________________
स्वास्थ्य की चिन्ता करना आवश्यक है। यह भी सत्य है कि अच्छे स्वास्थ्य और प्रसन्नचित्तवाला व्यक्ति उन लोगों पर भी सुखप्रद प्रभाव डालता है जिनके. सम्पर्क में वह आता है। स्वार्थ परमार्थ का विरोधी नहीं, सहायक है । परम परमार्थ हानिप्रद है । यदि परमार्थ द्वारा केवल दूसरों के स्वार्थ की वृद्धि हो तो ऐसे परम परमार्थी व्यक्ति की जीवन-शक्ति का ह्रास हो जायेगा। प्राकृतिक चयन में उसका विनाश अवश्यम्भावी है । जो प्रवृत्तियाँ प्रात्मसंरक्षण में सहायक नहीं होतीं वे विकास के क्रम में नष्ट हो जाती हैं । इस भांति स्वार्थ, परमार्थ, दोनों ही विशिष्ट सीमा तक जीवयोनियों के संरक्षण के लिए आवश्यक हैं। प्रतः शुद्ध स्वार्थ और शुद्ध परमार्थ दोनों ही नीतिविरुद्ध और मिथ्या हैं । अथवा 'प्रात्मा के लिए जियो' और 'दूसरों के लिए जियो', दोनों ही सूत्र-वाक्य हानिप्रद और अनुचित हैं। दोनों ही समान रूप से प्रात्मघातक हैं। व्यक्ति को अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख की खोज नहीं करनी चाहिए बल्कि इन दोनों के बीच पूर्ण समझौता स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। विकास, का क्रम बतलाता है कि ऐसा समझौता धीरे-धीरे स्थापित हो रहा है । प्राकृतिक विकास प्रांशिक रूप से सहानुभूति की वृद्धि और आंशिक रूप से सामाजिक परिस्थितियों के एकीकरण द्वारा अनवरत रूप से स्वार्थ और परमार्थ की मांगों में अधिकाधिक अनुकूलता ला रहा है। प्राकृतिक चयन और विश्व-विकास वैयक्तिक और सार्वभौम अभिरुचि में पूर्ण तादात्म्य स्थापित करेगा। इस भांति प्राकृतिक नीतिशास्त्र नैतिकता और कर्तव्य में सामंजस्य स्थापित करता है और कहता है कि यद्यपि मनुष्य को ऐसी नैतिक प्रादर्श स्थिति की स्थापना के लिए प्रयास करना चाहिए तथापि वह वास्तव में प्राकृतिक नियमों द्वारा ही स्थापित होगी। ऐसी विकसित स्थिति में व्यक्तियों को पात्मत्याग और परमार्थ का सहज प्रानन्द आकर्षित करेगा। प्रत्येक व्यक्ति आत्मसुख को भूलकर आत्मत्याग के लिए तत्पर हो जायेगा। उसके परमार्थी कर्म उतने ही स्वाभाविक और अनायास रूप से सम्पन्न होंगे जितने कि सहजप्रेरित, संवेदन-जनित कर्म होते हैं। प्रात्मत्याग में व्यक्ति को प्रसन्नता मिलेगी। दूसरों के सुख-दुःख के साथ वह. अपने सुख-दुःख को युक्त कर लेगा। परमार्थ द्वारा वह स्वार्थ-सुख का आनन्द उठायेगा।
नैतिक चेतना की उत्पत्ति-स्पेंसर नैतिक चेतना के मूलगत लक्षण को किसी एक या बहुभावनाओं द्वारा किन्हीं अन्य भावनाओं के नियन्त्रण में देखता है। विकसित और परिवर्तित होता हुआ पाचरण यह बतलाता है कि जीवन के उत्तम
१८६ / नीतिशास्त्र
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org