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________________ तत्त्वदर्शकों अथवा धार्मिक विचारकों की भांति ईश्वर, परमतत्त्व, जीवनी-शक्ति और विश्व-प्रयोजन को महत्त्व नहीं दिया। उसने प्राकृतिक नियमों का निरीक्षण तथा वृक्ष, पशु-पक्षियों के जीवन का अध्ययन करके उसके आधार पर क्रमविकास को समझाया । डार्विन ने विकास के क्रम को 'प्राकृतिक चयन', जीवनसंघर्ष, परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तन, योग्यतम की विजय और प्रानुवंशिकता. द्वारा समझाया । उसका कहना है कि जीवयोनियों में परिवर्तन होते रहते हैं । उसका कारण यह है कि जीवित रहने के लिए उन्हें परिस्थितियों से संघर्ष करना पड़ता है । प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए अपने परिवेश तथा अन्य प्राणियों के साथ संघर्ष करना पड़ता है । इसमें वही जीव बच पाते हैं जो वातावरण के अनुरूप अपने को बदल सकते हैं । 'अनुकूल परिवर्तन वाली जीवयोनियां सुरक्षित रहती हैं और प्रतिकूल वाली नष्ट हो जाती हैं।' अनुकूल परिवर्तन वाली योग्यतम जीवयोनियां जीवन-संघर्ष में जीवित रहती हैं और परिवर्तनों द्वारा नयी जातियों को भी उत्पन्न करती हैं । डार्विन वंशपरम्परा के शरीरशास्त्र-सम्बन्धी सिद्धान्त को मानता है । वह जातियों के गुण, स्वरूप और स्वभाव को निर्धारित करने के लिए आनुवंशिकता की सहायता लेता है। प्रानुवंशिकता के कारण ही पिता के जीवन-रक्षण के लिए उपयोगी अवयव और योग्यताएं बच्चों में स्वतः प्रेषित हो जाती हैं। माता-पिता के मानस में जो बदलाव आते हैं उन्हें सन्तति आनुवंशिकता के रूप में ग्रहण करती है । इस भाँति वह सिद्ध करता है कि जीवन का विकास संघर्ष के रूप में होता है। प्राकृतिक चयन में योग्यतम जीवित रहते हैं और उन्हीं की वृद्धि होती है। वास्तव में देखा जाये तो इस सिद्धान्त का नीतिशास्त्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह प्राकृतिक नियम और घटनामों का विश्लेषण कर उन पर तथ्यमूलक निर्णय देता है और दूसरी पोर नीतिशास्त्र जीवन के उद्देश्य को समझाता है। उसके निर्णय मूल्यपरक होते हैं। नीतिशास्त्र की मान्यताप्रों का भूत से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। उसका प्रत्यक्ष क्षेत्र वर्तमान और भविष्य है। फिर भी यह मानना होगा कि डार्विन के सिद्धान्त ने नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण में भारी परिवर्तन ला दिया। वह परिवर्तन कितने स्थायी मूल्य का है, इसका ज्ञान नैतिक विकासवाद का अध्ययन होगा। विचारकों द्वारा विकासवाद की व्याख्या-डार्विन ने अपने विकासवाद द्वारा मुख्यतः यह बताया कि जीवयोनियों में परिवर्तन होता है। मनुष्य का मूलस्रोत प्रोटोप्लास्म है और विकास के क्रम में जीव प्रोटोप्लाज्म की स्थिति विकासवादी सुखवाद / १७६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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