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________________ मनुष्य को नैतिक जगत का नागरिक बनाने के लिए उसमें भले-बुरे का ज्ञान उत्पन्न करता है। गले-पचे, मरणोन्मुख नियमों का बहिष्कार करते समय वह अपने पालोचनात्मक एवं ध्वंसात्मक पक्ष को सम्मुख रखता है, क्योंकि नियमों और विचारों की संकीर्णता के कारण जो वैमनस्य और मानसिक संघर्ष उत्पन्न हो जाता है उसके लिए आलोचनात्मक पक्ष उतना ही आवश्यक है जितना कि कैंसर (नासूर) के रोगों के लिए शल्य-चिकित्सा । व्यक्ति समाज एवं मानवता को अवनति के पक्ष से विमुख करने के लिए ही नीतिशास्त्र अपने नकारात्मक रूप द्वारा पथप्रदर्शन का काम करता है एवं आलोचना के द्वारा सुधार करता है, आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। अन्याय से न्याय की ओर, अनुचित से उचित की ओर ले जाकर पवित्र और उपादेय नियमों का सृजन करता है। इस प्रकार वह अपने ध्वंसात्मक रूप में भी सजनात्मक और पुननिर्माणात्मक है। यही नीतिशास्त्र की विशेषता है। जीवन को सुन्दरम् और शिवम् का रूप देना ही उसका ध्येय है। __उसका ध्येय वैयक्तिक नहीं, सर्वकल्याणकारी है—आधुनिक नीतिज्ञ यह मानते हैं कि व्यक्ति और समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । बिना समाज के व्यक्ति का अस्तित्व असम्भव है और बिना व्यक्ति के समाज का अस्तित्व शून्य है। बिना सामाजिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति के आचरण पर निर्णय देना भी निरुद्देश्य तथा मूल्यरहित है। नीतिशास्त्र मनुष्य के कर्मों के औचित्य का स्पष्टीकरण उसके सामाजिक प्राणी होने के कारण ही करता है। यदि सार्वजनिक जीवन सत्य से परे एक ऐसे वैयक्तिक जीवन की कल्पना कर भी लें जिसका कि समाज से कोई सम्बन्ध न हो तो ऐसे व्यक्ति के आचरण पर नैतिक निर्णय देना कोई अर्थ नहीं रखेगा। व्यक्ति और समाज के अनन्य सम्बन्ध के कारण ही नीतिज्ञों ने यह सिद्ध कर दिया है कि सामाजिक सुख से विच्छिन्न व्यक्तिगत सुख और व्यक्तिगत सुख से विच्छिन्न सामाजिक सुख की धारणा भ्रमात्मक है। अतः जीवन का ध्येय केवल व्यक्ति अथवा केवल समाज का ही कल्याण नहीं है, यह सर्वकल्याणकारी है। विवेकसम्मत धर्म-धर्म और अधर्म, इन दो शब्दों को किसी-न-किसी रूप में बच्चा बोध होने के साथ ही सुनता है । धर्म साधारणतः किसी विशिष्ट सम्प्रदाय या रूढ़ि-रीति और औचित्य का सूचक है । एक ओर धर्म का विवेकसम्मत रूप मिलता है और दूसरी ओर रूढ़ि-जर्जर प्रचलित रूप। अपने विवेकसम्मत रूप में वह विश्व-प्रेम, ऐक्य और देवत्व का सन्देश देता है और अपने प्रचलित रूप नैतिक समस्या | २५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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