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________________ जोर देते हैं कि रूढ़ि-रीतियों, ईश्वरीय नियमों, प्राप्त वाक्यों, श्रुतिसम्मत मतों, प्रागम-निगमों के रहस्यों, धार्मिक आस्थाओं और कथनों को बुद्धि से ग्रहण करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। क्योंकि केवल वही लोग (पादरी, मसीहा, पण्डित आदि) इन्हें समझ सकते हैं जिन्हें भगवद् अनुकम्पा प्राप्त है। जनसाधारण यदि इनके उपदेशों और आदेशों को नतमस्तक होकर स्वीकार नहीं करेगा तो उसे भयंकर यातनाएं सहनी पड़ेगी। अनैतिक नियम-यातनाओं से त्रस्त और भयभीत व्यक्तियों ने प्रचलित नैतिकता के अनुरूप कर्म को शुभ और उचित कहा। नैतिक दृष्टि से जिन्हें विवेकसम्मत कर्म कहते हैं वे प्रचलित नैतिकता के उपासकों के पलड़े में अनैतिक उतरे। नरक, भगवान् और शक्तिशाली व्यक्तियों से घबड़ाकर जनसाधारण ने अन्धविश्वासों और प्रचलनों को अपना सम्बल बनाया। वह आस्थाओं, विश्वासों, रूढ़ि-रीतियों एवं बाह्य आदेशों का जीवन बिताने लगा। एक ओर तो जनसाधारण बाह्याडम्बर, शारीरिक कष्ट, सामाजिक नियम, धार्मिक विधि पर आधारित अबौद्धिक जीवन बिताने लगा, दूसरी ओर समाज के लालची पण्डितों, शक्तिशाली व्यक्तियों, कूटनीतिज्ञों ने धर्म के नाम पर अत्याचार करने प्रारम्भ किये । नैतिकता की आड़ में अमानुषीय कर्म होने लगे एवं अत्यन्त क्रूर तथा रोमहर्षक नियम बनने लगे । फलस्वरूप सती-प्रथा, दास-प्रथा, बाल-विवाह, बहपत्नी-प्रथा, देवदासी-प्रथा आदि असभ्य रीतियाँ फैलने लगीं। इस रूप में प्रचलित नैतिकता ने मानव-कल्याण के बदले रक्तपात करवाया। समाज में एकता, स्नेह, प्रेम, सहृदयता, प्रात्म-त्याग आदि के बदले स्वार्थ, लोभ, द्वेष, क्रोध, भेदभाव, मनोमालिन्य आदि दुष्प्रवृत्तियों का राज्य स्थापित हुआ। . कमियों को दूर करने का प्रयास-विवेकशून्य होकर नियमों का पालन करनेवालों को पग-पग पर अधिक नियमों की आवश्यकता हुई और प्रचलित नैतिकता का विधान व्यापक और विशाल होता गया। किन्तु लोगों को वह फिर भी व्यावहारिक सहायता नहीं पहुंचा सका। उनका पथ-प्रदर्शन करना तो दूर रहा, विधान की व्यापकता अपने-आपको ही नहीं संभाल सकी। उसमें आन्तरिक विरोध पैदा होने लगे। साधारण मनुष्य के लिए अपना कर्तव्य निर्धारित करना कठिन हो गया। यदि वह एक नियम को मानता है तो दूसरे का उल्लंघन करता है। पिता का कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों का पालनपोषण करे, नागरिक होने के नाते उसका यह भी कर्तव्य है कि वह देश की रक्षा के लिए युद्ध करे। धर्म-ग्रन्थों के अनुसार 'झूठ नहीं बोलना चाहिए' एवं १०६ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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