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________________ नैतिक ज्ञान को आदर्शवादी तत्त्वज्ञान पर आधारित करते हुए कहा कि मनुष्य और समाज अथवा व्यक्ति और समष्टि अभिन्न हैं, क्योंकि दोनों एक ही शाश्वत चैतन्य की अभिव्यक्ति हैं । इसलिए जीवन का ध्येय न तो मात्र वैयक्तिक कल्याण है और न मात्र सामाजिक । वह सर्व कल्याणकारी है | दोनों का सम्बन्ध अनन्य – पूर्णतावादी व्यक्ति और समाज के अनन्य सम्बन्ध को मानते हुए व्यक्तियों की पारस्परिक निर्भरता को स्वीकार करते हैं । व्यक्ति समाज का अविभाज्य अंग है । समाज में रहकर ही वह अपनी पूर्णता प्राप्त कर सकता है । वह भोजन, वस्त्र, भाषा, शिक्षा एवं अपनी सम्पूर्ण आवश्यकताओं की तृप्ति समाज में रहकर ही कर सकता है । अतः उसे अपने निजत्व को समग्र में एवं समग्र को निजत्व में देखना चाहिए । यदि व्यक्ति और समाज अविच्छिन्न एकता के सूचक हैं तो क्या विकासवादियों की भाँति पूर्णतावादी भी, समाज और व्यक्ति के अनन्य सम्बन्ध को स्वीकार करते हुए, श्रवयविक समग्रता के रूपक को पूर्णतः स्वीकार करते हैं ? पूर्णतावादी इस रूपक की सीमाओं के प्रति सचेत हैं । समाज प्राध्यात्मिक एवं ग्रात्म-प्रबुद्ध प्राणियों की विभिन्न एकता है । प्रवयविक समग्रता की भाँति होने पर मानव जाति रूपी श्रावयविक समग्रता और शारीरिक जीव- रचना में भेद है । जीव रचना के अवयवों में जीवविधान और कर्मव्यापार की दृष्टि से भिन्नता है किन्तु मानव समाज के व्यक्तियों में जातीय समानता है, उनके कर्मव्यापार एवं कर्तव्य भले ही भिन्न हों; प्रत्येक व्यक्ति में अपना निजत्व और व्यक्तित्व है । वह जीवव-रचना के अवयवों की भाँति यान्त्रिक ( अचेतन) रूप से प्रावयविक समग्रता का काम नहीं करता । वह समाज के साथ अपने सम्बन्ध को समझबूझकर स्वेच्छा से उस कर्म को करता है जो कि उसके तथा समाज के लिए, अंग और अंगी दोनों के लिए, कल्याणप्रद है । स्वार्थ- परमार्थ का प्रश्न - स्वार्थ और परमार्थ में परम भेद देखना भ्रान्तिपूर्ण है । व्यक्ति और समाज का अनन्य सम्बन्ध इस नैतिक सत्य को अभिव्यक्ति देता है कि जीवन में न तो परम स्वार्थ ही उचित है और न परम परमार्थ । व्यक्ति नगण्य नहीं है, उसका अपना व्यक्तित्व है । प्राप्त करना उसका अधिकार है, किन्तु इस पूर्णता को वह समाज में ही प्राप्त कर सकता है । अतः वह केवल अपने ही बारे में नहीं सोचता । ' एक का स्वार्थ' एक ऐसा कथन है जो वास्तविकता से दूर है । व्यक्ति के स्वार्थ और पूर्णता का सम्बन्ध उससे है जिसका कि वह अविभाज्य अंग है । हम निजत्व व्यक्तित्व की पूर्णता को २६८ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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