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________________ भावना का नैतिक मूल्य - बिना भावनाओं को स्वीकार किये काण्ट का पूर्णता का राज्य ( सबसे अधिक व्यापक नीतिवाक्य) भी अवास्तविक हो जाता है । एकता की भावना ही व्यक्तियों को एक-दूसरे से युक्त कर सकती है । बुद्धि सार्वभौम होने पर भी उस पारस्परिक आकर्षण एवं एकता, सहृदयता और आत्मीयता को नहीं ला सकती जो दूसरों के साथ सम्बन्धित करने के लिए आवश्यक है । प्रेम, स्नेह, सहानुभूति श्रादि ही ऐसी सक्रिय शक्तियाँ हैं जिनके कारण व्यक्ति अपने को दूसरों में देखता है। उनके सुख को अपना सुख समझता है । यही कारण है कि बुद्धिपरतावादियों का सिद्धान्त सार्वभौम बुद्धि को मानने पर भी वैयक्तिक रहा है, उनके मतावलम्बियों का जीवन आत्म-निमग्न रहा है । " भ्रान्तिपूर्ण मनोविज्ञान — काण्ट बुद्धि और इन्द्रियों के परम द्वैत को स्वीकार करता है । बुद्धि के कारण ही मनुष्य पशु से भिन्न एवं श्रेष्ठ है । अतः उसे बौद्धिक जीवन बिताना चाहिए। उसके जीवन में इन्द्रियपरता के लिए कोई स्थान नहीं है । कर्तव्य करते समय इच्छात्रों, भावनाओं एवं प्रवृत्तियों की ओर से विमुख हो जाना चाहिए। नैतिक व्यक्ति को कर्तव्य के सिद्धान्त अथवा आत्म- आरोपित नियम को समझना चाहिए। उसे उन उच्छृंखल प्रवृत्तियों के प्रति जागरूक रहना चाहिए जो कर्तव्य की विरोधी हैं । उसे सदैव कर्तव्य के लिए कर्म करना चाहिए । देश, काल, स्थान, परिस्थिति आदि नैतिकता को निर्धारित नहीं करते हैं । कर्तव्य के आदेश के निरपेक्ष और सर्वोच्च रूप को समझाने के लिए वह नीतिज्ञों के विपरीत यह तक कह देता है कि यदि कर्म की उत्पत्ति कर्तव्य के प्रति श्रद्धा से नहीं है तो वह नैतिक नहीं है । दयालु भावनाओं, परमार्थी प्रवृत्तियों, सहानुभूति, स्नेह, दया आदि से प्रेरित कर्म शुभ नहीं हैं । कर्तव्य की प्रेरणा ही एकमात्र शुभ प्रेरणा है । इसमें सन्देह नहीं कि काण्ट का ऐसा दर्शन प्रत्यन्त कठोर और निःस्पृह हो गया है। आलोचकों का यह कहना है कि काण्ट ने अपने सिद्धान्त में भावनाओं, स्थायीभाव आदि को पर्याप्त स्थान नहीं दिया है । स्थान देना तो दूर रहा, वह मानव-स्वभाव का अवास्तविक विश्लेषण करता है, जो भ्रान्तिपूर्ण मनोविज्ञान पर आधारित है । उसने सब स्वाभाविक प्रेरणाओं को स्वार्थी और सुखवादी कहा है। ऐसे उम्र मत को अपनाकर उसने अपने सिद्धान्त को अमान्य बना दिया है । मानव-कर्म मौर सद्गुण न तो भावना शून्य हैं और न भावना उनका अप्रमुख गुण है । वह उनके मूलगत स्वरूप का अंग है । काण्ट की रचनाओं में निर्ममता की प्रवृत्ति मिलती है । Jain Education International बुद्धिपरतावाद (परिशेष) / २२७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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