________________
प्रेरणा के सम्मुख बच्चों की भलाई है, न कि उसे दण्डित करना । उसका सम्बन्ध साध्य से है। उद्देश्य का साध्य और साधन दोनों से है। किसी भी कर्म को सोद्देश्य कहने का अर्थ यही होता है कि उस कर्म के बारे में कर्ता को पूर्ण ज्ञान है । वह जानता है कि उसे किन साधनों को अपनाना होगा और उस कर्म के सम्भाव्य परिणाम क्या होंगे। सम्पूर्ण परिस्थिति को समझकर और स्वीकार करके ही वह कर्म करता है । परिणामों के बारे में वह उत्तरदायी है। फिर भी यह सम्भव हो सकता है कि कभी अकस्मात् ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाय कि उसकी कल्पना उसने स्वप्न में भी न की हो। ऐसी परिस्थिति के लिए कर्ता को प्रत्यक्ष रूप से दोषी नहीं ठहरा सकते । इतना अवश्य कह सकते हैं कि उसने दूरदर्शिता से काम नहीं लिया । अतः उद्देश्य के सम्मुख केवल ध्येय. ही नहीं है किन्तु उस ध्येय की प्राप्ति के लिए आवश्यक साधन भी है। यह प्रेरणा से इस अर्थ में व्यापक है कि इसमें प्रेरक और निवारक अथवा प्रवर्तक और निवर्तक दोनों ही सम्मिलित हैं। - प्रेरणा और परिणाम के विवाद का निष्कर्ष-सहजज्ञानवादियों का यह कहना है कि कर्म का औचित्य-प्रनौचित्य प्रेरणा पर निर्भर है। निर्णीत कर्म में प्रेरणा अथवा कर्म के स्रोत की पवित्रता अनिवार्य है। नैतिकता का परिणाम से कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु निर्णीत कर्म में प्रेरणा और परिणाम में परम भेद नहीं कर सकते हैं। प्रेरणा वह अभीप्सित परिणाम है जिसके लिए कर्म किया जाता है । कर्ता ध्येय के साथ ही उसकी प्राप्ति के साधनों के प्रति भी जागरूक है । प्रात्म-प्रबुद्ध प्राणी यह भली-भाँति जानता है कि इच्छित ध्येय की प्राप्ति के लिए उसे किन उपायों को अपनाना होगा और उनका क्या परिणाम होगा । उस तथ्य को सम्मुख रखते हुए गांधीजी ने अहिंसा को साध्य और साधन दोनों माना है। साध्य की पवित्रता के साथ ही साधन की पवित्रता को भी आवश्यक बताया है। प्रेरणा में परिणाम पूर्वकल्पित होता है। निर्णीत कर्म में नैतिक निर्णय देते समय परिणाम की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं । बुरे साधनों का उपयोग करने के लिए और पूर्वज्ञात बुरे परिणामों के लिए कर्ता दोषी है। आत्म-प्रबुद्ध प्राणी अपनी प्रेरणा को वास्तविक रूप देते समय इनके बारे में सचेत है। जब कोई व्यक्ति गरीबों की भलाई की प्रेरणा से अमीरों के घर में डाका डालता है तो वह यह भली-भाँति जानता है कि अपनी प्रेरणा को वह मूर्त रूप अमीरों के रक्त द्वारा दे रहा है। नैतिक दृष्टि से केवल प्रेरणा की पवित्रता सम्मुख रखकर कर्म की पवित्रता सिद्ध नहीं की जा सकती। नैतिक
७२ / नीतिशास्त्र
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org