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________________ है। इसे अभौतिक तत्त्व या प्रात्मा का गुण नहीं मान सकते । चैतन्य परम सत्य या शाश्वत सत्य नहीं है और न इसका स्वतन्त्र अस्तित्व ही है । यह सदैव देह से युक्त रहता है। इसे देह से भिन्न किसी से नहीं देखा। यह एक प्राकृतिक घटना मात्र है। चैतन्य को शरीर का गुण कहकर अथवा चेतन को ही आत्मा कहकर जड़वादियों ने संस्कार, प्रारब्ध, भाग्यवाद, कर्मवाद आदि को अपने दर्शन में स्थान नहीं दिया । भावी जीवन, पुनर्जीवन, स्वर्ग, नरक आदि का भय या प्रलोभन अर्थशून्य हो जाता है क्योंकि आत्मा की अमरता मिथ्या है और मृत्यू जीवन का अन्त है। चार्वाक नैतिकता-आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग, कर्मभोग की धारणाओं का निराकरण करके चार्वाक ने त्याग, अपरिग्रह, संन्यास, सार्वभौम परोपकारिता की उपेक्षा की और कहा है कि वैयक्तिक सुख ही एकमात्र सत्य है। जड़वादी दष्टिकोण से उन्होंने जीवन के मूल्य को समझने का प्रयास किया और सुखभोग को ही परम और प्रत्यक्ष ध्येय माना। चार्वाक का जड़वादी दृष्टिकोण उसे भोग-विलास की ओर ले जाता है। जीवन के मूल में स्त्री और पुरुष का मिलन है। इन्द्रियों का सम्भोग या विलास ही जीवन है। जीवन सुखभोग के लिए है। उसकी उपेक्षा करना हास्यास्पद है। यह पेड़ की उस शाखा को काटना है जिस पर कि व्यक्ति स्वयं बैठा है। परम ध्येय : काम-भारतीय दार्शनिकों ने चार पुरुषार्थ (मानवोचित गुण) माने हैं : अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष । किन्तु चार्वाक-दर्शन ने अर्थ और काम को ही स्वीकार किया है। धर्म और अधर्म एवं पाप और पुण्य का भेद शास्त्रसम्मत है और शास्त्र को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। शरीर का सुख-दुःख-से अविच्छेद्य सम्बन्ध है तथा सुख-दु:ख सापेक्ष हैं । अतः मोक्ष एवं दुःख-विनाश मृत्यु का सूचक है । मृत्यु की कामना करना विवेक-सम्मत नहीं है। उपर्युक्त तर्क के आधार पर चार्वाक यह समझाते हैं कि धर्म और मोक्ष को हम जीवन का लक्ष्य नहीं मान सकते । अर्थ साधन मात्र है और इसलिए अभीप्सित है। निःस्पृहता अवांछनीय-सभी भारतीय दार्शनिकों की भाँति चार्वाक यह मानते हैं कि जीवन में दुःख है। दुःख को स्वीकार करने पर भी चार्वाक दार्शनिकों का अन्य दार्शनिकों से मतभेद है। अन्य दार्शनिकों का यह कहना है कि दुःख की पूर्ण निवृत्ति या विनाश सम्भव है और दुःख-विनाश की यह अवस्था ही मुक्ति है । कुछ यह मानते हैं कि मुक्ति मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होती है और चार्वाक-दर्शन | ३३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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