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________________ समझने का प्रयास करें तो मालूम पड़ेगा कि उसकी सृजन-क्रिया स्वतन्त्र और सहज नहीं है। वह परिस्थितियों की उपज है। मार्क्स अपने सिद्धान्त द्वारा यह सिद्ध करना चाहते थे कि किसी विशिष्ट समाज में जो परिवर्तन होते हैं वे उसकी आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर हैं। समाज का सांस्कृतिक जीवन, धार्मिक और नैतिक नियम, कानुनी तथा शिक्षासंस्थाएँ, सौन्दर्यशास्त्र आदि जो कुछ भी मनुष्य के आदर्शों और विचारों के प्रतीक हैं वे मूलतः आर्थिक विधान पर आश्रित हैं। नैतिक विचारों की प्रसत्यता का स्पष्टीकरण-मार्क्स नैतिक सुधार की दृष्टि से जीवन की समस्याओं का अध्ययन करते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि विश्व की आर्थिक क्रान्ति ही नैतिक क्रान्ति में प्रतिबिम्बित होती है। प्रचलित नैतिकता शोषकवर्ग की नैतिकता है। वह विरोधी वर्गों के सम्बन्ध पर आधारित है। उसमें नयी मान्यताओं का समावेश करके उसे आमूल बदलना होगा। पुरानी रूढ़िग्रस्त नैतिकता अनेक विकृतियों से पीड़ित है, वह जनता की आवश्यकताओं को नहीं समझ पायी है। मार्क्स उन सभी नैतिक विचारों को अपूर्ण और असत्य कहते हैं जो सर्वहारावर्ग की समस्याओं से दूर हैं। उनका कहना है कि शुभ-अशुभ, न्याय-अन्याय, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य की परिभाषा देनेवाले नीतिज्ञों का दर्शन भ्रान्तिपूर्ण है। क्योंकि आदर्शवादी नीतिज्ञ जीवन-संघर्ष से दूर रहे हैं, वे जीवन की आवश्यकतानों को नहीं समझ सके । उन्होंने नैतिक प्रत्ययों को अपनी ही सामाजिक और आर्थिक रचना के अन्दर देखा और उसी की भलाई के उद्देश्य से नैतिकता को जन्म दिया । उनका ज्ञान जीवन के व्यावहारिक और वास्तविक पक्ष का ज्ञान नहीं है । कोरे बुद्धिवाद का कोई वास्तविक मूल्य नहीं है। विशिष्ट वर्ग के सम्पर्क में रहनेवाला बुद्धिजीवी मानव जनसामान्य की आवश्यकतानों को नहीं समझ पाया । खातेपीते पंजीवादियों के अतिरिक्त एक बड़ी संख्या उन लोगों की है जो विचारहीन तथा कष्टसाध्य जीवन बिताते हैं और जीवन-यापन के यथेष्ट साधन तथा सुविधाएँ न होने के कारण असमय में चल देते हैं । उनकी श्रम शक्ति को निर्दय धनिक खरीद लेते हैं। चिन्तन के जगत में रहनेवाले नीतिज्ञ जीवन की नग्न और वास्तविक समस्याओं को नहीं सुलझा पाये । उन्होंने उन अमूर्त मान्यतानों और असत्य विचारों को जन्म दिया जो त्रस्त और भूखे सर्वहारावर्ग के लिए अहितकर हैं। उनका दर्शन अपने ही अभिभावक समाज एवं शोषकवर्ग के लाभ के लिए है। २९८ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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