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मनुष्य का स्वभाव : सामाजिक - मनुष्य और समाज के प्रान्तरिक सम्बन्ध को वह मनुष्य-स्वभाव के सामाजिक पक्ष की दुहाई देकर समझाता है । वह कहता है कि मनुष्य के स्वभाव तथा उसकी प्रवृत्तियों के अध्ययन द्वारा हम सिद्ध कर सकते हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है । इन सामाजिक प्रवृत्तियों को समझाने के लिए वह तीन तर्क प्रस्तुत करता है । (१) मनुष्य में परोपकार का स्वाभाविक सिद्धान्त मिलता है । परोपकार के कारण ही मनुष्य दूसरों के शुभ को प्रत्यक्ष रूप से खोजता है और दूसरों के कल्याण में सन्तोष प्राप्त करता है । उसके अनुसार मनुष्य की सत्र प्रवृत्तियाँ स्वार्थी नहीं हैं । दया, मित्रता, पितृस्नेह, अपत्यप्रम आदि प्रवृत्तियाँ स्वार्थ निरपेक्ष हैं । इन प्रवृत्तियों - के कारण मनुष्य उसी प्रकार दूसरों के सुख की चिन्ता करता है जिस प्रकार आत्मप्रेम के कारण निजी सुख की । ( २ ) लोक प्रवृत्तियाँ वे प्रवृत्तियाँ हैं जिनको न तो हम परोपकार के वर्ग में रख सकते हैं और न श्रात्म-प्रेम के । वे इन दोनों से भिन्न हैं, क्योंकि वे केवल वैयक्तिक और लोक-हित की ही उन्नति नहीं करतीं बल्कि समान रूप से दोनों की वृद्धि करती हैं । व्यक्त रूप से वे कुछ विशिष्ट ध्येयों -- सामाजिक प्रेम, दूसरों का प्रदर, आत्म-सम्मान की इच्छा, कुकर्मों के प्रति घृणा आदि - की प्राप्ति के लिए प्रयास करती हैं किन्तु अव्यक्त रूप से वे सामान्य सुख की वृद्धि करती हैं । इस प्रकार वे सामाजिक एकता को स्थापित करने में क्रियाशील रहती हैं । ( ३ ) अन्तर्बोध या चिन्तन का सिद्धान्त : इसके द्वारा व्यक्ति अपने हृदय, स्वभाव और कर्मों का समर्थन या असमर्थन करता है । अन्तर्बोध नैतिक समर्थन और समर्थन की शक्ति है । मनुष्य-स्वभाव में जो दो विरोधी प्रवृत्तियाँ, स्वार्थमूलक और परार्थमूलक अथवा आत्मप्रेम और परोपकार की मिलती हैं उन प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखने के लिए ही अन्तर्बोध या चिन्तन का सिद्धान्त है । अन्तर्बोध-विरोधी प्रवृत्तियों को सुनिर्देशित करता है अतः वह उन दोनों से श्रेष्ठ है । अन्तर्बोध मनुष्य को आत्महित के समान ही लोकहित के लिए कार्य करने को प्रेरित करता है । यही कारण है कि यदि किसी व्यक्ति में परोपकार की प्रवृत्ति क्षीण होती है तो अन्तर्बोध उस कमी को दूर कर देता है ।
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मानव स्वभाव भी एक विधान है - मनुष्य-स्वभाव की प्रवृत्तियों के विश्लेषण द्वारा बटलर ने यह समझाया कि मनुष्य का मानस प्रवयविक समग्रता या संयोजित पूर्णता है । वह विरोधी तत्त्वों का समुदायमात्र नहीं है । मानवजाति भी केवल व्यक्तियों का समूह नहीं है प्रत्युत वह एक सुव्यवस्थित अंगी या
सहजज्ञानवाद ( परिशेष) / २५५
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