हुए दुःख से छुटकारा पाने के लिए इच्छाओं और स्वाभाविक प्रवृत्तियों के नियन्त्रण और हनन को महत्त्व दिया है और सुख-दुःख के प्रति तटस्थता या नि:स्पृहता को वांछनीय बतलाया है। किन्तु दु:ख के भय से सुख से विरक्त होना उचित नहीं है । मछली में काँटे होते हैं और धान-गेहूँ में छिलका होता है किन्तु कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति उनको खाना नहीं छोड़ता। इस प्रकार चार्वाक अनेक उदाहरण देकर जीवन के सुखों के प्रति मनुष्य को आकृष्ट करते हैं। हमें वर्तमान के निश्चित सुख का भविष्य के सन्दिग्ध सुख की प्राशा में त्याग नहीं करना चाहिए । 'मोर को पाने की आशा से हाथों में आये हुए कबूतर को नहीं छोड़ना चाहिए।' भविष्य अनिश्चित, सन्दिग्ध एवं अज्ञेय है। वर्तमान ही एकमात्र सत्य है । हमें वर्तमान जीवन में उसी कर्म को करना चाहिए जो कि अधिक-से-अधिक सुख और कम-से-कम दुःख दे। यदि जीवन में दुःख सहना पड़ता है तो उसने डरकर इच्छाओं का विनाश नहीं करना चाहिए बल्कि पूर्ण लगन से सुखभोग करना चाहिए । काम ही एकमात्र नैतिक ध्येय है। इच्छानों से ऊपर उठने के बदले आत्म-विभोर होकर कामुकता का प्रालिंगन करना चाहिए। आलोचना भोगवादी-चार्वाक भोगवादी है । इन्द्रिय-सम्भोग को महत्त्व देने के लिए उन्होंने सद्गुण को भ्रान्ति कहा और भोग को एकमात्र सत्य कहा । जो कुछ भी शुभ, श्रेष्ठ, पवित्र और दयापूर्ण है उस पर अविश्वास प्रकट किया। भोगविलास या काम का मुक्त समर्थन किया । जनसामान्य जिन गुणों का अर्जन और पालन करता है वे प्रचलन और उसकी मन्द सांसारिक बुद्धि के सूचक हैं। ऐसा इन्द्रिय-सम्भोग वैयक्तिक सुख का प्रतिपादक है। निजी इन्द्रिय-सुख के लिए जो कर्म और नियम उपयोगी हैं उन्हें ही बुद्धिमान् व्यक्ति अपनाता ३३२ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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