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________________ को स्वीकार करता है । कर्मों को सुख-दुःख की प्रेरणा संचालित करती है, किन्तु फिर भी उसके अनुसार नैतिक प्रादर्श श्रधिकतम संख्या का अधिकतम सुख है । कर्म का नैतिक दृष्टि से मूल्यांकन करने के लिए यह जानना श्रावश्यक है कि वह सामान्य सुख की वृद्धि कितनी करता है । स्वार्थ और परमार्थ के बीच बेंथम जो स्पष्ट रूप से विरोध मान चुका है उसका समाधान कैसे सम्भव है ? स्वार्थी व्यक्ति सामाजिक कर्तव्य करने में अपनी कौन-सी भलाई देखता है ? इन प्रश्नों का समाधान भी आवश्यक है । सुखवादी मनोविज्ञान के आधार पर बेंथम यह स्वीकार कर चुका है कि एकमात्र सुख-दुःख की प्रेरणा मनुष्य को कर्म अथवा सामाजिक कर्तव्य करने के लिए प्रेरित करती है। वैयक्तिक और सामाजिक सुख में वास्तव में कोई सामंजस्य नहीं है । यदि यह मान लें कि व्यक्ति का शुभ उसके सुख में निहित है तो वह दूसरों के सुख को क्यों चाहता है। बेंथम नैतिक श्रादेशों को महत्त्व देता है और कहता है कि प्रदेश व्यक्ति को परोपकारी श्राचरण के लिए बाधित करते हैं । आदेश बाह्य शक्तियों की भाँति हैं । ये व्यक्ति और समाज के बीच एकता स्थापित करते हैं । बेंथम के अनुसार चार प्रकार के प्रदेश हैं- भौतिक ( प्राकृतिक ), राजनीतिक, नैतिक ( प्रचलित) और धार्मिक । यही आदेश व्यक्ति के परोपकारी प्राचरण के आधारस्तम्भ हैं जो उसके सामाजिक आचरण के प्रमुख कारण हैं । वास्तव में मनुष्य की आन्तरिक प्रेरणा स्वार्थी है । किन्तु साथ ही उसका विवेक उसे बतलाता है कि यदि वह प्रदेशों का उल्लंघन करेगा तो परिणामस्वरूप उसे दुःख उठाना पड़ेगा। आदेशों को वैयक्तिक सुख के लिए उपयोगी मानकर ही व्यक्ति • परोपकारी एवं सामाजिक कर्म करता है। श्रादेशों का पालन करके वह 'एक पन्थ दो काज करता है । प्रदेश उसे वैयक्तिक सुख देते हैं और साथ ही सामान्य सुख का उत्पादन करते हैं । किन्तु प्रश्न यह है कि इस तथ्य को कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? बेंथम तर्कसम्मत कारण नहीं दे सका। वह बार-बार यह कहता है कि प्रदेश उपयोगी नियम हैं और व्यक्ति स्वभाववश उपयोगी नियमों का पालन करता है । उसका यह भी दृढ़ विश्वास था कि व्यक्तिगत सुख, सार्वजनिक सामाजिक सुख पर निर्भर है । अतः उसने कहा कि यदि वास्तविक जीवन का अध्ययन करें तो मालूम होगा कि सर्वसामान्य सुख का उत्पादन करनेवाले आचरण और व्यक्तिगत सुख का उत्पादन करनेवाले आचरण में परस्पर समरूपता और अनुरूपता पायी जाती है । इस भाँति वह एक ओर तो परमार्थी प्रवृत्ति को अस्वाभाविक कहता है और दूसरी ओर स्वार्थ और परमार्थ १४४ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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