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ओर तो यह स्वीकार किया कि नैतिक विभक्तियाँ शाश्वत हैं और दूसरी ओर यह कहा कि (विशेषकर शैफ्ट्सबरी ने) आत्म-स्वार्थ द्वारा किये हुए कर्म और सद्गुण द्वारा किये हुए कर्म में संगति है। उनका कहना है कि वैयक्तिक शुभ और सामाजिक शुभ एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं क्योंकि समाज, एक आवयविक समग्रता (organic whole) है।
बुद्धिवादी सहजज्ञानवादियों से भेद-बुद्धिवादी सहजज्ञानवादी सामाजिक आचरण या कर्तव्य के लिए कोई ठोस मनोवैज्ञानिक आधार नहीं दे पाये। उन्होंने सामाजिक आचरण को केवल अमूर्त बुद्धि के सिद्धान्त द्वारा समझाया। ऐसी स्थिति में जब बुद्धि और स्वाभाविक आत्म-प्रेम में विरोध उठता है तो व्यक्ति कठिनाई में पड़ जाता है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए ही क्लार्क ने सार्वभौम परोपकारिता को बुद्धिसम्मत कहा और कम्बरलण्ड ने उन प्रवृत्तियों को स्वीकार किया जो मनुष्य को सजातीयों की सेवा करने के लिए प्रेरित करती हैं। सौन्दर्यवादियों ने नैतिक बोध को मनुष्य की सामाजिक प्रकृति की देन कहकर स्वाभाविक भावनाओं द्वारा व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बाँध दिया । शैफ्टसबरी से पूर्व किसी भी नीतिज्ञ ने इस तथ्य को पूर्ण महत्त्व देते हुए नहीं कहा कि सामाजिक आचरण के मूल में रागात्मक आवेग हैं। शैफ्ट सबरी ने अनुभव का विश्लेषण करते हुए यह समझाया कि मनुष्य की स्वार्थ और निःस्वार्थ की प्रवृत्तियों में संगति है ।
नैतिक बोधवाद की आलोचना नैतिक बोध का हठपूर्वक समर्थन-नैतिक बोधवादियों ने अपने सिद्धान्त द्वारा विशेषकर इस पर बल दिया कि हमें नैतिक बोध के सिद्धान्त पर चिन्तनमनन करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह स्वभावतः प्रत्येक संस्कृत रुचि में समाहित है । अत: यह वह सिद्धान्त है जो केवल नैतिक बोध के अस्तित्व को समझाता है और उसकी प्रामाणिकता को सिद्ध करने का प्रयास नहीं करता। ऐसा सिद्धान्त हमारी जिज्ञासा को पर्याप्त सन्तुष्ट नहीं करता।
महत्त्वपूर्ण देन-नैतिक बोधवादियों को हम बुद्धिवादी सहजज्ञानवादियों की प्रतिक्रिया के रूप में समझ सकते हैं। यद्यपि वे बुद्धिवादियों के साथ स्वीकार करते हैं कि हॉब्सवाद विपज्जनकवाद है, तथापि उन्होंने उनकी अमूर्त बौद्धिक धारणा की आलोचना की। अतः नैतिक बोधवाद अमूर्त बुद्धिवाद और परमस्वार्थवाद का मध्यवर्ती दृष्टिकोण है। उपर्युक्त दुर्बलताओं के होते हुए
२५२ / नीतिशास्त्र
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