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कर्म वह कर्म है जिसके साध्य और साधन दोनों पवित्र हैं। शुभ साध्य की दुहाई देकर अशुभ साधन को न्यायोचित नहीं कह सकते । अशुभ साधन का प्रयाग करनेवाला निर्दोष नहीं है। अतः नैतिक निर्णय का विषय वह प्रेरणा है जो परिणाम और साधन से सर्वथा मुक्त नहीं है। . ___इसी प्रकार सुखवादियों का यह कहना भ्रान्तिपूर्ण है कि नैतिकता का प्रेरणा से कोई सम्बन्ध नहीं है। वे इस तथ्य को तो स्वीकार करते हैं कि उद्देश्य के अन्तर्गत प्रेरणा और परिणाम दोनों पाते हैं; किन्तु जहाँ तक प्रेरणा के स्वरूप का प्रश्न है वे उसे भावनामात्र मानते हैं और इसी अर्थ में इसे नैतिक गुणहीन कहते हैं। उनके अनुसार परिणाम अथवा अधिक परिमाणवाला परिणाम ही कर्म के औचित्य को निर्धारित करता है। निर्णीत कर्म का विश्लेषण यह सिद्ध करता है कि निर्णीत कर्म की प्रेरक भावना नहीं हो सकती। इसका स्रोत वह प्रेरणा है जिसकी प्राप्ति के लिए प्रात्मा प्रयास करती है अथवा संकल्प-शक्ति बाह्य रूप धारण करती है। नैतिक निर्णय कर्म पर नहीं दिया जाता, कर्ता पर दिया जाता है। कर्म का प्रौचित्य-अनौचित्य कर्ता के चरित्र को प्रतिबिम्बित करता है। बिना कर्ता के कर्म पर नैतिक निर्णय देना उतना ही अर्थशून्य है जितना कि प्राकृतिक घटना पर। कर्ता के चरित्र की सूचक प्रेरणा है । प्रेरणा के द्वारा ही व्यक्ति के चरित्र को समझ सकते हैं। इस अर्थ में प्रेरणा भावनामात्र नहीं है। वह आत्म-चेतन-व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाधित करनेवाली शक्ति है। कर्ता के चरित्र के अनुरूप प्रेरणा उसे किसी विशिष्ट परिस्थिति, समय और काल में एक विशिष्ट रूप से प्रेरित नहीं करती है। अत: प्रेरणा कर्ता के कर्म करते समय उसके मानसिक स्तर एवं चरित्र की सूचक है। यह आन्तरिक है। बाह्य परिस्थितियाँ व्यक्ति को प्रेरित नहीं करतीं। वे उद्दीपकमात्र होती हैं। यही कारण है कि दो भिन्न लोगों को एक विशिष्ट परिस्थिति दो भिन्न प्रकार से प्रभावित करती है। अपने आन्तरिक चरित्र के अनुरूप ही समान परिस्थिति में रहते हुए भी एक साधु हो जाता है और दूसरा चोर । अतः नैतिक निर्णय देते समय प्रेरणा को समझना अनिवार्य है, क्योंकि यह व्यक्ति के चरित्र को व्यक्त करती है। यह भी सत्य है कि जब व्यक्ति प्रेरणा के अनुसार कर्म करता है तो उसे परिणाम का पूर्वबोध होता है। प्रेरणा अपने व्यापक अर्थ में अनुमानित और इच्छित परम-परिणाम है। कर्म के उचिन मूल्य को आँकने के लिए परम-परिणाम या प्रेरणा को समझना अनिवार्य है। कोई कृपण, भिखारी के बार-बार माँगने से, झुंझलाकर उसकी
, मनोवैज्ञानिक आधार तथा नैतिक निर्णय | ७३
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