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नैतिक सापेक्षवाद-मार्क्स ने समाज के विरोधी वर्गों के आधार पर समझाया कि नैतिक नियम शाश्वत और निरपेक्ष नहीं हैं । समाज में जो परिवर्तन मिलता है उसके मूल्य में उत्पादन और वितरण का नियम है और समाज की आर्थिक व्यवस्था ही नैतिक नियमों के स्वरूप को निर्धारित करती है । नैतिक प्रत्यय और निर्णय केवल मूल्यपरक नहीं हो सकते । मान्यताओं और आदर्शों को तथ्य से भिन्न मानना व्यर्थ है । वही नियम वास्तव में नैतिक हैं जो दलित मानवों के व्यापक और मूर्त भौतिक तथा सांस्कृतिक कल्याण से सम्बन्ध रखते हैं। आर्थिक स्थित से स्वतन्त्र नैतिक नियम असत्य हैं। आदर्शवादी और प्राध्यात्मिक नैतिकता तथा प्राचीन और प्रचलित नैतिक नियम अनैतिक हैं। इन्होंने सद्गुण और शुभ जीवन के अर्थ को नहीं समझा । नैतिक नियमों को शास्वत कहना नैतिक समस्या को हल करना नहीं है । उचित-अनुचित, शुभ-अशूभ के नैतिक प्रत्यय अपने-आपमें कुछ नहीं हैं। समाज की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में वे ही अर्थ रखते हैं। यदि यह मान लें कि चिन्तनप्रधान प्रणालियों की अपनी विशेषता है तो भी नैतिक दृष्टि एवं जीवन की वास्तविक कठिनाइयों की दष्टि से वे व्यर्थ हैं। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर मार्क्स यह भी कहता है कि जो कभी बौद्धिक था वह आज अबौद्धिक माना जाता है। दासप्रथा तथा सामन्ती समाज में दासों तथा कृषकदासों का रखना उचित माना जाता था किन्तु आज की आर्थिक व्यवस्था उसे अनुचित मानती है। अतः नैतिक नियमों को नित्य और शास्वत मानना अनुचित है। विकास के क्रम में नैतिक अनैतिक हो जाता है।
. स्वतन्त्रता का अर्थ-~-मार्क्स जड़वादी विचारक थे। उन्होंने अध्यात्मवादियों की भाँति शाश्वत चैतन्य या आत्मा को नहीं माना; उनके अनुसार प्राकृतिक जड़भूतों से उत्पन्न शरीर से ही मानस उत्पन्न होता है । मनुष्य का मानस भौतिक परिस्थितियों से स्वतन्त्र नहीं है। मानस और संकल्प उन भौतिक स्थितियों से निरूपित होता है जिन्हें कि वे व्यक्त करते हैं। ये स्थितियाँ ही उस ढाँचे का निर्माण करती हैं जिसकी सीमा के अन्दर मनुष्य स्वतन्त्र है। मार्क्स यह मान लेता है कि जड़ और मन एक दूसरे को प्रभावित करते हैं पर साथ ही वह यह सिद्ध करता है कि अन्ततः जड़ ही मानस को निर्धारित करता है। उत्पादन तथा उत्पादन-यन्त्रों पर अधिकार रखनेवाला वर्ग ही समाज के विचारों को निर्धारित करता है । ये विचार मनुष्य के मानस को प्रभावित करते हैं और उसकी इच्छात्रों और रुचियों से संयुक्त होकर उत्पादन वितरण के नियमों को
कार्ल मार्क्स / २६६
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