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________________ नहीं दे देता ? जब तक जीवन है मनुष्य को सुखपूर्वक रहना चाहिए। ऋण लेकर भी उसे घी पीना चाहिए। जब एक बार देह भस्म हो जाती है तो वह फिर कैसे आ सकती है ? अतः ये जो अनेक धार्मिक विधियाँ दीखती हैं उन्हें ब्राह्मणों ने अपनी जीविका-उपार्जन के लिए ही चलाया है। वेद के प्रणेता भाण्ड, धूर्त और पिशाच थे। धूर्त पण्डितों ने अलौकिक सत्ता, ईश्वर, आत्मा तथा स्वर्ग का प्रलोभन देकर क्षीण बुद्धिवालों को बेवकूफ बनाया। __ जड़वादी दर्शन : प्रत्यक्ष पर आधारित -निश्चित अथवा यथार्थ ज्ञान को प्रमा कहते हैं और चार्वाक यह मानते हैं कि प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त ज्ञान ही प्रमा है। ज्ञान को प्रत्यक्ष तक सीमित करके उन्होंने शब्द (लौकिक और वैदिक), अनुमान, कार्य-कारण सम्बन्ध अथवा किसी अन्य प्रकार की व्याप्ति को अस्वीकार कर दिया । ज्ञान विशिष्ट संवेदनों तक सीमित है । वस्तुओं के अनिवार्य सम्बन्ध की स्थापना नहीं कर सकते । स्वर्ग, नरक, भगवान्, परलोक, प्रात्मा की अमरता आदि, किसी के बारे में कुछ नहीं कह सकते। अतीत गत हो चुका है और भावी अनागत तथा अज्ञेय है । प्रत्यक्ष के आधार पर वर्तमान ही एकमात्र सत्य है। हम यह नहीं जानते कि मृत्यु के बाद शरीर कहाँ जाता है अथवा यह शरीर दुबारा मिलेगा या नहीं । अनुभव बतलाता है कि मत्यु सबका अन्त है : जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है, और जो अप्रत्यक्ष है वह अस्तित्वरहित है। जड़ ही एकमात्र सत्य है। इसका ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त होता है। ऐसे वस्तुवाद के साथ चार्वाकों ने अनेकतावाद को भी अपनाया है। उनके अनुसार चार स्थूल भूत हैं : पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु । वे आकाश और इन भूतों के सूक्ष्म रूपों को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनका इन्द्रियजन्य ज्ञान असम्भव है। उनके अनुसार स्थूल भूतों के आधार पर विश्व की प्रत्येक वस्तु को समझा सकते हैं । भूतों के स्वतःसम्मिश्रण एवं अन्तनिहित स्वभाव के आधार पर प्रोटो-- जा से लेकर दार्शनिक के विकास तक को समझा सकते हैं। __ आत्मा के अस्तित्व को उसके प्रचलित अर्थ में स्वीकार नहीं कर सकते हैं। आत्मा को परम सत्य नहीं मान सकते हैं क्योंकि इसका इन्द्रियजन्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। आन्तरिक प्रत्यक्ष द्वारा चैतन्य को समझा सकते हैं । चैतन्य है किन्तु वह कोई अभौतिक तत्त्व या आत्मा का गुण नहीं है। जिस भाँति विभिन्न तत्त्वों के मेल से मदिरा बनती है और उसमें मादकता का गुण आ जाता है उसी भाँति चार भूतों एवं शरीर के तत्त्वों के मेल से चैतन्य बनता है। देह के विभिन्न भूतों के मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण यह देह की विशेषता या गुण ३३० / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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