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________________ सिद्धान्त में अस्पष्टता : भावनाएं प्रात्म-सन्तोष का अंग-अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करते समय काण्ट ने कई स्थलों में प्रत्यन्त संक्षिप्त तर्क प्रस्तुत किये हैं। एक प्रमाण से दूसरे प्रमाण में आने में शीघ्रता दिखलायी है। ऐसी शैली पाठक को दुविधा में डाल देती है। उसे असंगतियाँ दिखलायी पड़ती हैं। शुद्ध व्यावहारिक बुद्धि का वर्णन करते समय वह कहता है कि इसका आदेश कर्ता से कहता है कि जब कर्तव्य का प्रश्न उठता है तो इच्छाओं की ओर से विमुख हो जाना चाहिए। जब इसका कर्तव्य से विरोध नहीं होता है तब इसके अधिकार बुद्धि नहीं छीनती है। ऐसी स्थिति में कर्ता सुख खोज सकता है । पर जब कर्तव्य और प्रवृत्तियों के प्रश्न को वह उठाता है तो वह यह मान लेता है कि बौद्धिक व्यक्ति प्रवृत्तियों से पूर्ण रूप से मुक्त होना चाहेगा । किन्तु इन्द्रियों का समूल नाश करके व्यक्ति नैतिकता को प्राप्त नहीं कर सकता। इच्छात्रों का हनन करके आत्म-सन्तोष नहीं मिलता। वास्तव में बुद्धि और भावना एक-दूसरे की पूरक हैं, विरोधी नहीं । इच्छाओं को उचित मार्ग दिखलाना बुद्धि का काम है । गुणवान् या नैतिक व्यक्ति वह है जो इच्छाओं को सन्मार्गी बनाता है, उनका उन्नयन करता है। इच्छात्रों का दमन करना सदगुण नहीं है । सद्गुणी व्यक्ति इच्छाओं से स्वतन्त्र नहीं है। ऐसी स्वतन्त्रता मरघट में ही प्राप्त हो सकती है। इच्छाओं द्वारा विरोध होने पर भी उचित मार्ग को ढंढ लेना नैतिक गुण है। बिना भावनाओं के नैतिकता विषय-शून्य है। भावनाओं के निराकरण को अनावश्यक महत्त्व देकर काण्ट ने अपने नीतिशास्त्र को रूपात्मक बना दिया। नैतिकता के रूप और विषय में भेद कर दिया। भावनाहीन जीवन को जीवन कहना उतना ही विचित्र है जितना आम से उसकी मिठास को निकालकर उसे प्राम कहना । बुद्धि और भावना का संयुक्त जीवन ही जीवन है। नैतिक दृष्टि से भी भावनाहीन जीवन को नैतिक नहीं मान सकते। यह बौद्धिक या चिन्तनप्रधान जीवन है। लतिकता के उपादान इन्द्रियों से आते हैं। बुद्धि और भावनाओं का द्वैत नैतिक समस्या को उत्पन्न करता है । भावनाओं का निराकरण करना इस समस्या का निराकरण करना है। इच्छाओं का दमन करके वैराग्यवाद स्वयं अपने ध्येय में हार जाता है । वह अपने आदर्श को प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि बिना भावनाओं के कर्म सम्भव नहीं है । ये जीवन की संचालक शक्ति हैं। सम्पूर्ण इन्द्रियबोध जीवन को अवास्तविक कहकर त्याग नहीं सकते हैं। नैतिक कर्तव्य सब इच्छाओं और प्रवृत्तियों के हनन का आदेश नहीं देता। वह केवल उन इच्छाओं की ओर से २२८ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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