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________________ पाप, व्यभिचार आदि कुछ स्थितियों में शुभ हैं । सुख चाहे किसी प्रकार का हो, शुभ है । केवल इतना आवश्यक है कि वह साम्प्रतिक ( तत्क्षण) और अनुभवगम्य हो, वही प्राचरण शुभ है जो कि सुखप्रद है अथवा सुख के लिए उपयोगी है । वही कर्म बौद्धिक और विवेकसम्मत है जो कि सुख के लिए साधनमात्र है । सिद्धान्त में गोपन विरोध - ऍरिस्टिपस यह भी कहता है कि विवेकी व्यक्ति आत्म-संयम द्वारा अत्यधिक सुख का भोग कर सकता है । सुख की प्राप्ति के लिए विवेक से काम लेना आवश्यक है । वह अपनी स्थूल सुखवादी धारणा का संशोधन-सा करता हुआ कहता है कि मनुष्य को अपनी प्रान्तरिक स्वतन्त्रता कभी नहीं खोनी चाहिए। उसे सुख पर अधिकार करना चाहिए न कि सुख को उस पर । सुखभोग के बीच अपनी बौद्धिक दृढ़ता कभी नहीं खोनी चाहिए। एक ओर तो वह मनुष्य को चिन्तनशून्य जीव मानते हुए कहता हैं कि जीवन का ध्येय इन्द्रियसुख है और दूसरी भोर सुखी जीवन के लिए बुद्धि आवश्यक मानता है । संस्कृत सुखवाद : ऍपिक्यूरियनिज्म - सिरेनैक्स पन्थ को ऍपिक्यूरस ( Epicurus ) ' ने विकसित और गौरवान्वित बनाया । ऍपिक्यूरस का सिद्धान्त उसके नाम से प्रचलित हुआ। वह ऍपिक्यूरियनिज़्म ( Epicureanism) कहलाया । ऍपिक्यूरस ने अपने सिद्धान्त में स्थूल सुखवाद को डिमोक्रिटस के अणुवाद तथा आत्मानन्द की भावना से संयुक्त किया । उसका विश्वास था कि मानव कल्याण को वैज्ञानिक रूप से समझना ही दर्शन है । ऍपिक्यूरस ने अपने सिद्धान्त में संवेदनात्मक मनोविज्ञान को स्वीकार किया और कहा कि संवेदना ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत है । अतीत के अनुभव, स्पष्ट स्मृति और प्रत्यक्ष अनुभव ही सत्य के ज्ञान को देते हैं | सिरेनैक्स के सुखवाद को उसने सुकरात की विवेकबुद्धि और डिमोटिस के बौद्धिक सुख के ढाँचे में ढालने का प्रयास किया । वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सुख केवल भावनात्मक नहीं होता, बौद्धिक और सामाजिक भी होता है । ध्येय : सुख: यही शुभ प्राचरण का मापदण्ड – सामान्य निरीक्षण यह बताता है कि सब जीव जन्म के समय से ही सुख की खोज करते हैं और दुःख से बचने का प्रयत्न करते हैं । सुख मनुष्य का प्रथम और स्वाभाविक ध्येय है । १. जन्म ३४१ ई० पू० - मृत्यु २७० ई० पू० । Jain Education International For Personal & Private Use Only सुखवाद / १२५ www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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