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________________ - कर्म जीवन-परिमाण के अधिक-से-अधिक संरक्षण में सहायक होते हैं और जो अधिक-से-अधिक परिमाण में अनुकूल या आनन्दकर भावनाओं को देते हैं उनका आपस में सामंजस्य है। . स्वार्थ और परमार्थ-मिल ने वैयक्तिक और सामाजिक रुचियों की एकता को सिद्ध करने का प्रयास किया किन्तु उसका प्रयास स्वप्न बनकर रह गया। स्पेंसर ने यह समझाने की चेष्टा की कि प्राकृतिक नियमों तथा वैश्व विकास द्वारा उस पूर्णता की स्थिति की क्रमशः स्थापना हो जायेगी जिसमें कि रुचियों की एकता अपने-आप प्राप्त हो सकेगी। यह अवश्य है कि इस दूरस्थ आदर्श को प्राप्त करने के लिए अविराम उद्यम करने की आवश्यकता है। इसे मानवता को अपना ध्येय बनाना होगा। वैसे, चाहे व्यक्ति चाहें अथवा न.चाहें, चाहे वे प्रयास करें या न करें, ऐसे श्रेष्ठ एवं शुभ समाज की स्थापना प्राकृतिक नियम और क्रमविकास का अनिवार्य परिणाम है । ऐसे पूर्ण विकसित समाज.में स्वार्थपरमार्थ का विरोध,मिट जायेगा.। नैतिक कर्तव्य करने में जो बाध्यता अनुभव होती है वह नहीं रहेगी। स्वार्थ और परमार्थ का विरोध परम और चिरस्थायी नहीं है। जहां तक अपूर्ण तथा अर्ध-विकसित समाज का प्रश्न है, स्वार्थ और परमार्थ दोनों का ही मूल्य है । जब हम विकसित होते हुए मानव-जीवन का अध्ययन करते हैं. तब मालूम पड़ता है. कि प्रात्मत्याग आत्मसंरक्षण के समान ही मौलिक है । सर्वत्र स्वार्थ के साथ परमार्थ का विकास हुआ है। जीवन के अभ्युदय के समय से स्वार्थ और परमार्थ. एक-दूसरे पर निर्भर रहे हैं.। स्वार्थ और परमार्थ को यदि एक-दूसरे से अलग करके देखें तो मालूम होगा कि स्वार्थ प्रकृति का प्रथम नियम है। प्रात्मसंरक्षण प्रथम कर्तव्य है और, प्रात्मप्रेम सर्वश्रेष्ठ गुण है। यदि आत्मसंरक्षण की प्रवृत्ति नहीं होती तो परमार्थ अर्थशून्य हो जाता । बिना आत्मसंरक्षण की प्रवृत्ति के कोई भी नहीं बचता । नैतिक और जैव दृष्टि से स्वार्थ परमार्थ के पहले है, क्योंकि व्यक्ति ही सुख का परम आधार है। जहाँ तक उसकी विशिष्ट योग्यताओं और शक्तियों के प्रयोग का प्रश्न है वे केवल व्यक्ति के सुख का ही उत्पादन नहीं करतीं बल्कि उसके चारों ओर के वातावरण का भी निर्माण करती हैं । सामाजिक परिस्थितियों द्वारा मान्य सीमाओं के अन्दर यदि व्यक्ति अपने सुख को खोजता है तो वह अधिकतम सामान्य संख की प्राप्ति की प्रथम आवश्यकता है। यदि माँ-बाप सन्तति को अपनी मूल्यवान् देन देना चाहते हैं (उन्हें दृढ़ अंगोंवाला, स्वास्थ्य और प्रसन्न प्रकृतिवाला बनाना चाहते हैं) तो उनके लिए अपने सुख और विकासवादी सुखवाद | १८५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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