SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 1 'आर्त की रक्षा करनी चाहिए' किन्तु जब तक कर्ता को विषम स्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा तब तक तो ऐसे प्रदेश ग्राह्य हो सके पर यदि कभी ऐसी स्थिति आ गयी कि आर्त की रक्षा के लिए झूठ बोलना श्रावश्यक हो गया अथवा सच बोलकर आर्त की रक्षा करना सम्भव नहीं हो सका तो मनुष्य अपने को असहाय स्थिति में पाता है । उसकी समझ में नहीं आता है कि वह क्या करे । नैतिक नियमों का जब सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि नियमों से विरोध होता है तब भी कर्ता असमंजस में पड़ जाता है । इस कारण कुछ लोगों ने इन नियमों को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। उदाहरणार्थ, मनुस्मृति में कर्तव्य की व्यापक व्याख्या मिलती है । यह सच है कि कुछ हद तक व्यवस्थित नैतिक विधान बनाने में सफलता भी प्राप्त हुई है । समाज में अथवा व्यक्तियों के समुदाय में एक मत मिल सकता है । जनसाधारण के विचारों में वंशपरम्परा, वातावरण, शिक्षा आदि के कारण समानता मिलना दुर्लभ नहीं है । विचारों की समानता के आधार पर नैतिक कर्तव्यों की रूपरेखा बनायी जा सकती है । किन्तु ऐसे नियम सदैव प्रचलित नैतिकता के अंग रहेंगे । नैतिकता जनसाधारण के विचारों की समानता की सूचक नहीं है, वह ध्येय की प्राप्ति के लिए शुभ नियमों का निर्देशन करती है । कर्तव्यों का विधान बनाने -- वालों ने चरम ध्येय अथवा उद्देश्य को समझने का प्रयास नहीं किया । उनका नैतिक विधान ध्येय की संगति को प्राप्त नहीं कर सका । वह आन्तरिक विरोध से नियमों को मुक्त न कर सका । अतः ऐसे विधानों को सन्तोषप्रद मान लेने पर भी सार्वभौम मूल्य की दृष्टि से सफल नहीं कह सकते । पहले तो जीवन की प्रत्येक भिन्न परिस्थिति के लिए आचरण का नियम बनाना अपनी प्रति-व्यापकता के कारण एक असम्भव प्रयास है । परिस्थितियों की विभिन्नता और विषमता अनन्त कर्तव्यों की अपेक्षा रखती है । परिस्थिति, देश और काल के अनुसार कर्तव्य का रूप बदल जाता है, अनन्त कर्तव्यों को समझना, उनकी गणना करना, उन्हें लिपिबद्ध करना, मानव शक्ति के परे है और यदि थोड़ी देर को यह मान भी लें, तो क्या मनुष्य की स्मरण शक्ति अनन्त नियमों को याद रख सकती है ? क्या सदैव नियमों को याद रखकर उनके अनुरूप बिना. सोचे-समझे ही कर्म करनेवाला व्यक्ति नैतिक है ? क्या ऐसे समस्त नियमों एवं प्रदेशों का पालन करना बौद्धिक और विवेकसम्मत है ? वास्तव में बिना ध्येय को समझे न तो आचरण का मार्ग निर्धारित किया जा सकता है और न नियमों के विरोध को दूर ही किया जा सकता है । नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड ) / १०७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy