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________________ अर्थात् Summum bonum) से अभिप्राय उस परमध्येय (ultimate end) से है जो अपने आपमें परिपूर्ण है। पूर्णता जिसका अन्तर्जात गुण है। नैतिक दृष्टि से साध्य और साधन में कोई विशेष भेद नहीं है। जो एक दृष्टि से साधन है वही दूसरी दृष्टि से परिणामतः साध्य हो सकता है। शुभ और उचित में भी कोई स्पष्ट अन्तर नहीं है। दोनों का अधिकतर एक ही अर्थ में प्रयोग होता है। उसी ध्येय और कर्म को शुभ और उचित कहेंगे जो कि परमध्येय की प्राप्ति में सहायक होता है। परमशुभ का अभिप्राय-परमशुभ वह है जो अपने आपमें मूल्यवान् है, जिसके लिए और सब कर्म साधनमात्र हैं। शुभ की सर्वोच्च स्थिति ही परमशुभ की स्थिति है । शुभ के, मात्राओं के अनुसार, अनेक भेद होते हैं । शुभ, अधिकशुभ, परमशुभ आदि । अथवा शुभ की एक ऋमिक श्रेणी होती है और इसकी सर्वोत्तम स्थिति ही परमशुभ की स्थिति है । परमशुभ को निर्धारित करना ही नीतिशास्त्र का ध्येय है। परमशुभ के अनुरूप ही वह कर्मों को शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित कहता है। परमशुभ या परमलक्ष्य से क्या अभिप्राय है ? निःश्रेयस का क्या रूप है ? जीवन का क्या ध्येय है ? नैतिक आदर्श किसे कहते हैं ? उपर्यक्त सभी प्रश्न पर्यायवाची हैं। वे एक ही साध्य के सूचक हैं ? नीतिशास्त्र इसी साध्य को जानने का प्रयास है । यह साध्य वह संगतिपूर्ण इकाई है जिसका सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है। मनुष्यों के स्वभाव का विवेचन करने से यह स्पष्ट हो जायेगा कि उनमें जीवन के ध्येय के बारे में मतभेद होता है। कोई यश का अभिलाषी है, कोई धन का और कोई जीवन में, आनन्द और उल्लास का। एक ओर भभूत लगाकर, कोपीन पहनकर घूमनेवाले वैरागी, संन्यासी हैं और दूसरी ओर आमोद-प्रमोद, भोग-विलास में रत रहनेवाले इन्द्रियजीवी। प्रश्न यह है कि नैतिक दृष्टि से जीवन का ध्येय एक है अथवा अनेक । यदि एक है तो इन विभिन्न ध्येयों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। नीतिशास्त्र मनुष्य के अनुभव या प्राचार के किसी विशिष्ट क्षेत्र तक अपने को सीमित नहीं रखता है। वह समस्त आचारों अथवा सम्पूर्ण अनुभवों का अध्ययन करता है। और इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि इच्छित कर्म और वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं : वह जो स्वतः मूल्यवान् हैं और वह जो उपयोगी हैं। प्रथम प्रकार के कर्मों के गुण मौलिक, प्राभ्यन्तरिक और निरपेक्ष हैं। दूसरे प्रकार के कर्मों के गुण गौण, बाह्य, और सापेक्ष हैं । एक साध्य है और दूसरा साधन है। नैतिक समस्या | २१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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