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________________ में संगति मानता है। उस संगति के आधार पर ही वह अधिकतम संख्या के सुख को समझाता है। किन्तु यदि स्वार्थ और परमार्थ विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं, व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध बाह्य है तो विश्वास के आधार पर वैयक्तिक और सामाजिक सुख में सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकता। बैंथम बिना सिद्ध किये ही कह देता है कि सर्वसामान्य सुख वैयक्तिक सुख में सहायक है और समाज-सुधारक के नाते कहता है कि नैतिक आदेश द्वारा स्वार्थी व्यक्ति के आचरण में सुधार कर सकते हैं। प्रेरणा, परिणाम, उद्देश्य-बैंथम के अनुसार व्यक्ति सदैव अपने सुख की प्रेरणा से कर्म करता है। किन्तु साथ ही वह यह भी कहता है कि कर्म का नैतिक मूल्य आँकने के लिए यह जानना आवश्यक है कि वह सामान्य सुख के उत्पादन में कितना सहायक है । कर्मों का नंतिक मूल्यांकन करने के लिए उनका सामाजिक परिणाम जानना महत्त्वपूर्ण है। अथवा यदि आत्म-सुख की प्रेरणा से किये हुए कर्म का परिणाम समाज के लिए-सुखप्रद है तो वह कर्म शुभ है अन्यथा अशुभ । यदि व्यक्ति स्वभाववश स्वार्थी है, वह आत्मसुख की ही खोज करता है तो अधिकतम संख्या के सुख को नैतिक मापदण्ड मानना असम्भव है। इस असम्भव को सम्भव करने के लिए बैंथम परिणाम को महत्त्व देता है। एक मोर तो वह सुखवाद के इस कथन का समर्थन करता है कि व्यक्ति एकमात्र सुख की प्रेरणा से कर्म करता है । सब प्रेरणाएँ समान हैं। उनमें कोई भेद नहीं है । वे अपने-आपमें न तो शुभ हैं और न अशुभ । वे गुणहीन हैं। किन्तु जब वे परिणाम से संयुक्त हो जाती हैं तब इनका मूल्यांकन किया जा सकता है। दूसरी ओर वह प्रेरणा को गुणरहित कहने के पश्चात् यह स्वीकार करता है कि अनुभव और वास्तविकता के आधार पर प्रेरणा को शुभ अथवा अशुभ कहा जा सकता है। वह यह मानता है कि उन प्रेरणाओं को शुभ कह सकते हैं जिनकी प्रकृति सुखप्रद परिणामों की अोर है और इसके विपरीत दुःखप्रद परिणामोंवाली प्रेरणाएँ अशुभ हैं। इस भाँति परिणाम से सम्बन्धित प्रेरणा का मूल्यांकन कर सकते हैं। प्रेरणा और परिणाम के विरोध को बैंथम यह कहकर मिटाता है कि कर्म की नैतिकता प्रेरणा पर निर्भर नहीं है बल्कि वास्तविक अथवा सम्भावित परिणाम पर । बिना परिणाम के प्रेरणा अर्थशून्य है। परिणाम से बैंथम का अभिप्राय कर्म के वास्तविक या सम्भावित फल से है। यह वह फल है जिसके लिए कर्ता पूर्ण रूप से सचेत है। यदि यह फल अथवा परिणाम सुखप्रद हैं तो कर्म शुभ हैं, अन्यथा अशुभ । साथ ही यह स्मरण रखना आवश्यक सुखवाद (परिशेष) / १४५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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