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को समग्र से अलग करके नहीं समझ सकते । समग्र के सम्बन्ध में ही निजत्व अर्थ रखता है । व्यक्ति अपने निजत्व को सामाजिक समग्रता से ही पाता है । यह कथन बतलाता है कि परम स्वार्थ आत्म - घातक है । अपने को बचाना खोना है । समाज से भिन्न व्यक्ति का अस्तित्व असम्भव है । वह शारीरिक आवश्यकताओं से लेकर मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं तक के लिए समाज पर निर्भर है । अतः अपने को खोना पाता है । सामाजिक शुभ द्वारा वैयक्तिक शुभ सम्भव है । व्यक्ति अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की तृप्ति समाज में करता है । वह समाज के सामान्य मानस का अंग है । उसका मानसिक विकास अनेक मानसों के सहयोग से होता है । वैयक्तिक शुभ और सामाजिक शुभ परस्पर निर्भर हैं । सामाजिक शुभ अपने मूल रूप में वैयक्तिक है क्योंकि वह व्यक्ति की गहनतम आवश्यकताओं के अनुरूप है । व्यक्ति अपनी नैतिक, बौद्धिक भावुक तथा शारीरिक आदि आवश्यकताओं की तृप्ति के लिए समाज पर निर्भर है । इसी भाँति स्वार्थ और परमार्थ के स्वतन्त्र अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता । व्यक्ति और समाज दोनों का युगपत् विकास होता है । दोनों एक-दूसरे के लिए अनिवार्य हैं ।
पूर्णतावाद का परिचय - सुखवाद और बुद्धिवाद का उत्पत्तिकाल ही पूर्णतावाद का उत्पत्तिकाल है । सुकरात की मृत्यु के पश्चात् ऍरिस्टिपस ने सुखवाद, एन्टिस्थीनीज़ ने बुद्धिवाद और प्लेटो ने पूर्णतावाद में सुकरात के मुख्य सिद्धान्त को देखा । प्लेटो तथा अन्य पूर्णतावादियों' के अनुसार नैतिक कर्म ग्रात्मा के वास्तविक स्वरूप के अनुरूप कर्म है । वही शुभ कर्म है जो आत्मा को परिपूर्णता प्रदान करता है । पूर्णता से क्या अभिप्राय है ? मनुष्य में अनेक सम्भावित शक्तियाँ हैं । उचित प्रयत्न से हम इन सम्भावित शक्तियों को वास्तविकता एवं पूर्णता प्रदान कर सकते हैं । यही पूर्णतावाद ( Perfectionism ) है | मनुष्य के स्वभाव की विभिन्न प्रवृत्तियों - कलात्मक, नैतिक, सामाजिक, धार्मिक श्रादि - का बुद्धि के निर्देशन में इस भाँति संगतिपूर्ण विकास करना चाहिए कि वे आत्म- पूर्णता की प्राप्ति में सहायक हो सकें । बुद्धि के निरीक्षण में इच्छात्रों और प्रवृत्तियों का समुचित विकास व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है । व्यक्तित्व के पूर्ण विकास की स्थिति ही आत्म
१. अरस्तु, फ़िश्टे, शैलिंग, हीगल, ग्रीन, ब्रेडले, मेकैजी, म्योरहेड, जेम्स सेथ, जे० एच० पेटन आदि ।
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पूर्णतावाद / २६९
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