SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवास्तविक और अव्यावहारिक है। वह सार्वजनीन भी नहीं है। किन्तु नीत्से को इन सब बातों की परवाह नहीं है। वह एक विशिष्ट जाति की वद्धि के लिए पागल की भाँति चिल्लाता है। और इस जाति की दानव-प्रवृत्ति की महत्ता को समझाने के अभिप्राय से कहता है कि एक वासनापूर्ण स्त्री के स्वप्नपाश में बँधने से अच्छा एक बधिर के हाथ में पड़ना है। तर्कहीन असंस्कृत सिद्धान्त-नीत्से का सिद्धान्त तार्किक भी नहीं है। उसकी बुद्धि की अहंमन्यता उसके विश्वासों और धारणाओं को दृढ़तापूर्वक स्थापित कर देती है। बिना अपने सिद्धान्त के वास्तविक पक्ष को सोचे, बिना उचित तर्क दिये वह अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। वह अपने मत को स्वयं महत्ता देता है और अपने मित्रों को अपने आदर्श की कसौटी पर कसने का विफल प्रयास करता है। उसके सिद्धान्त के मूल में उसके जीवन का अकथनीय सूनापन, कुण्ठा तथा दारुण अनुभव है । वह अनुभव उसकी असम्भव महत्त्वाकांक्षा की देन है। नीत्से के विचार में स्थिरता नहीं है। वे एक दूसरे के विरोधी हैं। वह विकास में विश्वास करते हुए भी विकास की एक अन्तिम स्थिति-अतिमानवों के प्रादुर्भाव की स्थिति की कल्पना करता है। उसके विचार भ्रमात्मक और दुराकांक्षी हैं। वे उसके मानसिक और दार्शनिक पतन का कारण हैं । उसका कहना था कि वह नैतिक दानव नहीं है, उसका अतिमानव संस्कृति का साकार रूप है। क्या सचमुच नीत्से का दर्शन संस्कृति का दर्शन है ? नीत्से का दर्शन विषैले बिच्छ के डंक की भाँति है। बिच्छ को क्षमा कर सकते हैं किन्तु प्रात्मचेतन मनुष्य को नहीं। नीत्से के विचार सत्यानासी हैं। वे संस्कृति और सभ्यता का अभिशाप हैं। नीत्से ने शोभन, मानवोचित संस्कृति के बदले पाशविक विचारों का प्रतिपादन किया है। वह अपनी अहन्ता के उन्माद में कहता है कि जीवन का ध्येय सर्वकल्याणकारी नहीं है। क्या नीत्से का स्वार्थी मानव समाज में रह सकता है ? क्या समाज को रौंदकर वह अपनी उन्नति कर सकता है ? मनुष्य चेतन, आत्मप्रबुद्ध, संस्कृत प्राणी है । वह जानता है कि संस्कृति और सभ्यता की सार्थकता वसुधैव कुटुम्बकम् है । किन्तु इन सबके विरुद्ध नीत्से का कहना है कि स्वाभाविक शिष्टजन सत्ता राज्य (Natural aristocracy) की नैतिक संहिता के आवश्यक निर्माणात्मक अंग पौरुषीय गण, प्रभत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा और स्वार्थ हैं। नीत्से के दर्शन में नैतिकता का निराकरण मिलता है अथवा उसका 'समस्त मान्यताओं का पुनर्मूल्यीकरण' अन्य सब नैतिक मानदण्डों को असत्य फ्रेडरिक नीत्से | ३२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy