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________________ 'साक्षात्कार करना' है, से हुई है । नीतिशास्त्र के क्षेत्र में सहजज्ञानवाद का प्रयोग उन सिद्धान्तों के लिए किया जाता है जो यह मानते हैं कि मनुष्य को उचित और अनुचित के स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान है अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हो सकता है । कर्मों को उन्हीं के प्राभ्यन्तरिक गुणों के कारण शुभ या अशुभ कहते हैं, न कि उनके ध्येय या परिणाम के कारण । कर्म इसलिए शुभ नहीं हैं कि उनकी सामाजिक उपयोगिता है अथवा वे सुखद हैं । कर्मों का शुभ-अशुभ होना न तो कर्ता पर निर्भर है और न दर्शकों एवं निर्णायकों पर, बल्कि उन्हीं के प्राभ्यन्तरिक गुणों पर । इस तथ्य को समझाने के लिए कला और साहित्य का उदाहरण ले सकते हैं । किसी कविता को श्रेष्ठ इसलिए नहीं कह सकते कि वह किसी व्यक्ति विशेष को पढ़ने में रुचिकर प्रतीत हुई, उसका रचयिता उसे अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति मानता है अथवा रचयिता विश्व-विख्यात कवि है; वस्तुगत मानदण्ड के आधार पर ही कविता अच्छी या बुरी है । सहजज्ञानवाद यह मानता है कि कर्मों के अभ्यन्तरिक रूप को परखने तथा उनके औचित्यअनौचित्य का तात्कालिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य के पास नैतिक शक्ति अथवा अन्तर्बोध है। नैतिक शक्ति आन्तरिक शक्ति है । कर्मों की अच्छाई और बुराई परखने के लिए मनुष्य बाह्य नियमों की सहायता नहीं लेता है । नैतिक शक्ति उसे कर्मों का तात्कालिक ज्ञान देती है । इस शक्ति के स्वरूप को सहजज्ञानवादियों ने विभिन्न शब्दों के प्रयोग द्वारा समझाया है : नैतिक बोध, अनिर्वचनीय शक्ति, नैतिक इन्द्रिय, अलौकिक शक्ति, बोधगम्य शक्ति, व्यावहारिक शक्ति प्रादि । ये विभिन्न शब्द यह बतलाते हैं कि सहजज्ञानवाद को माननेवाले सब विचारक एकमत होकर यह स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में प्रत्यक्ष और सहजज्ञान प्राप्त करने की शक्ति है । इस अर्थ में सहजज्ञानवाद वह सिद्धान्त है जो यह कहता है कि ग्राचरण पर नैतिक गुणज्ञ (moral connoisseur ) का निर्णय ही मान्य निर्णय है । किन्तु जहाँ तक नैतिक शक्ति के स्वरूप का प्रश्न है, उनमें पारस्परिक मतभेद है । 1 प्रकृतिवाद तथा सहजज्ञानवाद का ऐतिहासिक विवाद – सोफिस्ट्स के पश्चात् हमें नैतिकता के मानदण्ड के बारे में दो स्पष्ट वर्ग मिलते हैं । एक ओर सुकरात, सिनिक्स, प्लेटो, अरस्तू, स्टोइक्स हैं । उन लोगों के अनुसार न्याय, - संयम, कर्तव्य आदि सद्गुणों का अस्तित्व प्राकृतिक एवं शाश्वत है । ये मनुष्य द्वारा निर्मित और निर्धारित नहीं हैं । ये श्राभ्यन्तरिक तथा वस्तुगत रूप से शुभ हैं। इन लोगों को, वास्तव में, सहजज्ञानवादियों का पूर्वज कह सकते हैं । २३६ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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