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________________ मनुष्य जानना चाहता है कि जीवन किस सत्य पर आधृत है-वह सत्य व्यवस्थित तथा सन्तुलित है, अथवा अव्यवस्थित तथा संगतिहीन । जीवन का मूलतः क्या अर्थ है, और वह क्यों रहने योग्य है । यह स्वीकार करना उचित होगा कि प्रत्येक व्यक्ति स्वभावतः कर्मशील है और उसी के अनिवार्य परिणाम-स्वरूप वह नैतिक है । जनसाधारण का चिन्तन अधिकतर अव्यवस्थित, अस्पष्ट और विरल होता है । स्पष्ट और पूर्ण पाचरण का सिद्धान्त दीर्घ-प्रयास का फल है। गूढ़ नैतिक सिद्धान्त को तटस्थ जिज्ञासु ही जन्म दे सकता है-अथवा वह व्यक्ति जो आवश्यकताओं और विरोधों से ऊपर उठकर जीवन को उसकी पूर्णता में देखने का प्रयास करता है। नैतिक ज्ञान द्वारा वह सत्य को केवल बौद्धिक रूप से ग्रहण ही नहीं करता, वह उससे अपने प्राचरण का भी उन्नयन कर सत्य को भी आत्मसात् करता है। इस तथ्य को लक्षित करते हुए एक महान् विचारक ने कहा है कि नीतिज्ञ का चिरस्थायी अनुराग सैद्धान्तिक और व्यावहारिक है। यूनानी नीतिज्ञ, सूकरात की भाषा में 'ज्ञान सद्गुण है', सत्य का ज्ञाता अनिवार्य रूप से सत्य का मार्ग ग्रहण करेगा। बुद्ध ने भी प्रज्ञा और शील के ऐक्य को महत्त्व दिया है। परिपक्व नैतिकता व्यक्ति तथा राष्ट्र की बौद्धिक अन्तर्दष्टि को जाग्रत करती है; सामाजिक संगठनों और विभिन्न संस्थानों को सामूहिक रूप से वांछनीय ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रेरणा देती है; वह व्यक्ति को प्रवत्ति मार्ग की ओर अग्रसर कर उसे कर्मयोग का सन्देश देती है । गांधी की सत्य-अहिंसा की नैतिकता कर्मयोग की नैतिकता है। नैतिक सिद्धान्त आदर्श-विधायक होने के कारण व्यक्ति को उचित कर्म करने के लिए बाधित न कर उसे प्रेरित करता है । वह सजग, प्रबुद्ध प्राणी को उन पथ-प्रदर्शक नियमों का ज्ञान देता है जिसके द्वारा वह अपने कर्मों को सुनियन्त्रित कर सकता है। नैतिक जीवन कोरा नियमों अथवा सिद्धान्तों का जीवन नहीं है। वह शुष्क बुद्धिवाद भी नहीं है। वह आचरण के लिए कठोर नियमों, निश्चित साधनों का प्रतिपादन नहीं करता, वह व्यक्ति की बौद्धिक अन्तर्दष्टि को जाग्रत कर नैतिक जीवन के हृदय-स्पन्दन को उसके भीतर सजीव रूप दे देता है। नैतिक सिद्धान्त का सार स्थिर नियमों के प्रतिपादन में नहीं, नैतिकता की सहज स्वाभाविक उन्नति से है। मानव-जीवन के अभ्युदय को सम्मुख रखते हुए नीतिशास्त्र प्रत्येक देश, काल के सिद्धान्त को उस युग की प्रावश्यकताओं, सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक मानता है । अतः, गूढ़ नतिक सिद्धान्त उस परम मापदण्ड की खोज करता है जो विभिन्न सिद्धान्तों को संगठित ४२ / नीतिशास्त्र ....... Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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