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संरक्षण के लिए प्रादिम, सरल और प्रस्तुत (presentative) करनेवाली भावनाओं का, बाद में, विकसित जटिल (संयुक्त) प्रतिनिधि (representative) भावनाओं द्वारा नियन्त्रण आवश्यक है । स्पेंसर यह मानता है कि चेतना के परमतत्त्व भावनाएँ और संवेदनाएं हैं। भावनाएं या तो वर्तमान से अथवा तात्कालिक संवेदनाओं से सम्बन्धित हो सकती हैं, या वे आदर्श (प्रतिनिधि) भावनाएं हो सकती हैं जिनका कि भविष्य से सम्बन्ध है, जैसे-आशा, भयं प्रादि । विकास-क्रम में तात्कालिक सरल संवेदनाएँ (वर्तमान से सम्बन्धित भावनाएँ) जटिल विचारों या भविष्य से सम्बन्धित प्रतिनिधि भावनाओं पर प्राधृत बन जाती हैं। ये विकसित जटिल भावनाएँ प्रधानता प्राप्त कर भविष्य के बारे में बोध देती हैं। विकास बताता है कि भविष्य (दूरस्थ शुभ) के बारे में सोचने की शक्ति जीवन के संरक्षण में सहायक होती है। इस प्रकार मनो-- वैज्ञानिक और जैव दृष्टिकोणों में परस्पर संगति मिलती है। ये जटिल और विकसित भावनाएं ही प्राचरण और उसके बीच सामंजस्य स्थापित करने में सहायक होती हैं। सरल भावनामों को जटिल भावनाओं द्वारा नियन्त्रित करने के लिए स्पेंसर तीन प्रकार के नियन्त्रणों की चर्चा करता है-राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक । ये नैतिक नियम के जन्म के लिए प्रारम्भिक भूमि प्रस्तुत करते हैं । इन नियन्त्रणों के ही भीतर नैतिक नियन्त्रण विकसित होता है और इन्हीं के द्वारा नैतिक कर्तव्य या बाध्यता के स्थायी भाव (sentiment) की उत्पत्ति होती है। राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक नियन्त्रणों से पैदा होने के कारण कर्तव्य की भावना में प्रादेश और बाध्यता के तत्त्व वर्तमान रहते हैं। किन्तु वे चिरस्थायी नहीं हैं। इसका कारण यह है कि व्यक्ति और समाज के बीच अपूर्ण सामंजस्य है। व्यक्ति और समाज के अधिकाधिक सामंजस्य के साथ तथा नैतिक चिन्तन की उन्नति के साथ नैतिक बाध्यता की भावना लुप्त हो जायेगी। उचित कर्म को व्यक्ति सरल प्रात्मसन्तोष की भावना के साथ करेंगे, नैतिक कर्म अभ्यासजन्य कर्म हो जायेंगे। जिस प्रकार अब संवेदनाएँ मनुष्य को परिचालित करती हैं उसी प्रकार नैतिक स्थायी भाव भी पर्याप्त और सहज रूप से मानव-कर्मों का संचालन करेंगे। वास्तव में बाध्यता और कर्तव्य की भावना के मूल में समाज और व्यक्ति की विरोधी रुचियां हैं। विकास बतलाता है कि यह विरोध परम नहीं है । विकास की अन्तिम स्थिति में इनके बीच पूर्ण समत्व स्थापित हो जायेगा। ऐसी पूर्ण समत्व की स्थिति में अपने-आप ही बाध्यता की भावना दूर हो जायेगी। नैतिक आचरण' प्राकृतिक प्राचरण है ।।
विकासवादी सुखवाद | १८७
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