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________________ नैतिक शुभ की चरितार्थता ही परम शुभ की ओर ले जायेगी और परम शुभ की स्थिति शुभ और अशुभ से परे की स्थिति है | मूल्यवाद का स्थान — मूल्यवाद का सामान्य अध्ययन बतलाता है कि इसके प्रतिपादकों ने किसी नवीन सत्य को सम्मुख नहीं रखा। उन्होंने उस सिद्धान्त को जिसे कि सामान्य रूप से सभी नीतिज्ञों ने और विशेष रूप से पूर्णतावादियों ने स्वीकार किया, मूल्यवाद का बाना पहना दिया है । 'मूल्य' शब्द की नवीनता तथा सिद्धान्त के प्रतिपादन की शैली को देखकर क्षण-भर के लिए यह अवश्य प्रतीत होता है कि हमें उस सत्य का भास होने जा रहा है जिससे कि अन्य विचारक अनभिज्ञ हैं । पर, हम देखते हैं कि इन्होंने आत्म-साक्षात्कार के स्वरूप को समझने का प्रयास किया । आत्म-साक्षात्कार का प्रश्न परम साध्य, परम ध्येय एवं परम मूल्य का प्रश्न है । प्राचीन यूनानी विचारकों से लेकर विश्व के अर्वाचीन विचारक भी इसी गुत्थी में उलझे हुए हैं कि परम शुभ क्या है ? आत्म- पूर्णता के क्या अर्थ हैं ? मूल्यवाद के सिद्धान्त की विशिष्टता यह है कि इसने ध्येय की धारणा को व्यक्त करने के लिए अनायास ही एक ऐसे शब्द (मूल्य) का प्रयोग कर दिया है जिसने कि नीति के क्षेत्र में वस्तुवाद श्रौर आदर्शवाद के पारस्परिक विरोध की प्रबलता को क्षीण कर दिया है । मूल्यवादी विचारकों के लिए यह कहना कि वस्तुवादियों' ने मूल्य की पूर्ण रूप से वस्तु - 'वादी व्याख्या और श्रादर्शवादियों ने केवल आदर्शवादी व्याख्या की है, भ्रान्तिपूर्ण होगा; क्योंकि दोनों ने आवश्यकता प्रतीत होने पर एक-दूसरे से सहायता ली है । यही कारण है कि मूल्यवाद एक व्यापक 'वाद' के रूप में हमारे सम्मुख आता है । 1. G. E. Moore, Franz Brentano, Alexius von Meinong, Edmund Husserl, Necoli Hartmann, Hastings Rashdall, A. E. Ewing, John Laird आदि । 2. W. M. Urban, A. Campbell Garnett, W. R. Sorley, A. E. Taylor, Harold Osborne, G. H. Howison, A. C. Knudson, Edgar Sheffield Brightman आदि । २९० / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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