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श्राशा हो । यदि मनोवैज्ञानिक सत्य को भूलकर इस मान्यता को मान लें तो यह कहना व्यर्थ होगा कि व्यक्ति को सुख की इच्छा करनी चाहिए । मनोवैज्ञानिक सुखवाद पर नैतिक सुखवाद आधारित नहीं किया जा सकता । यह व्यर्थ का शब्दजाल और पुनरुक्ति है। बेंथम के सिद्धान्त में आचरण का उचित और सूक्ष्म विश्लेषण नहीं मिलता है । मनोविज्ञान का अध्ययन तथा मनुष्य की इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों का विश्लेषण यह बताता है कि जिस मनोवैज्ञानिक सुखवाद को बेंथम स्वीकार करता है वह दोषयुक्त है । इस दोष से, जैसा कि हम आगे देखेंगे, मिल का सिद्धान्त भी आक्रान्त हो गया है। मनुष्य की सब प्रवृत्तियों के मूल में स्वार्थ देखना, परम स्वार्थवाद को मानना तथा सुख को ही इच्छाओं का विषय मानना मनोविज्ञान का विरोध करना है। बेंथम का कहना था कि मनुष्य को सुख चाहिए और यह महत्त्वहीन है कि सुख किस वस्तु से प्राप्त होता है ( कविता से अथवा तुच्छ खेल से ) । वस्तु से पृथक् सुख का मूल्यांकन किया जा सकता है । मनोवैज्ञानिक सुखवाद को बिना उचित विवेक के स्वीकार करने के कारण बेंथम यह नहीं समझ पाया है कि इच्छा सदैव वस्तु के लिए होती है । इच्छित वस्तु की प्राप्ति से सुख मिलता है । सुखवाद को वह निष्पक्षता या समानता के सिद्धान्त के साथ संयुक्त करता है और इस आवेश में वह भूल जाता है कि सुख प्रात्मगत और वैयक्तिक है । वह कहता है कि सुख का समान रूप से वितरण किया जा सकता है । इसके लिए वह 'नैतिक गणित' का श्राविष्कार करता है । किन्तु जिस आत्म-विश्वास से वह नैतिक गणित के द्वारा अपनी कठिनाई हल करता है वह वैसा ही है जैसा कि उस बच्चे का विश्वास जो सोचता है कि वह कागज़ की नाव से नदी पार कर सकता है।
थम का कहना था कि नैतिक गणित के द्वारा दो सुखों के जोड़ को समान अथवा असमान बताया जा सकता है और सुखों की परिमाणात्मक तुलना की जा सकती है । जनसाधारण सामान्य सुख को प्राप्त कर सके, यह उसकी उत्कट अभिलाषा थी । सम्भव है उस अभिलाषा को वास्तविकता देने की तीव्र इच्छा के कारण ही उसने बिना समझे बूझे कह दिया कि सब सुख समान हैं, उनमें गुणात्मक भेद नहीं हैं, उन्हें तोला जा सकता है, एवं समान रूप से उनका वितरण किया जा सकता है । वह यहाँ तक मान लेता है कि समाज व्यक्तियों का समुदायमात्र है और इस समुदाय में कानूनी तौर से प्रत्येक को समान सुख मिल सकता है । वह इस सत्य को भूल जाता है कि मानव समाज एक जीवन्त संगठन है, उसमें प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व होता है और उस व्यक्तित्व
१४८ / नीतिशास्त्र
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