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________________ करते हैं उनके लिए यह अत्यन्त कठिन और नीरस मार्ग है। नैतिक मार्ग को अधिकांश व्यक्ति भयवश ही अपनाते हैं और फिर वे उलाहना करते हैं कि यह अव्यावहारिक और अतिमानवीय है । वे यह भूल जाते हैं कि नीति के अनुसार व्यक्तियों का प्राचरण उनके सामान्य और स्वतन्त्र जीवन का प्रतिरूप है। नैतिक व्यक्तियों के कर्म उनके चरित्र एवं जीवन-सिद्धान्त के सूचक होते हैं। वे उन्हीं कर्मों को करते हैं जिन्हें व योग्य और मूल्यवान समझते हैं, जिन पर कि उनके जीवन की सार्थकता निर्भर है। - नैतिक विचार, मान्यताएँ और निर्णय प्रारम्भ में विशिष्ट जाति, राष्ट्र, समुदाय तथा परिस्थिति-विशेष तक सीमित थे। देश और काल अथवा भौगोलिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति के अनुरूप नैतिक नियमों में भिन्नताः । थी। वे अपने ही उत्पत्ति-स्थल और निवास-स्थान के संकुचित घेरे की चेतना को व्यक्त करते थे। वहीं के लिए उनकी प्रामाणिकता थी। धीरे-धीरे वे व्यापक और सार्वभौमिक होने लगे। उनकी सार्वभौमिकता के साथ उनका आन्तरिक रूप भी स्पष्ट हो गया। नैतिक निर्णय के रूप का रूपान्तर हो गया। इस प्रकार नैतिक नियम मूल्यपरक हो गये। वे इस पर प्रकाश डालने लगे कि कौनसे कर्म अथवा नियम ध्येय की प्राप्ति में सहायक हैं और कौन-से नहीं हैं। ध्येय की धारणा उन्हें सार्वभौमिक प्रामाणिकता देती है—विकास विकसित चेतना के व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र के लिए यह जानना आवश्यक है कि उनके जीवन का गढ़ ग्रान्तरिक सत्य एवं ध्येय क्या है। प्रचलनों और नियमों के जगत् से उन्हें उन्हीं नियमों को स्वीकार करना चाहिए जो कि ध्येय के लिए सहायक हैं। नियमों का अपना मूल्य अवश्य है। वे नैतिक बुद्धि के विकास में सहायक होते हैं। नैतिक जीवन का अान्तरिक तथा बाह्य-पक्ष अथवा बुद्धि तथा नियमों का द्वन्द्व तथा उनकी आलोचना-प्रत्यालोचना एक-दूसरे के बिकास में सहायक होते हैं । अन्तर्बोध का आन्तरिक नियम अपने-आपमें संकुचित होता है और प्रचलनों का बाह्य नियम जर्जर तथा रूढिप्रिय होता है। नियमों को स्वीकार करने के पहले उनका मूल्यांकन करना अनिवार्य है। जब व्यक्तिः विरोधी नीतिवाक्यों और विरोधी परिस्थितियों में पड़ जाता है एवं जब आचरण के औचित्य अनौचित्य का प्रश्न उठता है तो उसे अपने ध्येय को सामने रखकर उसका निराकरण करना चाहिए। नियमों के विरोधों को ध्येय की धारणा ही एकता के सूत्र में बाँध सकती है । आर्त की रक्षा करना और सत्य बोलने में विरोध नहीं है । आर्त की रक्षा करने के लिए सत्य न बोलने में पाप . नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) / ११३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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