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________________ इनके साथ ही समान्तर रूप से वह विचारधारा मिलती है (सिरेनैक्स और ऍपिक्यूरियन्स) जो कि प्रकृतिवाद की जन्मदात्री है। प्रकृतिवाद और सहजज्ञानवाद, दोनों के विवाद का केन्द्र प्रकृति (Nature) है । 'प्रकृति' शब्द एकार्थी नहीं है । नीतिज्ञों ने इसका प्रयोग अपने-अपने ढंग से किया है। ऐसा अनिश्चित और सन्दिग्ध प्रयोग कठिनाई उत्पन्न कर देता है। उदाहरणार्थ, कुछ ने उसे प्राकृतिक कहा है जो कि अलौकिक और दैवी प्रकाश की तुलना में अनुभवग्राह्य है; वह भी प्राकृतिक है जो अनिवार्य प्राकृतिक नियमों का परिणाम है; वह भी प्राकृतिक है जो विकास के क्रम में उत्पन्न हुआ है और वह भी प्राकृतिक है जो गणित के सत्यों की भाँति शाश्वत है तथा वह नैतिक नियम और बाध्यताएँ भी प्राकृतिक हैं जो कि मनुष्य के ज्ञात स्वरूप का परिणाम हैं। ऐसे नियम अकृत्रिम, शाश्वत एवं प्राकृतिक हैं। वे मनुष्य द्वारा निर्मित नहीं हैं। प्रकृतिवाद ने नैतिक नियमों और नैतिक निर्णयों को अनिवार्य प्राकृतिक नियमों से उत्पन्न माना है। ऐसे नियम अपनेआपमें न तो नैतिक ही हैं और न अनैतिक ही। सहजज्ञानवादियों ने इन्हें शाश्वत माना है । सद्गुणों के कृत्रिम अथवा अकृत्रिम रूप को समझाने के लिए सहजज्ञानवादियों तथा प्रकृतिवादियों के पूर्वजों ने यह प्रश्न उठाया : क्या न्याय स्वाभाविक है अथवा रीति-रिवाज के कारण है ? ऍपिक्यूरियन्स और सिरेनक्स ने न्याय को रीति-रिवाज पर आधारित कहा और प्लेटो तथा उसके अनुयायियों ने शाश्वत एवं प्राकृतिक । ___सहजज्ञानवाद और प्रकृतिवाद ने सदैव एक-दूसरे का विरोध किया है। प्रकृतिवाद के अनुसार नैतिक विचार की उत्पत्ति हुई है। यह उद्भूत विचार हैं, नैसर्गिक नहीं। वह उन इच्छाओं और भावनाओं का परिणाम है जो निर्नैतिक हैं। उदाहरणार्थ, हॉब्स का कहना है कि आत्म-स्वार्थ और आत्मसंरक्षण की इच्छा ने नैतिक मान्यताओं को जन्म दिया और ह्य म का कहना है कि सुख, आत्म-स्वार्थ, रीति-रिवाज तथा सहानुभूति का ही मिश्रित परिणाम नैतिक विश्वास है । अथवा नैतिकता अनेक प्रकार की भावनाओं का परिणाम है। स्पेंसर के अनुसार नैतिक विचार और नैतिक कर्तव्य की धारणा वंशानुगत सहजप्रवृत्तियों का परिणाम है। नैतिक विचारों के पक्ष में केवल इतना ही कह सकते हैं कि जिन जातियों में यह गुण नहीं है वह जीवित नहीं रह पातीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकृतिवाद के अनुसार नैतिक विचार उद्भूत हैं । ये उन नि तिक भावनाप्रों, इच्छानों और सहजप्रवृत्तियों के परिणाम हैं जो सहजज्ञानवाद / २३,७. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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