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________________ नहीं है । जीवन का ध्येय मानव-कल्याण है, उसे ही सम्मुख रखकर कर्म करने चाहिए । वस्तुतः अपनी प्रारम्भिक अविकसित मनःस्थिति में मनुष्य को अनिवार्यतः: बाह्य नैतिक नियमों की श्रावश्यकता पड़ती है। किन्तु जब उसके भीतर सदसत् का बोध उदय हो जाता है तब वह उन प्रचलित बाह्य नियमों की परीक्षा कर तथा उन्हें अपने अन्तर्सत्य की कसौटी पर कसकर उनका वास्तविक मूल्य निर्धारित करता है और अपने लिए एक प्रान्तरिक नैतिक नियम को खोजने का प्रयत्न करता है जिसे प्राप्त कर लेने पर वह बाह्य नियमों को रूढ़ि तथा संस्था सम्बन्धी सीमाओं तथा जड़तानों से मुक्त होकर उस सार्वजनिक अन्तर्तत्य के नियम से परिचालित होना पसन्द करता है जो मनुष्यत्व के उपादानों से पूर्ण होने के कारण सर्वकल्याणकर होता है । ध्येय के स्वरूप को समझने के क्रम में मनुष्य व्यक्ति विशेष के कल्याण से विश्व के कल्याण की ओर उन्मुख हुआ । प्रेम का श्रान्तरिक सिद्धान्त, सार्वभौम विवेक, कर्तव्य कर्म, निष्काम कर्म, अहिंसा, वसुधैव कुटुम्बकम् की धारणाएँ विश्व कल्याण की धारणाएँ हैं । व्यक्ति नैतिक विश्व का सदस्य है । उसे उस नियम को अपनाना चाहिए जो मुख्यतः मानवीय है, मनुष्यत्व के बोध से प्लावित है। नैतिक नियम जीवन का वह सिद्धान्त है जो कि एक ही विश्व के सदस्य होने के कारण सब मनुष्यों की धरोहर सम्पत्ति है । वह एक सार्वभौम धर्म तथा विश्वव्यापी सिद्धान्त है । आचरण का नियम सार्वजनीन है । उसकी सार्वभौमिकता उसके वस्तुगत स्वरूप पर प्रकाश डालती है और उसका मानवीय पक्ष या गुण उसके आन्तरिक स्वरूप पर । वास्तव में, नैतिक जगत् में बाह्य और आन्तरिक का भेद नहीं होता। जैसा कि कहा जा चुका है केवल बाह्य नियम अनैतिक और मानव- गौरव विहीन हैं तथा केवल श्रान्तरिक संकुचित या सीमित एवं वैयक्तिक हैं । नैतिक जगत् में यह एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं प्रत्युत् एक-दूसरे को पूर्ण और स्वस्थ बनाते हैं । नैतिक दृष्टि से बाह्य नियम कुछ नहीं हैं बल्कि प्रान्तरिक नियमों के ही प्रतिबिम्ब हैं । प्रान्तरिक सत्य बहिर्मुखी होकर प्रवाहित होता है । नैतिक नियम सम्पूर्ण जीवन के सिद्धान्त हैं। नैतिक निर्णय द्वारा मानवता का सत्य विकास की ओर अग्रसर होता है और वह व्यक्तियों द्वारा अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है । ११४ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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