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परिणाम के आधार पर नहीं कर सकते । अतः नैतिक दृष्टि से कर्म इस तथ्य से स्वतन्त्र है कि वह अपने परिणाम द्वारा सामान्य सुख के लिए उपयोगी है अथवा नहीं । किन्तु जब बटलर पड़ोसी के प्रति स्नेह की धारणा को समझाने लगता है तब वह अपने पादरी के व्यक्तित्व के अनुरूप उपयोगितावाद को अपनाने लगता है । ईश्वर के स्वभाव सम्बन्धी धारणा को वह उपयोगितावादी दृष्टिकोण से समझाता है । विश्व के सम्पूर्ण परिमाण के सुख को अधिकतम करना भगवान् का परम ध्येय है । पर साथ ही अन्तर्बोध को परम प्राधान्य देते हुए वह कहता है कि हमें अन्तर्बोध के अनुसार कर्म करना चाहिए चाहे
सामान्य सुख की वृद्धि करे या न करे । बटलर के ऐसे असंगत प्रसंग उलझन में डाल देते हैं और सदाचार के मार्ग को द्विविधायुक्त कर देते हैं ।
अन्तर्बोध के प्रदेश की प्रामाणिकता - बटलर के नैतिक दर्शन को नीतिशास्त्र पर एक पूर्ण निबन्ध के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है । उसकी समन्वयात्मक दृष्टि ने असंगतियों और विरोधों का समावेश कर लिया है । विरोधपूर्ण कथन मार्ग को सुनिर्देशित नहीं कर सकते हैं । बटलर ने कई कठिनाइयों को नहीं उठाया है । उचित कर्म का सार्वभौम मानदण्ड क्या है ? जब अन्तर्बोध भिन्न परिस्थितियों में भिन्न प्रादेश देता है तब हम किस आदेश को मान्य मानें ? भिन्न व्यक्तियों के अन्तर्बोध भिन्न आदेश देते हैं । इस भिन्नता को दूर करने एवं संगति की स्थापना के लिए क्या अन्तर्बोध के मानदण्ड के अतिरिक्त किसी अन्य मानदण्ड की सहायता लेनी होगी ? इसका क्या प्रमाण है कि किसी व्यक्ति विशेष का प्रन्तर्बोध उचित है ? हम कृत्रिम और अकृत्रिम अन्तर्बोध के भेद को कैसे जान सकते हैं ? बटलर का सिद्धान्त अपूर्ण होने पर भी किसी भी अनुभवात्मक तथ्य से सम्बन्धित नैतिक सिद्धान्त के लिए प्रस्तावना का कार्य कर सकता है क्योंकि वह एक मनोवैज्ञानिक नीतिज्ञ का सिद्धान्त है ।
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सहजज्ञानवाद ( परिशेष ) / २६५
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