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बाघ-नियम की सीमाएं-यदि हम आचरण के नियम को सार्वभौम भी मान लें तो हम देखते हैं कि सब कर्म वैयक्तिक और विशिष्ट होते हैं। नियम के लिए यह सुझाव देना आवश्यक है कि विशिष्ट कर्तव्यों का स्वरूप कैसा होना चाहिए । कर्तव्य की चेतना से यह कैसे समझ सकते हैं कि सत्य बोलना उचित है अथवा चोरी करना अनुचित है। यह कैसे मालूम होता है कि वर्तमान परिस्थिति में क्या करना उचित है। काण्ट ने बौद्धिक संगति के नियम अथवा बाघ-नियम को दिया है, किन्तु बाध-नियम को मनुष्य के पौचित्य और अनौचित्य को समझाने के लिए स्वीकार नहीं किया जा सकता। बाध-नियम भाववाचक है। यह बतलाता है कि एक ही काम उचित और अनुचित दोनों नहीं हो सकता । यह कथन तार्किक रूप से उचित होने पर भी वास्तविक एवं व्यावहारिक दृष्टि से अनुचित है । उदाहरणार्थ, बाध-नियम के अनुसार चोरी करना उचित और अनुचित दोनों ही नहीं हो सकता। किन्तु जीवन के तथ्य बतलाते हैं कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में चोरी करना उचित है और कुछ में अनुचित । ताकिक दृष्टि से जो संगति आवश्यक है वह तथ्य की दृष्टि से भ्रान्तिपूर्ण है। जहाँ तक वास्तविकता एवं तथ्यों का प्रश्न है, कुछ अपवाद मानने पड़ेंगे। शब्दों के व्यावहारिक अर्थ बदलते रहते हैं। काण्ट चिन्तन के बाध-नियम को अपनाने में इतना लीन रहा कि उसने अपने नीतिवाक्यों को प्रत्यक्ष व्यावहारिक जगत् से दूर कर दिया । काण्ट की आचरण विधि का सार्वभौम रूप अव्यावहारिक है। उसमें अंपवाद के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता । अपनी दृढ़ता के कारण वह हानिप्रद कर्म करा सकता है। मानव-जाति के संरक्षण के लिए विवाह करना उचित है, पर यदि कोई व्यक्ति किसी असाध्य रोग से पीड़ित हो जाता है तो मानव-जाति के हित के लिए उसे विवाह के बन्धन में नहीं पड़ना चाहिए। काण्ट का सिद्धान्त ऐसी स्थिति में सहायक नहीं है। नैतिक सिद्धान्त को रूपात्मक और विषयहीन कहकर उसने बड़ी भारी भूल की। यही उसके नीतिवाक्यों को अमूर्त और अव्यावहारिक बना देता है। उसका कर्तव्य का सिद्धान्त अपने-आपमें अपूर्ण हो जाता है। बिना कर्तव्य के स्वरूप को निर्धारित किये अथवा बिना ध्येय की परिभाषा दिये आचरण के व्यावहारिक नियमों को समझना कठिन है। प्रत्येक कर्म और घटना का अपना मूल्य है । उसे समझने के लिए प्रेरणा और परिणाम एवं सम्पूर्ण परिस्थिति को समझना अनिवार्य है। काण्ट कर्मों का मूल्यांकन केवल प्रेरणा द्वारा करता है और परिणाम को नैतिक दृष्टि से मूल्यहीन कह देता है ।
२२६ / नीतिशास्त्र
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